सपने लंपटतंत्र के
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा प्रदीप श्रीवास्तव23 Feb 2019
समीक्ष्य पुस्तक: गाथा लंपटतंत्र की (उपन्यास)
लेखक: विभांशु दिव्याल
प्रकाशन: सामयिक बुक्स
3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज
एन. एस. मार्ग, नई दिल्ली-110002
मूल्य: रु पए 300/-
किसी विद्वान ने बीते दिनों यह कहा कि, ‘जागी न सोई इन आँखों में, क्या सच इस क़दर भर गया है, कि सपना मर गया है?’ प्रख्यात कथाकार, पत्रकार विभांशु दिव्याल का एक अरसे बाद आया उपन्यास ‘गाथा लंपटतंत्र की’ मानो देश के तमाम लोगों के ऐसे प्रश्नों का उत्तर दे रहा है कि सपना अभी मरा नहीं है। वह जागी आँखों में आता है और कि सोई आँखों में भी। एक समूह जो आज कि आपा धापी से भरी ज़िंदगी से पस्त है, एक मशीनी ज़िंदगी जी रहा है, जो देश की स्थिति, भ्रष्टतंत्र, लोकतंत्र के भीड़तंत्र, माफिया तंत्र में तब्दील होते जाने से आक्रांत हो यह मान बैठा है कि अब कुछ नहीं हो सकता, कुछ बदल नहीं सकता, सब ऐसे ही चलता रहेगा उनके लिए बहुत स्पष्ट जवाब है कि नहीं बदलाव के बीज पड़े ही नहीं हैं वह अंकुरित भी हो रहे हैं, बढ़ भी रहे हैं, ज़रूरत है उन्हें पुष्पित-पल्ल्वित होते रहने के लिए आवश्यक खाद-पानी मुहैया कराते रहने की। इसकी ज़िम्मेदारी हर उस एक की है जो रंच मात्र भी यह सोचता है कि व्यवस्था मानव कल्याण परक हो। हमें उस समूह की ओर ध्यान देना ही होगा जिन्हें हम निकम्मा, उद्दंड दिशाहीन समूह समझकर उनकी तरफ से मुँह मोड़े बैठे हैं, उन्हें बोझ मान लिया है, लंपटों का हुजूम मान लिया है। लेखक ने इसी लंपटतंत्र में परिवर्तन की धधकती आग देखी है। अपनी उत्कृष्ट लेखन क्षमता के सहारे उपन्यास को बिना ज़्यादा विस्तार दिए उन्होंने गिने-चुने पात्रों के ज़रिए बड़े दिलचस्प ढंग से इस लंपटतंत्र का कटु यथार्थ सामने रखा है। जिससे परिवर्तन का आकांक्षी, संवेदनशील हर हृदय बड़े गहरे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएगा।
उपन्यास के पाँच प्रमुख पात्र जिन्हें कोई नाम न देकर पहला, दूसरा, तीसरा कह कर ही संबोधित किया गया है, देश के उन तमाम लड़कों में से हैं जो बेरोज़गार हैं। काम की तलाश में हैं। घर से लेकर बाहर तक हर जगह से उपेक्षित हैं। दिशाहीन से भटकते हैं। इन सबका जमावड़ा एक पार्क में रोज़ ही होता है। वहाँ इनकी बातों, बहस-मुबाहिसों में इनके सपने सामने आते हैं। इनकी, इनके परिवारों की अंतहीन समस्याएँ और उससे उनका अंतहीन संघर्ष भी दिखता है। और साथ ही सक्षम तंत्र चाहे वह नेता, अधिकारी हों या फिर धर्म के ठेकेदार तथाकथित बाबा, बड़े-बड़े प्रवचन देने वाले लोगों द्वारा इनका शोषण भी। लंपटतंत्र इनका शिकार बनता रहता है। उसमें बगावत की आग भी सुलगती रहती है। कभी वह हारते हैं, कभी फिर आगे बढ़ जाते हैं, कभी हताश-निराश तो कभी प्रतिशोध की भावना में कड़े कदम भी उठाते चलते हैं। इसी बीच इस समूह से एक ऐसा संगठन संपर्क साधता है जो मानव कल्याण विरोधी तंत्र की जगह मानव कल्याणपरक तंत्र की स्थापना के सपने देखता है। उसे पूरा करने के लिए योजनाबद्ध ढंग से कार्य करता है। जो ऐसे सारे युवाओं, लोगों को अपने साथ लाकर अपना संघर्ष आगे बढ़ाने में लगा हुआ है, जिनके हृदय में वर्तमान व्यवस्था की कुव्यवस्थाओं से छुटकारे की ज़रा भी चाहत है।
इन्हें भी लेखक ने सिर्फ़ साथी ही कहा है। जो समूह एवं उससे जुड़ने वालों में आत्मीयता का भाव भी पैदा करता है। यह साथीगण अपनी छोटी-छोटी मीटिंग्स में इन सबको शामिल कर बताते हैं कि कैसे यह सिस्टम हमारा हक़ छीन रहा है, लूट रहा है। इस व्यवस्था के चलते सरकार हमें रोज़गार दे ही नहीं सकती क्योंकि यह उसके वश में ही नहीं है। इसके लिए रोज़गार की गारंटी होनी चाहिए। उपन्यास में मीटिंग के दृश्य न सिर्फ़ बड़े दिलचस्प हैं बल्कि कटु यथार्थ के जरिए एक आग पैदा करते हैं। स्वाधीनता संघर्ष के दौर के आज़ादी के दीवानों के किसी संगठन की बैठक का खाका खींचते हैं। उदाहरणार्थ एक दृश्य देखिए एक लड़का खद्दर का कुर्ता पहने (खद्दर लेखक के गांधीवादी होने का संकेतक सा लग रहा है) मीटिंग को संबोधित करते हुए कह रहा है ‘सरकार रोज़गार की गारंटी किस बूते पर देगी? सारा उत्पादन अगर आप पूंजीपतियों के हाथों में सौंप देंगे, छोटे उद्योग धंधों को खत्म कर देंगे। देश की सारी पूंजी केवल कुछ लोगों के खातों में सिमट जाएगी तो सबके लिए रोज़गार की गारंटी कौन लेगा? कारखाने मजदूरों की छंटनी कर देते हैं लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती।’ यह लड़का ऐसे ही भूमिहीनों, किसानों, शहरों की ओर भागते लोगों, भटकते बेरोजगारों, घूसखोरी, सिस्टम बदलने आदि की बातें करता है।
मीटिंग में ‘समाज को कैसे बदलें’ शीर्षक वाली किताबें भी बांटी जाती हैं। और आखिर में एक प्रेरक गीत गाया जाता हैं ‘बंद दरवाजों की सांकल खटखटाएँगे ज़रूर। उन सभी जागे हुओं को फिर जगाएँगे ज़रूर।’ ऐसे ही आगे यह लाइनें हैं कि ‘आग ठंडी हो गई हो जो दिमागो दिल की आज, मगर ये सीने हैं कल जो खदबदाएँगे ज़रूर।’ जोशोखरोश से भरपूर ऐसे दृश्यों वाली कई मीटिंग और गीत हैं। इन्हें पढ़ते-पढ़ते दुष्यंत सामने खड़े दिखें तो आश्चर्य नहीं क्योंकि इन गीतों की तासीर ही कुछ ऐसी है।
उपन्यास के यह सारे पात्र जैसे-जैसे अपने-अपने सपनों के साथ आगे बढ़ते हैं वैसे-वैसे नई-नई स्थितियों से उनका सामना होता है। सपने बिखरते हैं, फिर जुड़ते हैं। इस जुड़ने बिखरने के क्रम में यह पात्र भाग्य कर्म पूजा-पाठ जैसे प्रश्नों पर भी माथा-पच्ची करते हैं कि उनकी बेरोज़गारी, बीमारी, बेबसी पिछले जन्मों का कर्म है। जैसा कि माँ-बाप और बाबा, साधू आदि बताते हैं या कि इस व्यवस्था की देन हैं। यह बात आते ही वह सत्ता बदल डालने और क्रांति की प्रबल इच्छा का गीत गा उठते हैं। मीटिंग में क्रांति की व्याख्या करते हुए कहते हैं ‘भीतर से दिखने वाली घटना नहीं, भीतर से होने वाला बदलाव होती है। दरअसल क्रांति संबंधों का बदलाव होती है। मनुष्य के आर्थिक संबंधों का बदलाव, उसके सामाजिक संबंधों का बदलाव, एक व्यक्ति के अपने विचारों में बदलाव उसकी व्यावहारिक संस्कृति यानी उसके दूसरे मनुष्य के साथ व्यवहार के तौर-तरीकों में बदलाव, ये सारे बदलाव क्रांति के हिस्से होते हैं।’
ऐसे ही तमाम विचारोत्तेजक व्याख्याएँ हैं जो पाठक को वर्तमान स्थितियों पर सोचने-विचारने, झकझोरने में सक्षम हैं। पाठकों को इस उपन्यास के छोटे से ही कैनवास में जीवन की विविध और बेहद यथार्थ तस्वीरें दिखती हैं। जिसमें यह पात्र मानवीय स्वभाव वश जहां प्रेम-प्रसंगों में पड़ते हैं, वहीं स्कूली बच्चांे की पढ़ाई छोड़ बाकी सब पढ़ाई करने, पुलिसिया आतंक, अध्यात्म के नाम पर तथाकथित बाबाओं के अरबों के श्वेत-श्याम कारोबार, ज़मीन हड़पने, महिलाओं के शोषण, सफेदी से लकदक नेताओं के पीछे की काली दुनिया, गरीबी बेबसी में दम तोड़ती इच्छाओं, ज़िंदगियों की त्रासदी आदि की बहुत मार्मिक तस्वीरें हैं।
मलिन बस्तियों विशेष रूप से बांग्लादेशी लोगों की ज़िंदगी का जो यथार्थ सामने रखा गया है वह चौंकाने वाला है। मार्मिक है। साथ ही चौकाने वाला तथ्य यह भी है कि लेखक ने जिस कुशलता से मानवीय दृष्टिकोण के चलते उनकी तकलीफों को उजगार किया है, वह कैसे बांग्लादेशी घुसपैठिया शब्द का प्रयोग, इनसे देश में उत्पन्न हो रही समस्या का वर्णन करने से चूक गए या कि कतरा गए। लेखक ने इस प्रसंग को छू कर इसके दूसरे पक्ष को क्यों नहीं छुआ यह उपन्यास में खटकने वाली एकमात्र बात है।
अपने विराट लेखकीय अनुभवों, विचारों, भाषा और शिल्पगत सिद्धहस्तता के चलते बड़ी सहजता से लेखक ने त्याज्य समझ लिए गए लंपटतंत्र के ज़रिए कई बिंदुओं पर विचार करने, बढ़ने की भूमि तैयार की है, कि ‘जापान-चीन जैसे राष्ट्र अपने यहाँ प्रौढ़ों की बढ़ती और युवाओं की घटती संख्या से चिंतित हैं। क्योंकि युवाओं में देश को गति प्रदान करने वाली अक्षय ऊर्जा है और हम हैं कि अपने यहाँ इसी अक्षय ऊर्जा को उपेक्षित कर बरबाद कर रहे हैं। इसे वैचारिक शून्यता या दृष्टिहीनता नहीं तो और क्या कहा जाए कि आज़ादी के छः दशक बाद भी हम गांधी, सुभाष, भगत सिंह के ही सपनों के सहारे चल रहे हैं। नई पीढ़ी को नए परिवेश के अनुकूल कोई नया सपना दिखाने में अक्षम हो रहे हैं। अभी तक हम रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा जैसी मूलभूत आवश्यकताएँ सर्वसुलभ क्यों नहीं बना पाए? और कि क्या हमारी यह असफलता ही, नक्सल या आतंकी समस्या के मूल में नहीं है? समीक्ष्य उपन्यास ऐसी ही तमाम बातों की ओर ध्यान आकर्षित करता है जो इसकी उत्कृष्टता का प्रतीक है।
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