देवशयनी-एकादशी
आलेख | सांस्कृतिक आलेख राजेश ’ललित’15 Jul 2022 (अंक: 209, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
भारतीय संस्कृति में कोई भी वार, तिथि और त्यौहार यूँ ही नहीं बना दिये गये हैं। इनके मनाने के पीछे हमारे ऋषि मुनियों की सतत चिंतन प्रक्रिया है। वार हमारे सप्ताह के दिनों के नाम हैं और तिथियाँ मास के दो भागों में बँटी हैं; कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। दोनों पक्ष में चौदस तक तिथियाँ हैं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है अमावस्या और शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि है पूर्णमासी।
एकादशी अर्थात् दोनों पक्षों की ग्यारहवीं तिथि। लोग वर्ष भर एकादशी का व्रत रखते हैं। इसके पीछे बहुत वैज्ञानिक कारण हैं। पहला यह कि इस दिन चंद्रमा के वलय में घूमते हुए पृथ्वी के सबसे निकटतम होते हैं इसलिये ये अत्याधिक गुरुत्व आकर्षण में केंद्रित होकर हमारे मन पर अत्याधिक प्रभाव डालते हैं।
एकादशी का व्रत रखने का एक और भी कारण है कि हमारी पाँच कर्म इंद्रियाँ और पाँच ज्ञानेंद्रियाँ हैं और ग्यारहवाँ है मन। मन चंचल होता है। यह स्थिर नहीं होता। जैसा कि मैंने ऊपर कहा है कि एकादशी पर चंद्रमा के निकटतम होने पर यह अधिक तेज़ी से प्रतिक्रिया देने लगता है अत: मन को नियंत्रित करने हेतु एकादशी का व्रत रखा जाता है।
अब आते हैं देवशयनी एकादशी पर। प्रत्येक एकादशी का मौसम के अनुसार और मास के अनुसार इसका नामकरण भी किया गया है। जैसे देवशयनी को आषाढ़ी एकादशी भी कहते हैं।
आषाढ़ (एकादशी), सावन, भाद्रपद, अश्विन और कार्तिक (एकादशी) तक कुल चार मास होते हैं जिनसे यह चातुर्मास कहलाता है। इसमें यह परंपरा है कि साधु-संत ऋषि मुनि जहाँ भी होते हैं वहीं अपना मन स्थिर कर लेते हैं। यह चार मास वर्षा और उसके पश्चात् मौसम बदलने के कारण रोगों का वेग होता है ऐसे में आप शरीर स्वस्थ नहीं रख पाते और रोगी होने के ख़तरे पर होते हैं अत: अपने मनोनुकूल वातावरण का चयन ही सर्वोत्तम होता है।
विष्णु जी का शयन देवशयन कहलाता है यानी आपकी जो प्रतिदिन की दिनचर्या है वह छोड़ कर संतुलित दिनचर्या अपनायें। यह काल शिवजी के हाथों चला जाता है जोकि योगी हैं प्रकृति के निकटतम रहने वाले देव हैं। इसलिये शिवरात्रि और कांवढ़ का जल भर शिव को अर्पित करना शुभ माना गया है। इन्हीं दिनों में रक्षाबंधन और जन्माष्टमी इन्हीं दिनों में मनाई जाती है। अत: इन दिनों गंगाजल या जड़ी बूटी वाला जल का अधिक प्रयोग आपको रोगों से बचा सकता है। हरी साग सब्ज़ियों की जगह ठोस और कम मात्रा में खाना खायें और योग अपना कर जीवन में चिंतन मनन और साधना करें। यह न केवल आपके लिये अपितु समाज के लिये भी लाभदायक होगा।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
अक्षय तृतीया: भगवान परशुराम का अवतरण दिवस
सांस्कृतिक आलेख | सोनल मंजू श्री ओमरवैशाख माह की शुक्ल पक्ष तृतीया का…
अष्ट स्वरूपा लक्ष्मी: एक ज्योतिषीय विवेचना
सांस्कृतिक आलेख | डॉ. सुकृति घोषगृहस्थ जीवन और सामाजिक जीवन में माँ…
अस्त ग्रहों की आध्यात्मिक विवेचना
सांस्कृतिक आलेख | डॉ. सुकृति घोषजपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महद्युतिं। …
अहं के आगे आस्था, श्रद्धा और निष्ठा की विजय यानी होलिका-दहन
सांस्कृतिक आलेख | वीरेन्द्र बहादुर सिंहफाल्गुन महीने की पूर्णिमा…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अंधे की लाठी
- अभिमन्यु फँसा फिर से
- आवारा हो गया यह शहर
- आषाढ़ के दिन
- इतवारी रिश्ते
- कुछ विचार
- कृष्ण पक्ष
- खोया बच्चा
- गुटर गूँ-गुटर गूँ
- चंदा मामा दूर के
- चलो ढूँढ़ें उस चिड़िया को
- चाँद, सूरज और तारे
- जानवर और आदमी
- जी, पिता जी
- झुर्रियाँ
- झूठ की ओढ़नी
- टूटा तटबंध
- ठग ज़िन्दगी
- डूबती नाव
- दीमक लगे रिश्ते
- धान के खेत में; खड़ा बिजूका
- नज़रिया
- पतझड़ और बसंत
- पेड़ और आदमी
- पोरस
- बरखा बारंबार
- बहुत झूठ बोलता है?
- बाँझ शब्द
- बुद्ध नया
- बुधिआ को सुई
- भीष्म की शब्द शैय्या
- भूख (राजेश ’ललित’)
- मकान
- मजमा
- मम्मी, इंडिया और मैं
- मरना होगा
- माँ, हुआ रुआँसा मन
- माँ
- मैं नहीं सिद्धार्थ
- यादें
- ये मत कहना
- राम भजन कर ले रै प्राणी
- शेष दिन
- सपने बुन लो
- सरकार
- सर्दी और दोपहर
- सलीब
- सूखा बसंत
- सूनापन
- सूरज की चाह
- हम भीड़ हैं
- हाथ से फिसला दिन
- हादसे
- ख़्याली पुलाव
चिन्तन
बाल साहित्य कविता
हास्य-व्यंग्य कविता
सांस्कृतिक आलेख
कविता - क्षणिका
- कफ़न
- कौन उलझे?
- टीस
- टूटे घरौंदे
- डरी क़िस्मत
- दुखों का पहाड़
- देर ही देर
- परेशानियाँ
- पलकों के बाहर
- पेड़
- प्रकृति में प्रेम
- बंद दरवाज़ा
- भटकती मंज़िल
- भीगा मन
- भूकंप
- मुरझाये फूल
- राजेश 'ललित' – 001
- राजेश 'ललित' – 002
- राजेश 'ललित' – 003
- राजेश 'ललित' – 004
- राजेश 'ललित' – 005
- राजेश 'ललित' – 006
- लड़ाई जीवन की
- वक़्त : राजेश ’ललित’
- शरद की आहट
- शून्य
- समय : राजेश 'ललित'
- सीले रिश्ते
- सूखा कुआँ
- सूखी फ़सल से सपने
- हारना
स्मृति लेख
सामाजिक आलेख
कविता - हाइकु
लघुकथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं