डार्विन का इंटरव्यू
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी सुशील यादव15 Nov 2019
डार्विन, किसी खोपड़ी को घड़ी-साज की तरह कुरेदते हुए मिल गए।
मैंने कहा, “आपको हम ढूँढ़-ढूँढ़ के थक गए। चलिए, क्या खोपड़ी में अपना खोपड़ा दिए बैठे हैं। फटाफट तैय्यार हो जाइये।”
वे मोटे लेंस के चश्मे को ऊपर की तरफ़ चढ़ाते हुए, 'मान न मान' वाली नज़र से देखने लगे।
मैंने कहा, “पत्रकार हैं जी, इंटरव्यू लेने को आये हैं।”
हम साथ ले गए दुभाषिये को कुहनी मार के समझाने को कहा।
वे टूटी-फूटी ज़ुबान में कहने लगे, “भाषा की इतनी जानकारी हो गई है। हम पिछले पचास सालों से विकासवाद की थ्योरी पर काम कर रहे हैं। हमने ख़ुद ढेरों इंटरव्यू अनेको लोगों का अनेक भाषाओं में लिया है।”
वे सीधे मुख़ातिब हुए, हमें नहीं लगा था कि भैंस को इतनी जल्दी नाथ पाएँगे। सिचुएशन कंट्रोल में देखते हुए, इंटरव्यू के एजेंडे, मक़सद और महत्त्व के बारे में जानकारी दी। हमने कहा ये इंटरव्यू मानव जाति के विकास में मील का पत्थर साबित होगा। जब-जब विकास वाद की आपकी थ्योरी पर आगे शोध की बात होगी, हर शोधार्थी को इस इंटरव्यू से हो के गुज़रना पड़ेगा। हाँ तो मिस्टर डार्विन आप तैयार हैं?"
उन्होंने मुंडी हिलाई। हमें उनका तैय्यार होने का ढंग पसन्द आया।
हमने प्रश्नों की पहली तीली सुलगाई, "आप ने इस फ़ील्ड को कब से चुना. . .?"
वे जिस खेत में खड़े थे उसे देखने लगे, "कहा आज सुबह टॉयलेट को आये थे. . ."
मुझे अपने प्रश्न के मिस-फ़ायर होने का अंदाज़ा हुआ. . . मैंने कहा, "सॉरी, मेरा मतलब था आपने 'ईवोलुशन' वाला काम कबसे अपने हाथ में लिया?"
वे बोले, "ये समझिये हमारी पैदाइश ही इस थ्योरी को समाज के सामने लाने को हुआ. . .।"
"सर. . . अगर आप सेब को पेड़ से गिरते देख लेते तो अपने सीनियर न्यूटन माफ़िक कुछ सोच सकते थे? या "ई इक्वल टू एमसी स्क्वायर" जैसा कभी विचार आया . . .? क्या आपने पेड़ पौधों को शोध में जगह देने का ख़्याल किया. . .?"
वे एक सधे दार्शनिक की मुद्रा में आ गए. . . वे फिजिक्स, बॉटनी कहाँ ले आये. . .?
"हमें मालूम है, दो एच टू और एक ओ टू मिला के पानी बनाने का कैमेस्ट्री में फ़ार्मूला है, इसका ये मतलब नहीं कि हाइड्रोजन के दो सिलेंडर और आक्सीजन के एक सिलेंडर को ले के रेगिस्तान में प्याऊ लगा बैठें. . .! प्यारे, बहुत बड़े प्रोसेस के बाद पानी का मिलना संभव होता है। हर ऐरे-गैरे को ये करने की सुविधा हो जाती तो. . . हमारी जो थ्योरी इवोल्यूशन की है, वहीं बैठ जाती। पानी पीने और बनाने में उस्ताद-जन स्ट्रगल ही नहीं करते। पानी इफ़रात मिलने लगता। 'सर्वाइवल फॉर फिटेस्ट' वाली बात पैदा नहीं होती। आधी आबादी पानी के दम पर जी लेती। चौथाई आबादी इससे कुछ उगा कर जीवन-यापन कर लेती और चौथाई पानी में रहने वाले जीव-जन्तुओं मछलियों के व्यापार में घुस जाती। तब आप डार्विन को ढूँढते यहाँ आ पाते?"
परोक्ष में झकलेट से दिखने वाले ने प्रत्यक्ष में मेरी झक खोल दी!
मैंने उनको अपनेपन के संबोधन में कहा, "डार्विन जी . . . . . आप के समकक्ष वैज्ञानिकों ने आपकी थ्योरी की बहस के लिए खींचा-तानी नहीं की? हम उस कंट्री के हैं जहाँ हर बात की खिंचाई हो जाती है। ऐसा है तो क्यों है, और ऐसा नहीं तो क्यों नहीं . . . . .? हम लोग इसी का उत्तर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते हर शोधकर्ता को अधमरा कर देते हैं।
"अपने इधर शोधार्थी सात-आठ साल तक गाइड के घर में दरबारी बन के सेवा न करे, उनकी सब्जी-भाजी न लाये, बच्चों के डाइपर वगैरा न बदले, मेडम के घूमने-फिरने के शौक़ में तन-मन-धन से सेवा न करे, उसका सब किया-धारा एक तरफ़ रख दिया जाता है। गुरुदेव जब किसी दिन प्रसन्न हो बैठते हैं तो कबाड़ में रखे स्टेटिकल डाटा-बुक से धूल झाड़कर शोधार्थी को प्रसाद दे देते हैं।
"शोधार्थी की 'झोलदार गाउन' पहनने की मनोकामना पूरी हो जाती है। डार्विन जी, ख़ैर, ये अपनी बात थी। आपकी थ्योरी में मानव कल्याण के लिए क्या साबित करने की कोशिश है?"
वे बोले, "लगता है आप बिना किसी तैय्यारी के यूँ ही निकल आये हैं! पढ़िये. . . क्या-क्या नहीं लिख दिया है हमने. . .! सब कुछ तो मानव के आस-पास रिवाल्व करता है। हमारे कहे पे जाएँ तो हर मानव की खोपड़ी और उसके भीतर के कॉन्टेंट में फ़र्क होता है, जिसे आम भाषा में मति भिन्नता कहते है। आपके तरफ़ किसी संस्कृत शास्त्र में श्लोक भी प्रचलित है -
"पिंड-पिंडे मतिर्भिन्ना, कुंडे-कुंडे नवा पय:
जातौ-जातौ नावा चारा, नवा वाणी मुखे-मुखे "
यानी हर आदमी की सोच भिन्न, हर कुंड का पानी नया, हर जाति का खान-पान अलग और हर आदमी के मुँह से विचार भिन्न मिलते हैं। ये अनेकता में एकता को ढूँढ़ने की कोशिश में आपके बुद्ध कब निकल पड़े आपने जाना ही नहीं।"
वे दर्शन की भीतरी दीवार को भेदने की कोशिश कर रहे थे।
मैं इंटरव्यू को हल्के-फुलके मूड में रखने की गरज कर रहा था। मैंने कहा, "सर आजकल इंटरव्यू में खाने-पीने के रंग-ढंग पर चर्चा की जाती है, ये एक नया ट्रेंड या समझो फ़ैशन है, इस सिलसिले में मैं भी आपसे पूछना चाहता हूँ. . . आप जामुन कैसे खाते हैं? दो उँगलियों के बीच पकड़ कर दाँतों तक ले जाते हैं या सीधे जामुन को अंदर कर रस का आनन्द लेते हैं?"
वे खिलखिलाए . . . .।
मैंने तभी कहा, "क्या आपने जामुन खाने के बाद अपनी जीभ अपने पोते-पोतियों को दिखलाया है . . . . .?"
उन्होंने कहा, "आपने मेरा बचपन मुझे याद दिला दिया।"
"सर मेरी गुज़ारिश है, आजकल सेल्फ़ी का ज़माना है, लोगों को आपके साथ, अपने किये साक्षात्कार का यक़ीन दिलाने, एक सेल्फ़ी लेना चाहता हूँ।"
मैंने मोबाइल टटोलने की कोशिश की, वो जैसे मिलाने को तैय्यार ही था. . . . .
सुबह पाँच के एलार्म के साथ कमबख्त घनघना उठा।
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