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तुम किस खेत की मूली हो?

"धिक्कार है, मूली और भटे का प्रयोग अब साहित्य में भी होने लगा," ना जाने कौन सी ख़बर पढ़ के नत्थू भुनभुनाता हुआ घुस आया।

मैंने नत्थू से कहा, "करोना जो न करा दे वो कम है।"

"सर जी इसमें करोना का भला क्या रोल? आपकी क़लम है, आपके सब्जेक्ट हैं, आपकी सोच के तोते डाल-डाल में बैठ के आम चूस रहे हैं, फिर ये टुच्चई क्यों... मूली-भटों के प्रयोग से? मैं पूछता हूँ – साहित्य की सब्ज़ी, रोड छाप ढाबे में क्यों पकाई जा रही है? आने वाले लेखक सब्ज़ी का ठेला लगा के गली-गली इन मूली-भटों की पुकार लगाते मिलें, तो पुरस्कार वग़ैरह की तो सोचो ई मत। ’अज्ञान-पीठ’ आप बुला-बुला के कितनों को देलो, कोई सोचने वाला नहीं!"

मैंने कहा, "नत्थू जी हम आपको तफ़्सील से ज़रा किस्सा बयान कर लें, फिर आप अलाप-भैरवी चाहे जो लगा लेना...।

"बात दरअसल ये हुई, हम अपने मोहल्ले के लोकल भगवान के रथ रूपी यात्रा में रथ खींचने की परंपरा के निर्वाह और प्रसाद प्राप्ति के क्षुद्र अभियान में हर बीते साल की तरह शामिल थे। पाँच सालों तक रथ खींचने की मनोकामना का ये आख़िरी यानी पाँचवाँ साल था।

"हमारे पंडित की ज्योतिष विद्या की मानें तो इस पाँचवें साल की रथ खिंचाई के बाद जो मोक्ष का साफ़-सुथरा, बिना प्रतिस्पर्धा वाला मार्ग मिलना था। उससे, स्थानीय हवलदार ने सामूहिक बेंत सुताई के पुलसिया अभियान ने आनन-फानन में हमें वंचित कर दिया।

"ऐसी बात नहीं कि हमने भीड़ को हड़काते-धकियाते पुलिस वाले इससे पहले नहीं देखे। ख़ूब देखे हैं। मगर इस बार वे करोना पावर से मग़रूर दिखे...। इस विभाग के सरके होने का, तुच्छ प्रमाण तो यदा–कदा मिला करता था। अंगार-चाइना संस्करण वाला संवेदनहीन पहलू देखना शायद बाक़ी था।

"प्रभु को अपने विराट रूप में अब की बार ‘रौद्र’ रूप में कदाचित देखने का दुर्भाग्य,सौभाग्य या संयोग जो कहो मिल गया।

"न्याय की दुहाई दे के, वो फटकार लगाईं, ’स्सालो भागो... नो प्रसाद...’; ’भाग कहाँ रहा... किधर है मास्क बोल...?’; ’परसाद चैइये...?’; ’दिखा हाथ...सेनेटैज है...’; हर नये आदमी पर नया जुमला, नई बेंत... नई फटकार... मानो रथ को खींचने वाले अब नये सत्कर्मी मिल गए हों!

"बरसों की परंपरा में बैठे-बिठाए दो अनिवार्य शर्तों के जुड़ने से, रथ के ऊपर बैठे पुजारी अवाक हो गए... ’आने दो भक्तन को जजमान...’ मगर पुजारी के ये सम्मानजनक शब्द हवाई फ़ायर की तरह लगे...।

"पुलसिया आक्रोश और पुजारी के साथ हुए संवाद यूँ तो शूट नहीं किये गए, पर बात फ़ज़ीहत के चीथड़े में ढक के भी कहीं-कही झाँकती मिली। लोग अगले दिन की ख़बर में कवर होने के इत्मिनान में थे मगर किसी संवाददाता ने इस वाक़ये को कवरेज भीतर रखने का साहस नहीं जुटाया...!"

'जब भगवान के रथ ही ठीक से खींचे नहीं जा रहे, उस पर प्रसाद की इच्छा रखते हो बे...?'

'बताओ कौन से खेत की मूली हो... तुम लोग...?'

"हम उन तमतमाए चेहरों को भूल नहीं पा रहे नत्थू जी...। नत्थू हम क्या बतायें...? हमारे दादों-परदादों ने खेत में धान-गेहूँ के अलावा कुछ बोया-उगाया नहीं। हमारे खेत के रास्तों से ‘मूली’ कभी सारोकार नहीं रहा ...उधर से कभी होकर नहीं गुज़री, गुज़रती तो हम गंध से पहचान लेते... उन मूलियों का हिसाब हलकट हवलदार कैसे पूछ रहा था ...?

"सही मायने में ये लोग रेत में तेल निकालने की मानसिक मशीन कहीं भी फिट कर लेते हैं! नत्थू, हम रथ यात्रा से लौटने के बाद से मायूस हैं।

"जो हम हर साल बड़े उत्साह से रथ खिंचाई में पसीना बहाते थे, इस साल दुर्गति करा आये। भगवान जगन्नाथ हमसे ज़रूर ख़फ़ा होंगे...!

"खेत और मूली की सनक को हमने गूगल में साल्व करने की कोशिश की। अब ये कोई अंकगणितनुमा सवाल तो था नहीं, जिसका हल निकलता ..? खेत और मूली... सब्जेक्ट को शार्ट किया। मूली उगाने के तरीक़े से मूली के पराठों तक सब पढ़ लिया।

"अब ये इच्छा भयानक बलवती हो गई कि करोना काल के लॉक डाउन की समाप्ति पर शहर के शायद किसी पराठा वाली गली में ‘मूली के पराठों’ की वेज-नानवेज वेरायटी के साथ मुझे, तवा ठन-ठनाते हुए पायें। जिस हवलदार से ये खुन्नस उत्पन्न हुई है, उसे बिना उसकी जानकारी के उद्घाटन पर बुलाने की इच्छा है।

"भगवान जगन्नाथ का संदेश “कर्मण्यावाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” यानि कर्म कर, फल की चिंता मत कर... जैसे सूत्र वाक्य से नए धंधे की शुरुआत, करोना साढ़ेसाती की विदाई पर, शायद कोई अदृश्य प्रसाद हो मेरे लिए!"

नत्थू मेरी थ्योरी पर अवाक हो ताकता रह गया!

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