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रायता फैलाने वाले

शुरू-शुरू में इस वाक्यांश से जब मेरा परिचय हुआ, तब इसके मायने की गूढ़ता को समझने में थोड़ी अड़चन आई।

रायता को मैं ही क्या, हम सब, बफ़े-सिस्टम ईजाद होने के बाद, शादी-ब्याह में परसे जाने वाले पुराने छांछ के नवीन संस्करण के रूप में जानते हैं। अब आम चलन में इसके बिना छप्पन-भोग में मात्र पचपन का स्वाद लिया जान कर, मन में अधूरे पन का अहसास होता है। 

कई लोग अपने मृत्यु-भोज का मीनू तय करके मरना चाहते हैं। वे बक़ायदा फ़ैमली से डिस्कस करने के बाद, अपने घर वालों को हिदायत दिए रहते हैं कि रायता 'एक आइटम' ज़रूर हो। जिस तरह फ़िल्मों के आइटम साँग से दर्शक प्रभावित होते हैं, ये लोग मानने लगे हैं कि हिट और सुपरहिट का नुस्ख़ा या राज़ कहीं न कहीं इस 'आइटम' पीछे छुपा है।

जो लोग अपनी मृत्यु को संभावित या निकटवर्ती जान, इंतिज़ामात में लगे होते हैं, मैं उनको 'एम.बी.ए. डिग्री धारियों' का 'बाप' समझता हूँ। कारण ये कि उनकी सोच के अनुसार, “साले, ज़िंदगी भर हम कमाए, बचा-वचा के ले न जा सक रहे तो, ख़र्च क्यों न करते जाएँ...?"

कुछ-कुछ उनके जी में ये भी होता है, ’चलो, जीते-जी मरने के ढोंग का रायता तो फैलाते चलें...!’

मैंने श्यामलाल, अपने इधर के सम्मानीय पुरोहित, पण्डित, भोजनालय प्रोपाइटर, चार-मंज़िले लॉज, होटल व्यवसायी, कोरोना चपेट में आते लगभग बचे। ज़िंदा भयग्रस्त इंसान से, इस हरकत पर विस्तार से जानने के लिए एक दिन पकड़ा।

"यार लँगोटिये, ये बता... तुम्हें क्या पता है कि तुम्हारी औलादें तुम्हारे बताये मार्ग पर चलेंगी...? तुमने उनके लिए जी-जान एक कर, सब सुविधाएँ उपलब्ध करा दीं। वे अपने-अपने हिस्सों को लेकर अपना-अपना धंधा मज़े-मज़े सम्हाले बैठे हैं। चार में से तीन का मत है, मृत्यु-भोज अनावश्यक ख़र्च है। इस बाबत वे सामाजिक मीटिंग में कई बार बोल चुके हैं। एक अमेरिका में रहता है, विदेशी कल्चर वाली बहू है, उसे आपके क्रियाकलाप में शामिल होने का क्या सरोकार ...? मौक़ा मिलेगा या नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता...। इन अमेरिका वालों के पास ऐन वक़्त पर ख़ास जगह नहीं पहुचने के कई बहाने होते हैं। पहले ही होते थे अब तो ताज़ा-ताज़ा रटा-रटाया कोरोना बहाना सामने है! उधर के लोग तुरंत, तत्काल या इमरजेंसी में भी आकर कन्धा देने से रहे। बताओ फिर आपके बयान-सोच का क्या होगा...?"

"दरअसल सुशील भाई, यही चिंता कभी-कभी मेरी भी रातों की नींद उड़ा देती है। सच कहूँ तो मैं ख़ुद की मृत्य-भोज पार्टी में अपने क़रीबियों के नखरों को देखना चाहता हूँ। मैंने कई शादी-ब्याह और दूसरे आयोजनों  में लोगों को तरह-तरह के नुक्स निकालते देखा है। कुछ कमेंट्स जो याद हैं,बताये देता हूँ:

’स्साले ने हराम के पैसों में कितनी बड़ी नुमाइश लगा दी है। ”रायता देखो... पानी है”...’

’बहुत सारे कार्ड बँटवा दिए... खाने का इन्तिज़ाम भी उसी ढंग का होना माँगता की नइ....?’

’रायता देखो... छाछ में नमक डाल रखा है’।

’इन अमीरों को गिफ़्ट की पड़ी रहती है, सिवाय गिफ़्ट के कुछ सूझता नहीं... “रायता देखो"...’

’इस रायते को देख भला कौन कहेगा सेठ धनपत के बेटे का रिसेप्शन है’।

"सुशील भाई, ये रंग-ढंग देखकर मैं चाहता हूँ समाज एक बार तृप्त होकर, वो कहते हैं न, घीसू-माधो, मुंशी प्रेमचन्द स्टाइल वाली दावत उड़ा लें, मुझे परमानन्द की अनुभूति होगी!

"आज के ये बच्चे मृत्यु-भोज के अपोज़िट लाख लेक्चर दें, हम पुराने लोगों की परंपराओं को तोड़ के कोई नई बात साबित नहीं कर पाएँगे। परलोक सुधारने का नाम लेते ही इनको, इनकी दिवंगत नानी रौद्र रूप में नज़र आने लगती हैं। मुझे मालूम है, मार्डन ज़माने के ये बच्चे इस फ़िज़ूलख़र्ची के मद से हाथ ज़रूर खींच लेंगे! 

"मुझे अनाथ-बेसहारा की केटेगरी में ‘ऊपर जाना’ एकदम अखर जाएगा। उस लोक में चार के सामने होने वाली फ़ज़ीहत की सोच के... मेरी मायूसी और हताशा को आप समझ रहे ना?

"मुझको अपनी औलाद से ज़्यादा आप पर भरोसा है। आप एक काम करना, मैं पोस्ट डेटेड चेक दिए देता हूँ, आप मेरा सद्कर्म बिना किसी को ख़बर हुए धूमधाम से करवा देना। सबके मुँह को बंद करने वाला भोज होना चाहिये, वो भी, क्वालिटी रायता के साथ।"

मैंने कहा, "पण्डित जी आप अभी दो-तीन महीने में थोड़े बिदा हो रहे हैं?"  फिर मज़ाक के लहजे में ये भी जोड़ दिया कि रोज़ चेक काटते–भुनाते का लम्बा तजरबा रखते हैं, फिर काहे भूल रहे हो कि चेक इशु तारीख़ से फ़क़त तीन महीने तक वैलिड होते हैं...।

"अरे ये तो मैंने ध्यान नहीं दिया, कोई बात नहीं," वे गंभीर थे। बोले, "कल ही पाँच लाख की 'एफ़डी' आपके एकाउंट में जमा कर देता हूँ। ज़िंदगी का क्या भरोसा...?"

मैने कहा, "शयामलाल जी, इतने पैसों का अब करना क्या?"

"क्यों भई?"

"आपको मालूम नहीं... अब क़ानून सारे बदल गये हैं। मय्यत-मातमपुर्सी में बीस लोगों के शरीक होने का फ़रमान सख़्ती के साथ अमल में लाया जा रहा है। आपके सामने नामी–गिरामी लोग गुज़रे, जिसमें सैंकड़ों लोग तो बिना बुलाए हाज़िर होते थे, मगर उनके चाहने वाले मायूस रहे ...।" 

"यार तू एक काम कर, मय्यत की फ़िकर न कर। वो जैसे भी सरकारी फ़रमान हो निपटा देना... मगर पार्टी वाली बात पर ग़ौर करना...। बोले तो ख़र्चे की रक़म और बढ़ा देता हूँ ...

"...अपने तरफ़ हर कानून में तोड़ने की गुंजाइश तो रहती है। तू एक होटल तीस दिन को बुक करना, हर रोज़ बीस आदमी को भोज का बुलावा देना। तीस डेट का अलग-अलग निमन्त्रण छपवा लेना... पाँच-छह सौ को तो कम से कम जीमना ही चाहिये! ...हाँ रायते के स्वाद में किसी दिन कोई कमी न रहे ....बस!"

मुझे लगा शयामलाल का ‘वांछित–दिन’ क्या पता, इसी साल की किसी आख़िरी तारीख़ तक तय हो शायद...। 

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