प्रभु मोरे अवगुण चित्त न धरो
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी सुशील यादव3 Jul 2017
वे प्रसाद के नाम पर प्रभु को आज भी सवा-रुपये का भोग लगाते हैं। किसी मिठाई की दूकान से पाँच रुपये की मिठाई लेकर, चार प्रभुओं के द्वार में चक्कर लगा आते हैं। प्रसाद चढ़ाते वक़्त अनायास ही बुदबुदाते रहते हैं, "प्रभु मोरे अवगुण चित्त ना धरो"।
लगभग साढ़े-तीन दशक़ से मैं स्वयं देख रहा हूँ, उनमें ऐब जैसा वायरस घुसा ही नहीं, या यूँ कहो कि उनमें स्ट्रांग क़िस्म का एंटी-वायरस एप्लीकेशन जन्म-जात इन्सटाल्ड है।
वे अब लगभग रिटायरमेंट के नज़दीक आ पहुँचे हैं मगर नियमित रूप से पूजा पाठ, और गृहस्थ धर्म के पालन में, पत्नी बच्चों की देखभाल बख़ूबी सम्हाले हुए हैं। उदाहरण देने के लिए उनके इलाक़े में बस "पंडित जी" कह देना काफ़ी हो जाता है।
हमने उनको कड़कड़ाती ठंड में सुबह पाँच बजे तालाब से स्नान कर आते देखा है। अब घरों में नल आ जाने और तालाब के प्रदूषित हो रहने का ख़ामियाज़ा पंडित जी को भुगतना पड़ रहा है, ये अलग बात है। तब वे चार-मन्दिरों में जल भी लगे हाथ चढ़ा आते थे।
पंडित जी अपनी इस दिनचर्या के आरंभिक क्षणों के बाद, सुबह सात-बजे से रात दस बजे तक दुनियादारी के झमेलों को निपटने वाले आम-जन हो जाया करते। ऑफ़िस में उनके बाबू-स्तरीय काम का दबदबा था। पाँच साल पहिले, कौन सी फ़ाइल किस रेक में रखी है, वे मिनटों में निकलवा देते थे।
उस फ़ाइल की धूल-झाड़ते तक, शर्तिया एलान कर देते थे "दुबे जी" गये...।
साहब की टेबल से फ़ाइल की वापसी, उनके किये एलान पर मुहर लगा देती थी। "दुबे जी" चार-छे महीनों के लिए, गधे के सर से सींग, माफ़िक ग़ायब हुए लगते।
कभी-कभी ऑफ़िस वालों को शक़ भी होता कि हो न हो परदे की आड़ में ये पंडित जी का खेल हो....? वे पंडित जी को घबराई नज़रों से देखते, उनसे ज़रूरत के मुताबिक़ बात करते।
पंडित जी का अपनी तरफ़ से "सफ़ाई वाला बयान" जारी होने के बाद, ऑफ़िस का माहौल सामान्य होने लगता।
स्टाफ वाले उनकी क्षमता से दिनों-दिन कायल होते। वे होनी-अनहोनी को "बिचरवाने" के लिए, लंच टाइम में भीड़ की शक़्ल में उनके पास जमने लगते। घर में उनको, टिफिन बिना खाए वापस लाने की कैफ़ियत देनी पड़ती।
पिछले बीस-सालों में पंडित जी ने अपनी वेशभूषा अपने बिग-बॉस के आचरण मुताबिक़ बदली, शर्मा-पांडे, रेजीम में वे बाक़ायदा धोती-अचकन-जवाहर-बंडी, चुटिया-तिलकधारी बन जाते। दीगर समय वे पेंट, हाफ़ बुश्शर्ट और कभी ज़्यादा स्मार्ट होने की नज़ाकत वाली स्थिति होती तो शर्ट को बाक़ायदा पेंट में "इन" कर के आते।
उन्हें लगता, चौंतीस-बरस की सरकारी सेवा ने उनके सर के तमाम बाल नोच डाले। कितने अफ़सर आये और गये। वे सोचते कि बस एक आख़िरी साल ठीक से और गुज़र जाए, फिर मज़े से पेंशन और भजन…!
मगर पंडित जी की कुंडली में किसी राहू का होना भी लिखा था सो ....
दफ़्तर में तबादले पर, एक नए खुर्राट-साहब के आने के अंदेशे में सारा स्टाफ थर्राया हुआ सा था।
उनका बायोडाटा उनके आगमन से पहिले दूसरे ऑफ़िस के झमाझम बिदाई समारोह से मिल चुका था। इन साहब को बिदा दे चुकने के बाद भी, उस ऑफ़िस के स्टाफ का, एक्स्ट्रा जश्न मनाने का सिलसिला, थमने का नाम न लेना, उनकी खूसट छवि की ओर साफ़ इशारा करता दीखता था।
इनके ऑफ़िस के स्टाफ वालों की आख़िरी उमीद, इकलौते पंडित जी थे।
वे कई बिदके घोड़ों के लगाम समय-समय पर कस के दिखा चुके थे। अत: स्टाफ का भरोसा उनका जीता हुआ था।
वे पता लगाने, डाटा जुगाड़ने में माहिर भी थे। आने वाले ऑफ़िस प्रमुख "प्रभुदेवा" की सैंकड़ों जानकारी उनके पास थी जिसकी वजह से वे जानते थे कि एक भी ग़लत "स्टेप" से वे उखड़ जायेंगे और उनको उखाड़ देंगे। बचे हुए रिटायरमेंट के एक साल में कालिख पुत जायेगी।
आनन--फानन उन्होंने "प्रभुदेवा की देवी" की ओर रुख़ किया। सार्थक जानकारी मिली कि वे धार्मिक-प्रवृत्ति की साध्वी महिला हैं।
पंडित जी तुरंत पाँच-रुपयों की बलि देने, और चार-देव को पूजने, ऑफ़िस से लंच-टाइम में ही चल पड़े। अज्ञात भय भी क़ाबिज़ था, जो उनसे बार-बार कहलवा रहा था, "प्रभु मोरे अवगुण चित्त न धरो "।
अगले दिन पंडित जी समय से पहले स्टाफ वालों को दफ़्तर बुलवा कर "दफ़्तर-बाँधने" का सफल काम कर दिया।
नये साहब के नथुनों में आरती, घी, लोभान की ख़ुशबू ज़ोरों से घुस रही थी। वे इस कृत्य के नालायक़-नायक की ख़बर लेने की फिराक में छोटे-मोटे कंटिनजेंसी वालों पर धौंस जमाने लगे। फुसफुसाहट में ही पंडित जी का नाम उभर आया।
साहब ने एक्सप्लेनेशन की मुद्रा में पूछा, "ये दफ़्तर है...? क्या बवाल मचा रखा है ...हाँ...?"
पंडित जी को अपना फार्मूला जो सवा-रुपये के प्रसाद में चार जगह दे आये थे, इतना विश्वास था कि कुछ न घटेगा ...वे बोले, "सर हम लोग नये साहब के आने की खुशी में पुराने गये हुए साहब की सब बलाओं को आपसे दूर रखने की मंगल-कामना करते हैं। ये धूप हवन वही सब हैं हुजूर…।"
बड़े साहेब की पहले दिन यूँ बोलती बंद हो जायेगी किसी ने सोचा भी न था।
बड़े साहब ने कहा, मैं तो सिर्फ़ काम देखूँगा। कोई चापलूसी मेरे सामने नहीं चलेगी।
साहब का रुख़ स्पष्ट होते ही, पंडित जी मैडम की "हांडी में दाल" गलाने निकले, "…मैडम जी इधर पास में चित्रकूट है, बहुत बढ़िया जलप्रपात है और हाँ, जानती हैं वहाँ श्री रामचन्द्र जी ....सीता मईय्या के साथ ...वनवास काल में सालों रहे ..। आप बच्चों को लेकर देख आइये, कहिये तो इन्तिज़ाम कर देता हूँ ...।"
"पंडित जी, आपको मालूम है साहब जी जायेंगे नहीं उनको इन बातों में कोई मतलब नहीं दिखा। मैं पूछ कर पीछे ख़बर करती हूँ आपको।"
अगले दिन साहेब ने बुलवाकर पंडित जी के नाम पूरे चार दिनों का दौरा, जीप ड्राइवर सहित एप्रूव कर दिया। साथ में पीछे, मैडम जी की कार बच्चों के साथ लग गई।
पंडित जी ने चित्रकूट के किसी मन्दिर-भगवान को नहीं छोड़ा, प्रसाद चढ़ा-चढ़ा के बस अलापते रहे, "प्रभ मेरो अवगुण चित्त न धरो"!
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