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सामयिक दोहे – 001 – सुशील यादव

रंग अबीर गुलाल का, सीखो शिष्टाचार।
केवल उस पर डालना, जिस पर हो अधिकार॥


इस होली में तंज का, करना नहीं प्रयोग।
अपने-अपने हाल में, भड़के बैठे लोग॥


पल भर में ही ढह गये, महल आलीशान।
नफ़रत की थी होलिका, आतंकी तूफ़ान॥


उस घर में भी झाँक लो, जहाँ नहीं कुछ शेष।
मरहम पट्टी प्यार दो, छोड़ो नफ़रत द्वेष॥


जाने कैसे कर गया, मुझ पर कौन प्रयोग।
ग्रसित कॅरोना मैं हुई, व्यथित प्रेम संयोग॥


बदला बदला सा लगे, मायावी व्यवहार।
समतल नित मैदान में, व्यापक मचा प्रहार॥


दरवाज़े सब बन्द हैं, ईश सभी नाराज़।
तू भी रख तैयारियाँ, गिरने को है गाज॥


जब तक आकर जायगा, एक बड़ा तूफ़ान।
हिल जाएगी नींव ही, जहाँ खड़ा इंसान॥


व्यापक अर्थ नसीब का, जान सका ना कोय।
पछतावा आँसू बिना, कर्म अकारथ होय॥


खेल खेल में डूबना, कैसे होता यार।
लोग चार फाँसी चढ़े, जाने ये संसार॥


मन की सारी धारणा, हो जाती निर्मूल।
जड़ें करोना बेधती, बन संकट के शूल॥


कोई भी ज्ञाता नहीं, क्या उपाय अनुकूल।
अंध भक्ति विश्वास ही, दें प्रभाव प्रतिकूल।


बचना बारिश से तुझे, अपनी छतरी तान।
इस क्रोना बौछार में, केवल दूजे की मान॥


उड़ती पतंग ख़ूब ये, देते जाना ढील।
समझौतों की डोर कम, नभ में उड़ती चील॥


एक अकेला हो गया, भीड़ बीच इंसान।
खींचे प्रभु ने हाथ अब, निद्रा-मग्न भगवान


तेरा इलाज जानता, कितना बैद- हकीम।
बस इतनी है ख़ैरियत, मुश्किल के दिन तीन॥


मन भीतर का तर्क ये, है बारीक़ महीन
ख़ून वहीं पर खौलता, खोनी पड़े ज़मीन

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