कपिल कुमार - ताँका - 001
काव्य साहित्य | कविता-ताँका कपिल कुमार15 Apr 2024 (अंक: 251, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
1.
लोकतंत्र में
प्रतिदिन रचते
नये प्रपंच
जनता भूखी मरें
मज़े में सरपंच।
2.
शहर खड़े
गर्दन को उठायें
रंगों में डूबे
गाँवों का कोई नहीं
क़र्ज़ की मोटी बही।
3.
किसने रचे?
गाँवों के विरुद्ध, ये
झूठे प्रपंच
समस्त योजनाएँ
खा गया सरपंच।
4.
नभ ने दी ज्यों
मेघों को थोड़ी ढील
हुए बेक़ाबू,
गेहूँ के खेत बने
सपाट औ’ धूमिल।
5.
चुनावी कीड़ा
ज्यों ही गाँवों को काटा
बटने लगे
मिठाई औ’ शराब
हाल हुए ख़राब।
6.
सुधरे नहींं
लाखों ख़र्च करके
हाल इनके
मनरेगा से रोड़
नालियाँ औ’ जोहड़।
7.
साथ दिखते
नेता के काफ़िले में
चोर-उचक्के
ईमानदार फ़िरे
दिन में खाते धक्के।
8.
अस्सी पर्सेंट
रखते अधिकारी
अपने पास
बीस पर्सेंट में होगा
इंडिया का विकास।
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