अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

जैन धर्म और पर्यूषण पर्व

जैन धर्म को हिंदू समाज का ही अंग माना जाता है। जैन समाज के लोग आपको प्राय: मंदिरों में हमारे साथ ही व्रत त्यौहार और परम्परायें मनाते देखा है। सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से भी कोई भिन्नता नहीं दृष्टिगोचर होती। जबकि आम हिंदू से जब पूछो कि आप जैन समाज और धर्म के बारे में क्या जानते हैं तो प्राय: उनके चेहरे पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। किसी को कुछ पता है तो पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा अहिंसा का पाठ। 

भगवान महावीर का जन्म 600BC में वैशाली हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशाला था। यह तीथंकरों में चौबीसवें एवं अंतिम तीर्थंकर थे। इनके पूर्ववर्ती तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ थे। तीर्थंकर का अर्थ है आत्मज्ञान से गुरुत्व एवं प्रभुत्व प्राप्त करना। जो अपना इतना प्रभाव समाज पर डाल सके कि लोग उसे मानने लगें और समझने लगें। जो भवसार से पार करने वाले तीर्थ की रचना कर सके वह तीर्थंकर कहलाता है। वह जिसमें आत्मबल; अहं और अभिमान से परे; काम-क्रोध और लोभ पर नियंत्रण रखे। जो सांसारिक विषयों में संलग्न न होकर परम प्रभु में ध्यान लगाये।

भगवान महावीर की सबसे बड़ी शिक्षा है 'अहिंसा परमो धर्मों'। इनका मुख्य मंत्र होता है 'णमोकार मंत्र'। जैन साधु दो शाखाओं में से एक को अपनाते हैं; पहले हैं भद्रबाहु के शिष्य दिगम्बर और स्थूलभद्र के शिष्य श्वेताम्बर कहलाये। दिगम्बर शरीर पर कुछ धारण नहीं करते और श्वेताम्बर शरीर पर सफ़ेद वस्त्र धारण करते हैं। आज जिस कोरोना के लिये मास्क ज़रूरी है वे मास्क श्वेतांबर सोलह सौ वर्षों से लगा रहे हैं।

'अहिंसा परमो धर्मों 'का वास्तविक अर्थ जानना हो तो कोई जैन धर्म से सीखे। मुँह पर श्वेत पट्टिका वो इसलिये लगाते हैं कि हवा में भी सूक्ष्तमजीव (वायरस,  फ़ंगस,बैक्टीरिया) आदि हमारे मुँह में न चले जायें। उससे वे मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे और आजकल हम सोचते हैं, नहीं तो हम बीमार हो जायेंगे। अधिकतर जैन संत नंगे पाँव चलते हैं कि उनके पाँव के नीचे आकर कोई चींटी या और सूक्ष्म जीव न मर जाये। जैन लोग भूमि से नीचे उगने वाली कोई शाक, सब्ज़ी नहीं खाते। इसका प्रमुख कारण कि धरती के नीचे सूक्ष्म जीवाणु जो भूमि को उरवर्क बनाते हैं वे कहीं हमारे द्वारा चोटिल न हो जायें। आज हर चिकित्सा पद्धति इस बात को मान रही है कि हमें रात का भोजन संध्या के समय तक कर लेना चाहिये को जैन धर्म यह पच्चीस सौ सालों ले कर रहा है। शाकाहार का सर्वप्रथम पालन करने वाला धर्म भी जैन धर्म ही है। ये लोग आपस में जय जिनेन्द्र कह कर नमस्कार करते हैं। जो मन, कर्म वचन पर नियंत्रण पा ले वह जितेन्द्रिय कहलाता है।

इनका प्रसिद्ध णमोकार मंत्र है:

णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं॥’

ऊपर दिए गए वाक्यों का हिंदी में यह अर्थ होता है कि: अरिहंतो, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सभी साधुओं को नमस्कार।

चातुर्मास प्रारंभ होते ही संत समाज एकांतवास में स्वाध्याय और धर्म और अध्यात्म चिंतन करके हैं। यह प्रत्यक्ष रूप में सकार्थ करते हैं जैन मुनि। आप किसी भी जैन मंदिर चले जाइये इन दिनों कोई जैन मुनि आत्मचिंतन और स्वाध्याय करता हुआ शांत चित मिलेगा। विश्व में जितना प्रचार दूसरे धर्मों को मिला है यदि उसका पचास प्रतिशत भी जैन धर्म को मिला होता तो विश्व में लोक कल्याण के प्रति सोच ही दूसरी होती। ये आक्रामकता से दूर शांति से और अहिंसा का पालन करने वाला धर्म है। यह आयुर्वेद की जैन शाखा में असाध्य रोगों के सरल इलाज है।

अब बात करते हैं पर्यूषण पर्व की जो कि तीन सितंबर से दस सितंबर तक पर्यूषण पर्व मनाया जा रहा है।बयह पर्यूषण पर्व क्या होता है? यह अपने आपको निर्ग्रंथी होने का प्रयास है जिसमें आप अपने को सारी ग्रंथियों से मुक्त करना। मन की गाँठों को खोलना। दूसरों के प्रति विद्वेष की भावना समाप्त करके आप उन्मुक्त होकर जीवन जीना। यह क्षमा पर्व के रूप में भी जाना जाता है कि आप दूसरों को क्षमा कर देना। और दूसरों से अपने द्वारा किये गये किसी भी बुरे कार्य के लिये चाहे वह जानबूझ कर अथवा अनजाने में की गई ग़लती पर क्षमा याचना करना होता है। यह पर्यूषण पर्व आपको विनयशील और विनम्र बनाता है।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अगर जीतना स्वयं को, बन सौरभ तू बुद्ध!! 
|

(बुद्ध का अभ्यास कहता है चरम तरीक़ों से बचें…

अणु
|

मेरे भीतर का अणु अब मुझे मिला है। भीतर…

अध्यात्म और विज्ञान के अंतरंग सम्बन्ध
|

वैज्ञानिक दृष्टिकोण कल्पनाशीलता एवं अंतर्ज्ञान…

अपराजेय
|

  समाज सदियों से चली आती परंपरा के…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

चिन्तन

बाल साहित्य कविता

हास्य-व्यंग्य कविता

सांस्कृतिक आलेख

कविता - क्षणिका

स्मृति लेख

सामाजिक आलेख

कविता - हाइकु

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं