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हम ही चोरों की  तरह ख़्वाब में आने लगते

 

बहर: रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़ मक़तू
 अरकान: फ़ाएलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
 
तक़्तीअ: 2122    1122    1122    22
 
हम ही चोरों की  तरह ख़्वाब में आने लगते
तुमको ये बात बताने में ज़माने लगते
 
फिर पलट के नहीं आया मुझे जो छोड़ा था
हम क़यासों में उसे और बुलाने लगते
 
हर तरफ़ हुस्न के तेरे ही तो चर्चे होंगे
हम क़यामत वही  लोगों को दिखाने  लगते
 
अब के सावन में तुझे आने का न्योता भेजूँ
दिन तो  महबूब तिरे  साथ सुहाने लगते
 
नर्म लहज़ों में मेरी बात बुरी लगती है
ग़र्म अहसास के बंधन भी सताने लगते
 
हम कबाड़ी  हुए फ़िरते हैं जो शहरों-शहरों
याद की  शय से ही वीराने  सजाने  लगते
 
तुम जो मिल जाओ किसी मोड़ पे आके  हमसे
ग़र्द सूरत  को ख़ज़ानों पे ख़ज़ाने लगते

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