जो ना समझे वो अनाड़ी है
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी सुशील यादव9 Feb 2017
समझने के लिए जिस चीज़ की ज़रूरत होती है वो है अक़्ल....। अक़्ल का वैज्ञानिक आकलन चाहे जैसा भी हो, मनोवैज्ञानिक आकलन कहता है, आदमी अपने आसपास की रोज़ की घटनाओं पर जो सहज, तात्कालिक प्रतिक्रिया दे दे वही “अक़्ल” है।
लोग हज़ारों पैकेट मेगी खा लिए, मगर किसी को ना सूझी कि देख लें इसके अन्दर क्या है...? सरकार गंभीर बीमारियों की जड़, सिगरेट, गुटका, तम्बाखू पर इतना तल्ख़ नहीं होती जो “मेगी” पर हो गई। साल भर पुरानी पेंडिंग रिपोर्ट के बीच भी लोग टनों मेगी खाए होंगे, मगर अफ़सरान एक ही दिन में सारे चिराग़ बुझाने पर आमदा हो गए। कहीं अपने तन्त्र में कुछ तो गड़बड़ है।
बाबा लोग पुत्र जनक दवाई धड़ल्ले से बेच लेते हैं.....। ये वैज्ञानिक सर्वमान्य तथ्य है कि बिना “वीर्य” के कोई जीव-धारण प्रक्रिया महाभारत और रामायण काल के बाद लगभग बंद हो गई। “अपने बाबा” इस कलयुग में किस “वीर्य” का इस्तेमाल करते हैं वे ही जानें...! गये काल के ग्रन्थों की बातें हैं, जहाँ वरदान से कहीं घड़े में सौ पुत्र जन्म ले लेते थे, कहीं किसी अभिमंत्रित फल खा लेने से स्त्रियाँ गर्भ धारण किया करती थीं। इस काल में, “चमत्कारी-पुरुष” लोगों के “वहम” को भुनाने की, कोई भी गुंजाइश उधार नहीं छोड़ते। उधर जहाँ कुँआरेपन को अक्षत रखने का भी प्रयोजन किया जाता था, लोक-लाज, लिहाज, बदनामी के डर से ये रिएक्शन भी दिया जाता था कि बच्चे योनी के अलावा और कहीं से भी पैदा किये जा सकते हैं। कोई कान से पैदा करना प्रिफ़र कर लेती थी, कोई और कहीं से... यथा नाम रखने की भी सुविधा हो जाती थी ...”कर्ण” .....। और तो और अनंत काल के ऊर्जा स्रोत “सूर्य”, हवा (पवन-पुत्र), पानी (मत्स्य कन्या) भी बच्चा देने के कारक हुआ करते थे बस प्रार्थना, तप, तपस्या में लीन होने की हैसियत देखी जाती थी। इस बच्चे को आज के ज़माने के स्कूल में दाख़िला लेते समय आपने पिता का नाम “सूर्य” बताया जाता तो, दाख़िला मास्टर जी, बाक़ायदा उसमे कुमार, प्रकाश, मल, सेठ जोड़ कर यूँ कर देंगे छात्र, कर्ण आत्मज सेठ सूर्य प्रकाश, सूरजमल, सूर्यभान, श्री सूर्य कुमार आदि...।
हमने सविस्तार इशारा कर दिया कि बच्चा कैसे पैदा होता था, अब टेस्ट ट्यूब के ज़माने में, कैसे होना चाहिए, बाबाओं का चक्कर छोड़िये, गर्भाधान के पौराणिक कथाओं से अपने आप को बाहर निकालिए केवल और केवल वैज्ञानिक तरीक़ा अपनाइए वो भी तब, जब सहज से उपलब्ध न हो।
जो ना समझे...?
बात हम इशारों में करें और आप न समझें... इतने नादान नहीं हैं आप...। जिनको कभी वीसा नहीं मिलता था, जिनकी छवि बिगड़ी हुई थी, वो आज अपनी छवि को लेकर अति उत्साहित हैं। दुनिया को दिखाने निकल पड़े हैं देखो किसी ज़माने में हमें वीसा के क़ाबिल न समझा गया था, इतने बुरे नहीं थे हम...। वे हर देश को छान लेना चाहते हैं... अपनी सोच की पाठशाला की नींव रखके “नीतिज्ञ” होने का, प्रमाण देने को लालायित हैं। यहाँ तक उन्होंने, बंगलादेशीय दौरे में ज़मीन को आपसी समझ से बटवारा किये जाने को, बर्लिन की दीवार गिरने के समकक्ष बता के ये भी मंशा ज़ाहिर कर दी कि चूँकि हम ग़रीब देशों के राष्ट्र मुखिया लोग हैं अत: हमारी बात बड़े देशों में न सुनी जाएगी, वरना इस बात पर “नोबल पुरस्कार” देने की सोची जा सकती है।
जो ना समझे .....?
“भाइयो, दिल्ली चलो...!” एक ज़माने का नारा हुआ करता था। अब राजनीति के विद्यार्थियों के लिए यही दिल्ली, थ्योरी, प्रेक्टिकल, शोध और करियर बनाने का एकमात्र स्थल बन गया है। ”रामलीला” मैदान एक ऐसा तीर्थ है जिसने कई दिग्गजों के करियर बनाए, डूबती नैय्या को पार लगाया, नये नेताओं की उपजाऊ फ़सल दी। इसी में उभरे, मफ़लर से लैस मैन....। ये अगर सब्जी–भाजी का धंधा करते तो आज भिंडी, परवल, आलू, प्याज के आसमान छूते दाम नहीं न दीखते...? इन्हें बोना ...सींचना ...सहेजना ....काटना ...बेचना अच्छा आता है। या समझ लो दिनों-दिन पारंगत होते जा रहे हैं। अपनी बात समय पर “बोते” हैं, खाद मिटटी अपने सहायको से डलवा लेते हैं। “काटने” का समय आता है, तब स्वयं हाज़िर हो जाते हैं। मौसम का ज्ञान इन्हें इनके विपक्षी-जीव से आप ही आप मिल जाता है। ये जड़ खोदने के स्पेशलिस्ट हैं, आप “पेड़” पर इशारा कर दो, उसकी ख़ामियाँ गिना दो, क्या मजाल वो आगे खड़ा रह जावे। वे जनता से पूछने का ढोंग करने निकल जायेंगे, “क्या कहते हो भाइयो, गिरा दें...?” जनता बेचारी को ...अलाव तापने के लिए गिरा हुआ पेड़ मिले तो वो क्यूँ न कहेगी.... गिरा दो…। वे लगे हुए हैं...।
लगता है बिजली-पानी के बाद, इस प्रायोगिक खेल में, दिल्ली “ताज़ी-हवा” को भी न मुहताज हो जाए .......
जो ना समझे ......?
अब, बिहार की खलबली देखिये। माझी पेड़ पर पके आम रोज़ गिनते हैं ...केल्कुलेट करते हैं एक आम की बाज़ार में क़ीमत पन्द्रह रुपये एक पेड़ में दो सौ सत्ताईस आम, बग़ीचे में एक सौ तिहत्तर पेड़, सो मल्टीप्लाई इट...। फिर धनिया, अदरक, पोदीना, मिर्ची, कटहल, लीची अलग...। वे इस मामले में तैनात सुरक्षा जवानों के “पे... भत्ते” पर होने वाले ख़र्चों को नहीं हिसाबते जो केवल उनकी बदौलत हो रहा है। वे बंगला क़ाबिज़ नहीं होते तो एक-दो संतरी से सन्तरों को सुरक्षित रखा जा सकता था।
उधर दूसरी खलबली भी है। सामने चुनाव है। अब की बार, दबंग से मुक़ाबले की संभावना है। इस संभावना ने दुश्मन के दुश्मनों को, आपस में मिलाने का काम कर दिया है। कहते हैं, भय, संकट और सुनामी में कट्टर से कट्टर दुश्मन पड़ोसी भी सहज सहायता के लिए एकजुट हो जाते हैं। देखे, वे सीट बटवारे के दिन या सीएम के नाम पर, कब सर-फुटव्वल पर आमादा-उतारू होते हैं...?
चलते-चलते..., इस चुनावी शोरगुल में, “पप्पू कांट डांस साला”.... की आवाज़ किस तरफ़ से आ रही है…कोई बताये तो सही...!
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