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बोल्टू के हस्का फुस्की और बोल्ट्स

मैं कुछ भूलता नहीं ऐसा दावा नहीं कर रहा हूँ। मगर यह दावा पुरज़ोर करता हूँ कि नाममात्र को ही कुछ भूलता हूँ। जैसे बचपन में मैं जिन साथियों के साथ खेलता-कूदता था, पढ़ता-लिखता था उनमें से कुछ ही हैं जो अब याद नहीं रहे या दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डालने, तमाम कड़ियों को जोड़ने पर पूरा याद आते हैं। एक बात और कह दूँ कि बचपन की कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें मैं रिसाइकिल बिन से भी हटा देता हूँ। चाहता हूँ कि वह दिमाग़ की हार्ड ड्राइव से भी पूरी तरह डिलीट हो जाएँ। लेकिन वह नहीं होतीं। किसी ना किसी तरह से ना दिन देखें ना रात किसी भी समय याद आ ही जाती हैं। तब मुझे अपनी स्मरण शक्ति पर बहुत क्रोध आता है कि फ़ालतू की बातों मेरे लिए अप्रिय बातों को भी वह क्यों सँजोए रखने की हठ किए बैठा है।

जैसे कि मैं नहीं चाहता कि मुझे वह होली याद आए जब मैं तेरह वर्ष का था और देश की कट्टर तानाशाही प्रवृत्ति वाली तथाकथित लोकतांत्रिक निर्लज्ज सरकार ने आपातकाल लागू किया हुआ था। देश में अगर कुछ था जो डरा-सहमा पीड़ित नहीं था, अपनी पूरी शान-ओ-शौक़त पूरी ऐंठ पूरी मुस्टंडई के साथ कण-कण में व्याप्त था, तो वह था भय अत्याचारी क्रूर निर्लज्ज तानाशाह का। ऐसा लगता था जैसे हर तरफ़ हर समय हर कोई पशु-पक्षी यहाँ तक कि नदी तालाब तारा पोखरी-पोखरा सभी अपनी प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक चाल ही भूल गए हैं । त्यौहारों की आत्मा ही छिन गई थी। वो रंगहीन-रसहीन हँसी-ख़ुशी उत्साह से मुक्त हो गए थे। लोग त्यौहार भी ऐसे मना रहे थे कि रस्म ही पूरी करनी है। अपशगुन ना होने पाए बस।

यही रस्म अदायगी उस होली को भी हो रही थी। न रंगों में कोई रंग था। ना लोगों में कोई उत्साह। जिस दिन होलिका जलनी थी उस दिन सब कुछ ठीक ही दिख रहा था। अपने भाइयों, चच्चा के साथ मैं भी होलिका में अलैया-बलैया, गोबर के बने बल्ले, गेहूँ की बालियाँ आदि डाल आया था। बाबूजी को दो महीने से वेतन नहीं मिला था। वह ज़िला हॉस्पिटल में फार्मासिस्ट थे। वहीं हमारे एक पट्टीदार कम्पाउण्डर थे। वेतन ना मिलने का मुख्य कारण मतलब कि एकमात्र कारण था कि बाबूजी और पट्टीदार जिन्हें मैं चच्चा कहता था दोनों ही लोगों द्वारा नसबंदी के जितने केस करवाने थे वह दोनों ही लोग नहीं करवा पाए थे।

एड़ी-चोटी का ज़ोर दोनों ही लोगों ने लगाया हुआ था लेकिन बात बन नहीं पा रही थी। इसकी वज़ह से वेतन रुका हुआ था और होली जैसे त्यौहार की बस रस्म ही पूरी की जा रही थी। हमारे संज्ञान में यह पहली होली ऐसी बीत रही थी जिसमें बच्चों सहित किसी के भी नए कपड़े नहीं बने थे। खाने-पीने की चीज़ों में भी भारी कटौती चल रही थी।

ऐसी कड़की, ऐसी स्थिति में चच्चा के घर अगले दिन यानी रंग खेलने वाले दिन विकट विपत्ति आ पड़ी। पूरे गाँव में गहरा सन्नाटा छा गया। चच्चा के ख़िलाफ़ थाने में दूसरे पट्टीदार ने एफ.आई.आर. दर्ज करा दी थी कि चच्चा और उनके लड़कों ने उनके घर का लकड़ी का काफ़ी सामान चोरी करके होलिका में जला दिया है। इसमें बैलगाड़ी का एक पहिया जो की मरम्मत के लिए रखा था और उन लकड़ियों को भी जला दिया जो धन्नियाँ बनवाने हेतु लाए थे।

शिकायत करने पर अपने लड़कों के साथ गाली-गलौज की, जान से मारने की धमकी दी। ऐन त्यौहार के दिन जब दुनिया रंग-गुलाल के बाद खाने-पीने, नए कपड़े पहन कर लोगों से मिलने-जुलने को तैयार हो रही थी तभी पुलिस चच्चा और उनके दो बड़े लड़कों को थाने उठा ले गई। घर वाले हाथ जोड़ते, गिड़गिड़ाते रहे, कहते रहे कि यह पूरी तरह से झूठ है, हमें फँसाने के लिए बेवज़ह झूठी एफ.आई.आर. की गई है। मगर पुलिस ने एक ना सुनी। पास-पड़ोस का कोई भी सामने नहीं आया। सब के सब घरों में दुबके रहे। ऐन त्यौहार के दिन चच्चा के घर रोना-पीटना मच गया। मगर झूठी एफ.आई.आर. करने वाले पट्टीदार के पास कोई भी नहीं पहुँचा कि भाई त्यौहार के दिन ऐसा नाटक क्यों कर रहे हो?

आपातकाल लागू होने के बाद से ही पट्टीदार त्रिनेत्रधारी आग मूत रहा था। वह था तो सत्ताधारी पार्टी के यूथ विंग का स्थानीय स्तर का कोई पदाधिकारी लेकिन अकड़ किसी बड़े लीडर से कम नहीं थी। अपने को वह समानांतर सत्ताधारी युवराज का दाहिना हाथ बताता था। युवराज के साथ खींची अपनी कई फोटो मढ़वा कर घर में लगा रखी थी। अपनी दबंगई से दूसरों की संपत्ति ख़ासतौर से खेत-खलियान बाग-बग़ीचा हथियाना उसका शग़ल बन गया था।

वह अपने इस शग़ल का शिकार चच्चा को नहीं बना पा रहा था तो उन्हें ऐसे फँसा दिया। मगर ईमानदार, सिद्धांत के पक्के चच्चा झुकने वालों में नहीं थे, तो नहीं झुके। वह क्षेत्र में ख़ौफ़ का पर्याय बने त्रिनेत्रधारी की इस चाल के समक्ष भी नहीं झुके। ताक़त के मद में चूर तानाशाह की गुलाम बनी व्यवस्था की आँखों में आँखें डाल कर सत्य की लाठी लिए डटे रहे। जल्दी ही पता चला कि उन्हें कई धाराओं में निरुद्ध कर बेटों सहित जेल भेज दिया गया। मगर सत्य की लाठी लेकर सभी के साथ खड़े रहने वाले मेरे चच्चा के साथ कोई नहीं खड़ा हुआ।

मेरे बाबूजी भी खुलकर सामने नहीं आए। बस चुपके-चुपके चच्चा के घर को आर्थिक, अन्य सामानों आदि के ज़रिए हर संभव मदद देते रहे। उन्हें रास्ते बताते रहे कि कैसे इस समस्या से मुक्ति पायी जा सकती है। उनकी मदद के लिए उन्होंने घर के तमाम ख़र्चों में कटौती ही नहीं की बल्कि कई लोगों से पैसा उधार भी लिया। सब कुछ इतनी सावधानी से कर रहे थे कि घर में अम्मा के सिवा किसी को कानों-कान ख़बर तक नहीं थी।

बाबूजी ने चच्चा के घर वालों को तानाशाह के संगठन के एक वास्तविक बड़े पदाधिकारी से संपर्क साधने का भी रास्ता बताया। इससे फ़ायदा यह हुआ कि वहाँ से त्रिनेत्रधारी पर दबाव बनाया जा सका। इससे वह चच्चा के शेष बचे घर वालों को और खुलकर परेशान नहीं कर पा रहा था। लेकिन यह सब होते-होते इतना समय निकल चुका था कि एक दिन सूचना मिली कि चच्चा ने जेल की कोठरी में ही अपने पाजामे से फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट और जेल वालों ने जिस प्रकार आत्महत्या करना बताया वह किसी के गले नहीं उतर रहा था। हर कोई हतप्रभ था कि यह पूरी तरह निराधार और झूठ है। जेल की कोठरी में अपने पहने हुए पाजामे से, दरवाज़े के सींखचों में कोई फाँसी पर कैसे झूल सकता है, और यह कि जेल में इतने क़ैदियों, स्टॉफ़ में से कोई उन्हें यह सब करते देख नहीं पाया।

यह सब सच नहीं है। यह पुलिस द्वारा बेतुकी गढ़ी हुई कहानी है। मगर हर कोई विवश था पुलिस की इस मनगढ़ंत कहानी के आगे। जिसके बारे में कोई कुछ भी नहीं बोल सकता था। कुछ महीने बाद यह पता चला कि त्रिनेत्रधारी की लिखी कहानी को पुलिस ने यथार्थ में परिवर्तित किया था। चच्चा का शव मृत्यु के तीसरे दिन गाँव पहुँचा था। क़ानूनी पचड़ों के ज़रिए जितनी देर की जा सकती थी वह की गई थी। इतनी देरी के कारण पार्थिव शरीर के आते ही उसका दो घंटे में ही अंतिम संस्कार कर दिया गया।

चाची यह सब देखकर इतना बेसुध हो गईं थीं कि उनके ना आँसू निकल रहे थे, ना ही वह रो रही थीं। मूर्तिवत सब कुछ होता देख रही थीं। चच्चा के जेल में बंद दोनों लड़के अंतिम संस्कार के दिन दो घंटे के लिए आए थे। यह कोर्ट के आदेश के बाद हो पाया था। इसमें बड़ा रोल मेरे बाबूजी का था। तेरहवीं के दिन दोनों लड़के नहीं आ सके। इसके लिए भी बाबूजी ने बहुत कोशिश की थी लेकिन यह संभव नहीं हो पाया।

चच्चा के तीन छोटे भाइयों और उनके तीन छोटे बेटों ने तेरहवीं की रस्म पूरी की। यह संयोग ही कहा जाएगा कि ठीक उसी दिन देश का मनहूस काला अध्याय समाप्त किए जाने की घोषणा हुई। मानो चच्चा अपना बलिदान देकर देश भर से मनहूस काली छाया हटा गए थे। मगर उनके जाने से घर पर पड़ी काली छाया गहराने लगी थी।

घर का ख़र्च कैसे चलेगा यह समस्या सुरसा के मुँह की तरह विकराल होती जा रही थी। चच्चा के भाई ज़्यादा लंबे समय तक मदद के लिए तैयार नहीं थे। क्योंकि वे अपने परिवार के हिस्से का ज़्यादा हिस्सा अपने भाई के परिवार पर ख़र्च नहीं करना चाहते थे। अंततः कुछ ही महीनों में चाची अपने तीन छोटे बच्चों के साथ एकदम अकेली पड़ गईं। बाबू जी अभी भी भीतर ही भीतर मदद किए जा रहे थे। मगर उनकी भी एक सीमा थी, उससे आगे वह भी नहीं जा सकते थे। फिर भी उनके बच्चों की पढ़ाई का ख़र्च उठाते रहे। चाची को भी अम्मा के ज़रिए समझा-बुझाकर तैयार किया कि नाव मझदार से आप ही को निकालनी है। बाक़ी हम लोग मदद के लिए आसपास बने रहेंगे। इसलिए नाव का चप्पू आपको अपने हाथ में थामना ही होगा। जो आपको तब-तक चलाते रहना है जब-तक कि बच्चे चप्पू अपने हाथ में लेने लायक़ ना बन जाएँ।

समझदार चाची को बाबू जी की बातों से बल मिला, हिम्मत की और उठ खड़ी हुईं। चाची को चच्चा की जगह नौकरी दिलाने की बात आई लेकिन कुछ तकनीकी समस्याओं के चलते यह संभव नहीं हो पाया। चाची जल्दी ही पास में ही क़स्बे की बाज़ार में एक किराने की दुकान चलाने लगीं। तीनों लड़के भी स्कूल के बाद उन्हीं के पास दुकान पर रहते। हाथ बँटाते।

बहुत ही कम समय में चाची कुशलतापूर्वक नाव खेने लगी थीं और देश ने भी आज़ादी के बाद सबसे काले दिनों आपातकाल के थोड़े दिनों पश्चात ही अधिनायकवादी सोच की नेतृत्वकर्ता की सत्ता को उखाड़ फेंका था। वास्तविक लोकतांत्रिक लोगों के हाथों में सत्ता सौंप दी थी। अब त्रिनेत्रधारी पांडे भागा-भागा फिरने लगा। चच्चा के घर वालों ने तो तुरंत कुछ नहीं किया। लेकिन उससे त्रस्त कई और लोगों ने अपना हिसाब बराबर करना शुरू कर दिया था। परिणामस्वरूप उस पर एक के बाद एक कई केस दर्ज हो गए। अंततः वह जेल पहुँच गया।

समय बीतता रहा। चाची नाव खेती रहीं। लड़के दुकान में हाथ बँटाते रहे, पढ़ते रहे। मगर तीसरे लड़के ने रंग बदलना शुरू कर दिया। उसे गुंडई-बदमाशी रास आने लगी। इतनी की पढ़ाई-लिखाई पिछड़ती चली गई और गुंडई बढ़ती गई। अपने रंग-ढंग से उसने घर के भी रंग-ढंग बदलने शुरू कर दिए। मैं और वह एक ही क्लास में पढ़ते थे। स्कूल और बाहर भी मुझे उसका साथ भाने लगा था। बाबूजी-अम्मा जी की नज़रों से यह बात छुपी नहीं रही। वह चिंता में पड़ गए। मगर मुझसे कुछ नहीं कह रहे थे। मैं पूरी तरह ख़ुद को आज़ाद समझ रहा था।

हाईस्कूल में मैं तो किसी तरह खींचतान के पास हो गया। मगर वह फ़ेल हो गया। ज़बरदस्त ढंग से सभी सब्जेक्ट में फ़ेल था। किसी विषय में उसका सबसे ज़्यादा नंबर इतिहास में था। सौ में नौ नंबर। मैथ में शून्य। कुल टोटल छः सौ में तैंतीस नंबर थे। मैंने जब उससे कहा कि, ‘लिख तो मेरे जितना तुम भी रहे थे, फिर सारे नंबर कहाँ चले गए?’ तो वह हंसता हुआ एग्ज़ामिनिरों को अंड-बंड बोलने लगा।

कहा, ‘इतने अच्छे-अच्छे गानों से पूरी की पूरी कॉपी भर देता था कि कॉपी जाँचते-जाँचते थक जाएँगे तो गानों से उनका मनोरंजन हो जाएगा। उनकी थकान उतर जाएगी और मुझे पुरे नंबर दे देंगे। मगर...।’ फिर वह अंड-बंड बकने लगा। टीचरों, एग्ज़ामिनिरों को कही जा रही ऊल-जुलूल बातें मुझे अखर रही थीं, और मेरे नंबर बाबूजी, अम्मा जी को इतने अखरे कि आगे की पढ़ाई के लिए मुझे दिल्ली भेज दिया। चच्चा के यहाँ।

इतना ही नहीं अगले कई साल तक होली, दिवाली जैसे त्यौहारों पर मेरे सारे भाई-बहनों के साथ दिल्ली आ जाते। जिससे मेरे गाँव जाने की सारी संभावनाएँ ख़त्म हो जातीं। कई बार तो ऐसा हुआ कि मैं तैयारी किए बैठा रहा कि गाँव चलूँगा, चच्चा भी कहते हाँ चलना है। मगर चलने के समय सब वहीं पहुँच जाते। चच्चा, बाबूजी, अम्मा सब मिले हुए थे। उस समय उन सब पर बड़ा ग़ुस्सा आता था। गाँव का हाल पूछने पर एक ही जवाब मिलता कि, ‘क्या रखा है गाँव में? वही धूल-माटी, कीचड़-गोबर। हम लोग ख़ुद ही ऊबकर अब बार-बार यहाँ आ जाते हैं।’

अम्मा चच्चा की तरफ़ देखती हुई कहतीं, ‘तुम्हारे बाबूजी की नौकरी भी चच्चा की तरह यहीं होती तो हम गाँव लौटकर जाते ही नहीं।’ तब समझ नहीं पाता था कि अम्मा-बाबूजी मेरे भले के लिए ही यह सब कुछ कर रहे थे। उस समय जो ग़ुस्सा आता था आज जब सोचता हूँ तो श्रद्धा से सिर बाबू जी, अम्मा जी, चच्चा, चाची जी सभी के चरणों में झुक जाता है। गाँव से आने के दस साल बाद मैं गाँव तब पहुँचा जब भारतीय वायुसेना में बतौर फ़ाइटर जेट पायलट मेरा चयन हो गया और प्रशिक्षण पर जाने से पहले बाबूजी ने मुझे फोन करके दो दिन के लिए गाँव बुलाया था। साथ में मेरे दोनों चचेरे भाइयों को भी।

ट्रेन लेट होने के कारण गाँव पहुँचने में हमें काफ़ी देर हो गई। हम बहुत देर रात में घर पहुँचे। सब हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। अम्मा-बाबूजी, भाई-बहन सब। अम्मा, बहन ने खाने-पीने की इतनी चीज़ें बनाई थीं, तैयारी घर में ऐसे की गई थी मानो शादी-ब्याह का घर हो। मैंने सबसे पहले अम्मा के पैर छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया। अपनी बाँहों में भर लिया। मारे ख़ुशी के उनके आँसुओं की धारा बह चली थी। दोनों हाथों में मेरा चेहरा लेकर बार-बार माथे को चूमा। मुझे गले लगाया, रोती हुई बोलीं, ‘मेरा लाल, बेटा मैंने कैसे पत्थर बनकर तुझे इतने सालों तक यहाँ से दूर रखा बता नहीं सकती।’

रोते हुए अम्मा बोले जा रही थीं, उनके शब्द स्पष्ट नहीं निकल रहे थे। तभी बाबूजी भी बोले, ‘अरे इतना थका हुआ है, बैठने दो पहले इन सबको’ बाबू जी की आवाज़ भी बहुत भरी हुई थी। जैसे कि बस अब रो ही देंगे। असल में एक बाप तड़प रहा था अपने बेटे से मिलने के लिए। उनकी भावना समझते ही मैंने एक हाथ से उनको भी गले लगा लिया था।

मेरे लिए उस पल से ज़्यादा अनमोल शायद ही कोई दूसरा क्षण होगा। पूरा वातावरण इतना भावुक हो गया था कि बहन भी भैया बोलते हुए आ लगी गले से। मैंने उसे भी अपनी बाँहों के घेरे में ले लिया था। मेरी भी आँखें बरस रही थीं। बड़ी देर बाद हम अलग हुए। बाक़ी सभी भाइयों से मिला, वे भी भावुक थे। अम्मा साथ आए दोनों चचेरे भाइयों से भी मिलीं। उन्हें भी गले लगाया, आशीर्वाद दिया। बड़ी देर रात तक खाना-पीना, हँसना-बोलना, चलता रहा। सबसे ज़्यादा बातें मेरी पढ़ाई-लिखाई, एयरफ़ोर्स में मेरे सिलेक्शन को लेकर होती रहीं।

पूरा घर एक पेट्रोमैक्स, कई लालटेन के सहारे चमक रहा था। पूरे घर की रंगाई-पुताई से लेकर एक-एक चीज़ चमकाई गई थी। बहुत सी चीज़ें नई ख़रीदी गई थीं। मैं अपने लिए घर का ऐसा लगाव देखकर अभिभूत हो रहा था। कई कमरों में सभी के सोने के लिए अलग-अलग इंतज़ाम किया गया था। लेकिन सोने के समय बहन बोली, ‘बरोठे में सब एक साथ सोते हैं। सब ने बातें कर लीं, मैं तो बात कर ही नहीं पाई हूँ।’

वह सही कह रही थी। अम्मा का हाथ बँटाने में ही उसका सारा समय निकल गया था। उसके बोलते ही बाक़ी भाइयों ने भी हाँ कर दी तो एक साथ बरोठे में ही ज़मीन पर ही बिस्तर लगाया गया। क्योंकि वहाँ एक साथ सभी के लिए चारपाइयाँ नहीं पड़ सकती थीं। लेटे-लेटे ही सब बतिया रहे थे। बतियाते-बतियाते ही सब एक-एक कर सोते चले गए। मैं आख़िर तक जागता रहा। मैं थका था, आँखों में नींद भी बहुत थी लेकिन मैं सो नहीं पा रहा था।

एक ही बात बार-बार दिमाग़ में गूँज रही थी कि इतने सालों बाद आया हूँ, गाँव के संगी-साथी कैसे हैं? यह भी अभी तक नहीं देख पाया हूँ। परसों सुबह फिर चले जाना है। पता नहीं फिर कब वापसी होगी। मेरा मन बार-बार चच्चा के घर चला जा रहा था, कि पता नहीं उनके यहाँ सब कैसे हैं? चाची कैसी हैं? और उनका बेटा, मेरा सहपाठी, वह कैसा है? जेल में बंद उसके दोनों भाई छूटे कि नहीं। घर में तो गाँव के बारे में कोई कुछ बात ही नहीं करता था। बहुत पूछने पर ही बाबू जी कभी-कभी कुछ-कुछ बताते थे। बाबूजी ने तो उसकी ख़ुराफ़ातों के कारण उसका नाम ही “मुतफन्नी” रखा हुआ था। वहाँ पहुँचने पर इतनी सारी बातें दिल्ली, मेरी एयरफ़ोर्स की नौकरी की होती रही थीं कि गाँव का नंबर ही नहीं आया।

अगले दिन सवेरे ही मैं भाइयों के साथ गाँव देखने, सब से मिलने निकल लिया। निकलते वक़्त अम्मा ने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया था कि मैं किसी को यह भूल कर भी नहीं बताऊँगा कि मैं एयरफ़ोर्स में भर्ती हो गया हूँ। और भी कुछ ज़्यादा बातें करने से मना किया। उन्हें इससे मेरा अनिष्ट होने की आशंका सता रही थी।

मैं चच्चा के यहाँ पहुँचा तो चाची दरवाज़े पर ही बैठी मिलीं। उनके पैर छुए लेकिन वह पहचान नहीं सकीं। बताया तो ख़ूब आशीर्वाद दिया। उनके ही पीछे एक और महिला खड़ी थी जो हम लोगों के पहुँचते ही भीतर चली गई। मैंने अपने सहपाठी के बारे में पूछा तो चाची ने कहा, ‘बाज़ार में होगा दुकान पर।’ बाज़ार में हमने अपने सहपाठी इंद्रेश की दुकान पूछी तो जिनसे पूछा था वह कुछ लटपटाए। तब हमने चच्चा का नाम लिया, उनका नाम पूरा होने से पहले ही वह बोले, ‘अरे बोल्टुआ के पूछ रहे हो। ऊहे तो बा ओकर दुकनियाँ।’

उन्होंने पचास-साठ क़दम आगे एक दुकान की ओर हाथ दिखाते हुए कहा। हम वहाँ पहुँचे, वह चाय-समोसा, मिठाई की दुकान थी। सामने भट्टी पर कढ़ाई में तेल गर्म हो रहा था। उसके बगल में छोटी भट्टी में चाय की बड़ी सी केतली चढ़ी थी। भट्टी के दूसरी तरफ़ एक सोलह-सत्रह साल का लड़का उबले हुए आलू छील रहा था। मैं उससे पूछने ही वाला था कि नज़र उसके पीछे तखत पर बैठे एक औसत क़द के लेकिन मज़बूत जिस्म वाले व्यक्ति पर पड़ी। मैं देखते ही पहचान गया। मैंने जैसे ही आवाज़ दी ‘इंद्रेश।’ क्षण भर देखते ही वह भी पहचान गया।

ख़ुश होता हुआ बोला, ‘अरे तू, आवा अंदरवां आवा ना।’ कहते हुए वह उठा और मेरे पास आया। हमने उसे गले लगाकर कहा, ‘अरे तू तो बड़का सेठ हो गए हो।’ वह बोला, ‘अरे काहे का सेठ, ऐसे ही चाय-पानी चलता रहता है। आवा अंदर, आवा।’ हमें और हमारे साथ आए चचेरे भाइयों को तखत पर बैठाया। ख़ुद ग्राहकों के लिए पड़ी बेंच खींचकर उस पर बैठ गया। भट्टी के पास बैठे लड़के को चाय बनाने के लिए कहकर बतियाने लगा।

बड़ी देर तक चाय-नाश्ता, हमारी बातें होती रहीं। वह अपनी कम मेरी ज़्यादा पूछ रहा था। दिल्ली, पढ़ाई-लिखाई, इतने दिन आए क्यों नहीं? वह हँस-हँस कर अपनी एक से बढ़कर एक ख़ुराफ़ात भी बताता रहा कि इतने दिनों में कैसे त्रिनेत्रधारी से एक-एक कर बदला लिया। कैसे उसे भरे बाज़ार में मारा-पीटा। उसके लड़के को आए दिन इतना मारा-पीटा कि उसकी पढ़ाई छूट गई। त्रिनेत्रधारी ने उबकर लड़के को किसी रिश्तेदार के यहाँ भेज दिया।

त्रिनेत्र से मुक़ाबले के लिए उसने राजनीतिक पार्टी ज्वाइन कर रखी है। यह होटल भी त्रिनेत्र की ही ज़मीन कब्ज़ा करके बनाया है। मैंने उससे उसके भाइयों के बारे में पूछा तो उसने बताया कि, 'बड़के दोनों भईया जेल से छूटने के बाद यहाँ ज़्यादा दिन रुके नहीं, मुम्बई चल गए। वही काम-धंधा जमाए हैं। पढ़ाई-लिखाई तो दोनों जने की खत्मे हो गई थी। एक जने आगे खाद-बीज का धंधा जमाए हैं।' सबसे छोटे के बारे में उसने बड़े गर्व से बताया कि, 'वह एक हत्या के मामले में जेल में बंद है।' मैं हैरान था कि ग़लत काम को भी यह कैसे गर्व का विषय समझ रहा है। मुझे लगा कि मैं उसकी बातों से ऊब रहा हूँ। भाइयों के चेहरों पर भी कुछ ऐसा ही भाव दिख रहा था। मैंने बात बदलने की गरज से पूछा, ‘तुमने यह दुकान का नाम कैसा रखा है “बोल्टू हस्का-फुस्की मिठाई वाला।” पूछते ही वह ज़ोर से हँसा, फिर लंबी कहानी बता डाली, बोला कि, ‘तुम्हारे जाने के बाद गाँव के ही लड़कों ने बोल्टू कहना शुरू कर दिया था। कबड्डी खेलते वक़्त मैं जिसे पकड़ लेता था वह छूट नहीं पाता था। सब कहते बोल्ट टाइट हो गया है, छूट नहीं सकता। फिर बोल्ट से बोल्टू हो गया।’

मैंने तुरंत पूछा और हस्का-फुस्की तो वह फिर हँसकर बोला, ‘यह दोनों मेरे लड़कों के नाम हैं।’ उसने तर्क दिया कि, ‘मैं ऐसा नाम रखना चाहता था अपने जुड़वा बेटों का जो किसी और का हो ही नहीं, और साथ ही कोई उसके बेटों के नाम की नक़ल भी ना करना चाहे तो मुझे यही नाम सूझा। दुकान का नाम अपना, बेटों का नाम मिला कर रखा है। दावे से कहता हूँ कि कोई भी इस नाम की नक़ल नहीं करेगा।’ मैं उसकी बातों उसके कामों से बहुत निराश हुआ। किसी तरह बात ख़त्म कर के उससे विदा ली। मैंने पूरा प्रयास किया कि मेरे भाव को वह समझ ना सके।

इसके बाद गाँव, खेत, बाग़ घूम-घाम कर घर वापस चल दिया। बार-बार अम्मा, बाबूजी को प्रणाम करता हुआ कि उन्होंने कितना सही निर्णय लिया था मुझे यहाँ से हटाने का। नहीं तो मैं भी यहीं कहीं बोल्टू हस्का-फुस्की दुकान खोले चाय बेच रहा होता। घर पर खाने-पीने के बाद मैंने भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई चेक की तो वह मुझे संतोषजनक नहीं लगी। मैंने बाबूजी-अम्माजी से उनकी आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली भेजने को कहा और वापस आ गया। दोबारा मेरा गाँव जाने का मन नहीं होता था। नौकरी भी ऐसी मिली थी कि फ़ुर्सत ही नहीं। हालात भी ऐसे बने कि हम सब भाई-बहनों का शादी-ब्याह सब कुछ दिल्ली में ही संपन्न हुआ।

समय बीतता गया लेकिन बोल्टू हस्का-फुस्की मेरे दिमाग़ से नहीं निकला। रिटायरमेंट के बाद बाबूजी भी हम लोगों के साथ दिल्ली में बस गए। मैं ख़ुद भी रिटायरमेंट के क़रीब पहुँच रहा हूँ। पर यह अभी भी दिमाग़ में है। इसे ढोते हुए एक दिन मैं विशाखापट्टनम से आकर एयरपोर्ट पर उतरा। मेरे बेटा-बेटी मुझे लेने आए थे। मैं कार में पीछे बैठा अपने एक कुलीग से मोबाइल पर बातें कर रहा था। घर रोहिणी पहुँचने से कुछ पहले ही एक बिल्डिंग के सेकेंड फ़्लोर पर बड़ा सा बोर्ड लगा देखा। जिस पर लिखा था, ‘बोल्ट्स जिम’। जिसे पढ़ते ही मेरे दिमाग़ में सेकेंड भर में न जाने कितनी तस्वीरें घूम गईं।

मैं गाड़ी बैक करवा कर वापस गया। बच्चों को गाड़ी में ही रुकने के लिए बोलकर ऊपर पहुँचा। मेरा अंदेशा बिल्कुल सही था। बोल्ट्स जिम का मालिक बोल्टू ही निकला। जिम क्या पूरी बिल्डिंग का मालिक वही था। हमें एक दूसरे को पहचानने में समय नहीं लगा। फिर गले मिले। तीस साल बाद। बोल्टू ने अपने बेटे को भेजकर मेरे बच्चों को भी ऊपर बुलवाया। ख़ूब ख़ातिरदारी की।

मैं बच्चों को नहीं मिलवाना चाहता था। लेकिन बात मुँह से निकल चुकी थी। आधे घंटे की मुलाक़ात में बोल्टू ने जो कुछ कहा वह मेरे लिए आश्चर्यजनक था। उसने बताया कि, ‘अपनी राजनीति मैंने ऐसी चमकाई कि मैं यहाँ हूँ, मर्डर केस में जेल में बंद भाई सज़ा काट कर लौटा तो दोनों भाइयों ने मिलकर यह पा लिया। गाँव में भी खेत-बाग़, मकान, गाड़ी सब कुछ है। पहले से सैकड़ों गुना ज़्यादा संपत्ति गाँव और शहर में बना ली है। यह बिल्डिंग ही पचास करोड़ से ऊपर की है। भाई दो-दो बार ब्लॉक प्रमुख रह चुका है। एक बार विधायक भी। मैं पिछली बार एमपी का चुनाव लड़ा लेकिन थोड़े से अंतर से दूसरे नंबर पर रहा। इस बार मेरा दाँव सफल रहा तो पार्टी मुझे राज्यसभा ज़रूर भेजेगी।’ चलते समय जब मैं कार में बैठ गया था तब अचानक ही चाची के बारे में पूछने पर बोल्टू ने कहा था कि, ‘कुछ साल पहले उनकी डेथ हो गई। वह भी यहीं रहती थीं।’

रास्ते भर मैं सोचता रहा कि बाबूजी-अम्मा जी का मुझे गाँव से पढ़ने के लिए दिल्ली भेजने का निर्णय सही था या ग़लत। और मैंने भाई-बहनों को आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली बुलाकर सही किया था कि ग़लत। हालाँकि सभी सरकारी नौकरी कर रहे हैं। सभी क्लास वन अफ़सर हैं।

घर पहुँच कर मैंने अम्मा-बाबूजी के पैर छू कर फिर आशीर्वाद लिया था। मैं घर से बाहर जाने-आने पर यह ज़रूर करता हूँ। उनके चरणों में मुझे सारी दुनिया ही नज़र आती है यह नहीं कहूँगा, बल्कि मैं यह कहता हूँ, समझता हूँ, अहसास करता हूँ कि मुझे तीनों लोकों की ख़ुशियाँ मिल जाती हैं। उस दिन भी चरण छूकर मुझे मेरे कन्फ्यूज़न का तुरंत उत्तर मिल गया था कि बाबूजी अम्मा जी और मैंने एकदम सही निर्णय लिया था।   

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