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पवनार आश्रम 

पवनार एक ऐतिहासिक गाँव है जो महाराष्ट्र के वर्धा जिले में धाम नदी के तट पर बसा है। यह गाँव ज़िले की सबसे प्राचीन बस्तियों में एक है। राजपूत राजा पवन के नाम पर इसका नाम पवनार पड़ा। गाँव में गाँधी कुटी और आचार्य विनोबा भावे का परमधाम आश्रम देखा जा सकता है।

कार्यालयीन कामकाज हेतु वर्धा जाना हुआ था। सरकारी काम निपटाने के बाद वर्धा स्थित मित्र को लेकर विनोबा भावे जी द्वारा स्थापित पवनार आश्रम की ओर निकल पड़े।

विनोबा जी के भूदान आंदोलन में सहयोग देने हेतु देश के विभिन्न प्रांतों से युवा महिलाएँ आती थीं। उन महिलाओं ने सामाजिक कार्य हेतु ब्रह्मचर्य को अपनाया। 

विनोबा के जीवनकाल में उन्होंने आश्रम के बाहर आंदोलनों में कई बार हिस्सा लिया। भूदान आंदोलन (1951) में भागीदारी के अलावा आश्रम की शुरुआत (1959) के तुरंत बाद 1961 में बिहार के सहरसा ज़िले में बीघा–कट्ठा आंदोलन में आश्रम की महिलाओं ने भाग लिया।

1978-79 में गोहत्या-बंदी आंदोलन में आश्रम की औरतें शामिल हुई थी और 1973 में गीता के प्रचार के लिए विनोबा ने उन्हें मुंबई भेजा।

1982 में विनोबा की मृत्यु के बाद महिलाएँ आश्रम की नित्य नियम के अनुसार आध्यात्मिक उन्नति के लिए जीवन ज्ञापन करने लगी। 

15 वर्ष पूर्व की बात है, जब मैं सरकारी काम निपटाकर मेरे मित्र के साथ विनोबा जी के पवनार आश्रम देखने निकल पड़ा।

इस आश्रम में औरतें 70-75 की उम्र के पार हैं। ये औरतें ब्रह्मचारिणी का जीवन जी रही हैं। बात उस समय की है जब मोबाइल का आगमन हुआ नहीं था। अलग-अलग दूर फैले हुए चाल जैसे मकानों में बुज़ुर्ग महिलाएँ आश्रम में रहती है। विनोबा भावे के आंदोलन के दौरान अनेक युवतियों ने ब्रह्मचारी जीवन अपनाकर आश्रम में दाख़िल हुई थीं।आज उनकी हालत देखकर दुःख होता है।आश्रम में तब एक टेलीफोन गेट के पास रखा था। जब टेलीफोन की घंटी बजती थी तो अनेक बुज़ुर्ग महिलाएँ भागती-हाँफती टेलीफोन के पास जमा हो जाती थीं। उन्हें प्रतीक्षा रहती थी कि परिवारवाले कभी फोन करें, उनसे बात करें। एक 80 साल की बुज़ुर्ग महिला मेरे पास आयी। उसने मेरा गाँव पूछा, बाल बच्चे के बारे में पूछा।

जब उसे पता चला कि मैं दूरसंचार विभाग में कार्यरत हूँ तो उसकी आँखें याचना के साथ खिल उठीं। कहने लगीं,  "बेटा एक टेलीफोन इंस्ट्रुमेंट मेरे कमरे के पास लगवाना। अब मैं थक गई हूँ। फोन के लिए इतने दूर दौड़ नहीं सकती हूँ।" 

आश्रम के गेट पर एक टेलीफोन और आश्रम में तब 30 बुज़ुर्ग महिलाएँ रहती थीं। फोन की घंटी बजकर बंद हो जाती जब तक वे वहाँ पहुँच जाती थी। 

उनकी यह दयनीय स्थिति देखकर मन द्रवित हुआ। जिन्होंने अपनी युवावस्था में अपनी निजी भावनाओं को दूर रखकर देश के आंदोलन में भाग लिया था, अब उनकी वृद्धावस्था की चिंता किसे है?

मैंने एक आवेदन वर्धा दूरसंचार को लिखा था। वर्धा के दूरसंचार के उच्च अधिकारी से बात की। सामाजिक दायित्व के नियमानुसार वहाँ दूसरा फ़ोन उन बुज़ुर्ग महिलाओं के क्वार्टर के बीच लगा दिया गया।

ख़ैर, मैं वहाँ टेलीफोन की व्यवस्था कर सकता था लेकिन उनकी ख़ुशी के लिए परिवार वालों की घंटी कैसे करता?

15 अगस्त नज़दीक था और रेडियो पर जागृति फ़िल्म का गीत बज रहा था -

"हम लाये हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के
इस देश को रखना मेरे बच्चो सँभाल के
तुम ही भविष्य हो मेरे भारत विशाल के
इस देश को रखना मेरे बच्चो सँभाल के"...

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