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बदला... राजनीति में

राजनीति में "पार्टी" या "पारी" बदलने के साथ, "बदला" लेने की परंपरा शुरू से रही है। अगर इस बात से कोई इनकार करता है तो, उसकी खोपड़ी का मैं दुश्मन नम्बर 1 हूँ।

इस "बदला-परम्परा" को न मानने वाले, "धुरंधर-खिलाड़ी" की श्रेणी से बहिष्कृत कर दिये जाते हैं। उनका सारा करियर फिर झोल खाए पतंग माफ़िक किसी बिजली के तार में कटे-फटे रूप में उम्र-भर फड़फड़ाता रहता है।

यहाँ बदला लेने वाले का अंत:करण जिस किसी में उत्पन्न होता है उसमें "अर्जुन-कृष्ण संवाद" की प्रतिध्वनि उसे "मैदान" में आने के लिए उत्साहित करते रहती है; यथा-

"हे पार्थ, अपने आप प्राप्त हुए "बदला" लेने के अवसर, और स्वर्ग में बिना द्वारपाल के "खुले हुए द्वार", निश्चित रूप से भाग्यवान लोग पाते हैं।"

"यदि तू इस "धर्मयुद्ध" को नहीं करेगा तो स्वधर्म और अपनी कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त करेगा।"

"सब लोग तेरी भूत-काल की, अपकीर्ति का भी कथन करेंगे, तेरे अरण्य-काण्ड, किष्कन्धा काण्ड, बालकाण्ड, विदेश-काण्ड की खुल कर चर्चा करेंगे, और तुम्हें मालूम है ना... माननीय पुरुष के लिए, मानवीय आधार पर किसी भी प्रकार की "अपकीर्ति" मरण के सामान होती है।"

"हे पार्थ तू इससे बचने का प्रयोजन रच।"

"जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित रहा, वे तेरे टिकट ना मिलने के बाद चुपचाप बैठ जाने को, समझो रण से अघोषित भगोड़े की संज्ञा देंगे। तुझ जैसे महारथी द्वारा रणछोड़ प्रवृत्ति को, शायद हार के "भय" से, तुझे युद्ध से हटा हुआ मानेंगे।"

"पार्थ..! तुझे मालूम नहीं, राजनीति में "खदेड़े" हुए लोग बड़े धुरंधर, क़ाबिल और माहिर होते हैं। ये भाड़ के वो इकलौते चने होते हैं जिसमें भाड़ को फोड़ने की पूरी ताक़त होती है।

राजनीतिक वनवास दिए हुओं से पंगा लेने का मतलब है, "आ बैल मुझे मार", या सोये हुए शेर को पत्थर मार के जगाने जैसी बात होती है। वे किस "लाल" कपड़े को देख आग बबूला हो जाएँ कहा नहीं जा सकता।

हमारी विचारधारा के अनुसार, एक तो, पार्टी से इन्हें निकालना नहीं चाहिए, दुसरे, अगर अकेले मलाई चट करने के लिहाज़ से, ऐसों से किनारा करना, निहायत ज़रूरी क़िसम की, आवश्यकता है, तो "चाणक्य-नीति" के, गुटके-टाईप इतिहास का, घोर, घनघोर अध्ययन किया होना आपका बेहद ज़रूरी है।

ये अपनी में आ जाएँ तो, "युद्ध", मारकाट, हाहाकार के लिए लालायित होते दीखते हैं। पीछे हटते नहीं। अनानिमस-क्लेमेंट, पीत-पत्रकारिता, कूट दस्तावेज़ के ये रचेता-जनक हो जाते हैं। आपके कॉलर की बखिया उधेड़ने में ये लग जाएँ तो पुराने स्वेटर की तरह धागे खींच-खींच के कब नगा कर दें, आपको पता नहीं चलेगा।

अमूमन देखने में आया है, कि किसी ने, अपनी-पार्टी में बढ़ते प्रभाव के चलते, एक-दो टिकट ज़्यादा माँग लिए, पेट्रोल पम्प में अपने लोग क़ाबिज़ कराने अपने केंडीडेट डाल दिए, किसी टेंडर-ठेके में अपनी टाँग घुसेड़ दी, नजूल ज़मीन की सरकारी बन्दर-बाँट में अपनी चला दी, यही सब, लोकतंत्रीय व्यवस्था के व्यवधान, उभरते-क़िस्म के लोगों को, पार्टी से धकियाने के कारण बनते नज़र आये हैं।

इसमें कुछ अहम महत्वपूर्ण कारणों का उल्लेख लेख की मर्यादा क़ायम रखने की बदौलत, नहीं लिखे जा पा रहे हैं, जिसका खेद है, मसलन मिनिस्ट्री में मलाईदार जगह, संगठन में ठोस निर्णय की सर्वकालिक जानकारी यथा "बिना उनके पत्ता न हिले" वाली सोच..., उनके पुराने कारनामे में "पर्दा–प्रथा" जारी रहे की माँग... या हो सके तो उनके विरुद्ध सभी "न्यायालयीन" मुद्दों की सभी प्रकार के क्रियाकलापों की अंत्येष्ठी....!

पार्टी की कुछ मजबूरियाँ होती हैं, वरना कोई बेवफ़ा नहीं होता।

कुछ लोगों पर व्यवस्था की दृष्टि से उथले-इल्ज़ाम भी संगीन तरीक़े से लगाने की नौबत आ जाती है।

यानी कि आप, पार्टी के बड़े ओहदेदार के ख़िलाफ़, मीडिया में क्या खाकर चले गए? आसपास सुलभ शौचालय की उत्तम व्यवस्था है कि नहीं... देखना था न?

संगठन वाले अपना दफ़्तर सुबह आठ से लगाए फिरते हैं और आप हैं कि "मिनिस्ट्री इगो" में उधर का रुख नहीं करते?

आपका "इगो", उधर का "गो" करने नहीं देता?

आपकी सोच होती है, छोटन से क्या मुँह लगें....?

"बड़ों" के पास फटकार की डर से आपका जाना नहीं होता।

जो कहना है मीडिया वालों से कह डालो, ज़रूरत पड़े तो यू-टर्न फ़ार्मूला हाज़िर है। बात, बनी तो बनी, नहीं तो कद्दू बेचे अब्दुल गनी...!

चार-आठ दिन तो खलबली सी मची रहती है। भइय्या, अब तो ये गए - वाली... ।

पार्टी मामला ठंडा करने, लीपा-पोती के तात्कालिक प्रयास में प्रेस वालों का पंचायत- कांफ्रेस करवा देती है।

कारण गिनवाए जाते हैं, नमक-मिर्च, ईंट–रोड़ा-पत्थर जिसे जो मिला इनके माथे जड़ दिया जाता है। "और आगे नहीं-निभने" की घोषणा के साथ "दरकिनार" का ऐलान हो जाता है।

मीडिया वाले तुरंत, माइक का मुँह "बहिष्कृत" की तरफ मोड़ देते हैं "दीपक, बताओ उन को कैसा लग रहा है?"

दीपक का फायर-राउंड चालू हो जाता है, "आपने इतने साल पार्टी की सेवा की, आज आप निकाले गए.... कैसा लग रहा है..?"

"देखिये, हम बहुत ख़ुश हैं।" (पता नहीं ये क्यों ख़ुश हैं? शायद हर बात में थैंक यू कहने की आदत के चलते रिवाजी जुमला हो इनका)

"हमने पार्टी को अपने कन्धों पर पच्चीस-सालों तक खींचा, केबिनेट में रहे, बड़े–बड़े निर्णय में हमारी अहम् भूमिका रही... हमसे सब अच्छी तरह से घुले-मिले थे यही हमारा अपराध था...!"

"सर, इसमें अपराध जैसा कहाँ है...?"

"नहीं आप समझे नहीं...।

"सर्वे-सर्वा को हमसे ख़तरा दिख रहा था, अब ज़्यादा क्यों मुँह खुलवाते हो... अभी पूरा निर्णय कहाँ हुआ है? शो-काज़ आने दीजिये, फिर देखेंगे?"

"इसके अलावा कोई दूसरा पहलु भी है... आपकी नाराज़गी का...?"

"हाँ, है तो सही, मगर आप मीडिया वाले दिन-दिन भर हाई-लाईट के नाम पर वही-वही दिखाते हो... सुनिए! हमें अपनी बेइज़्ज़ती "कल के छोकरों" से बर्दाश्त नहीं होती... बस, इशारा समझिये... चलाइये अपना चैनल..."

वे चलते बने...

"सर, जाते–जाते ये तो बता जाइए आपका अगला क़दम क्या होगा...?"

"अगला क़दम...? आपको जल्दी पता चल जाएगा... हम एक किताब लिखने की सोच रहे हैं। बखिया सबकी उधेड़ा जायेगा... किसी को नहीं बख्शेंगे...। समझ लीजिये...!"

इन संवादों के "साइड-इफ़ेक्ट्स" में यूँ लगा, कुछ देर के लिए मुझे राजा विक्रम की छद्म भूमिका मिल गई है?

बेताल घुड़कते हुए कह रहा है, "बता राजन, एक पुराने निष्ठावान की निकासी यूँ संभव है?

क्या निष्ठावान, "निकासी के फ़ायदे", स्वरूप अपनी आगे लिखी जाने वाली पुस्तक के प्रचार में अभी से लग गया?

क्या पार्टी के बेलेंस में कोई झटका लगेगा?"

बेताल ने धमकी दी, "इन प्रश्नों के उत्तर, अगर जानते हुए भी न दिए गए तो सर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जायेंगे।"

सकुचाते हुए, मेरे भीतर का राजन उवाच;

"बेताल! यूँ तो आपने बहुत सारे सवाल उछाल दिए हैं, अपनी हैसियत मुताबिक़ मैं इनके उत्तर देने की कोशिश करता हूँ-

जहाँ तक पुराने निष्ठावान होने का प्रश्न है, सिर्फ़ निष्ठावान होने भर से, किसी को, अमर्यादित-बयान देने की छूट नहीं मिल जाती। उन्हें, नीति कहती है, मर्यादा में रहना चाहिए। अपनी बात संगठन के मंच पर कहना सर्वदा उचित होता है।

दूसरे प्रश्न के प्रत्युत्तर में कहना है कि निष्ठावान, अपनी "पोल-खोलू किताब" की बिक्री योजना का कोई मंसूबा नहीं पाले हुए है। उसे सालों से अच्छी मिनिस्ट्री मिलती आई है, अथाह कमाई के बाद रायल्टी वाला आइडिया निष्ठावान के केरेक्टर से बिल्कुल मेल नहीं खाता।

"रायल्टी" का मसला तो टटपुंजिया साहित्यिक-लेखको की बस रोज़ी-रोटी हल करती है। इनकी किताबें लिखी तो जाती हैं, प्रकाशित होती हैं मगर ख़रीदने वाला सरकारी विभाग की लाइब्रेरी के अलावा कोई, कहीं नहीं होता। पब्लिसिटी के अभाव में, प्रकाशित होने के पहले हफ़्ते ही किताब बिक्री का दम तोड़ देती हैं। यहाँ फ़िल्मों जैसा व्यापार नियम नहीं है, नंगे हो जाओ ट्रांजिस्टर से आगे-अंग ढको, पीछे जैसे कोई देखने वाला नहीं फिर टिकट खिड़की में सौ-दो सौ करोड़ पीट लो...।

निष्ठावान टाईप लोगों की पुस्तके "एक पंच लाइन के दम पर" बिक्री का आसमान छू लेती हैं।

बेताल! ये विडंबना मैं ख़ुद लेखक होने की वजह से भुक्तभोगी जीव बन के कह रहा हूँ।

रही बात पार्टी के बेलेंस की, वो तो सम्हाल ली जायेगी।

"एक" के गए से, बाज़ार नहीं मरेगा, ये आज तक न कभी हुआ है न होगा!

बाज़ार की रौनक़ आज–नहीं तो कल अपने पूरे शबाब, दम-ख़म से लौट आयेगी।"

बेताल ये सुनते ही पेड़ पे जा लटका।

इधर ये सुना है, इलेक्शन के ट्वंटी-ट्वंटी को रूबरू देखेने, स्विस बैंक वाले अपना एक "बाबू" बिठाने वाले हैं जो आये दिन के चुनावी पोल-खोल, ब्रेकिंग न्यूज़ से, मालदार आसामियों की लिस्ट बनाएगा, और अपने स्विस बैंक में खाता खुलवाने के लिए उनको शानदार ऑफ़र पेश करेगा।

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