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बस ख़्याल बुनता रहूँ

घनाक्षरी ग़ज़ल
8, 8, 8, 7 . . . वर्ण 
 
अँधेरे में दुआ करूँ, ऐ ख़ुदा परछाईं दे
बेख़्याली कहीं निकले, वो नाम सुनाई दे
 
करवट ना बदलूँ, सपनों रहूँ गाफ़िल 
नीद से उठते तेरी, गो याद जुम्हाई दे
 
क़समों का क़सीदा या, कहीं वादों का हो ताना
यादों में तुझे बुन लूँ, बस यूँ तन्हाई दे
 
उजड़े गुलशन में क्या, बिखरा-शजर देखूँ
कुछ क़िस्मत बदले, यूँ साथ ख़ुदाई दे
 
रिश्तों की अदालत में, बेजान हलफ़नामे
या मुझको ज़िंदा रख, या मेरी रिहाई दे

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