संत कबीर—सत्य साधक
आलेख | सांस्कृतिक आलेख राजेश ’ललित’15 Jan 2023 (अंक: 221, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
संत कबीर दास आज भी उतने ही प्रासंगिक एवं लोकप्रिय हैं जितने शायद वो अपने समय में रहे होंगे। एक अच्छा साहित्य कार वह होता है जो सत्य को स्पष्ट रूप से बिना लाग-लपेट के कहे। समाज को दिशा निर्देश दे। समाज में जो विसंगतियाँ आयें उनके विषय में चेतावनी दे। अपनी रचनाओं में बार-बार उन्हें उठा कर समाज को सुसंस्कृत बनाने में अपना योगदान दे। कबीर जी ने यही किया।
कबीर जी का जन्म वाराणसी में सन् 1398 ईसवी में हुआ। कहते हैं कि उनको उनकी माता ने गंगा तट पर छोड़ दिया था परन्तु उनको रोता देख कर एक जुलाहे ने उनको अपने घर ले जाकर अपनी पत्नी को सौंपा। जुलाहा क्योंकि मुस्लिम था इसलिये उन्होंने उस नन्हे बालक का नाम कबीर रखा। कबीर पढ़े को नहीं परन्तु वाराणसी के अध्यात्मिक वातावरण ने उन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। एक बार जब वो गंगा तट पर लेटे हुए थे तो संत रामानंद जी का पाँव उन पर पड़ गया। बालक पर पाँव पड़ते ही उनके मुँह से निकला ‘राम, राम’ और कबीर ने जैसे इसे ही दीक्षा मंत्र मान लिया।
इसी प्रभाव को लेकर उन्होंने कहा था:
“राम नाम की लूट है;
लूट सके तो लूट।
अंत काल पछतायेगा;
जब प्राण जायेंगे छूट॥”
यह वाराणसी का प्रभाव था या अंक:करण में छिपे कवि का कि उसके बाद से निरंतर ही दोहे, पद या साखियाँ निकलने लगीं। क्योंकि लिखना तो आता नहीं था तो दिन भर दोहे, पद गाते और शिष्यगण सुनते और उनको लिख डालते।
वह भक्तिकाल था। मीरा सूरदास, नंद, श्री भट्ट और हरिदास जैसे कालजयी रचनाकार हुए। इस काल में अधिकतर कवियों में कृष्ण
भक्ति ही रही परन्तु संत कबीर अलग ही खड़े नज़र आये।
एक निर्भीक एवं साहसी रचनाकार जिसने पाखंड और अंधविश्वासों का घोर विरोध किया। परिणाम उनको किसी भी धर्म द्वारा उनकी रचनाओं को स्वीकार और आत्मसात नहीं किया गया। उनकी रचनाओं में धर्म पर कुठाराघात करते हुए व्यक्ति को मन में बैठे ईश्वर को स्वीकार करके सद्कर्मों को अपनाने का ज़ोर दिया।
उन्होंने ‘राम’ को केवल हिंदुओं का भगवान मान कर दोहे नहीं रचे उनका ‘राम’ सर्वव्यापी ईश्वर है।
वे अद्वैत थे। वे निर्गुण थे। तभी उन्होंने कहा:
“पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ
पंडित भया न कोय
दो आख़री प्रेम के
पढ़े सो पंडित होय”
मानवीय मूल्य और संवेदनायें उनके लिये अधिक महत्त्वपूर्ण थे न कि पूजा पद्धति और धर्म। वे कहते हैं:
“ऐसी बाणी बोलिये,
मन का आपा खोय।
और को सीतल करे,
आप भी सीतल होय।”
साहित्य, समाज और काल का दर्पण है। साहित्य रचनाकार के मनोभावों को परिलक्षित करता है। उनकी विद्वता और दूरदर्शिता ही उनको आज प्रासंगिक बनाती है। कबीर दोनों स्तरों पर खरे उतरते हैं। धर्म पर जो कटाक्ष उन्होंने उस समय किये थे वे आज भी धर्म के ठेकेदार पढ़ कर तिलमिला उठे।
“माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।”
अर्थ: कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।
अथवा
“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।”
अर्थ: सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का—उसे ढकने वाले खोल का।
इस प्रकार उनके लिखे दोहे और साखियाँ हीरे से अनमोल हैं बस आवश्यकता है इन्हें मन में धारण करने की। किताबों में रखा ज्ञान किसी काम का नहीं यदि उसे आचरण में न उतारा जाये। कबीर जी के ज्ञान को यदि आज विश्व में प्रचारित किया जाये तो सारी समस्यायें हल हो जायेंगी।
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