विलक्षण प्रतिभा के -लोकल- धनी
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी सुशील यादव12 May 2016
यूँ तो राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय प्रतिभाएँ अनेकों विद्यमान हैं।
अपने-अपने फील्ड के महारथियों ने अपने-अपने इलाक़े में धूम-धड़ाका भी ज़बरदस्त किया होगा, परन्तु जिन लोगों ने किसी फील्ड में "जुगाड़" की ईजाद की उन्हें भूलना, उनके प्रति असहिष्णुता है। हम इतने गये-बीते नहीं कि उनको याद न करें।
सबसे पहले मुहल्ले के नुक्कड़ में दस बाई दस के कमरे में अस्त-व्यस्त कबाड़-बिखरे सामान के साथ दिमाग़े-दुरुस्त में जो कौंधता है, वो है "अर्जुन सोनी"....। इन्हें पिछले ४० सालों से इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक्स की दुनिया में व्यस्त देखा है। दिल्ली-मेड रेडियो, टेप, रिकार्ड-प्लेयर और बाद में टी.वी., वी.सी.आर. के किसी भी मॉडल और मेक को सुधारने का ज़बर्दस्त दम और हुनर उसके पास है। मुहल्ले का ऐसा कोई एंटीना नहीं था, जिसे बिना उसकी जानकारी के किसी ने फ़िट करवाया हो। उसे रिपेयरिंग के काम में परफ़ेक्शन, ज़रूरी की हद तक, पसंद होने के चक्कर में, वह ग्राहकों को महीनों घुमा देता।
जहाँ लोग टरकाऊ छाप काम करके लाखों पीट लिए, अफ़सोस वहाँ ये आर्कमिडीज़ "यूरेका" की खोज में समय से पहले बुढ़ापा बुला बैठा।
दूसरा, एक समय था जब अपने शहर में जुए-सट्टे का ज़बरदस्त चलन था। इसी लत में आकंठ व्यस्त रहने वाले जिस इंसान का ज़िक्र कर रहा हूँ, वो है सुनील "चोरहा"। उसका नाम सुनील श्रीवास्तव था, "चोरहा" ख़िताब उसकी उठाईगिरी प्रवृत्ति के ख़ुलासा होने के कारण ख़ुद-ब-ख़ुद बाद में लोगो ने जोड़ दिया। उन दिनों सायकिलों को किराया में दे कर चलवाने का धंधा ज़ोरों पर होता था। नये-नये सायकल स्टोर खुलते थे। पचीस-पचास नई सायकलें किराए से दे दी जाती थीं।
सुनील की "माडस-ओपेरेंडी" यूँ थी कि आपने जिस स्टोर से सायकल उठायी, वो भी किराए पर वहीं से सायकल ले लेता। वो आपके गंतव्य का पीछा करता। आपका जहाँ सायकल लॉक करके किसी होटल या दूकान में घुसना होता, वो अपनी सायकल आसपास रखकर "मास्टर की" से खोल के, आपकी सायकल पार कर देता। पकड़े जाने पर सफ़ाई के लिए, एक ही स्टोर की हुबहू सायकल में, शिनाख़्ती भूल का हवाला देकर बचने की भरपूर एल्बाई या गुंजाईश होती थी। घर आकर इत्मीनान से सिर्फ सायकल के मडगार्ड को जिसमें सायकल स्टोर का नाम नम्बर होता, बदल कर औने-पौने क़ीमत में बेच देता। बदले मडगार्ड को नदी तालाब के हवाले कर देता। सायकल की धड़ाधड़ होती चोरियों ने, लोगों को चौकन्ना कर दिया। तमाम सायकल स्टोर के किराया-रजिस्टर में वारदात के दिनों की एंट्री की जाँच हुई। सूत्र सिवाय एक श्रीवास्तव सरनेम कॉमन मिलने के, अतिरिक्त कुछ हाथ न लगा। पुलिस ने स्टोर मालिकों को चौकन्ना कर दिया कि किराए पर सायकल उठाने वालों के नाम को, ग़ौर से चेहरा देख, लिखा जावे। इसी के बूते अपने श्रीवास्तव जी, जो मोहल्ले से दूर के किसी सायकल स्टोर में, जहाँ कभी रोहन-सोहन नाम के साथ श्रीवास्तव उठा लेता था, किसी दिन रोहन की जगह श्रीवास्तव सरनेम के साथ सोहन लिखवा बैठा। उसकी चोरी की दुनिया की अक़्लमंदी में मंदी शुरू हो गई। सबूत के अभाव में वह छूट तो गया मगर लोग उसे इलाक़े में देख भर कर अपनी-अपनी सायकल से चिपक जाने लगे।
तीसरा चरित्र उन दिनों के विख्यात कवि और अदब से ताल्लुक़ रखने वालों से बावस्ता है। इनमें से कुछ अब दिवंगत हैं। उन सब की रूह जन्नत में आराम नशीं हो… आमीन!
कवि महोदय, नई पौध के लेखन को प्रोत्साहन के नाम पर नुक्कड़ के किसी चाय के टपरे में मजमा लगाए रहते थे। खाली समय व्यतीत करने के लिए, उनकी ज़िन्दगी में, ताश और जुआ, शगल आदत और मजबूरी का मिला-जुला, दख़ल रखता था। यूँ कहें जब ताश नहीं तो बस शायरी, ग़ज़ब का विरोधाभास लिए उस इंसान को हम लोगों ने जीते हुए देखा है।
उनकी शायरी का ज़बरदस्त लोहा मानने वालों में दो-तीन नाम याद हैं। एक नत्थू साहू व्यंग्यकार, दूसरा कौशल कुमार उभरता गीतकार, तीसरा राम चरण कहानीकार....। आगे चल के ये लोग कुछ बने या नहीं पता नहीं चला।
नत्थू उन दिनों सेवादार की भूमिका में होता। "गुरूजी", इस आदरणीय संबोधन से बात शुरू करता। "इस गणेश उत्सव, और नव-रात्रि की ज़बरदस्त तैय्यारी करवा दीजिये बस। दस-बीस कवि-सम्मेल्लन निपटाने लायक़ ताज़ा मसाला हो अपने पास। मज़ा आ जाएगा।" आपने शायद किसी कवि के मुँह से ये बात न सुनी हो तो अटपटा लग सकता है। जाने भी दो।
"गुरूजी घर में ख़ास आपके लिए चिकन बनवाया है", कहते हुए पुराने अख़बार रखकर टिफिन सजाने लगता। मुर्गे की टाँग के साथ, शेर कहते हुए गुरूजी को देख के, नत्थू धन्य हो जाता। उसी टाँग खिंचाई में गुरूजी अपनी किसी पुरानी रचना को यूँ सुनाते - जैसे मुर्गे की प्रेरणा से इस रचना का सद्य निसरण हुआ है। मुर्गा-प्रेरित रचना को नत्थू नोट करके अपनी डायरी को धन्य कर लेता। दस-पन्द्रह मुर्गों की बलि से नत्थू का कवि-सम्मलेन भारी वाहवाही की ऊँचाई को छू लेता। अखिल भारतीय स्तर के एक कवि-स्म्मेल्लन का ज़िक्र कई बार उनके मुँह से सुना है। "गुरूजी क्या भीड़ थी, खचाखच, अपन ने "इतने हम बदनाम हो गए" वाली रचना सुनाई। क्या दाद मिली गुरूजी कह नहीं सकते। "माया रानी" जो ख्यातिलब्ध मानती थी सन्न रह गई। यहाँ तक कि लोगों ने हूट करके अगले दौर में बिठा तक दिया।"
उन दिनों, लाइव टेलीकास्ट और सेल्फी युग नहीं था वरना नत्थू के छा जाने वाली बात की तस्दीक़ हो जाती।
ख़ैर यूँ गुरू-चेले की निभती रही। नत्थू की दुकानदारी को देख के कई नौसिखिये इस मौसम के उपयोग हेतु आने लगे। गुरूजी बाक़ायदा दस-दस रुपयों की बोली में रचनाएँ बाँटते। जिसे नव-लेखक उत्साह से दूर-दराज के गाँव में जाकर पढ़ते। चूँकि गुरूजी शहर से बाहर कभी निकल के कभी कविता पाठ नहीं किये थे अत: उनकी सख़्त मनाही थी, कि दुर्ग-शहरी क्षेत्र में कोई रचना न पढ़ी जावे। मूल लेखक के उजागर हो जाने का ख़तरा है। अगर इस इलाक़े में पढ़ना है तो बाक़ायदा ताज़ी रचना लिखवाना। लोग ख़ास मौक़ों पर ताज़ी रचना भी गुरूजी का मूड बना-बना कर हलाल करने लगे।
एक दिन हमने गुरूजी से यूँ ही पूछ लिया आप जानते हैं, आप साहित्य को बदनाम करने लगे हैं। वो कहते जब पेट की आग धधकती है तो ये मान के चलो, कोई नज़्म, ग़ज़ल या कविता आग बुझाने नहीं आयेगी। केवल रोटी से ही ये आग बुझेगी। नौकरी पेशा तो हम हैं नहीं कैसे चल-चला पाते हैं, हमी को पता है। वैसे भी आजकल, मानो साहित्य मर सा गया है, इसका स्तर कितना गिरने लगा है। मुझे मालूम है ये जिस सम्मेलन में जाते हैं मुश्किल से इन्हें सुना जाता होगा। लतीफ़े-बाज़, चुटकुले-बाज़ मंच छोड़ते नहीं। चिपके रहते हैं। उनका अपना ग्रुप होता है। तू मुझे बुला मैं तुझे बुलाऊँगा। जब ये चुटकुले-बाज़ पी के धुत्त होकर पढ़ने लायक़ नहीं होते तब हमारी साहित्यिक रचना की बारी आती है।
कुछ विद्रोही रचनाओं को अख़बार में,पत्रिका में छापने वाले भी, सरकारी विज्ञापन कट जाने के भय से दरकिनार कर देते हैं। सर पटक लो वे नहीं छापते।
ऐसे में साहित्य कहाँ से सर उठाये और साहित्यकार किस बूते जिए.....? बताओ ......?
ये लोग जो हमारा लिखा पढ़ रहे हैं, उसे किसी समय हमने उत्साह से लिखा था। चलो, किसी बहाने लोगों तक अपनी रचना पहुँच तो रही है ....यही संतोष है ......।" उनकी बेचारगी ने मुझे झझकोर कर रख दिया। उनकी आत्मा को प्रभु शांति दे .....!
उनका ग़मगीन चेहरा, इन शब्दों के साथ जब भी मुझे याद आता है, मुझे साहित्य से यक-ब-यक अरुचि और विरक्ति सी होने लगती है।
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