अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मन में उठा सवाल


वक़्त की नज़ाकत मन में उठता सवाल समझा करो
मुझसे भी होता गाहे बगाहे कमाल समझा करो
 
है ख़्वाहिशों की हरी मिर्च और धनिया पास भी तेरे
मुझ को पीसने के लिए हरदम पताल समझा करो
 
सब ने मारे हैं अपनी पसंद के चाँटे मगर तुम 
जनता के वुजूद को चूमो गाल समझा करो
 
गोया रहना था तुझको जिगर के क़रीब बन के क़रार 
कुछ मायूस हुए दिल को तंग हाल समझा करो
 
कौन बग़ावत को बंजर में बोता है इन दिनों
तुम इस चाह को मेरी सनक चाहे ख़्याल समझा करो
 
एक मैंं सम्हाले बैठा तुम्हारे रिचार्ज का ख़र्चा
मानो तो मैंं हूँ गुल्लक या टकसाल समझा करो
 
याद हैं पिछले बरस की बनारसी साड़ियों का गिफ़्ट
फट गया मेरी हैसियत का अब रुमाल समझा करो
 
नासमझ हो नादान हो, किसी की निगहबानी में रहो
किस नीयत बदलापुर मुश्किल कब बंगाल समझा करो
 
धनवानों की बस्ती में रहने का क़ायदा सीखो
जी भर गरज-बरस के उनको कंगाल समझा करो

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अब क्या लिखूंँ
|

  अब क्या लिखूंँ क्या रोक दूँ, …

अमीर बनाम ग़रीब
|

  ए.सी. हवेली में बैठकर धनी धन गिनता…

अर्पण
|

  बाहर दर्पण है,  भीतर दर्शन है। …

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ग़ज़ल

सजल

नज़्म

कविता

गीत-नवगीत

दोहे

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता-मुक्तक

पुस्तक समीक्षा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. शिष्टाचार के बहाने