अवाम की आवाज़
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा प्रदीप श्रीवास्तव29 Jul 2014
समीक्ष्य पुस्तक : तश्नः काम
रचनाकार : हैरत गोंडवी
प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली
"हैरत में पड़ जाता हूँ शर्मिंदगी सी होती है महसूस, जब शेरो-सुखन की दुनिया के किसी आफ़ताब को अंधेरे में पाता हूँ।" जनाब हैरत गोंडवी (कृष्ण चंद्र श्रीवास्तव) के दीवान "तश्नः काम" को पढ़ कर मन में कुछ ऐसा ही जज़्बा पैदा होता है। जिनकी शायरी के विषय में शिक्षाविद् एवं विचारक प्रोफे़सर नगेंद्र सिंह कहते हैं "हैरत गोंडवी की शायरी एक ऐसी दुनिया की खोज करती है जहाँ दर्शन और सुकून एक साथ पैबस्त हैं, कहीं ज़िंदगी के जलवों की झलक है कहीं इश्क़ बेहिज़ाब है।" प्रोफे़सर नगेंद्र जनाब हैरत के नज़रिए से ही बात को पूरा करते हुए यह शेर दर्ज़ करते हैं कि "गुलों की तरह ख़ंदाजन चाक सीना/इसे कहते हैं ज़िंदगी का करीना।"
पेशे से वकील हैरत साहब का ताल्लुक रजवाड़ों के खानदान से था। उनका विवाह चित्रकूट की कामता रजौला स्टेट की राजकुमारी चंद्रकिरण के संग हुआ था। जब इन्होंने तक़रीबन 1936 में शेरो-सुखन की दुनिया में क़दम रखा था तब तक देश आज़ादी की लड़ाई को निर्णायक मोड़ पर ला चुका था। समाज में एक उबाल था आज़ादी को लेकर, अपनी तहज़ीब अपने वजूद को लेकर। यह उबाल साहित्यकारों की कलमों में भी था। हैरत साहब की शायरी भी इस उबाल से अछूती न थी। तब वह लिखते थे "हमको आज़ाद करो प्यार से आज़ाद करो/सुबहे शादिक को शबेतार से आज़ाद करो।" उनकी क़लम मतलब परस्ती में गहरे डूबती जा रही दुनिया से भी नावाक़िफ न थी। बड़ी साफ़गोई से यह भी दर्ज करते हैं कि "कितनी मतलब परस्त है दुनिया/आदमी और आदमी से दूर/हम कहीं के न रह गए "हैरत"/ मौत से दूर ज़िंदगी से दूर।"
हैरत की रचनाधर्मिता पर गहराई से दृष्टि डालें तो उनके रचना संसार को दो हिस्सों में तक़सीम करती वैसी ही रेखा नज़र आती है जैसी हिंदुस्तान को दो हिस्सों में तक़सीम कर रही है। आज़ादी के पहले की रचनाओं में जहाँ आज़ाद वतन की हवा में परवाज़ भरने का जज़्बा हिलोरें मारता दिखता है वहीं आज़ादी के बाद की रचनाओं में कहीं-कहीं उम्मीदों के टूटने के स्वर भी सुनाई दे जाते हैं। लेकिन अंततः वह आशावान हो आगे बढ़ जाते हैं यह कहते हुए कि "मझधार के बिफ़रे तूफां में जिस वक़्त सफ़ीना होता है/अकसर जो मुर्दा होते हैं, उनको भी जीना पड़ता है।" हौसला देते कहते हैं "डुबो दे कि दरिया लगा दे किनारे/वही आदमी है जो हिम्मत न हारे।"
हैरत अपनी रचनाओं में सामाजिक, धार्मिक, रूढ़ियों, पाबंदियों के ख़िलाफ़ तेवर रखते हैं। वह इनके ख़िलाफ़ हैं और चाहते हैं कि दुनिया इनसे मुक्त हो क्योंकि इनसे मुक्त हुए बिना आज़ादी बेमानी है। ईश्वरीय सत्ता पर उनका अटूट विश्वास है लेकिन पूजा स्थानों पर जाना उनकी नज़र में एक भटकाव है। जीवन में नसीब को वे पूरी अहमियत देते हैं और बड़ी साफ़गोई से लिखते हैं कि "ग़रीबी, अमीरी-नसीब अपना-अपना/उसी के हैं ज़र्रे उसी के हैं तारे।" उनकी नज़र में इंसानियत से बढ़ कर कोई चीज़ नहीं है।
हैरत साहब की शायरी में मयकशी को ले कर एक से बढ़ कर एक उम्दा शेर हैं। इस दीवान में भी ऐसे शेरों की कमी नहीं है। लेकिन सिर्फ़ इस बिना पर उन्हें मयकशी का ही शायर कहना एक बड़ी भूल होगी क्योंकि अपनी रचनाओं में वास्तव में वह समग्र जीवन दर्शन को समेटे हुए हैं। जीवन का फलसफ़ा कुछ यूँ दर्ज करते हैं "हवा की बस एक मौज है ज़िंदगी/कि आई नहीं और गुज़र भी गई।" "सरक जाती है जान यूँ जिस्म से/कि उड़ जाए सीने से जैसे परी।" वास्तव में हैरत साहब की रचनाओं का कैनवस बहुत बड़ा है। उनकी बातें दिमाग से नहीं सीधे दिल से निकली हैं इसलिए पढ़ने वाले के दिल में गहरे उतरती चली जाती हैं। वे अपने समय का पूरा खाका खींचती हैं। मज़बूती के साथ उनका प्रतिनिधित्व करती हैं। वह शेरो-सुखन के उस दौर के आफ़ताब हैं जिस दौर में फ़िराक गोरखपुरी, कैफ़ी आजमी, फै़ज, वामिक जौनपुरी, मजाज, असगर गोंडवी और जिगर मुरादाबादी जैसे शायर अपने क़लाम से शायरी के फलक को रोशन किए हुए थे।
जिगर मुरादाबादी, असगर गोंडवी के बेहद करीबी रहे हैरत साहब जहाँ कोर्ट कचहरी की व्यस्तताओं के बीच अपना रचना संसार गढ़ रहे थे वहीं उपरोक्त उनके समकालीनों में कुछेक को छोड़ कर बाकी के लिए ओढ़ना बिछौना भी शेरो-शायरी ही थी। ऐसे हालात में अपने समकालीनों के पाए का रचना संसार गढ़ना निश्चित ही बड़ा काबिले तारीफ़ काम है। आज के अज़ीम शायर मुनव्वर राना उनका यह शेर "जा के कह दो जाहिद से अगर समझाने आए हैं, कि हम दैरो-हरम होते हुए मयखाने आए हैं।" दर्ज करते हुए कहते हैं, "हैरत साहब का यही एक शेर उन्हें रहती दुनिया तक ज़िंदा रखेगा।"
वसीम बरेलवी की नज़रों में हैरत साहब की शायरी इतनी महत्वपूर्ण है कि वह उन्हें हमेशा काबिले ज़िक्र बनाए रखेगी। अब यहीं यह सवाल खड़ा होता है कि अपने समकालीनों के पाए के शायर हैरत साहब अब तक उन्हीं की तरह मक़बूलियत क्यों हासिल नहीं कर पाए। जबकि जिगर मुरादाबादी जैसे अज़ीम शायर का दूसरा घर ही हैरत साहब का घर हुआ करता था। दोनों के मध्य शेरो-सुखन को ले कर बड़ी-बड़ी बातें होती थीं। यह हैरत की बात है कि समालोचकों की दृष्टि में वह तब क्यों कर नहीं आए जब उनकी रचनाएँ जनसाधारण के बीच मक़बूल हो चुकी थीं, क्योंकि उनकी रचनाएँ जनसाधारण की ज़ुबान के क़रीब हैं।
उनकी रचनाएँ अपनी एक अलग मौलिक शैली में हैं। अपने बड़े समकालीनों के अंदाज़ेबयां से उनकी शायरी कहीं भी मुतासिर नहीं लगती। जहाँ तक बात जिगर मुरादाबादी से प्रभावित होने की है तो वह इतना ही है कि अनायास ही कहीं वह छू भर गए हों बस। वह भी इसलिए कि जिगर साहब से उनकी दांतकाटी दोस्ती थी और वह लंबा वक़्त हैरत साहब के पास शेरो-शायरी को ही लेकर बिताते थे। हैरत साहब की रचनाओं की सरलता सहजता अंग्रेज़ी के महाकवि वर्ड्सवर्थ के जैसे इस सिद्धांत से प्रभावित सी दिखती है कि "शब्दों और वाक्यों में भाव रस तभी पैदा होता है जब भावनाओं से प्रेरित होकर सैकड़ों बरस तक जनसाधारण की शब्दावली में अपने शब्दों में व्यक्त करें।" समीक्ष्य दीवान की रचनाएँ ऐसी ही होने के कारण पाठकों के दिलोदिमाग़ पर छा जाने में सक्षम हैं। ऐसे अज़ीम शायर के जन्मशती वर्ष में उनके समग्र रचना संसार पर एक व्यापक चर्चा-परिचर्चा का दौर साहित्यकारों, समालोचकों के बीच चलना चाहिए। यह एक विरल रचनाकार के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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