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चिट्ठियों वाले दिन 

 

अब कोई नहीं लिखता चिट्ठी 
चिट्ठी नहीं लिखता तो, 
नहीं पूछता माँ की बीमारी के बारे में, 
फ़सल की ख़राबी के बारे में, 
बापू के नित बढ़ते क़र्ज़ के बारे में, 
दादा के लाइलाज मर्ज़ के बारे में . . . 
 
होली-दिवाली, 
तीज त्योहारों के शुभकामना संदेश 
जो वर्षों सुरक्षित रहते थे संदूक-अलमारियों में
 
नवयौवना का प्रेम संदेश 
जो हृदय में छप जाता था 
अब वो संदेश चंद मिनटों में 
ईमेल-व्हाट्सएप से डिलीट हो जाता है। 
 
चिट्ठियों वाला एहसास
कहाँ है आभासी दुनिया में . . . 
क़लम और स्क्रीन के बीच 
आ चुका ज़मीन आसमान का अंतर 
काग़ज़-क़लम दम तोड़ चुके 
स्क्रीन हर मनुज के चेहरे से चिपक चुकी है 
वह दिन-प्रतिदन चूस रही है मनुज का सुखचैन
और आपसी रिश्तों को तिल-तिल मार रही है 
काश! लौट आयें वो चिट्ठियों वाले दिन . . . 

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