पश्चाताप के आँसू
कथा साहित्य | लघुकथा मुकेश कुमार ऋषि वर्मा1 Nov 2019
विनय प्रताप का नया-नया तबादला हुआ था। यह शहर उसके लिए बिल्कुल नया था। दोपहर को चाय पीने के लिए अपने कार्यालय के ठीक सामने वाली रामू टी स्टॉल पर एक कप चाय का आर्डर देने ही वाला था कि उसकी नज़र बस स्टॉप की बैंच पर बैठी जानी-पहचानी सी एक बूढ़ी औरत पर चली गई। पास जाकर देखा तो विनय एकदम से पहचान गया।
"माता जी आप यहाँ कैसे. . . आगरा घूमने आई हैं? आकाश के साथ आई हैं, कहाँ है वो. . . क्या कोई सामान लेने गया है?" एक ही साँस में विनय ने तमाम प्रश्न माताजी से कर डाले। माताजी विनय के सवालों के जवाब देने की बजाय उलटे फूट-फूटकर रो पड़ीं।
किसी तरह विनय ने माताजी को धैर्य बँधाया और उन्हें अपने साथ घर ले गया। घर पर माताजी ने पूरा घटनाक्रम विनय प्रताप को बता दिया। विनय को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसका लंगोटिया यार आकाश इतना गिरा हुआ काम भी कर सकता है। अगले ही दिन माताजी को साथ लेकर विनय अहमदाबाद चला गया।
केन्द्र सरकार का प्रथम श्रेणी ऑफ़िसर आकाश अपने बड़े से बंगले के गार्डन में विदेशी कुत्ते से खेल रहा था। तभी उसकी नज़र अपनी माँ पर पड़ी। माँ को देखते ही आकाश के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। तालियाँ बजाता हुआ विनय भी सामने आ गया।
"वाह! आकाश वाह. . . लाखों की पगार पाने वाला इतना बड़ा ऑफ़िसर अपनी बूढ़ी बेबस, लाचार माँ को मरने के लिए सैकड़ों मील एक अनजान शहर में छोड़ आया। क्या माताजी का ख़र्च तुम्हारे इस विदेशी नस्ल के कुत्ते से भी अधिक था, जो तुम उठाने में असमर्थ हो गये?"
आकाश को अपनी ग़लती का एहसास हुआ तो वह अपने किये पर आँसू बहाने लगा, वो कुछ बोलता इससे पहले विनय जा चुका था। आकाश अपनी माँ के चरणों को पश्चाताप के आँसुओं से धो रहा था. . .।
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