जीना यहाँ-मरना यहाँ
कथा साहित्य | लघुकथा मुकेश कुमार ऋषि वर्मा15 Apr 2019
जमुनिया भोर के अँधेरे में ही महुआ बीनने निकल पड़ी थी, जबकि सारी रात उसे तेज़ बुखार रहा था। मगर महुआ नहीं बीनेगी तो खायेगी क्या...? भूखों मरना पड़ेगा। घर में कोई दो पैसे कमाने वाला भी तो नहीं।
पिछले साल तक सब ठीक-ठाक चल रहा था। एक दिन पति रामआसरे जंगल गये तो फिर लौटकर ही न आये। आये तो बस उनके शरीर के कुछ अवशेष, जिनसे बस पहचान ही हो सकी कि ये रामआसरे ही थे। पति का ख़्यालआते ही जमुनिया की आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। एक लम्बी साँस भरी और जमुनिया ने अपने कदमों की रफ़्तार तेज़ कर दी। अगर वो देर से पहुँचेगी तो अन्य लोग महुआ बीन लेगें फिर उसे सारा दिन जंगल में भटकना पड़ेगा। तभी पीछे से झाड़ियों में कुछ हलचल हुई। जमुनिया के कदम एकदम से रुक गये। वो कुछ समझ पाती, इससे पहले उसके ऊपर एक भारी भरकम जानवर ने छलाँग लगा दी। जमुनिया चीख भी न सकी।
सूरज निकल आया था। फ़ॉरेस्ट गार्ड धनंजय व रघुवर अपनी ड्यूटी पर निकले थे। एक जगह आसमान में कुछ चील और कौए उड़ रहे थे। दोनों को समझते देर न लगी। पास पहुँचे तो देखा एक बूढ़ी औरत का छिन्न-भिन्न जिस्म झाड़ियों में पड़ा था।
"इन आदिवासियों को कितना भी समझाओ इनकी समझ में कुछ आता ही नहीं। कल ही बस्ती में सूचना दी थी कि जंगल में आदमखोर बाघ आ गया है, सावधान रहें," धनंजय के स्वर में खीज थी।
रघुवर ने लम्बी साँस भरते हुए कहा, "बेचारे क्या करें? इस जंगल के अलावा इनके पास जीने का कोई दूसरा चारा भी तो नहीं। इनके लिए तो जीना यहाँ - मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ।"
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