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माँ, हुआ रुआँसा मन

 

इक दिन 
न जाने 
क्या हुआ? 
अनमने मन ने
मन ही मन से 
क्या कहा? 
मन रुआँसा, 
हो गया। 
 
आँखों में 
पानी ने
मन की
वीणा तार
छुआ। 
मन रुआँसा 
हो गया 
 
ढूँढ़ रहा 
अब भी 
मन 
माँ का आँचल, 
बचपन 
उसकी छाँव 
में मचल रहा 
ले देंगी माँ 
वही खिलौना 
मन ने मन से कहा। 
 
पचपन में 
बचपन
बचपन में 
पचपन
पता नहीं 
कौन किसे 
कहाँ कहाँ 
है ढूँढ़ रहा? 
गली बचपन की 
बड़ी सुहानी 
पता शायद 
ग़लत दिया था 
हर नुक्कड़ 
पर पूछ पूछ कर
ढूँढ़ रहा। 
 
माँ का दामन
माँ का पल्लू 
याद रहा
दही बिलौना
बसोड़े पर मक्खन 
साथ में छाछ रहा 
किस किस को 
याद करूँ 
क्या क्या बिसर गया? 
 
कौन कौन था 
किस गली में 
सब कुछ ठीक 
से याद रहा 
लेकिन जब किसी का
उनका नाम पुकारा 
पता चला 
कब से वह तो 
चला गया 
टूटे सपने 
छूटे अपने 
सब में अपने 
ढूँढ़ रहा

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टिप्पणियाँ

Vivek 2024/05/15 12:41 PM

आदरणीय राजेश ललित जी आपकी यह रचना कविता मात्र नहीं, दिल को छू लेने वाली हर बार की तरह आप दिल पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं, अती ही भावुक हृदय को छूने वाली श्रेष्ठ रचनाओं में से एक है

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