अस्तित्व
काव्य साहित्य | कविता कपिल कुमार15 May 2024 (अंक: 253, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
कौन चाहता है?
अपना अस्तित्व खो देना
ऐसे
किसी धीमी हवा में उड़ते
रेत की तरह
पतझड़ में पेड़ से गिरते
पत्तों की तरह
घुप्प-अंधेरे में जलते दीये से
टकराते हुए, किसी कीट-पतंग की तरह।
ज़िन्दगी के ठीक विपरीत
मृत्यु नहीं होती
इनके बीच की एक कड़ी होती है
जिसमें मनुष्य दौड़ लगा रहा होता है
वह कुत्ते की तरह दौड़ रहा होता है
पर, कुत्ते की तरह हाँफता नहीं है
उसकी जीभ एक हाथ बाहर नहीं होती।
एक झुंड में रह कुत्तों में से
किसी एक कुत्ते के बीमार होने पर
अन्य कुत्ते भी मनाते हैं शोक।
परन्तु आदमियों की नस्लों से ये गुण
धीरे-धीरे छूटते जा रहे हैं।
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