मंगल ग्रह में पानी
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी सुशील यादव15 Apr 2019
बेटर-हाफ़ ने लगभग अंतिम चेतावनी का ऐलान किया, "खाना लगा रही हूँ, अब आते हैं, या वहीं नेट में ‘व्हाट्स-एप’ थ्रू भिजवा दूँ...?”
"पता नहीं सुबह से शाम क्या सर्च करते रहते है, जो ख़तम होने का नाम नहीं लेता...? बताएँगे भी… सुध-बुध खोकर, जी-प्राण देकर, वहाँ ऐसा क्या देखते रहते हैं...? इतना कभी,अपनी गुमी हुई बछिया को ढूँढ़े होते तो, आज बक़ायदा उसकी दूसरी पीढ़ी के दूध खाते-पीते रहते।"
उसके तरकश से अगला तीर निकले, इससे पहले बोल पड़ता हूँ, "तुम साईंस नहीं पढ़ी हो? क्या समझोगी? नेट में क्या-क्या नहीं है...? नेट-वेट की चैटिंग-सर्फ़िंग कर के देखो,पड़ोसियों की चुगली-चारी की जुगाली भूल जाओगी!”
"चलो...! चेटिंग-सर्फिंग बाद में होती रहेगी, खाना लगा रही हूँ, खाते-खाते बात कर लेंगे।"
एक संस्कारी भारतीय नारी ने अपने सुहाग-श्री के सम्मुख झिझकते हुए, खिचड़ी परस दी। मैंने कोफ़्त में कहा, "आज फिर खिचड़ी...? किसी रोज़ रात का खाना ढंग का तो खिला दिया करो?...हद करती हो इसी खाने के लिए इतनी देर से चिरौरी कर रही थी?”
"खाना ढंग का अगर माँगते हैं, तो जनाब ज़रा मार्केट से तरकारी, भाजी,मछली, अंडा, प्याज़, पनीर और टमाटर ला के फ़्रिज में डाल भी दिया करें...? मुझे पकाने की फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है।"
"देखो! खाने-खिलाने का रंग-ढंग बदलो नहीं तो मैं, “मंगल” की तरफ चल दूँगा कहे देता हूँ," अपने विद्रोह का पहला बिगुल फूँक दिया।
"क्या ख़ाक, मंगल भाई के पास जायेंगे...? बड़ा घरोबा पाले रखते थे न? ट्रांसफर हो के गये आज तीसरा-महिना चल रहा है, मुड़ कर नहीं देखे वे लोग…! सब मतलबी होते हैं, ऐसों के क्या मुँह लगना? फिर ये क्या अचानक आपको उन तक जाने की सूझ रही है? हाँ, अब अगर जा ही रहे हैं तो वापिस आते समय अपना टिफ़िन,गिलास चम्मच लाना मत भूलना। हमने ‘मंगली महारानी’ को जाते समय खाना पेक कर के दिया था, उनको क़ायदे से सामान वापस भिजवाने की नहीं बनती क्या...?”
"अरे मैं ‘पांडे वाले मंगल’ की नहीं कह रहा हूँ डोबी! मंगल ग्रह की बोल रहा हूँ... मंगल ग्रह! वो... उधर... ऊपर आसमान देख रही हो...? वो जो यहाँ से करोड़ों मील दूर है। नव-ग्रहों में से एक, उसकी...समझी...?
"इधर तुम, मेरी रोज़ की चिक-चिक से परेशान रहती हो न...? रिटायरमेंट के बाद न समय पर शेव करता हूँ, न नहाता हूँ, न खाता हूँ। दिन भर, घंटे दो घंटे बाद तुम्हें तंग करने के नाम, चाय की फ़रमाइश किये रहता हूँ! ऊपर से, ये लैपटॉप को दिन-रात गले लगाए फिरता हूँ सो अलग। अब इन सब से एकमुश्त छुटकारा पा लोगी। क्यों ठीक रहेगा कि नहीं...?
"तुम्हें मालूम है, वैज्ञानिकों ने मंगल में पानी ढूँढ़ निकाला है। पानी का मतलब वहाँ जीवन बसने-बसाने के आसार पैदा हो गए हैं। बहुत सारी एजेंसी ‘मंगल गढ़’ में जाने वालों की बुकिंग शुरू करने वाली हैं। अच्छी-अच्छी स्कीम चल रही है। एक के साथ एक फ़्री वाला भी है...क्यूँ चलोगी...? हाँ, टिकट मगर एक साइड का ही मिलेगा।"
"एक साइड का टिकट...ऐसा भला क्यों...?”
"वो ऐसा है कि उधर बस जाना ही जाना होगा वापिसी के लिए अभी कोई शटल-यान डिज़ाइन नहीं हुआ है। जाने वाले उत्साही-स्वैच्छिक लोगों की कतार अभी नहीं लगी है इसलिए रियायती दर का ऐलान हुआ है।
"जिनके बैंक खाते में फ़क़त बीस-लाख है, वे एप्लाई कर सकते हैं। ’नासा-मेनेजमेंट’ पाँच सौ प्रतिशत की सब्सीडी देगी। हम इंडियन मेंटीलिटी वे जानते हैं। ‘सब्सीडी’ के नाम पर बिछ-बिछ जाते हैं।वसेल और डिस्काउंट के नाम पर घटिया चीज़ों को बटोरना जैसे अपनी आदत बन गई है।खाने-पीने के सामान में एक में एक फ़्री का ऑफ़र मिले तो हर वो चीज़ ख़रीदने की कोशिश करते हैं, जिसके नहीं ख़रीदने से सैकड़ों बीमारियों से बचा जा सकता है।
"बोलो ‘बुक’ करा दूँ...?”
"पहले बताओ तो, उधर ‘स्पेशल’ क्या है...?”
"स्पेशल-वगैरा तो कुछ भी नहीं, उलटे वहाँ कष्ट ही कष्ट है। जैन मारवाड़ी लोगों को संलेखना-संथारा करते देख के मेरे मन में विचार आया कि जीवन को समाप्त करने का ‘मंगल-अभियान’ भी एक तरीक़ा हो सकता है। वहाँ अभी फ़िलहाल पानी है बस। वहाँ की ग्रेविटी यहाँ से कम है, हम अस्सी किलो के जो यहाँ हैं उधर अस्सी-ग्राम के हो रहेंगे।"
"इतना वज़न उधर जाते ही कम हो जाएगा...अरे वाह…! तब तो अच्छा है… अपने ‘मोटे-फूफा’ को भी साथ ले जाना। वे सब प्रयोजन कर डाले, वज़न कम होने का नाम ही नहीं लेता उनका। अब उनके बारे में यूँ कहें कि बाहर निकले पेट देख के आठ नौ महीने की गर्भवती का चेहरा घूम जाता है तो बड़ी बात नहीं होगी।
"अच्छा ये तो बताओ, उधर आप रहोगे कहाँ...भला खाओगे क्या...? इधर नाश्ते में दस मिनट देर हो जाती है तो आप आसमां सर पे उठा लेते हो… बोलो ग़लत कह रही हूँ...?”
इसी एक प्रश्न ने मुझे ख़ुद भी ‘ख़ासा’ परेशान कर रखा है।
मैंने कहा, "नासपीटों ने एक रिसर्च विंग इस काम पर लगा दिया है। वे लोग तरह-तरह की, होम्योपैथी गोली, माफ़िक गोलियाँ तैयार करने में लगे हैं। अलग-अलग स्वाद वाली गोलियाँ किसी में बिरयानी, कहीं इंडियन रोटी, इतालियन पिज़्ज़ा, चाइनीज़ नूडल्स और तो और देशी फाफड़ा जलेबी, गुलाब जामुन, इडली बड़ा साम्भर, ये सब। वे उधर जाने वाले आदमी और उनके देश की आवश्यकतानुसार सबमें बाँट दिए जायेंगे। नास पीटे मार्कटिंग में बड़े तेज़ रहते हैं।
"रहने के लिए वहाँ एक केपसूल होगा, जो बाहर की तेज़ हवा, ठंड, धूल की आँधी से बचाव करता रहेगा। नास-पीटे के लोग नीचे से स्क्रीन में बताते रहेंगे, कब क्या करना है। उधर ये लैपटॉप, मोबाइल सब बेकार हो जाएँगे। किसी का कोई काम और रोल नहीं रहेगा।
"वहाँ पेट्रोल नहीं है, वरना पुरानी लूना ले जाता। ख़ैर आसपास चक्कर मारने के लिए सायकल तो रखवा लेंगे।
"वहाँ की फसल कैसी होगी, ये ग़ौर करने की बात होगी। हम अपने देश की लौकी सेमी, मिर्ची आदि के बीज ले जाने की अनुमति ले लेंगे।अमेरिका वाले आनाकानी किये तो भी देशी स्टाइल में, चोरी छिपे ले जाने की कोशिश कर देखेंगे।
"एक बात तो तय है कि इधर के निखट्टू को भी उधर नोबल पुरस्कार से नवाज़ा जा सकता है; बशर्ते किसी के प्रयास से सेम के बीज से पहली बेल मंगल की ज़मीन में सनसनाते हुए उग जाए...?”
पत्नी का चेहरा रुआँसा सा हो गया। आँखें पोंछते सुबकते हुए बोली क्या ज़रूरत है उधर जाने की, संथारा के चक्कर में क्यों पड़ते हो जी...? रूखी-सूखी जो अपनी ज़मीन में मिल रही है, उसी में संतोष करो ना जी...।"
उसके हर वाक्य के अंत में ‘जी’ लगते हुए काफी अरसे बाद सुना तो, शादी के शुरुआती दिन याद आ गए।
फिर थाली को हाथ से वापस खींचते हुए बोली, "ये खिचड़ी हटाओ मै आपके लिए शुद्ध-घी का आलू परांठा बस दस मिनट में तैयार करती हूँ।"
शुद्ध-देशी-घी का स्वाद मुझे अपने अभियान से कोसों दूर करके रख देगा, मेरी कमज़ोर नब्ज़ टटोलने में वो माहिर सी हो गई है। घी की भीनी-भीनी ख़ुशबू हवा में तैरने लगी।
मै अपने लैपटॉप में~ फिर से बिज़ी हो गया।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
60 साल का नौजवान
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | समीक्षा तैलंगरामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…
(ब)जट : यमला पगला दीवाना
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | अमित शर्माप्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
ग़ज़ल
- अधरों की अबीर . . .
- अन-मने सूखे झाड़ से दिन
- अपनी सरकार
- अवसर
- आजकल जाने क्यों
- आदमी हो दमदार होली में
- आज़ादी के क्या माने वहाँ
- इतने गहरे घाव
- इश्तिहार निकाले नहीं
- उन दिनों ये शहर...
- एतराज़ के अभी, पत्थर लिए खड़े हैं लोग
- कब किसे ऐतबार होता है
- कभी ख़ुद को ख़ुद से
- कामयाबी के नशे में चूर हैं साहेब
- कितनी थकी हारी है ज़िन्दगी
- किन सरों में है . . .
- कुछ मोहब्बत की ये पहचान भी है
- कोई जब किसी को भुला देता है
- कोई मुझको शक ओ शुबहा नहीं रहा
- कोई सबूत न गवाही मिलती
- गर्व की पतंग
- छोटी उम्र में बड़ा तजुर्बा.....
- जब आप नेक-नीयत
- जले जंगल में
- जिसे सिखलाया बोलना
- तन्हा हुआ सुशील .....
- तुम नज़र भर ये
- तुम्हारी हरकतों से कोई तो ख़फ़ा होगा
- तू मेरे राह नहीं
- तेरी दुनिया नई नई है क्या
- तेरे बग़ैर अब कहीं
- दर्द का दर्द से जब रिश्ता बना लेता हूँ
- दायरे शक के रहा बस आइना इन दिनों
- देख दुनिया . . .
- देखा है मुहब्बत में, हया कुछ भी नहीं है
- पास इतनी, अभी मैं फ़ुर्सत रखता हूँ
- बचे हुए कुछ लोग ....
- बस ख़्याल बुनता रहूँ
- बस ख़्याले बुनता रहूँ
- बादल मेरी छत को भिगोने नहीं आते
- बिना कुछ कहे सब अता हो गया
- बुनियाद में
- भरी जवानी में
- भरी महफ़िल में मैं सादगी को ढूँढ़ता रहा
- भरे ग़म के ये नज़ारे समझ नहीं आते
- मत पुकारो मुझे यों याद ख़ुदा आ जाए
- माकूल जवाब
- मिल रही है शिकस्त
- मुफ़्त चंदन
- मेरा वुजूद तुझसे भुलाया नहीं गया
- मेरे शहर में
- मेरे सामने आ के रोते हो क्यों
- मेरे हिस्से जब कभी शीशे का घर आता है
- मेरे क़द से . . .
- मैं सपनों का ताना बाना
- मौक़ा’-ए-वारदात पाया क्यों गया
- यूँ आप नेक-नीयत
- यूँ आशिक़ी में हज़ारों, ख़ामोशियाँ न होतीं
- यूँ भी कोई
- ये है निज़ाम तेरा
- ये ज़ख़्म मेरा
- रूठे से ख़ुदाओं को
- रोक लो उसे
- रोने की हर बात पे
- वही अपनापन ...
- वही बस्ती, वही टूटा खिलौना है
- वादों की रस्सी में तनाव आ गया है
- वो जो मोहब्बत की तक़दीर लिखता है
- वो परिंदे कहाँ गए
- शहर में ये कैसा धुँआ हो गया
- समझौते की कुछ सूरत देखो
- सहूलियत की ख़बर
- साए से अलग हो के वो जाते नहीं होंगे
- साथ मेरे हमसफ़र
- सफ़र में
- हथेली में सरसों कभी मत उगाना
- क़ौम की हवा
- ग़ौर से देख, चेहरा समझ
- ज़िद की बात नहीं
- ज़िन्दगी में अँधेरा . . .
- ज़िन्दगी में अन्धेरा
- ज़िन्दा है और . . .
- ज़ुर्म की यूँ दास्तां लिखना
सजल
नज़्म
कविता
गीत-नवगीत
दोहे
- अफ़वाहों के पैर में
- चुनावी दोहे
- दोहे - सुशील यादव
- पहचान की लकीर
- प्रार्थना फूल
- माँ (सुशील यादव)
- लाचारी
- वर्तमान परिवेश में साहित्यकारों की भूमिका
- सामयिक दोहे – 001 – सुशील यादव
- सामयिक दोहे – 002 – सुशील यादव
- साल 20 वां फिर नहीं
- सुशील यादव – दोहे – 001
- सुशील यादव – दोहे – 002
- सुशील यादव – दोहे – 003
- सुशील यादव – दोहे – 004
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- अपना-अपना घोषणा पत्र
- अवसाद में मेरा टामी
- आँकड़े यमराज के
- आत्म चिंतन का दौर
- आसमान से गिरे...
- एक छद्म इंटरव्यू
- एक झोला छाप वार्ता......
- एक वाजिब किसान का इंटरव्यू
- गड़े मुर्दों की तलाश......
- चलो लोहा मनवायें
- जंगल विभाग
- जो ना समझे वो अनाड़ी है
- डार्विन का इंटरव्यू
- तुम किस खेत की मूली हो?
- तू काहे न धीर धरे ......।
- दाँत निपोरने की कला
- दिले नादां तुझे हुआ क्या है ...?
- दुलत्ती मारने के नियम
- नन्द लाल छेड़ गयो रे
- नया साल, अपना स्टाइल
- नास्त्रेदमस और मैं...
- निर्दलीय होने का सुख
- नज़र लागि राजा. . .
- पत्नी का अविश्वास प्रस्ताव
- पत्नी की मिडिल क्लास, "मंगल-परीक्षा"
- पीर पराई जान रे ..
- प्रभु मोरे अवगुण चित्त न धरो
- बदला... राजनीति में
- भरोसे का आदमी
- भावना को समझो
- मंगल ग्रह में पानी
- मेरी विकास यात्रा. . .
- रायता फैलाने वाले
- विलक्षण प्रतिभा के -लोकल- धनी
- सठियाये हुओं का बसंत
- सबको सन्मति दे भगवान
- साहब पॉज़िटिव हो गए
- सिंघम रिटर्न ५३ ....
कविता-मुक्तक
पुस्तक समीक्षा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं