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कहत कबीर सुनो भई साधो

हिंदी के संत साहित्य में कबीर का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। चार प्रमुख भक्त कवियों में कबीर सबसे पहले आते हैं। भक्तिकाल का समय मुहम्मद बिन तुगलक से शुरू होकर मुगलों के शासनकाल तक माना जाता है जिसमें लगभग एक जैसी राजनैतिक उथल-पुथल, सामाजिक विरोध और सांस्कृतिक अंतर्विरोध रहे हैं अत: कुछ वर्षों के आगे-पीछे होने पर भी स्थितियों में बहुत अधिक अंतर नहीं दिखाई देता।

आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी अपनी पुस्तक "हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास" में लिखते हैं - "पंद्रहवीं शताब्दी में कबीर सबसे शक्तिशाली और प्रभावोत्पादक व्यक्ति थे। संयोग से वे ऐसे युग-संधि के समय उत्पन्न हुए थे जिसे हम विविध धर्म-साधनाओं और मनोभावनाओं का चौराहा कह सकते हैं। उन्हें सौभाग्यवश सुयोग भी अच्छा मिला था। जितने प्रकार के संस्कार पड़ने के रास्ते थे वे प्राय: सभी उनके लिये बंद थे। वे मुसलमान होकर भी असल में मुसलमान नहीं थे। वे हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे। वे साधु होकर भी साधु (अगृहस्थ) नहीं थे। वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे। वे योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे कुछ भगवान की ओर से ही सबसे न्यारे बना कर भेजे गये थे। वे भगवान के नृसिंहावतार की मानो प्रतिमूर्ति थे।”

द्विवेदी ने कबीर के व्यक्तित्व को इस एक अनुच्छेद में समेट दिया है। जो व्यक्ति किसी एक मत का, एक धर्म का नहीं होता वह पूरी मानवता का होता है। उसकी आँखों पर किसी एक मत से लगाव का चश्मा नहीं होता अत: वह सच को साफ़-साफ़ देख पाता है, यही सत्य कबीर ने देखा। उन्होंने देखा कि एक धनी, प्रभावशाली तबका अपनी विद्वता और क़ुरान, पुराण के द्वारा पूरे समाज को बंधक बनाये बैठा है। शासक का डर, महाजन का डर, पंडितों और मुल्लाओं का डर, ईश्वर और अल्लाह का डर, जात-पाँत का डर, छुआ-छूत का डर, सही कर्मकाण्ड न कर पाने का डर ऐसे अनेक डर थे जो आदमी के विकास को अवरुद्ध किये थे और उसे ईश्वर के सत्य स्वरूप को देखने से रोक रहे थे। उन्हें यह स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि इस अवनति के मुख्य कारण पंडित और मुल्ला हैं जो आदमी को ईश्वर और अल्लाह के नाराज़ हो जाने का भय दिखा कर उसको अपना दास बनाये हुये हैं। इसी कारण उन्होंने अनेक दोहों और पदों में पंडितों और मुल्लाओं को ख़ूब लताड़ा है :

जो तोहिं करता बरन बिचारा, जन्मत तीनि दंड अनुसार।
जन्मत सूद्र मुए पुनि सूद्रा, कृतम जनेउ डारि जग मुद्रा।
जौं तुह ब्राह्मन बम्हनी के जाया, और राह ते काहे न आया।
जै तुह तुरुक तुरुकिनी जाया, पेटे काहे न सुनति कराया।
कारी पियरी दुहुहू गाई, ताकर दूध देहु बिलगाई।
छाडु कपट नर अधिक सयानी, कहहिं कबीर भजु सारंगपानी।।

यह है कबीर का सच और साहस! लोगों में विचार शक्ति को वापस लौटा लाने का उनका प्रयास जीवन भर चला। सोचने की ही तो बात है कि यदि ब्राह्मण इतने ऊँचे पद पर स्थापित हैं तो उनकी संतान "और राह ते क्यों नहीं आई" और महान तुर्क संतान ने "पेट में ही सुन्नत क्यों नहीं कराई?" जब समाज धर्मान्धता के नशे में सो रहा था तब एक अक्खड़, फ़क़ीर आँख में अँगुली डाल कर उसे सच दिखा कर, जगाने का प्रयास कर रहा था। उस समय के लिये यह बहुत बड़ी बात थी, यह समय लोकतंत्र का नहीं विदेशी क्रूर शासकों का समय था, ऐसे समय में भी कबीर को न पंडितों, ब्राह्मणों के रोष का डर था और न शासक द्वारा पकड़ बुलाये जाने का! जो अपना घर फूँक कर मनुष्य के आंतरिक विकास को रोकने वाली हर प्रकार की सत्ता को ललकारता है, उस संत की मस्ती का हम केवल अनुमान ही कर सकते हैं। वे खुल कर कहते हैं :

हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या
रहे आज़ाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या?

यह "राम मेरो पिउ, मैं राम की बहुरिया" का छलकता इश्क़ है जो जिससे मिलता है, उसे भी इसी इश्क़ या प्रेम का रास्ता दिखाता है। इस प्रेम में न माला फेरने का दिखावा है, न दिशाओं की चिन्ता और तारों की गणना करके उठने-बैठने का शऊर है, इसको काबा-कासी, षट दर्शन किसी से मतलब नहीं है। कबीर इस प्रेम की पराकाष्ठा में डूबे दिखाई देते हैं :

मैं तो कूता राम का, मुतिया मेरा नाउँ
गले राम की जेंवड़ी, जित कैंचे, तित जाउँ।

कबीर प्रेमी हैं, भक्त हैं और उस एक अनंत को अनन्य समर्पित हैं। उनकी उलटबाँसियाँ, सबद, रमैनी समस्त रचनाओं का स्रोत यह समर्पण और प्रेम ही है, वे ईश्वर से प्रेम कर समस्त मनुष्य को एक जैसा मानते थे, उनकी दृष्टि में राजा-रंक, हिन्दु-मुसलमान सब एक ही थे इसी से वे किसी को भी ईश्वरीय प्रेम से उलटी चाल चलते देखते तो झाड़ देते, डपट देते थे। यह बात अच्छी तरह समझ लेने की है कि कबीर समाज सुधारक बन कर समाज का भला करने नहीं निकले थे, समाज को झकझोरने के लिये लाठी उठाये वे गाँव-शहर फिरे हों, ऐसा पढ़ने में नहीं आता लेकिन यह ज़रूर है कि कबीर के खरे और खारे बोल बहुत दूर-दूर तक पहुँचे।

अद्वितीय प्रेम की सुगंध एक स्थान पर नहीं रहती, लोगों को सूचना मिले कि कोई संत-दरवेश जैसा व्यक्ति दुनिया को ठोकर पर रख कर ईश्वर से अटूट प्रेम करता है तो लोग उसके पास अपने दुख-कष्ट लेकर पहुँचते ही हैं, उससे राह पूछते ही हैं। इसी कारण कबीर के पास भी दूर-पास के बहुत से लोग आते थे और कबीर कपड़ा कातते हुये दिल की कहते जाते थे। लोगों की भीड़ वही पद याद कर, गाती फिरती। फ़क़ीरों, भिखमंगों, यात्रियों और निम्नवर्ग के लोगों ने उनके दोहों और पदों को ख़ूब गाया और शेख़, धनी ब्राह्मणों तक के कानों में भी पहुँचाया! इसी कारण वे कई बार संकट में भी पड़े पर कोई संकट उन्हें अपने मार्ग से डिगा नहीं पाया। कबीर का मूल संदेश है -

आपा मेटें हरि मिलै, हरि मेटें सब जाइ।
अकथ कहानी प्रेम की, कहे न कोइ पतियाइ।

इसी "आपेे को मेटने" की बात वे अपने अनेक दोहों और पदों में कहते हैं क्योंकि यही "आपा" माया बन कर लोगों को तिर्गुन का नाच नचाता है, इसी "आपेे" के कारण ऊँच-नीच, छुआ-छात है, इसी के कारण आदमी, आदमी का शोषण करता है और भूल जाता है कि वह "पानी केरा बुदबुदा है" जिसे एक दिन मिट जाना है, माटी में मिल जाना है, इस सत्य को भूले रहने के कारण ही मनुष्य अपना समय मन को साफ़ कर ईश्वर प्रेम में न लगा कर दुनिया के व्यर्थ के कामों में लगाता है और अन्य लोगों की उलझनें बढ़ाता है। वे दुनिया को समझाते हैं

यहु मन पटकि पछाड़ि लै, सब आपा मिटि जाइ।
पंगुला होइ पिउ पिउ करै, पीछे काल न खाइ।

कबीर समाज, संस्कृति और नीति के बँधे-बँधाये रास्तों पर ईश्वरीय प्रेम की तीखी चोट करते हैं और मनुष्य को बँधे-बँधाये चौखटों से बाहर निकल कर, "सहज" का मार्ग अपना कर नये तरीक़े से सोचने को बाध्य करते हैं। कबीर अपने राम और सारंगपानी के गुणगान करते हुये, उसके अखंड और निराकार रूप से लोगों का परिचय करवाते हैं और इसी एक सब में समाये ईश्वर की अनंत सत्ता को अपने में अनुभव करने की प्रेरणा देते हैं :

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाँनि।
दस द्वारे का देहरा, तामें जोति पिछांनि।

समाज की जागृति अनेक स्तरों पर होती है पर सबसे स्थायी जागृति वह होती है जो आत्मा या चित्त के स्तर पर होती है। राजनैतिक और सामाजिक जागृतियाँ इसी आंतरिक जागृति का बाह्य स्वरूप होती हैं। यदि व्यक्ति अपने आंतरिक विश्वासों को परखकर, स्वयं सत्य को अनुभव करने या समझने की चेष्टा करने लग जाये तब बाह्य शोषणकारी शक्तियाँ उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकतीं। तब वह उनके भ्रमजाल में पड़ेगा ही नहीं। कबीर व्यक्ति को इसी आंतरिक स्तर पर झकझोरते हैं, उसकी पूर्व मान्यताओं पर सच के बाण चला, उसके परखच्चे उड़ा देते हैं, उसे मुल्ला और पंडितों के शोषण से ही नहीं, अपने मन की दुर्बलताओं से बचाने की चेष्टा करते हैं। वे राज्य पलटने वाले अर्थों में क्रांतिकारी नहीं हैं पर वे मान्यताओं को पलटने वाले रूप में क्रांतिकारी अवश्य हैं। वे ईश्वर को सबके लिये सहज उपलब्ध करवाते हैं। यह इतिहास में पहली बार हुआ था कि ईश्वर को बाहर नहीं, भीतर ढूँढने की बात को जन सामान्य तक, जन सामान्य की भाषा में पहुँचाया गया था। यह एक सांस्कृतिक क्रांति थी जो चुपचाप पंडितों और मुल्लाओं के शासन को पलट कर नष्ट कर रही थी। आम जन गाता फिर रहा था:

हिन्दू मूये राम कहि, मुसलमान खुदाइ।
कहै कबीर सो जीवता, दुई में कदै न जाइ।

और कबीर सही मायनों में "सर्वे भन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया" को साकार कर ढ़ाई आखर का पाठ लोगों को पढ़ाते हुये गा रहे थे : पिया मोरा मिलिया सत्त गियानी। सब में व्यापक, सबकी जानै ऐसा अंतरजामी।

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टिप्पणियाँ

somya goud 2023/04/17 09:27 PM

सुधीर एकरूप सब मोहे

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