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मौक़ापरस्त

आपको एक क़िस्सा सुनाना चाहता हूँ लेकिन क़िस्से सुनाने का तज़ुर्बा न होने के कारण समझ नहीं पा रहा हूँ कि कहाँ से शुरू करूँ। ख़ैर, मुझे लगता है यह क़िस्सा आपको सीधे सहज तरीक़े से सुनाना उचित होगा।

यह क़िस्सा अक्तूबर 2019 का है। सत्ताईस अक्तूबर के दिन मैं सुबह से इंतज़ार कर रहा था कि गिरधर का फोन आएगा और वह पिछले छह वर्षों की तरह चौधरी साहब के घर उन्हें दिवाली की मिठाई देने के लिए अपने साथ चलने के लिए कहेगा। दरअसल, चौधरी साहब सन् 2012 में हमारे  निदेशक बने थे और तभी से यह सिलसिला चला आ रहा था।

जब शाम के चार बजे तक भी गिरधर का फोन नहीं आया तो मैंने सोचा गिरधर को चौधरी साहब के यहाँ जाने की बात याद दिला दूँ। मैंने मोबाइल उठाया और तुरंत गिरधर से संपर्क साधा।

”हाँ, मनीष ! सब कुशल मंगल; दिवाली मुबारक हो,” गिरधर ने चहकते हुए कहा।

मैंने तपाक से कहा, “चौधरी साहब के यहाँ जाना था?”
“कौन चौधरी?“ गिरधर ने पूछा।

मेरे लिए गिरधर का यह सवाल अप्रत्याशित था लेकिन अगले ही क्षण मैं समझ गया था कि गिरधर उगते हुए सूरज को प्रणाम करने वालों में से है। चौधरी साहब तो छह महीने पहले अप्रैल में रिटायर हो गए थे। अप्रैल तक उनके आगे पीछे डोलने वाला गिरधर अब उन्हें पूरी तरह से भूल चुका था।

बहरहाल, मुझे यह क़िस्सा आज इसलिए याद आया कि कुछ देर पहले मुझे मेरे एक मित्र सुमित ने बताया कि चौधरी साहब कोरोना की वज़ह से अस्पताल में हैं।      

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