सठियाये हुओं का बसंत
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी सुशील यादव15 Sep 2016
सठियाने की एक उम्र होती है।
बुड्ढा सठिया गया है कहने मात्र से किसी पुल्लिंग के साठ क्रॉस किये जाने की जानकारी ही नहीं मिलती, वरन कुछ हद तक उसके सनकी हो जाने या दिमाग के "वन बी.एच.के. छाप" हो जाने का अंदाज़ा भी होने लगता है।
मैं आम आदमी के तज़ुर्बे की बात कह रहा हूँ। "राजनीति के धुरंधरों" को इस रचना-परिधि से दूर रखता हूँ क्यों कि इने-गिनो को छोड़, वे आजीवन नहीं सठियाते।
अपनी कॉलोनी में रिटायर्ड लोगों का ठलुआ-क्लब है। बसंत में उनकी खिली-बाछों को देखने का लुत्फ़ आसानी से पार्क में सुबहो-शाम उठाया जा सकता है। आठ-दस को मैं बहुत क़रीब से जानता हूँ। शर्मा, चक्रवर्ती, राणा, सक्सेना, दुबे, असगर अली, भिड़े, सुब्बाराव, ये लोग जब मिलते हैं तो करेंट-टॉपिक पर इनके तफ़सरे या टिप्पणी से, बसंत में खिले हुए सैकड़ों फूलों का एहसास होता है।
राणा की बल्ले-बल्ले में दिल्ली, चक्रवर्ती बंगाल, शर्मा हरियाणा, असगर अली यू.पी., दुबे बिहार, भिड़े महाराष्ट्र, सुब्बाराव जी साउथ सँभालते हैं। रात को देखी हुई न्यूज़ या सुबह की अख़बारों की कतरन ही उनके बीच आपस में तू-तू, मैं-मैं होने का इंतज़ाम करवा देती हैं।
दिल्ली वाले ने छेड़ दिया कि ये "मफलर-बाबा को किसी ने समझाइश दे दी है कि दिल्ली की बेशुमार गाड़ियों में हवा ही हवा है, इसी को लेकर, आगे वे दिल्ली को प्रदूषण मुक्त करने की मुहिम में योजनारत हैं। सप्ताह में एक दिन सब गाड़ियों की हवा निकाल दी जावे तो इससे वातावरण को हवा मिल जायेगी। यदि कहीं लोगों के बीच से आल्टरनेट ऑड-इवन के फार्मूला का सुझाव आता है तो उस पर भी ग़ौर किया जा सकता है।"
राणा जी के उद्घोष पर पार्क के बुज़ुर्गों की सामूहिक हो-हो से पार्क गुंजायमान हो गया। कुछ आदतन छीछालेदर करने वाले, धीरे-धीरे इसके अंदरूनी पहलू की काट-छाँट में, अपनी पुश्तैनी आदत के अनुसार लग गये।
अपने इधर एक परंपरा है, तथ्य और तर्क के पेंदे को उल्ट के देखना हम ज़रूरी समझते हैं । इस पुनीत परंपरा के निर्वाह में लोग घुसते रहे।
"जानते नहीं! ऑड-इवन के फ़ॉर्मूले में जनता को कितनी तकलीफ़ हुई थी। जिनके घरों में दो ऑड या दो इवन की गाड़ियाँ थी, वे बेचारे बेबस हो गए थे। इमरजेंसी में किसी को हॉस्पिटल ले जाने की नौबत आई तो पड़ोसियों ने कह दिया, भाई साहब हमारे मिस्टर ख़ुद कार शेयर करके गये हैं। हम लोग जिनसे शेयर-बंध हैं उनसे शेयर-धर्म तो निभाना पड़ता है। आप हमारे पूल में होते तो ऑफ़िस टाइम में एडजस्ट कर लेते। यही जवाब आम है।"
आदमी को इन दिनों "पूल" में होना ज़रूरी हो गया है।
राजनीतिक लोग इसे "गुट" सामाजिक लोग "पार" और गुंडे मवाली "गैंग" कहते हैं। साहित्यिक बिरादरी में भी यह आम है, "तू मेरी फ़िकर कर मैं तेरी सुध लेता हूँ।"
इस पूल, गुट, पार, गैंग में होने के अलग-अलग फ़ायदे हैं। आपकी नैया सहज पार लगती है, इलेक्शन टिकट की गैरंटी होती है, ब्याह-मंगनी में सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुसार घर-वर मिलते हैं और गैंग के रुतबे के क्या कहने "भाई" का नाम लेते ही सब काम, हुकुम मेरे आक़ा की तर्ज़ पर तुरंत हो जाते हैं।
चलो बुढ़ऊ लोगों के दूसरे सत्र की बात देखें...
"भाई साब ये ग़लत बात है, आप वोट अलग तर्ज पर माँगते हो और वाह-वाही बटोरने के लिए अलग फ़ॉर्मूला ले आते हो, कहाँ की शराफ़त है.....?"
"अरे दूबे जी आप वहीँ अटक गए वो टॉपिक तो सुबह ख़त्म हो गया था।"
बुढ़ऊ लोगों के दिमाग़ की केतली से, दफ़्तर के प्यून से लेकर बराक ओबामा तक सब कुछ गर्मा-गर्म बाहर निकलता है।
एक न्यूज़ की कतरन दिखाता है, "देखो साला है तो महज़ चपरासी मगर एक करोड़ की नगदी, गहना, बेनामी संपत्ति, कार और ज़मीन के काग़ज़ मिले हैं।"
पीछे से, हामी देने वाला कहता है, "ये हाल चपरासी का है तो साहब की पूछोइ मत। साहब लोगों की कोई ख़बर ले तो इनसे सौ गुना ज़्यादा की रेकव्हरी की जा सकती है।"
वे लोग जब तक, भारतीय अर्थ व्यवस्था पर अपना आक्रोश जी खोल के व्यक्त करते तब तक, बिरादरी के कुछ लोग बहाने से खिसकने लगे। खिसके हुओं के जाने के बाद बातों का गेयर व्यक्तिगत आक्षेप पर चलने लगता है।
"जनाब क्या खा के फ़ेस करेंगे, अपने ज़माने में नंबर-दो का इनने कम नहीं कमाया है। चुपचाप खिसक लिए।"
कुछ विरोध दर्ज कराते हुए कहते हैं, "हमें अपनों के बीच ये सब नहीं कहना चाहिए। सब अपनी-अपनी तक़दीर का खाते हैं। पीछे जो हुआ सो हुआ आगे की बात करें। ये कभी पकड़े ही नहीं गए तो हम आप बेकार लकीर क्यों पीट रहे हैं?"
"आप तो हमेशा उनका पक्ष लेते हैं, और लें भी क्यों नहीं.....?"
"देखिये शर्मा जी, हम कुछ बोल नहीं रहे इसके माने ये नहीं कि हमें कुछ मालूम नहीं। अगर शुरू हो गये तो.....?"
बीच-बचाव बाद, क़रीब-क़रीब हुड़दंगी हड़कंप में तब्दील हो जाने वाली सभा समाप्त हो जाती है।
ऐसे मौक़ों के बाद, दो-चार दिन कुछ लोग खिचे-खिचे देखेंगे। ये अघोषित तथ्य है।
शर्मा जी, जिनका बचाव कर रहे थे वो शख़्स, भनक लगते ही आगबबूला हो गए। वे उस दिन के प्रखर वक्ता के तत्कालिक विरोध में उनके घर की ओर रुख किये। उस नाचीज़ पर अपने राजनीतिक प्रभाव यानी गुट का वास्ता देने लगे।
"हम आपसी बिरादरी होने की वज़ह से, तुम्हारे सामाजिक पहलुओं को पंचर करना भी ख़ूब जानते हैं।" उन्हें सामाजिक तौर पर तिरस्कृत करने का संकल्प गाली-गलौज की मुद्रा में उठा लेते हैं। "अगर इससे भी आइन्दा बाज़ न आयें तो चेतावनी है, मवाली-कुत्ते से कटवाया नहीं तो कहन्ना।" उस दिन इस सरे-आम चैलेंज ने बुद्धू पार्टी से एक मेंबर खो दिया।
बरसों तक पार्क में मिल-जुल के रहने वाले बुड्ढों की, जाते समय की मिल-जुल कर के जाने वाली योग की खोखली हँसी आजकल नदारद है।
शायद अब पतझड़ के बाद मौसम के मिजाज में तब्दीली आये!
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