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भरे ग़म के ये नज़ारे समझ नहीं आते

1222    2122    12    12    22 
 
भरे ग़म के ये नज़ारे समझ नहीं आते 
हमें हर हालात मारे समझ नहीं आते 
 
जुगनुओं को पास के मैं समझ लेता 
हुए दूर अगर सितारे समझ नहीं आते 
 
ख़ला में दिन-रात क्या ढूँढ़ते जनाब आली 
करें मातम ये बिचारे समझ नहीं आते 
 
मेरे भीतर एक रहता सदा बना ख़ामोश 
मुझे उसके क्यों इशारे समझ नहीं आते 
 
कहीं ज़ेहन बुग्ज़ सा तो रहा नहीं हाज़िर 
सितम वाले तैश सारे समझ नहीं आते
 
भटक रहा हूँ रात दिन यहाँ बना काफ़िर
खुली क़िस्मत के दुवारे समझ नहीं आते 
 
 बुग़्ज़= (अरबी; संज्ञा, पुल्लिंग) वह बैर जो मन ही मन में बढ़ाया जाय, और प्रकट न किया जाय, द्वेष, बैर, छल, कपट, ईर्ष्या, दुश्मनी, कीना, हसद, जलन

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