गाँव के पुराने दिन
काव्य साहित्य | कविता कपिल कुमार1 Apr 2024 (अंक: 250, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
कहाँ गये वो मल्लाहे
कहाँ गयी वो नाव
जो खड़ी थी इस निर्जन तट पर
इस उम्मीद में-
कोई तो लौटेगा शहर से
गाँव की रेतीली गड्ढों वाली सड़कों पर
कोई तो बैठेगा
ऊँचे और विशाल दरख़्तों के नीचे।
आज, फिर मैं सोच रहा हूँ!
उस साँझ के बारे में
जो उदास होती है
किसी दिन के कारण नहीं, अपितु
उस व्यक्ति के लिए
जो नहीं लौटता, कभी वापस गाँव।
उन डालों का क्या होगा?
जिनको मैंने चूमा था
बड़े वात्सल्य से
जिनकी पत्तियों में
मैंने हाथ फिराये थे
एक प्रेमी के जैसे।
उन पटबिजनों का क्या होगा?
जिनको, मैं भूल गया
शहर की चकाचौंध में।
मैं सोचता हूँ-
गाँवों ने कितना कुछ दिया है
शहरों को,
बदले में शहर
मुझे भी नहीं लौटा सका
गाँव को।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अंकुर
- अनन्त-प्रेम
- अस्तित्व
- इस दुनिया को इतना छला गया है
- उत्तर-निरुत्तर
- कविता और क्रांति
- क्योंकि, नाम भी डूबता है
- गाँव के पुराने दिन
- गाँव के बाद
- गाँव में एक अलग दुनिया
- चलो चलें उस पार, प्रेयसी
- जंगल
- दक्षिण दिशा से उठे बादल
- देह से लिपटे दुःख
- नदियाँ भी क्रांति करती हैं
- पहले और अब
- प्रतिज्ञा-पत्र की खोज
- प्रेम– कविताएँ: 01-03
- प्रेम– कविताएँ: 04-05
- प्रेम–कविताएँ: 06-07
- प्रेयसी! मेरा हाथ पकड़ो
- फिर मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना है
- बसंत और तुम
- भट्टों पर
- भूख
- भूखे पेट
- मनुष्य की अर्हता
- मरीना बीच
- मोक्ष और प्रेम
- युद्ध और शान्ति
- रात और मेरा सूनापन
- रातें
- लगातार
- शहर – दो कविताएँ
- शान्ति-प्रस्ताव
- शापित नगर
- शिक्षकों पर लात-घूँसे
- सूनापन
- स्त्रियाँ और मोक्ष
- स्वप्न में रोटी
- हिंडन नदी पार करते हुए
- ज़िन्दगी की खिड़की से
कविता - हाइकु
लघुकथा
कविता-ताँका
कविता - क्षणिका
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं