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धर्मेश जी; मेरा भाई मेरा दोस्त

 

धर्मेश जी (पप्पू) अचानक जीवन के मध्य चरण में अचानक हमें छोड़ कर देवलोक के लिये प्रस्थान कर गये। वह मेरे छोटे भाई थे लगभग साढ़े सात वर्ष छोटे थे। वे मेरे माता पिता की तीसरी संतान थे। 

कैसा लगता है? जब आप किसी बच्चे को बचपन में गोदी में उठा कर खिलाना! उसे घुमाना और उँगली पकड़ कर चलना सिखाना! वर्णमाला से लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये प्रेरित करना। उसका संघर्षशील जीवन का विकास देखना। आजीविका के लिये विषम परिस्थिति में भी साहस और धैर्य के साथ उचित अवसर की तलाश करना। 

वह बच्चा जिसे हम सब धर्मेश के नाम से स्कूल, कॉलेज और खेल के मैदान में जाना जाता परन्तु घर में उसे पप्पू के नाम से पुकारा जाता था। यह पप्पू एक अबोध और नादान बालक नहीं था अपितु एक धीर, गंभीर और खुली और विकसित सोच के व्यक्ति थे जो परिस्थितिवश और भाग्यवश वह सब नहीं प्राप्त कर सका जिसका वह अधिकारी था। 

जितना जीवन ने विकट और दुर्गम राह दिखाई, वह उतना ही अधिक ख़ामोशी को ओढ़ता चला गया। 

संघर्ष का दूसरा नाम रहे धर्मेश शर्मा। जब ज़िम्मेदारी की बात आई तो पति-पत्नी ने मिल कर उसे कर्त्तव्य मान कर उसे पूर्णता का रूप दिया। बच्चों की शिक्षा देने में पारिवारिक परंपरा को जारी रखते हुए तीनों बच्चों को उनकी योग्यतानुसार उन्हें दिलवाया। आज दो बच्चे जहाँ कैनेडा में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं; तो दोनों लड़कियाँ विवाह उपरांत अपना सुखी वैवाहिक जीवन जी रही हैं। यह भाग्य की विडंबना ही कही जायेगी कि जब फल खाने का समय (सुख पाने का) आया तो ये माली स्वयं ही जीवन यात्रा मँझधार में छोड़ कर प्रभु चरणों में स्थान पा गया। 

हम प्रायः किसी व्यक्ति के देहांत के पश्चात उसके गुणगान करते हैं परन्तु मैंने जो उसकी कमियाँ थीं उनके बारे में बार-बार उसको चेताया। एक दुर्व्यसन केवल जीवन के लिये घातक होता है अपितु परिवार को भी समाजिक और आर्थिक रूप से हिला देता है ऐसा ही कुछ धर्मेश जी के साथ हुआ। इस जीवन में कोई भी सोलह कला संपूर्ण नहीं हो सकता नहीं तो वह भगवान हो जाता। ऐसा नहीं कि धर्मेश ने इनसे छुटकारा पाने का प्रयत्न ही नहीं किया परन्तु कुछ लोग जिन्होंने अपनों का मुखौटा ओढ़ कर उसे घेर रखा था उन्होंने ही उसे इस व्यसन से निकालने में सहायता करने की बजाय उसी में रहने दिया। 

पर मुझे लगता है कि उनके बारे में पहले यह भूमिका बनाई गई कि उन्होंने फिर से खाना-पीना शुरू कर दिया है। हो सकता है यह सत्य आंशिक हो। उनके भीतर मन में गहरी बैठी निराशा से एक बार ही देख सका। हम दोनों बिना बात किये फूट-फूट कर रोये। 

केवल साधारण जीवन जीने वाला व्यक्ति भीतर से विलक्षण भी हो सकता है यह धर्मेश से बेहतर उदाहरण वहीं हो सकता। सुगम अथवा शास्त्रीय संगीत सुनना। किशोर कुमार के गाये गीतों को सुनना। मेहँदी हसन, जगजीत सिंह और ग़ुलाम अली की ग़ज़लें डूब कर सुनना और आँखें डबडबा कर उनमें डूब जाना। 

जीवन की सहजता और सरलता की धारा में कब अवरोध आ जाये कुछ कहा नहीं जा सकता? जब जब भी कभी यह जाना कि अब धर्मेश का अच्छा समय आ गया है वे हमेशा अपनों से ही धोखा खा गये! जीवन की अनिश्चितता ने सदा उन्हें संघर्ष की ओर धकेल दिया! फिर से वे जीवन को सँवारने में जुट जाते! जो जीवन कभी संघर्षों से बाहर निकला ही नहीं? 

ऐसा नहीं कि उन्होंने व्यसनों से बाहर निकलने की कोशिश नहीं की? बहुत बार की परन्तु हर बार मंडली के किसी सदस्य ने ही उन्हें वापस उसी दलदल में घसीट लिया! 

उन्होंने कभी भी अपना दुःख साझा नहीं किया! प्रमुख कारण रहा उनके जीवन में आजीविका का स्थायी न हो पाना! नौकरी फिर व्यवसाय फिर नौकरी फिर दुकान इस प्रकार भटकाव ही रहा जीवन भर। यहाँ तक कि किराने की दुकान की; चाय का स्टाल लगाया अर्थात्‌ मेहनत और काम करने में कोई शर्म नहीं, कोई झिझक नहीं! आज कितने लोग ‘ग्रेजुएट चायवाला’ बनकर कमा रहे हैं पर वो पोस्ट ग्रेजुएट कभी नहीं बोला और स्टाल पर कुछ नहीं लिखा? यही बात जीवन भर सालती रही कि उसे कोई समझ नहीं पाया। यहाँ तक कि उसके बच्चों ने परोक्ष, अपरोक्ष रूप से अपने पिता को समझने की बजाय उसे कठोर वचन कहे। कई बार मुझे लगा कि वे सीमा लाँघ रहे हैं परन्तु परिवार में जिससे प्रेम होता है यह तर्क-वितर्क आवश्यक हो जाते हैं। बच्चों का क़सूर नहीं परन्तु उसने कभी किसी से शिकायत नहीं की। बस चुप रहा। 

समय जैसे झपटमार बन कर तैयार था। बड़ी बेटी के विवाह के उपरांत अपने पति के साथ वहीं गुरूग्राम में ही रहती है। छोटी बेटी कैनेडा चली गई है और बेटा भी कैनेडा में रहता है। कठिन समय और बीमारी के समय अपने ही साथ खड़े होते हैं यही साहित्या (बेटी) और नीरज (दामाद) ने जब भी ज़रूरत पड़ी धर्मेश को अस्पताल जल्द ले गये। 

समय की जल्दबाज़ी ने उन्हें लील लिया। उनमें जीने की अभिलाषा अंतिम समय तक दिखाई दी। मैं भी उनसे मिलने जब अस्पताल गया तो वही अभिलाषा उनकी आँखें बोल रही थी। मेरा हाथ पकड़ कर ज़ोर ले दबा कर अश्रुधारा में जैसे शब्द चलायमान हो रहे थे। मेरे आँसू भी जैसे उसके आँसुओं से बात कर रहे थे। यह मेरी उनसे अंतिम बात थी। मुलाक़ात तो उसके बाद हुई परन्तु केवल एक दूसरे को देखने भर तक। उसके बाद तो अंतिम दर्शन और अंतिम संस्कार और इति श्री। बस यहीं तक साथ रहा धर्मेश जी का इस संसार के साथ। 
राम नाम सत्य है! हरि का नाम सत्य है। 

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टिप्पणियाँ

Vivek Sharma 2023/08/02 08:58 AM

आदरणीय राजेश जी धर्मेश जी के बारे में जो बताया वह अकेले में बैठ कर कोई भी इंसान ध्यान से पढ़ें तो ऐसा लगता है कि आपने लिखा नहीं बल्कि कलम के जरिए उनकी जीवन सारणी दिखा दी भगवान की लीला न्यारी है......... शायद धर्मेश जी जैसे व्यक्तियों के कारण ही कहा गया है वह भगवान को प्यारा हो गया अति भावुक गंभीर भले ही मैं तो एक छोटा सा आपकी रचनाओं को पढ़ने वाला हूं को कैसे शब्दों को माला में पिरोया जाता है और कैसे दूसरे के दिल को छू लेना, खुश कर देना, वह भी आजकल की भागदौड़ वाली जिंदगी में कोई आपसे सीखे आदरणीय धर्मेश जी के लिए :- ऊं शांति

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