जानवर और आदमी
काव्य साहित्य | कविता राजेश ’ललित’1 Jan 2024 (अंक: 244, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
आदमी जानवर हो गया है।
हो सकता है
जानवर आदमी हो गया हो।
मुखौटे बदल कर
समाज में घुस गये हों
अंतर समझना ज़रा
कठिन है।
अपने नुकीले दाँतों
से नोंच रहे हैं;
खसोट रहे हैं,
रक्तरंजित कर रहे हैं
मानवता को;
काट रहे हैं,
हो रहे हैं
टुकड़े टुकड़े
प्रेम में उग आई हैं
घृणा की बेलें
चढ़ गई हैं
काँच की खुरचन
की खाद;
क्या उगेंगी ख़ाक?
उड़ेगी केवल धूल,
सूखे पत्ते और राख।
परिणाम—हरियाली पर छा गई है धूल
सूख गये हैं
प्रेम के सब पेड़ पौधे।
मानवता पड़ी है मुँह औंधे।
न जाने कितने आये भूकम्प
मानवता हुई खंड खंड
संवेदना हुई पत्थर पत्थर
भावनाएँ हो चुकी खंडहर
बचे रह गये अवशेष
हुई मानवता आहत इतनी
रह गये केवल अवशेष
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