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नए साल में . . . 

स्वागत गीत लिखे चलो 
ख़ातिर नूतन साल की 
मन चाहे रंगों में हो फिर
हाथी घोड़ा पालकी 
 
बीते को मुड़ देखो भाई 
लुटती गाढ़ी कहाँ कमाई
वे फ़िकर बिल्कुल ना पालें
समझे ना जो पीर पराई
समझौतों के सँकरे पुल से
तिजौरी भरी दलाल की
 
सपने जो कलयुग में आते
प्रलोभन की दुकान सजाते
डिस्काउंट में बेच रहे हैं
लोग सभी हर रिश्ते नाते
हे नाथ कितने ज़ोर से बोलें
जै कन्हैया लाल की 
 
नदी किनारे था एक मरघट 
धू धू जल रहती चिताएँ 
हर संताप समय के हाथों
पा जाती कपाल क्रियाएँ 
बिजली की शव दाहों में
क़िल्लत लकड़ी टाल की 
 
संवाद हीन है जग सारा
व्यर्थ का गूँजा करता नारा
अलगू जुम्मन न्याय न देते
तर जाए जो ग़रीब बिचारा 
रिश्वत के ढेरों पानी ने
गति बना दी क्या दाल की
 
ले दे कर गाँव था सुधरा
बिखरा गए मज़हब कचरा
हैं इंसानियत के घिसते पुर्जे
उस पर भी क़ानूनी पहरा
सोचो समझो नेता परखो
समय चुनावी चाल की

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