अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कलेक्टर साहब का भाषण

 

जैसे ही कलेक्टर साहब का आदेश मिला। बुलडोज़र भूँ-भूँ कर चलने लगा। देखते ही देखते पूरी आदिवासी बस्ती तहस-नहस हो गई। कुछ आदिवासी झुंड बनाकर शिकायत करने आगे बढ़े तो पुलिस ने सरकारी डंडों से उन्हें लहूलुहान कर दिया। दूर अधनंगे आदिवासी बच्चे व स्त्रियाँ हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रहे थे। रहम की कहीं कोई गुंजाइश नहीं। 

 आदिवासी आँसुओं का कोई मूल्य नहीं . . . आदिवासी आँसुओं से जुड़ी ख़बर का मीडिया में कोई अता-पता नहीं। 

आदिवासी बस्ती के उजड़ने की घटना आई-गई हो गई। कुछ दिन बाद शहर में कार्यरत संस्था आदिवासी सेवा संघ ने अपने वार्षिक उत्सव कार्यक्रम का आयोजन किया। कार्यक्रम में उसी कलेक्टर को मुख्य अतिथि आमंत्रित किया, क्योंकि कलेक्टर साहब आदिवासी समुदाय से ही थे। उनके सम्मान में संस्था ने ख़ूब चिल्लपों मचाई। 

माइक पर घड़ियाली आँसू बहाते हुए कलेक्टर साहब बोल रहे थे, “मेरे प्यारे, मेरे अपने ग़रीब भाइयों-बहिनों मैं आपके हक़-अधिकारों के लिए सरकार से हमेशा लड़ता रहूँगा। मैं आपकी ख़ातिर अपनी जान भी दाँव पर लगा दूँगा।”

कलेक्टर साहब का भाषण सुनकर पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कविता - हाइकु

किशोर साहित्य कविता

बाल साहित्य कविता

चिन्तन

काम की बात

लघुकथा

यात्रा वृत्तांत

ऐतिहासिक

कविता-मुक्तक

सांस्कृतिक आलेख

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं