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सूनापन

 

बँगले की ऊँची
दीवारों पर
आजकल दिन में
आ बैठते हैं, उल्लू
आँखें बेशक खुली
रखते हैं
पर दिखता नहीं है, साफ़। 
बोल पाते नहीं
रात होते
जा बैठते
सामने वाले
पीपल के पेड़ पर। 
फिर लटक जाते
हैं उल्टे। 
सब दिखाई देता है
साफ़ साफ़
क्या क्या घट रहा
है
चारों ओर
 
कौए भी आ जाते
मुँडेर पर
चुगते कीड़े मकोड़े
फुदकते
यहाँ से वहाँ
फिर करते
काँव काँव
नहीं आता
कोई अतिथि
सूने पड़े बँगले
खाँसता कभी
कोई
उड़ जाता कौआ भी
डर के मारे
 
कौन कहे किसकी? 
कभी सुनाई
दे जाती किसी की
सिसकी; 
कभी कोई रोता
ज़ारों ज़ार
कभी सुनाई दे
जाती
किसी की सिसकी
 
सुना है
बँगला अब ख़ाली
पड़ा है
द्वारपाल अब ऊँघ रहा है
उल्लू पीपल पर उल्टा
लटका है
कौआ काँव-काँव
नहीं करता! 
जा बैठते किसी
दूसरी मुँडेर पर। 
सूनापन पसरा है
बँगले पर
सब ख़ाली ख़ाली हैं

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टिप्पणियाँ

विवेक 2024/03/31 02:24 PM

आदरणीय राजेश "ललित" शर्मा जी शब्द कम पढ़ गए हैं प्रशंसा के लिए कटु सत्यअति भावुक दिल को छू लेने वाली रचना

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