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विदुर—समय संवाद-01

 

मैं और मैं
 
विदुर: 
महाभारत के इस प्रलय युद्ध में
किस पक्ष का होगा हित
सुदूर देशों के असंख्य योद्धा
कुरुक्षेत्र में होने लगे एकत्रित। 
 
कहता है मेरा यह अनुभव 
पीड़ाओं से भर जायेगा 
हस्तिनापुर और कुरुक्षेत्र॥
 
समय: 
काल को भी जो साधे हुए है
अपने दोनों हाथों को बाँधे हुए है
चिंता नहीं किसी को जब हस्तिनापुर की
बातें सुन रहा है तब वह विदुर की॥
 
विदुर: 
युद्ध ज़रूरी है या है समय की लाचारी
अपनी देह को क्षीण करते बस व्यभिचारी
धरा को बहरी कर देगी प्राणों की गूँज
बुझ नहीं पायी यदि यह चिंगारी॥
 
कहता है मेरा यह अनुभव
लाशों से भर जायेगा कुरुक्षेत्र॥
 
समय: 
यह कोई लाचारी नहीं गति है काल की
बुद्धि क्षीण हो गयी सभी के कपाल की
फँस चुके है ये सभी इस दलदल में 
है कोई संरचना जैसे मकड़ी के जाल की॥
 
विदुर: 
तुम ही समझा सकते हो पार्थ को
वह क्यों भूल गया यथार्थ को? 
किसके कहने पर मारी गयी उसकी मति? 
युद्ध के बाद क्या होगी उसको प्राप्ति?
 
कितनी मिलेगी कीर्ति और कितना मिलेगा यश
या सब कुछ खोने के बाद समझ आयेगा यह प्रपंच॥
 
समय: 
तुम कहो तो मैं हस्तिनापुर जा सकता हूँ
अर्जुन और दुर्योधन को समझा सकता हूँ
देखते हैं वो मेरी बातों का कितना मान रखेगें
और उनके सम्मुख मैं कितना सम्मान पा सकता हूँ॥
 
विदुर: 
उन दोनों की गति तुम्हारे हाथों में है
इस प्रजा की गति तुम्हारे हाथों में है
तुम जैसा चाहो खेल खिला दो
तुम चाहो तो उनको एक साथ मिला दो॥
 
रोक लिया यदि तुमने यह विनाश भारी
ऋणी रहेंगे हस्तिनापुर के बच्चे और नारी॥
 
समय: 
वैसे बचा नहीं अब मेरे हाथों में कुछ शेष
कर गया उनकी मति में मैं प्रवेश
मैं होता तो उनको बचा सकता था
कुरुक्षेत्र से वापस ला सकता था॥
 
विदुर: 
सोचा नहीं था कभी यह, ख़ून से पानी हो सकते हैं
कुरु के वंशज इतने अज्ञानी हो सकते है
यदि कोई एक सब्र कर ले इस घाटे से
अन्यथा ये महल भरे रहेंगे सन्नाटे से॥
 
समय: 
इनके इस हठ को पूरा नगर सहेगा
युद्ध इस बात का—महलों में कौन रहेगा॥
 
विदुर: 
गिरा रहे हैं चमकते सूरज को अँधेरी खोह में
कोई सत्ता के चक्कर में कोई पुत्र मोह में॥

—क्रमशः

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