नया साल, अपना स्टाइल
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी सुशील यादव2 Jan 2019
"गुरुदेव! नया साल आने को है। आप में पहले वाला उत्साह दिखाई नहीं पड़ता?"
"गनपत! जले पे क्यूँ नमक छिड़कते हो? अभी-अभी हम चुनाव हारे हैं, तुम्हीं बोलो, किस मुँह से 'चीज़' बोल के मुस्कुराहट बिखेरें? फेस इस्माइली बनाने के दिन लद गये।"
"गुरुदेव! हारना जीतना तो लगा रहता है। वो अपनी जगह, नया साल अपनी जगह। आप इधर के पार्टी प्रधान हो, आपने मुँह लटका लिया, तो हम जैसे कार्यकर्ताओं का क्या बनेगा? चुनाव हारे हैं, कोई दंडनीय अपराध तो नहीं किया? वैसे, आप जानते हैं, तिहाड़ यरवदा से पेरोली भी के नए साल की ख़ुशी में ग़मों को किनारा किये रोल मार लेते हैं?"
"गनपत, तुम समझते नहीं, अपने ऊपर 'आला कमान' भी होता है। हम पार्टी वाले लोग हैं, कोई बेवा -छड़वा नहीं कि मज़ार की मिट्टी न सूखे और जश्न मनाने निकल जाएँ। लोक-लिहाज़ जैसी कुछ चीज़ भी है, जो हम पुरानी पीढ़ियों के खून में अभी तक बाकी है। हम लोग भूखों मर जायेंगे, प्यासे रह लेंगे, मगर ग़म को पूरा राजकीय शोक जैसा सम्मान-व्यवहार देंगे। हमें पिज़्ज़ा और कोक और तुम्हारे दीगर ड्रिंक्स पार्टी वारटी के ढकोसलों से दूर रहने दो, इसी में हमारा सम्मान है।
गनपत, ये देखो एक बोर्ड बाहर टाँगने की खातिर बनवा रखा है। ’कृपया जूते और नये साल की बधाईयाँ बाहर रखें’।"
"गुरुदेव! एसा अनर्थ क्यों?"
"गनपत, तुम्हें मालूम है, ढेरों लोग मिलने आते हैं, सब जूते-चप्पल पहने घुस लेते हैं, हमने इलेक्शन से पहले नया मार्बल बदला है, इनकी चमक अब उतर जायेगी तो आगे किस कमाई के बूते लग पाएगी? न ठेकेदार हाथ धरने देगा न मुनिस्पेलटी का इंजिनीयर घास डालेगा, इसीलिए पहली मनाही जूते चप्पल की है और रही बात दूसरे की तो ये मानो कोई बधाई से बुझते दिए में रोशनी नहीं बढ़ने वाली। सब बेकार की बातें हैं। नये साल का टाइम पास है। जिसके पास बेकार टाइम हो वो करता रहे पास ...? वैसे भी ये जानो पिछले पच्चीस- तीस सालों से, लोगों की बधाईयाँ सुनते-सुनते कान पाक गए। आपके जीवन में ये ख़ुशी आये वो आये ......। जब ख़ुशियों को आना होता है बिना पूछे आ जाती हैं। अगर इलेक्शन जीत के कुर्सी पा जाओ तो डबल ट्रिपल आ जाती है। हमने सत्ता सुख में देखा, जितने ज़्यादा करीबी होते हैं, उनकी उतनी ही बलवती इच्छायें होती हैं। हर साल इलेक्शन पहले ढेरों बधाई संदेश भिजवा डालते हैं। जीतो तो इनकी लाटरी खुल जाती है हारो तो पीछे मुड़ के नहीं देखते। फिर ये एहसास भी करवाते हैं, हमने कहा था आप चालीस से जीतेंगे ....। बात सच निकली कि नहीं?
अब की बार वे सब कहाँ गुम हुए पता भी न चला? जितनी बधाईयाँ मिलीं उतने वोट मिल जाते तो कम से कम जमानत बच जाती। इन बधाइबाज़ों ने कहीं मुँह दिखाने लायक भी न छोड़ा। देखा? हार गए कि नहीं?
बुलाओ उनको, पूछो उनसे .....? मन से नहीं दिए थे क्या, शुभ की कामना, जो अमंगल हो बैठा? अब इन बधाइयों से डर लगता है। भाड़ में जाएँ ऐसी बधाइयाँ और ऐसा नया साल .....।"
"गुरुदेव! ये तो आपका श्मशान बैराग जैसा है। काहे को वहाँ जाते ही सब कुछ निस्पृह विरक्ति के गर्भ में समा जाता है ....? आप को इससे उबरने के लिए ही तो नया साल मना लेने की ज़रूरत है...? ध्यान को बँटाने के लिए, जीवन को गति देने के लिए, जीवन में एक नया उत्साह जगाने के लिए आपको नया साल मना लेना चाहिए। क्या खाते हैं आप ....?"
"गनपत! मैं एक नैतिक ज़िम्मेदारी के बोझ से दबा हुआ हूँ। प्रदेश मुखिया हो के दो सीट न दिला पाया, व्यर्थ है मेरा आज तक का पालेटिकल करियर....क़्या कहते हैं ...चुल्लू भर पानी में डूब मरने की इच्छा होती है ......।
और हाँ असल बात ये भी है कि लोग जो पहले बिन बुलाये आ जाते थे, वे बुलाने पर भी न आयेंगे। बाद में बहाने पे बहाने बनायेंगे वो क्या था भाई जी हमें अमुक ज़रूरी काम फँस गया था सो न आ सके, हम बाहर गए थे कल लौटे ...। ये सब मुझे अच्छा नहीं लगेगा।"
"गुरुदेव मरें आपके दुश्मन....। आप एकतरफ़ा सोच रखते हैं। स्वार्थी लोगों की पहचान का यही तो समय है। कम लोग आये मगर निष्ठा वाले हों।
हर अन्धकार के बाद सुबह की एक नई किरण फूटती है, आप ही कहते थे न गुरुदेव। आपको उस किरण का इंतज़ार करना होगा। यूँ निराश होने से, मनोबल गिराने से काम नहीं चलने का? अगर आज आप बैठ गये तो पार्टी चरमरा के बैठ जायेगी। आपके पास पिछ्ला उदाहरण एम.पी. से है, सी.एम. ने हार के बाद दस साल पालिटिक्स से दूर रहने की सोच ली। पार्टी को मंझधार में छोड़ उतर गए क्या हाल हुआ? कार्यकताओं का विशवास लुट गया। फिर विश्वास लौटा न सके। वहीं दूसरी ओर वे अडिग खड़े रहते तो आज बात दूसरी होती कि नहीं?
गुरुदेव हम छोटे लोग हैं आपसे ज्ञान की बातें सीखे हैं, आपको ज्ञान क्या दें? आप से बस ये कह सकते हैं कि एक हवा, लहर या आँधी सी चल जाती है, उसीमें बरसों से मज़बूती से गड़ा टेंट आपका उखड़ जाता है? दूसरे प्रदेश वाले इतने हताश नहीं हुए जा रहे हैं जितने आप हो कि सरेंडर की मुद्रा में कम्बल ओढ़ के सो गए।
गुरुदेव! हमने पहले इशारों में आगाह किया था, पार्टी बैठने वाली है। आपने ध्यान नहीं दिया। वैसे हमें भी गुमान न था कि इतने ज़ोरों से चरमरा के बैठ जायेगी?
गुरुदेव अब तो पार्टी वालों को बैठ के चिंतन करना चाहिए कि इसे पटरी पर कैसे लाया जाय। डेमेज कंट्रोल के लिए पाँच साल का वक्त है। सभी सम्हल जाएगा। आप तो आदेश दें बस .....।"
"गनपत! तुम समझ काहे नहीं रहे ...? बिजली, शामियाना, बंद मिठाई वाले सब का हमसे लेना निकलता है। लिहाज में वे माँगने नहीं आ पाए, किस मुँह से उनको आर्डर करें......? इससे अच्छा नए साल में दुबक के दो पेग न पी लें .....?"
"गुरुदेव, व्यवस्था आप मुझ पर छोड़ो अभी नए साल को हफ़्ता-दस दिन हैं, देख लेंगे।
हाँ गुरुदेव, पार्टी को एक नया लुक देने का प्लान ले के मै आया था, इससे खोई प्रतिष्ठा, सम्मान वापस आने की संभावना है।
गुरुदेव प्लान ये है कि अपन, प्रभात फेरी का पुराना फार्मूला फिर से रेवाइव करें। हर मोहल्ले में पाँच सात लोग जगायें| उनको पार्टी झंडा ले के निकलने को कहें। वे अपने करीब के दूसरे मुहल्ले में पहुँचें। इससे जनमत बनेगा। भाग लेने वालों की अटेंडेंस लें। लोकल बाड़ी चुनाव में इसे आधार मान के टिकट बाँटे। साफ सुथरी छवि वाले कार्यकर्ताओं की फौज जुड़ेगी। सुबह-सबेरे सात्विक विचार के लोग मिलेंगे। देर से उठने वाले, पिय्यकड़-बेव्ड़ों से पार्टी को निजात मिलेगा।
आप कहें तो आपके नाम से एक प्रेस विज्ञप्ति ज़ारी कर दूँ ....?
नहीं-नहीं में आपके पास फिर ढेरों बधाइयाँ आने लग जायेंगी .....मुझे मालूम है सत्ता में पुन: वापसी के ख़ौफ़ से भी लोग घबराते ज़रूर हैं।"
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