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साए से अलग हो के वो जाते नहीं होंगे

 

बहर: हज़ज मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़
अरकान: मफ़ऊल मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
तक़्तीअ: 221    1221    1221    122
 
साए से अलग हो के वो जाते नहीं होंगे
अब उनको अँधेरे ये सताते नहीं होंगे
 
बस एक मुलाक़ात से वाक़िफ़ हो गया हूँ
वो रोज़ मुसाफ़िर बने आते नहीं होंगे
 
नफ़रत की ये दीवार गिराना है ज़रूरी
मैं जानता हूँ और बताते नहीं होंगे
 
उसकी मुझे आदत कभी अच्छी लगा करती
अब जूड़े में फूलों को सजाते नहीं होंगे
 
ये ख़ौफ़ का मंजर तिरे ही शहर में ज़्यादा
कुछ  कील  इरादों के गड़ाते नहीं होंगे
 
आए दिनों की बात भरोसा  सदा  टूटा
ता'वीज़ सदाचार बँधाते नहीं होंगे
 
कुनबा बड़ा हो जाए वहीं ख़ून ख़राबा
मोहब्बतों  के कोने समाते नहीं होंगे

वहमों  का है भूगोल  यहाँ तारी  सभी पर
हम रोज़ तो गंगा में नहाते नहीं होंगे

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