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भारत रत्न : अटल बिहारी वाजपेई

भारत सरकार के सर्वोच्च सम्मान “भारत रत्न” से सम्मानित अटल बिहारी वाजपेई जी का जन्म 25 दिसंबर 1924 ई. को ब्रह्ममुहूर्त में शिंदे की छावनी, ग्वालियर, मध्य प्रदेश में कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। हालाँकि उनका पैतृक गाँव बटेश्वर है। बटेश्वर बाह तहसील, जनपद आगरा का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। करोड़ों हिंदुओं की मान्यता है कि बटेश्वर सभी तीर्थों का भाँजा है। बटेश्वर में महादेव शिव का प्रसिद्ध मंदिर है। यहाँ एक मंदिर शृंखला है। इन सभी मंदिरों में बटेश्वर महादेव का मंदिर अपनी प्राचीनता और लोक मान्यता के कारण सैकड़ों वर्षों से लोगों की आस्था और श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है। परंतु जिस दृष्टि से यह तीर्थ प्राचीन है, उस हिसाब से यहाँ विकास न के बराबर है। कुछ वर्ष पहले रेल की सौग़ात तो मिल गई परंतु बाक़ी विकास ज़ीरो है। जिस हिसाब से मुलायम सिंह यादव ने अपने पैतृक गाँव सैफई को चमकाया, वैसे अटल जी ने बटेश्वर की तरफ कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। बाक़ी के अन्य राजनेताओं ने भी बटेश्वर के प्रति उदासीनता का परिचय ही दिया।

अटल जी के पूर्वज अधिकांशतः काशी में पढ़े संस्कृत के महान विद्वान थे। श्यामलाल वाजपेई अटलजी के दादाजी थे। अटल जी के पिता का नाम पंडित कृष्ण बिहारी बाजपेई था व माता का नाम श्रीमती कृष्णा देवी था। अटल जी कुल सात भाई–बहन थे। अटल जी का प्रारंभिक जीवन सामान्य रहा। सन् 1945 ई. में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की और फिर एम.ए. राजनीति शास्त्र व एलएलबी की पढ़ाई कानपुर से प्रारंभ की। उस समय अटल जी के पिताजी प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए थे, इसलिए उन्होंने भी पढ़ने का मन बना लिया। पिता-पुत्र ने एक साथ एक ही कमरे में रहकर एलएलबी की पढ़ाई की। उनकी इस जोड़ी को देखने के लिए कॉलेज में भीड़ इकट्ठा हो जाती थी।

अटल जी का झुकाव हमेशा से ही आरएसएस की तरफ़ रहा। बाद में वे शाखा भी जाने लगे। छात्र जीवन में ही उनेक अंदर का कवि जाग गया था। उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ देशभक्ति से कैसे सराबोर हैं –

“पन्द्रह अगस्त का दिन कहता 
आज़ादी अभी -अधूरी है, 
सपने सच होने बाक़ी है 
रावी की शपथ न पूरी है।
दिन दूर नहीं 
खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे,
गिलगित से गारो पर्वत तक 
आज़ादी पर्व मनाएँगे...।”

पत्रकार के रूप में उनकी यात्रा सन् 1946 ई. से प्रारंभ हुई। वे लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म’ के प्रथम संपादक नियुक्त हुए। फिर तो संपादक बनने का सिलसिला चलता रहा, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं को अपनी क़लम से चमकाया। अटल जी जन संघ विचारधारा से बहुत प्रभावित थे और कट्टर समर्थक थे। इसके साथ ही राजनीति का सफ़र भी चल रहा था। अटल जी राजनैतिक उठापटक के बीच लिखते हैं –

“हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा,
काल के कपाल पर 
लिखता- मिटाता हूँ,
गीत नया गाता हूँ...।”

बगैर किसी राजनीतिक पद की लालसा के अटल जी मेहनत कर रहे थे। उनकी दूरदर्शिता व कुशल संचालन क्षमता को देखकर उनका सम्मान दिन प्रतिदिन बढ़ रहा था।

जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कृपा से अटलजी सक्रिय राजनीति में आ गये। वे राजनैतिक गतिविधियों में रुचि लेने लगे। 23 जून 1953 ई. को डॉक्टर मुखर्जी की रहस्यमयी मौत के बाद अटल जी पूरी तरह राजनीति में उतर गए और डॉ. मुखर्जी के अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिए जी-जान से जुट गये। देश की अधिकांश जनता अटल जी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा देखना चाहती थी। अटल जी की ख्याति बच्चे-बच्चे तक पहुँच चुकी थी। सन् 1955 ई. में श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। वे लखनऊ से सांसद थीं। चुनाव की तिथि घोषित हुई और जनसंघ ने अटल जी को अपना प्रत्याशी घोषित किया। परंतु साधन हीनता के कारण वे चुनाव हार गये। इससे अटलजी उदास न हुए, उनके उत्साह में रत्तीभर कमी  न आयी। 1957 ई. में द्वितीय आम चुनाव हुआ। अटलजी गोंडा से चुनाव लड़े और निर्वाचित हुए। हिंदू- मुस्लिम वोट उन्हें  प्राप्त हुए। अपार जनसमूह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा –

“यह विजय मेरी नहीं, यह बलरामपुर क्षेत्र के सभी नागरिकों की है। आपने मुझे प्यार-दुलार दिया, मैं वचन देता हूँ कि एक सांसद के रूप में इस क्षेत्र की सेवा राष्ट्रभक्त सेवक के रूप में करूँगा।”

धोती कुरता व सदरी पहने, भरे-भरे गोल चेहरे वाले, गौरवर्णी अटल जी जन-जन के हीरो बन गये। हार–जीत के खट्टे, मीठे, तीखे स्वाद के साथ उनकी राजनैतिक गाड़ी दौड़ती रही। आपातकाल का अँधेरा जब छटा तो अटल जी पुनः नवीन उर्जा के साथ कर्मपथ पर अग्रसर हो गये। 1996 ई. में अटल जी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण की और मात्र तेरह दिन तक ही उनकी सरकार चल सकी। राजनीतिक उतार–चढ़ाव चलते रहे, अटलजी एक योद्धा की तरह हार-जीत के साथ निरन्तर आगे बढ़ते ही चले गये।

अटल जी ने सन् 1997 में पुनः प्रधानमंत्री के रूप में बागडोर सँभाली और मैत्री भावना के साथ 19 फरवरी 1999 ई. को ‘सदा ए सरहद्द’ नाम से दिल्ली से लाहौर तक बस सेवा प्रारंभ करके भाईचारे का संदेश दिया था। परंतु ये भाईचारा बस यात्रा से शुरू होकर युद्ध तक चला। वर्ष 2004 तक अटलजी प्रधानमंत्री रहे। जनता ने अटल जी के प्रति जो सपने देखे थे, उन सपनों पर अटल जी खरे न उतर सके। फिर भी उन्होंने अपने जीवन में इतना सब कुछ किया जो एक सामान्य जन सोच भी नहीं सकता। पद्मविभूषण से भारत रत्न तक का उनका सफ़र एक ऐतिहासिक सफ़र है।

16 अगस्त 2018 को उनका स्वर्गवास हुआ तो घर-घर में मातम छा गया था। अटल जी के अंतिम दर्शनों हेतु अपार जनसमूह उमड़ पड़ा था। देश के कोने-कोने से उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित किए गए। उनकी रचना की कुछ पंक्तियाँ –

“ठन गई!
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था/
मोड़ पर मिलेंगे 
इसका वादा न था/
रास्ता रोककर वह खड़ी हो गई/
यों लगा ज़िंदगी से बड़ी हो गई।”

अटल जी ने अपना संपूर्ण जीवन मातृभूमि की सेवा में अर्पण कर दिया। राष्ट्र सदैव उनका ऋणि रहेगा...!

संदर्भ:

  1. भारतीय राजनीति में अटल बिहारी बाजपेई (पुस्तक लेखिका- डॉ. श्रद्धा अवस्थी )।

  2. विश्वमुक्ति, हिंदी पत्रिका -अगस्त से अक्टूबर 2021 अंक (संपादक- प्रसन्न पाटसाणी )।

  3. विकिपीडिया व गूगल सर्च इंजन।

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