पीर पराई जान रे ..
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी सुशील यादव9 Apr 2018
"वैष्णव जन तो तेने कहिए, जो पीर-पराई जाने रे..."
पराई-पीर को जानने के लिए एन.जी.ओ. बनाने का ख़्याल उन पर लादा गया। वो अनमने से हरकत में आ गए।
पराई-पीर आजकल कमाई का नया सेक्टर बन के उभर रहा है।
श्रीवास्तव जी पहले ऐसे न थे। सब की मदद के लिए हाज़िर रहते थे। बच्चे का स्कूल में एडमिशन हो, बिजली का बिल ज़्यादा आ जाए, बैंक में ड्राफ़्ट बनवाना हो, किसी को कॉलेज, हॉस्पिटल आना-जाना हो, सब का बुलावा श्रीवास्तव जी के लिए होता था।
ग़नीमत थी कि वो समय मोबाइल का नहीं था वरना ये होता कि हॉस्पिटल से बिजली आफ़िस, फिर कॉलेज और न जाने कहाँ–कहाँ उन्हें अपना पेट्रोल जलाना पड़ता। उन्होंने सबकी पीर हरने में अपनी क़ाबिलीयत का लोहा मनवा लिया था।
उनका कहना था कि आदमी किसी की मदद करे इससे अच्छी बात क्या होगी? मदद करते-करते वे अपना बजट बिगाड़ लेते थे। दो जोड़ी हाफ़ बुश-शर्ट, एक चलने-चलाने लायक स्कूटर, घर में मामूली सा क्लर्क की हैसियत वाला फर्नीचर-क्रॉकरी बस। बीबी के ताने सुन के अनसुना कर देना उनकी दिन-चर्या में अनिवार्यत: शामिल था।
मदद का जुनून इस हद तक कि बीबी के बुखार से ज़्यादा पड़ोसी की छींक उन्हें परेशान करती थी।
ऐसे मददगार, सर्व-सुलभ आदमी की भला ज़रूरत किसे नहीं होती? सो उनकी मदद के लिए लोग मँडराने लगे।
सलाह देने में माहिर विशेषज्ञों की फौज, फार्मूला, प्लान, रोडमेप के नाम से न जाने क्या –क्या उनको परोसने लगी।
उन्हें ये बतलाने में कतई चूक नहीं की कि अपना समय, धन और श्रम को व्यर्थ न जाने दो। पराई–पीर को समझना, दूर करना बहुत हो गया। इसे भुनाओ।
माहिरों ने, ये बात श्रीवास्तव जी के दिमाग़ में ठूँस-ठूँस के घुसेड़ दी कि तुम्हारे पास ‘सद्काम’ का एक ब्लैंक चेक है।
लोगों का तुम पे विश्वास है। तुम्हारे जन-हित कार्यों से जनता प्रभावित है। तुम्हारी बातों में वज़न है। तुम्हारी सलाह से बेटे-बेटियों के रिश्ते तय हो रहे हैं। तुम कुछ नया करो।
दुःख-भंजक श्रीवस्तव् जी हाड़–मांस के बने थे वे हामी भर गए।
उनके हामी भरते ही, लोगों ने झंडू–बाम मलहमनुमा, एक ‘पीड़ा-हर्ता’ लेबल का एन.जी. ओ. रजिस्टर करवा लिया।
मदद के बड़े–बड़े दावे किए जाने लगे।
ला-इलाज बीमारी से ग्रस्त लोगों को जगह-जगह ढूँढा जाने लगा।
अपाहिजों को पैर, बैसाखी, ट्राइसिकल बाँटे जाने लगे।
अन्धों को आँखें मिलने लगीं। ग़रीबों-दुखियों की नय्या पार लगने की ओर रुख करने लगी।
एन.जी.ओ. पर दानियों के रहम और सरकार की मेहरबानी के चलते अंधाधुंध पैसों की बारिश होने लगी।
श्रीवास्तव जी के पैरों तले की ज़मीन के नीचे अब मार्बल, टाइल्स या कालीन के अलावा कुछ नहीं होता। स्कूटर का ज़माना कब का लद गया।
एयर-कंडीशन महँगी गाड़ियों से नीचे चलने में उनको अटपटा सा लगता है अब।
वे बीबी की छींक पड़ जाए तो घर से नहीं निकलते, भले ही पड़ोसी का कहीं दम निकल जाए।
पराई-पीर को देखते-देखते उनने बेवक़्त अपना बुढ़ापा बेवज़ह जल्दी बुला लिया ऐसा इन दिनों वे सोचने लगे हैं।
फिर ये सोच कर कि ऐसा ख़ुशहाल बुढ़ापा भगवान सब को दे, वे ख़ुश हो लेते हैं।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
60 साल का नौजवान
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | समीक्षा तैलंगरामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…
(ब)जट : यमला पगला दीवाना
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | अमित शर्माप्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
ग़ज़ल
- अधरों की अबीर . . .
- अन-मने सूखे झाड़ से दिन
- अपनी सरकार
- अवसर
- आजकल जाने क्यों
- आदमी हो दमदार होली में
- आज़ादी के क्या माने वहाँ
- इतने गहरे घाव
- इश्तिहार निकाले नहीं
- उन दिनों ये शहर...
- एतराज़ के अभी, पत्थर लिए खड़े हैं लोग
- कब किसे ऐतबार होता है
- कभी ख़ुद को ख़ुद से
- कामयाबी के नशे में चूर हैं साहेब
- कितनी थकी हारी है ज़िन्दगी
- किन सरों में है . . .
- कुछ मोहब्बत की ये पहचान भी है
- कोई जब किसी को भुला देता है
- कोई मुझको शक ओ शुबहा नहीं रहा
- कोई सबूत न गवाही मिलती
- गर्व की पतंग
- छोटी उम्र में बड़ा तजुर्बा.....
- जब आप नेक-नीयत
- जले जंगल में
- जिसे सिखलाया बोलना
- तन्हा हुआ सुशील .....
- तुम नज़र भर ये
- तुम्हारी हरकतों से कोई तो ख़फ़ा होगा
- तू मेरे राह नहीं
- तेरी दुनिया नई नई है क्या
- तेरे बग़ैर अब कहीं
- दर्द का दर्द से जब रिश्ता बना लेता हूँ
- दायरे शक के रहा बस आइना इन दिनों
- देख दुनिया . . .
- देखा है मुहब्बत में, हया कुछ भी नहीं है
- पास इतनी, अभी मैं फ़ुर्सत रखता हूँ
- बचे हुए कुछ लोग ....
- बस ख़्याल बुनता रहूँ
- बस ख़्याले बुनता रहूँ
- बादल मेरी छत को भिगोने नहीं आते
- बिना कुछ कहे सब अता हो गया
- बुनियाद में
- भरी जवानी में
- भरी महफ़िल में मैं सादगी को ढूँढ़ता रहा
- भरे ग़म के ये नज़ारे समझ नहीं आते
- मत पुकारो मुझे यों याद ख़ुदा आ जाए
- माकूल जवाब
- मिल रही है शिकस्त
- मुफ़्त चंदन
- मेरा वुजूद तुझसे भुलाया नहीं गया
- मेरे शहर में
- मेरे सामने आ के रोते हो क्यों
- मेरे हिस्से जब कभी शीशे का घर आता है
- मेरे क़द से . . .
- मैं सपनों का ताना बाना
- मौक़ा’-ए-वारदात पाया क्यों गया
- यूँ आप नेक-नीयत
- यूँ आशिक़ी में हज़ारों, ख़ामोशियाँ न होतीं
- यूँ भी कोई
- ये है निज़ाम तेरा
- ये ज़ख़्म मेरा
- रूठे से ख़ुदाओं को
- रोक लो उसे
- रोने की हर बात पे
- वही अपनापन ...
- वही बस्ती, वही टूटा खिलौना है
- वादों की रस्सी में तनाव आ गया है
- वो जो मोहब्बत की तक़दीर लिखता है
- वो परिंदे कहाँ गए
- शहर में ये कैसा धुँआ हो गया
- समझौते की कुछ सूरत देखो
- सहूलियत की ख़बर
- साए से अलग हो के वो जाते नहीं होंगे
- साथ मेरे हमसफ़र
- सफ़र में
- हथेली में सरसों कभी मत उगाना
- क़ौम की हवा
- ग़ौर से देख, चेहरा समझ
- ज़िद की बात नहीं
- ज़िन्दगी में अँधेरा . . .
- ज़िन्दगी में अन्धेरा
- ज़िन्दा है और . . .
- ज़ुर्म की यूँ दास्तां लिखना
सजल
नज़्म
कविता
गीत-नवगीत
दोहे
- अफ़वाहों के पैर में
- चुनावी दोहे
- दोहे - सुशील यादव
- पहचान की लकीर
- प्रार्थना फूल
- माँ (सुशील यादव)
- लाचारी
- वर्तमान परिवेश में साहित्यकारों की भूमिका
- सामयिक दोहे – 001 – सुशील यादव
- सामयिक दोहे – 002 – सुशील यादव
- साल 20 वां फिर नहीं
- सुशील यादव – दोहे – 001
- सुशील यादव – दोहे – 002
- सुशील यादव – दोहे – 003
- सुशील यादव – दोहे – 004
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- अपना-अपना घोषणा पत्र
- अवसाद में मेरा टामी
- आँकड़े यमराज के
- आत्म चिंतन का दौर
- आसमान से गिरे...
- एक छद्म इंटरव्यू
- एक झोला छाप वार्ता......
- एक वाजिब किसान का इंटरव्यू
- गड़े मुर्दों की तलाश......
- चलो लोहा मनवायें
- जंगल विभाग
- जो ना समझे वो अनाड़ी है
- डार्विन का इंटरव्यू
- तुम किस खेत की मूली हो?
- तू काहे न धीर धरे ......।
- दाँत निपोरने की कला
- दिले नादां तुझे हुआ क्या है ...?
- दुलत्ती मारने के नियम
- नन्द लाल छेड़ गयो रे
- नया साल, अपना स्टाइल
- नास्त्रेदमस और मैं...
- निर्दलीय होने का सुख
- नज़र लागि राजा. . .
- पत्नी का अविश्वास प्रस्ताव
- पत्नी की मिडिल क्लास, "मंगल-परीक्षा"
- पीर पराई जान रे ..
- प्रभु मोरे अवगुण चित्त न धरो
- बदला... राजनीति में
- भरोसे का आदमी
- भावना को समझो
- मंगल ग्रह में पानी
- मेरी विकास यात्रा. . .
- रायता फैलाने वाले
- विलक्षण प्रतिभा के -लोकल- धनी
- सठियाये हुओं का बसंत
- सबको सन्मति दे भगवान
- साहब पॉज़िटिव हो गए
- सिंघम रिटर्न ५३ ....
कविता-मुक्तक
पुस्तक समीक्षा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं