निर्दलीय होने का सुख
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी सुशील यादव28 Nov 2017
आदमी का ‘निर्दलीय’ होना चुनावी दिनों में अचानक चालू हो जाता है।
गैर-चुनावी दिनों में ये पता ही नहीं लग पाता कि आदमीनुमा नेता की संभावित नस्ल क्या है?
निर्दलियों की पैदावार, सशक्त सत्तापक्ष और विपक्ष के जमे-जमाए, कुर्सी–काबिज़ लोगों के बात-व्यवहार पर निर्भर करती है। जमे हुवों का हटना-हटाना जब होता ही नहीं, तो ख़्वाहिशमन्द जाएँ तो जाएँ कहाँ?
जिन्होंने बरसों पार्टी का झंडा उठाया, मुँह अँधेरे ‘शाखा’ संचालित की, मीलों गाँव-गाँव पैदल चले, दरी-चादर, कुर्सी-गलीचे बिछाए-लगाए। गली-गली चंदे उगाहे। पार्टी की जब बोलती बंद थी तो, हमीं ज़ुबान देने वालों में से थे। पार्टी ने जब कहा जहाँ कहा, हमने हड़ताल-बंद करवाए। पक्ष में रहे तो गुणगान–तारीफों के पुल बाँधे, जब तक सूरज चाँद रहेगा जैसे गीत गाये, विपक्ष गये तो भ्रष्टाचार–महंगाई के नाम पर ‘रुदाली-विलाप’ का समां बाँधा ......। क्या नहीं किया .....? स्सालों के नाम पर जवानी लुटा दी ........! अपने नाम की चव्वन्नी-छाप एक टिकट कभी छपी नहीं ...।
नब्बे प्रतिशत निर्दलियों की ‘नाभी-नाल’ या मूल इसी के आस-पास होती है। वे निष्टावान, अपनी निष्ठा के चोले से बाहर निकलते–निकलते लगभग चार-पाँच इलेक्शन गँवा चुके होते हैं। छुट-भइये के इमेज से ‘भाई जी’ या ‘माईबाप’ वाली हैसियत में पहुँचना इनके बस की बात नहीं हो पाती। वे किस्मत को लानतें भेज कर चुप हो लेते हैं। इनके ‘आका’ लोग झुलाए रखने में माहिर, टिकट दिलाने के दावे यूँ करते हैं जैसे आलाकमान इनके इशारों पर टिकट-बटवारे का बंडल लिए बैठा है। आका अपनी नाकामी यूँ बयान करते हैं - पैनल में दूसरे नंबर तक आ के मामला बिगड़ गया। मंत्री के साले ने भांजी न मारी होती तो अपन कामयाब ज़रूर हो जाते। ख़ैर अब भी कुछ नही बिगड़ा है। दूसरी पार्टी ट्राई करते हैं। तुम्हारी इमेज देख के तो कोई भी हाथों-हाथ टिकट दे देगा। बस थोड़ा खर्चा करना होगा।
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