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अंकुर

कई सदियों के बाद
बंजर भूमि में
अंकुर फूटा था। 
ज़मीन के अंदर गयी
नन्ही-नन्ही बूँदों ने
सहारा देकर 
उसे ऊपर उठाया, 
किवदंती है
कई सदियों तक
यह भूमि—
किसी बाँझ स्त्री की तरह
ढूँढ़ रही थी
कोई आधुनिक तकनीक—
जो इसके गर्भ से पैदा करे
इस अंकुर को।
 
एक दिन किसी बादल ने सुन ली
और धीरे-धीरे दो चार बूँदें गिरा दीं, 
उसी दिन से वह बीज अंकुरित होने लगा। 
 
कहते हैं, 
इस धरती पर प्रत्येक शताब्दी में 
कोई ना कोई सिरफिरा शासक—
दीवारों को तोड़कर जन्म लेता है, 
उसकी ज़िद के आगे 
शान्ति के सभी प्रस्ताव
स्वतः भंग हो जाते हैं
उनके उद्देश्य स्पष्ट होते हैं 
एकमात्र, शासन करना
चाहे फिर साम, दाम, दण्ड, भेद
कुछ भी इस्तेमाल क्यों न करना पड़े। 
उस शासक की किसी 
नीति के कारण 
फूटता-फूटता यह अँकुर
फिर रुक जाएगा
और इसे जन्म लेने के लिए
करना पड़ेगा, 
कई शताब्दियों का लंबा इंतेज़ार। 

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