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वो भूल गई

बड़े से घर के बरामदे में पड़ी चौकी पर, दोनों ही घुप्प अँधेरे में बैठे हैं। ऐसा ही घटाटोप अन्धेरा उनके जीवन में भी छाया हुआ है। काफ़ी देर से हल्की-हल्की बारिश हो रही है। उनका बीता हुआ सुनहरा जीवन होता तो ऐसे मौसम में बच्चों के साथ तरह-तरह की चाय-पकौड़ियों का दौर चल रहा होता। लेकिन परिस्थितियों ने हाल ऐसा कर दिया है कि सब्ज़ी छौंकने के लिए भी तेल का होना बड़ी बात हो गई है। 

चहुँतरफ़ा हुए हमलों, धोखे के कारण अन्धकारमय बने जीवन से आहत रुद्र, कोविड-१९ के हमले से बहुत घबरा गया है। पत्नी निशि से कह रहा है, “समझ में नहीं आ रहा है कि अब परिवार का जीवन बचेगा भी कि नहीं, क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? हर तरफ़ हाहाकार मचा हुआ है। 

“जिस किसी से भी बात करो, जिसको देखो, लगता है जैसे सब के शरीर का ख़ून सूख गया है। सब इतने डरे हुए हैं कि रोने की जगह हँसने लगे हैं। लगता है जैसे अपना दिमाग़ी संतुलन खो बैठे हैं। सब अपने को मौत की लाइन में खड़ा पा रहे हैं। उनके चेहरों को देखो तो लगता है, जैसे वो अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। 

“कलियुग चल ही रहा है, लगता है सही में प्रलय आ गई है। ऐसी प्रलय जो एकदम सब-कुछ नष्ट करने की बजाय, धीरे-धीरे तड़पा-तड़पा कर सबको मार देगी। पूरी दुनिया में ख़ाली वायरस, वायरस और इंसानों के बनाए मकान, गाड़ियाँ, सामान ही रहेंगे, वह भी कुछ सालों में ख़त्म हो जाएँगे, और फिर वायरस, वायरस, हर तरफ़ वायरस। यह पृथ्वी वायरस ग्रह बन जाएगी।” 

पति रुद्र की इस निराशा-भरी बात को सुनकर निशि हिम्मत बँधाती हुई कह रही है, “इतना निराश मत हो। तुम इतना निराश हो गए, तो मैं, बच्चे सब एकदम ही टूट जाएँगे। दिमाग़ से यह सब निकाल दो कि प्रलय आई है। न पृथ्वी इंसानों से ख़ाली होगी, न वायरसों की पृथ्वी होगी। जिएँगे भी सब, पहले की तरह रहेंगे भी सब। पृथ्वी इंसानों की ही रहेगी, बस हिम्मत रखो।”

निशि सच में कोरोना से बिलकुल भी भयभीत नहीं है। वह इसे एक सामान्य फ़्लू से ज़्यादा और कुछ समझती ही नहीं है। उसके भय, हताशा-निराशा, चिंता का कारण कुछ और है। यह उसके चेहरे पर दिखता भी है। हालाँकि वह पूरी कोशिश करती है कि यह बच्चों, रुद्र को न दिखे। लेकिन रुद्र की आँखें देख ही लेती हैं। 

मगर समस्या यह है कि वह कोरोना के कारण नष्ट हुए व्यसाय, भुखमरी की स्थिति के चलते इतना परेशान हो गया है कि कई बार बिलकुल हिम्मत हार जाता है। निशि की हिम्मत रखने की सलाह पर खीजते हुए कह रहा है, “क्या हिम्मत रखूँ, पहले लॉक-डाउन में अच्छा-ख़ासा चल रहा होटल ख़त्म हो गया। क़र्ज़ा इतना हो गया कि मजबूर होकर होटल उस हरामी गुंडे को देना पड़ा। 

“साला होटल पर पहले से ही गिद्ध की तरह नज़र लगाए हुए था। मैं ही बेवक़ूफ़ था जो उसे अपना सबसे अच्छा रिश्तेदार समझता रहा। सूअर के चेहरे का असली रंग तो तब दिखा, जब मैंने हाथ जोड़े कि कुछ महीने का समय और दे दो, मैं एक-एक पैसा हर हाल में वापस कर दूँगा, तो कुत्ते की तरह दाँत निकाल कर तुम्हारी बात करने लगा। जी में आया कि उसके बाल पकड़ कर चेहरा उसी दहकती भट्टी में ठूँस दूँ। चाय की जगह उसका घिनौना चेहरा पक जाए।”

इतना कहते-कहते रुद्र बहुत ग़ुस्से में आ गया है। रिश्तेदार क़र्ज़ के बदले उसकी बात कर रहा था, यह सुनकर निशि ने आश्चर्य से पूछ रही है, “क्या! मेरी बात, मैं समझी नहीं।”

रुद्र कह रहा है कि “ऐसा है कि होटल की तरह वह तुम पर भी नज़र लगाए हुए था। उसने जैसे ही तुम्हारी बात की, वैसे ही मैंने कहा, ‘होटल ले ले, मेरे घर की तरफ़ भूल कर भी मत देखना।’ यह कहते हुए ही मैंने सोच लिया था कि ज़्यादा बोला तो पौने से मार-मार कर उसे मार डालूँगा। पौने पर मेरा हाथ था ही, मैं ग़ुस्से से काँप रहा था। इसके बाद वह पता नहीं क्या सोच कर, आँखें दिखाता हुआ चला गया। 

“अगले दिन दोपहर को स्टाम्प पेपर लेकर आ गया, मैंने मिनट भर में पेपर पर साइन कर दिया और होटल छोड़ कर बाहर आ गया, ऐसे जैसे कि मैं वहाँ पर एक कस्टमर था और चाय-नाश्ता करके चल दिया। ख़ून-पसीने से तैयार होटल को ऐसे देखते-देखते हाथ से निकलता देख कर मन में आया कि उस कमीने को उसी में बंद करके, आग लगा कर राख कर दूँ।” 

रुद्र ग़ुस्से से काँप रहा है, लेकिन घनघोर अँधेरे के कारण दोनों ही एक-दूसरे को देख नहीं सकते। सटे हुए हैं, इसलिए महसूस भर कर सकते हैं। निशि उस कंपकपाहट का अहसास करती हुई स्वयं भी क्रोध से भर गई है। वह तीखी आवाज़ में कह रही है, “तुमने उसके असली घिनौने चेहरे के बारे में तभी क्यों नहीं बताया?” 

“क्या बताता, उससे फ़ायदा क्या था? मक्कार झूठ बोल देता कि पैसा न देना पड़े, इसलिए मैं झूठी कहानी गढ़ रहा हूँ।” 

“अरे कम से कम दीदी से कहती, वो उसको डाँटतीं, शायद वो शर्म करके कुछ समय दे देता। उनको बताती कि तुम्हारा आदमी कितना गिरा हुआ, घिनौना इंसान है। रिश्ता तो वैसे भी ख़त्म हो रहा था। और जल्दी ख़त्म हो जाता। शक तो मुझे उस पर तब भी होता था, जब वह दीदी के साथ आता, तो मौक़ा देखकर छेड़-छाड़ करने, छूने-छाने की कोशिश करता था। मैं हँसी-मज़ाक का रिश्ता समझ कर चुप रहती। सोचती, बहनोई हैं, ऐसे थोड़े ही होंगे।” 

“नहीं, वह सिर्फ़ एक गंदा आदमी है। उसे शराब, अय्याशी के सिवा और कोई भी रिश्ता समझ में नहीं आता। गुंडई-बदमाशी से पैसा कमा लिया है, तो दिमाग़ और भी ज़्यादा सातवें आसमान पर पहुँच गया है। तुम्हारी बहन भी उसी के सुर में सुर मिलाती है। 

“मैंने फोन करके एक बार कहा भी था कि ‘भाभी जी, भाई-साहब से कह कर तीन महीने का समय और दिलवा दीजिए।’ तो बहुत इठला कर बोली, ‘भैया मैं उनके काम-धंधे के बारे में कभी कुछ नहीं बोलती, बीस-पचीस हज़ार चाहिए तो कहिए, इतना तो आपको मैं ही दे दूँगी। कहिये तो अभी आपके एकाउंट में ट्रांसफ़र कर दूँ।’ 

“ऐसा भाव दिखा रही थी, जैसे कि किसी देश की रानी महारानी हों और अपनी प्रजा को दान दे रही हैं। मैंने उसकी बात का कोई उत्तर दिए बिना ही फोन काट दिया था। उसकी बात से मैं अच्छी तरह समझ गया कि दोनों एक ही नाली के घिनौने कीड़े हैं।” 

“तुम सही कह रहे हो, वह शुरू से ही बहुत घमंडी रही है। जब तुमने फोन काट दिया, तो मेरे पास फोन करके तुम्हारी शिकायत कर रही थी। मुझे ग़ुस्सा आया, मैंने भी कह दिया कि ‘किस रिश्ते की बात कर रही हो दीदी। जीजा होटल लिखवाने के लिए छाती पर सवार हैं। तुम चाहो तो भला वह माने न, ऐसी कौन-सी बात है जो तुम्हारे कहने पर वह मना कर देंगे, क्या मैं यह सब जानती नहीं।’ इतना सुनते ही वह एकदम से बिगड़ गई। ज़्यादा आगे बढ़ीं तो मैंने भी चार बातें सुना कर यह कहते हुए फोन काटा कि ‘अब से हमारे सारे रिश्ते ख़त्म।’ 

“बहुत अच्छा किया। अब बाक़ी रिश्तों में भी कौन सी मज़बूती रह गई है। उन्हें भी ख़त्म ही समझो। रिश्तेदार हों या फिर दोस्त, अब कोई भी फोन नहीं उठाता। भूले-भटके उठा भी लिया तो ऐसी जल्दबाज़ी, हड़बड़ाहट दिखाएगा कि पूछो मत। ख़ुद मजबूर होकर फोन काटना पड़ता है। 

“हाँ, मज़ा लेने, खिल्ली उड़ाने के लिए फोन ज़रूर आते हैं। यह जताने के लिए कि उन्हें मालूम है कि अब मैं सड़क पर आ गया हूँ। ठेले पर सब्ज़ी बेच रहा हूँ। क़र्ज़ नहीं दे सका, तो होटल साढू भाई को देना पड़ा। 

“कमीने ने सब को फोन कर करके बताया कि उसने मेरी बहुत मदद की। मैंने ही घमंड, झूठी शान में आकर होटल दे दिया। क्योंकि क़र्ज़ चुकाने की मेरी हैसियत ही नहीं रह गई थी। इसके बावजूद वह होटल लेने को तैयार नहीं थे, लेकिन मैंने ही दे दिया। तुम्हारी बात मान कर, उससे क़र्ज़ लेने के बजाय बैंक से क़र्ज़़ लेता तो अच्छा था। कम से कम होटल तो हाथ से नहीं निकलता, मुझे और टाइम तो मिल जाता क़र्ज़ चुकाने के लिए।” 

रुद्र को होटल छिनने के दुःख में गहरे डूबते देख कर, निशि उसे समझाते हुए कह रही है, “देखो, पीछे जो हुआ उसे भूल जाओ, उन दोनों गंदे लोगों के बारे में न सोचो और न ही बातें करो।” 

दोनों ही अपनी हिचकोले खाती गृहस्थी, ज़िन्दगी को लेकर जिस तरह धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं, वैसे ही धीरे-धीरे बारिश भी जारी है। पूरा मोहल्ला अँधेरे में डूबा हुआ है। इक्का-दुक्का जलती स्ट्रीट-लाइट कहीं दूर-दूर दिख रही है। हफ़्ते भर पहले तक इनके घर में भी लाइट हुआ करती थी। 

बिजली-विभाग ने कई महीने से बिल का भुगतान नहीं होने पर कनेक्शन डिस्कनेक्ट कर दिया है। घर में अब लाइट की व्यवस्था के नाम पर केवल सूरज की रोशनी है या फिर तेल का एक छोटा सा दिया, जो खाना बनाते समय नहीं, बस खाते समय ही थोड़ी देर को जलता है। निशि खाना सूर्यास्त से पहले ही बना लिया करती है। 

किसी तरह सोलर बैटरी के एक लैंप का जुगाड़ कर लिया गया था, जिससे मोबाइल भी रिचार्ज हो जाता था। मगर दुर्भाग्य कि दो दिन से वह भी काम नहीं कर रहा है। चौदह और सोलह साल के दोनों बेटे कमरे में चिपचिपी, उमस भरी गर्मी में सो रहे हैं। जिन्हें थोड़ी राहत इस हौले-हौले होती बारिश से मिल रही है। जो बच्चे पहले एसी बंद नहीं करने देते थे, अब उन्हें पंखे की भी हवा नहीं मिल रही है। 

एसी बेचकर ही उन दोनों के लिए मोबाइल ख़रीदा गया, जिससे वो स्कूल की ऑन-लाइन हो रही अपनी पढ़ाई को जारी रख सकें, उनकी पढ़ाई बंद न हो। उन्हें चार्ज करने के लिए अब दो दिन से पड़ोसी की चिरौरी करनी पड़ रही है। यह चिरौरी निशि ही करती है। बच्चे तो शर्म के मारे उसी दिन से घर से बाहर नहीं निकल रहे हैं, जिस दिन से पिता ने सब्ज़ी का ठेला लगाना शुरू किया था। 

दोनों के चेहरों पर वैसी ही उदासी बराबर बनी रहती है, जैसे किसी नदी का पानी चोरी हो गया हो, और वह तली में छूट गई बालू को, उदास वीराने में दूर तक जाते, अपने अस्तित्व के अवशेष के रूप में देख रही हो। दोनों की मासूम आँखें बंद पड़ी टीवी, कम्प्यूटर, फ़्रिज को ऐसी ही उदासी से जब निहारती हैं तो निशि, रुद्र दोनों की आँखें भर आतीं हैं। रुद्र से कुछ बोला नहीं जाता, लेकिन निशि बच्चों को समझाती है कि ‘बेटा कुछ दिनों की बात है, फिर सब सही हो जाएगा।’ 

बारिश अब बहुत तेज़ हो चुकी है और निशि बच्चों की तरह रुद्र को भी धैर्य, मज़बूती से बढ़ते रहने, साथ ही कोरोना-वायरस से हर हाल में बचे रहने को कह रही है। लेकिन वह खीझते हुए कह रहा है, “क्या करूँ, कितना करूँ, मॉस्क लगाए रहता हूँ, साँस फूलने लगती है, तो थोड़ी देर के लिए हटा देता हूँ।” 

निशि कुछ क्षण चुप रहने के बाद कह रही है, “सुनो, इस बार जब बाज़ार खुले तो सारा काम छोड़ कर एक फ़ेस-कवर ले लो। एक ही मॉस्क ज़्यादा दिन लगाने से भी तो ख़तरा है। आपका मास्क कई बार धुल चुकी हूँ। सोच रही हूँ कि घर पर ही चार लेयर वाला मास्क बना दूँ। बच्चे कई बार बता चुके हैं कि मॉस्क बनाने का तरीक़ा गूगल पर है।” 

“जब मन हो तब बनाना, मोहल्ला पहले कंटेंटमेंट ज़ोन से बाहर तो आए।” 

“देखो एक हफ़्ता तो कल हो जाएगा। हो सकता है परसों से मोहल्ला कंटेंटमेंट ज़ोन से बाहर आ जाए।” 

“पता नहीं, देखो हटता भी है या और लम्बे समय तक कन्टेंटमेंट ज़ोन बनाये रखते हैं।” 

रूद्र ने गहरी साँस लेकर कहा, तो निशि उसके बालों में उँगलियाँ फिराती हुई कह रही है, “सुनो, मैं कई दिन से सोच रही हूँ कि दोनों बच्चे तो घर पर ही रहते हैं, कहीं बाहर तो जाते नहीं, तो इस बार जब बाज़ार खुले, तो मैं भी कुछ काम करती हूँ। क्योंकि अब ऐसे अकेले तुम्हारे कमाने से काम नहीं चल पाएगा। घर की हालत दिन पर दिन ख़राब होती जा रही है।” 

दोनों की वार्ता बरामदे में पड़ी बड़ी सी चौकी पर ही हो रही है। निशि दीवार की टेक लगाए बैठी है। और रुद्र उसकी जाँघों पर सिर रखे लेटा हुआ है। फिर कैसे ख़ुद को खड़ा कर लिया जाए, इसी उधेड़बुन में दोनों ही लगे हुए हैं। पत्नी की इस बात पर वह बोल रहा है, “अरे तुम बाज़ार में कौन-सा काम कर लोगी?” 

निशि बड़े आत्म-विश्वास के साथ कह रही है, “बहुत कुछ कर लूँगी, इतना बड़ा बाज़ार है। तमाम बड़ी-बड़ी दुकानें हैं, किसी में कह-सुन कर काम दिलवा देना। पाँच-छह हज़ार, कुछ तो मिलेगा, कम से कम बच्चों की कॉपी-किताब, मोबाइल रिचार्ज, चाय-नाश्ता का तो ख़र्चा निकल आएगा न। पड़ोसी से कहेंगे भैया जब-तक बिजली कनेक्शन नहीं ले पा रहे हैं, तब-तक एक बल्ब, पंखा भर के लिए तार लगा दो, उसका महीने का जो पैसा होगा वह ले लेना।” 

तेज़ होती जा रही बारिश, बीच-बीच में बादलों में हल्की सी चमक उठती बिजली को देखते हुए रुद्र उसकी बात सुनकर कह रहा, “तुम जितना आसान समझ रही हो वैसा कुछ नहीं है। बाज़ार में नौकरी की बात कर रही हो, इतना समझ लो कि अब बाज़ार है ही नहीं। मैं ही नहीं और दुकानदार भी सिर पीट रहे हैं। 

“जिन्होंने नौकर रखे हुए थे, अब वो ख़ुद ही नौकर भी हैं, और मालिक भी। बिक्री हो नहीं रही है। दुकान का ही ख़र्चा नहीं निकल पा रहा है। दुकान में काम करने से पहले यह सोचो कि जब तुम्हारा सगा बहनोई ही तुम पर गिद्ध की तरह आँखें लगाए हुए था, क़र्ज़ा देकर जाल बिछाया कि तुम्हें एक न एक दिन उसमें फँसा ले, तो इन दुकानदारों से बचा पाओगी अपने को।” 

“लेकिन सब एक जैसे नहीं होते ना।” 

“हाँ, सब एक जैसे नहीं होते। लेकिन ज़्यादातर एक जैसे होते हैं। किसके चेहरे पर लिखा है कि वह कैसा है। और एक बात अच्छी तरह जान लो कि मेरी नज़र में हर मर्द, औरत को ख़ाली औरत ही समझता है। तुम्हारी समझ में इतना भी नहीं आता कि जब घर के आदमी, रिश्तेदार को, हर रिश्ते में ख़ाली औरत दिखती है तो बाहरी तो बाहरी है।” 

रुद्र की इस बात से निशि खीझती हुई कह रही है, “ओफ़्फ़ो, मैं भी कोई छुई-मुई का पौधा नहीं हूँ कि कोई मुझे छुएगा और मैं मुरझा जाऊँगी। उसका हाथ मुझ तक पहुँचे, उसके पहले ही उसे तोड़ कर वापस आ जाऊँगी।”

“अब चुप भी रहो, अभी तुम ख़ाली घर देखो।” 

लेकिन निशि चुप रहने को तैयार नहीं है। वह कह रही है, “घर देख कर ही तो कह रही हूँ। जब से बिजली कटी है, कनेक्शन काटने आए लोगों ने जिस तरह बहस की, पूरा मोहल्ला जिस तरह देख रहा था, वह सब हम-लोग तो बर्दाश्त कर ले रहें हैं, लेकिन बच्चे अभी इतने समझदार नहीं हुए हैं। उसी दिन से वह दोनों हँसे क्या मुस्कुराए तक नहीं। 

“दोनों न जाने अंदर-अंदर क्या सोचते रहते हैं। क्या चलता रहता है दोनों के मन में, कुछ समझ नहीं पा रही हूँ। उनकी ऐसी हालत देख-देख कर जी घबराता है। हर घर की औरतें नौकरी कर रही हैं, मेरे भी करने से कुछ बिगड़ नहीं जाएगा। कम से कम बच्चों के चेहरे पर मुस्कान तो देख पाऊँगी।” 

उसके आख़िरी दो-तीन शब्द रुद्र नहीं सुन पाया, क्योंकि ठीक उसी समय घुप्प अँधेरे में, बड़ी देर से बरस रहे बादलों के बीच एक तीखी चमकीली सर्पाकार रेखा, बादलों से जैसे नीचे ज़मीन चूमने को लपकी। पलक झपकने भर को पूरा आसमान, मोहल्ला रोशनी से नहा उठा। अगले ही क्षण कान के पर्दे फाड़ देने वाली बादलों की कड़कती आवाज़ से पूरा एरिया थर्रा उठा। 

निशि जो अभी तक एक हाथ से रुद्र के सिर में हल्का मसाज कर रही थी, दूसरा हाथ उसकी छाती पर था, वह एकदम चिंहुक उठी। उसकी मुट्ठी भिंच गई। जिससे रुद्र के बाल खिंच गए। उसको लगा जैसे कान सुन्न पड़ गए हैं। रुद्र ने महसूस किया कि जैसे निशि का शरीर थरथरा रहा है। उसने उसे अपने ऊपर खींच लिया। 

उसकी पीठ को सहलाते हुए व्यंग्य कर रहा है, “एक बिजली क्या कड़की तो यह हाल हो गया है, जैसे हिरणी के सामने अचानक शेर आ गया हो। उस पर अभी ताल ठोक रही थीं कि नौकरी करूँगी, वह भी किसी दुकान में। किसी का हाथ मेरी इज़्ज़त की तरफ़ बढ़ा तो उसका हाथ तोड़ दूँगी।”

रुद्र के इस व्यंग्य पर ग़ुस्सा दिखाती हुई निशि कह रही है, “तुम भी कैसी बात कर रहे हो, दिन-भर से घनी बदली थी, एक बार भी बादल न गर्जा, न चमका, न बरसा। पिछले तीन घंटे से बुंदियाने के बाद अब थोड़ी देर से तेज़ बरसना शुरू हुआ, तब भी नहीं गर्जा-चमका। ऐसे अचानक फट पड़ेगा तो कोई भी चौंक सकता है।”

रुद्र उसे और चिढ़ाते हुए कह रहा है, “कमज़ोर चौंकेगा, घबराएगा। मैं तो नहीं घबराया। अभी तो कह रही थी कि जो हाथ बढ़ेगा तुम्हारी तरफ़, तुम उसका हाथ तोड़ कर चली आओगी। जैसे बिजली अचानक चमकी, बादल अचानक गरजे, बाहर महिलाओं पर मर्द भी इसी तरह अचानक ही हमला करते हैं। ऐसे अचानक हमले से औरत थरथराने लगती है, जब-तक वह अपनी ताक़त के बारे में सोचती है, मन में जवाब देने की बात लाती है, तब-तक हमलावर अपना काम कर चुका होता है। समझी कुछ।”

“मैं तुम्हारी बातों से केवल इतना ही समझ पाई हूँ कि कुल मिलाकर तुम यही चाहते हो कि मैं बाहर निकल कर काम न करूँ।”

यह कहती हुई वह उसके ऊपर से नीचे हटने लगी, तो रुद्र ने उसे दोनों हाथों से कस लिया है। दोनों के चेहरे बहुत क़रीब हैं। घटाटोप अँधेरे में अपना हाथ भी सुझाई नहीं दे रहा है, लेकिन वह दोनों जैसे मन की आँखों से एक दूसरे को साफ़ देख रहे हैं। 

रुद्र ने कह रहा है, “सही समझ रही हो, मैं अपने जीते जी तुम्हें बाहर किसी दुकान पर काम करने के लिए नहीं भेजूँगा। मैं आमदनी बढ़ाने के लिए सोच रहा हूँ, कोशिश कर रहा हूँ, थोड़ा और समय लगेगा, धैर्य रखो। बच्चों को भी अपनी तरह से समझाओ। जल्दबाज़ी मैं धैर्य खोने से नुक़्सान ही होगा।”

“तुम ग़लत समझ रहे हो, मैंने धैर्य बिल्कुल नहीं खोया है। बच्चों को भी नहीं खोने दिया है। यदि धैर्य खोया होता तो बच्चों को ऐसे सँभाल न पाती, और न ही बच्चे ऐसे कठिन स्थिति में भी पढ़ाई कर रहे होते। इन सबसे बड़ी बात यह कि तुमसे इस समय इस तरह बातें न कर रही होती। 

“धैर्य खो दिया होता तो बच्चों के साथ घर के एकदम कोने में मुँह छुपाए बैठी होती। निराश मन से यही सोच रही होती कि ऐसी ज़िन्दगी से अच्छा है कि बच्चों सहित आत्म-हत्या कर लूँ। जैसे बहुत से ऐसे समाचार आते रहते हैं कि आर्थिक तंगी से ऊब कर पूरे परिवार ने आत्म-हत्या कर ली।”

निशि की गंभीर आवाज़ में यह बात सुनते ही रुद्र बिगड़ते हुए कह रहा है, “मूर्ख हो तुम, मैंने कब कहा कि तुमने हार मान ली है। हार नहीं मानी तभी तो इतनी देर से ज्ञान दे रही हो।”

“ग़ुस्सा मत हो, कैसे इस स्थिति से पार पाया जाए, यह सोचो। कोरोना की जो हालत चल रही है, यह मान कर चलो कि अगले दो-तीन साल इससे मुक्ति मिलने वाली नहीं है। जैसे स्वाइन फ़्लू का अब एक सीज़न बन गया है, हर साल आता है, कुछ लोगों की जान लेकर ही जाता है। वैस ही अब यह भी रहेगा। अभी क्योंकि इसकी कोई दवा नहीं है, इसलिए ज़्यादा चिंता की बात है। कुछ दिन में कोई न कोई दवा आ ही जाएगी। तब इतना डर नहीं लगेगा।”

रुद्र फिर व्यंग्य कर रहा है, “अच्छा! हमें नहीं मालूम था कि दुनिया की सबसे बड़ी वैज्ञानिक हमारे ही घर में, हमारी पत्नी बनी बैठी है, और कोरोना का ज्ञान हमारे ऊपर ही चढ़ कर दे रही है।”

रुद्र ने अँधेरे में ही निशि से ठिठोली करते हुए कहा तो वह कुछ संकोच भरे स्वर में कह रही है, “हद हो गई, ऊपर से नीचे उतरने भी नहीं दे रहे हो और ताना भी मार रहे हो। बच्चों के मोबाइल पर पेपर में जो पढ़ा था, वही बता रही हूँ, मुझे क्या मालूम क्या है। तुम्हें हर बात मज़ाक लग रही है।”

यह कहकर वह उसके ऊपर से फिर नीचे उतरने लगी है, तो रुद्र फिर उसे बाँहों में कस कर अपने ही ऊपर रोकते हुए कह रहा है, “अब हमने उतरने के लिए कहाँ कहा, जो उतरी जा रही हो।” 

“अरे इतनी देर से ऊपर लिटाया हुआ है, बदन दर्द करने लगेगा।”

“नहीं, इससे मेरे बदन का दर्द ठीक हो रहा है। महीनों से ठेला लेकर गली-गली, दरवाज़े-दरवाज़े, चलते-चलते एक-एक नस फट रही है। पहले मज़ाक किया करते थे कि बालों में दर्द हो रहा है। लेकिन उन्हें पकड़ रही हो तो लग रहा है, सच में उनमें भी दर्द हो रहा है, जो तुम्हारे पकड़ने से ठीक हो रहा है। 

“ऐसे ही लेटी रहो, तुम्हारे इस गदरीले बदन से बहुत आराम मिल रहा है, और महीनों बाद सीसा पिघलाती गर्मी से भी। यह बारिश रात-भर न रुके और तुम नीचे न उतरो तो अब-तक की सारी थकान दूर हो जाएगी। फिर एकदम नए सिरे से दोगुना काम करूँगा।”

रुद्र ने मज़ाकिया अंदाज़ में अपना दर्द व्यक्त किया तो निशि व्याकुल हो उठी है। उसे पति की तकलीफ़ों का सहज ही अनुमान, अहसास है लेकिन उसके मुँह से सुनकर तड़प उठी है। वह कह रही है, “अरे उतरने दो न, हाथ-पैर दबा कर सिर में तेल लगा देती हूँ, सारा दर्द ख़त्म हो जाएगा।”

लेकिन मौसम का सुरूर या फिर न जाने किस मूड में रुद्र कह रहा है, “नहीं, उतर कर हाथ-पैर दबाओगी, ऐसे सब-कुछ एक साथ दब रहा है। दर्द तो दूर हो ही रहा है, मज़ा भी आ रहा है, मज़ा आएगा तो दिमाग़ भी खुलकर काम करेगा।”

वह लगातार बारिश के कारण छतों, पेड़-पौधों पर गिरने वाली असंख्य बूँदों से उत्पन्न हो रही, एक ख़ास तरह की स्वर-लहरियों और ठंडी हवा में सारी थकान, परेशानियों को भूलता सा जा रहा है। वह चाह रहा है कि प्रकृति के इस अनुपम सुर-संगीत में दुनिया भर की समस्याओं से चटख रही नसों को पूरा आराम दिया जाए। खुलकर प्रकृति के सुर में सुर मिलाया जाए। दिमाग़ को तरोताज़ा होने दिया जाए। 

निशि के मन पर भी यह सुर-संगीत असर डाल रही है, मगर समस्याओं को लेकर अब भी वह उलझनों से निकल नहीं पा रही है। वह रुद्र के बालों को सहलाती हुई कह रही है, “किस मिट्टी के बने हो, इतनी समस्याओं से जूझ रहे हो, हालत इतनी ख़राब है, फिर भी ज़रा सी बारिश क्या हो रही है कि सब भूलकर मस्त हुए जा रहे हो।”

वह कह रहा है, “देखो, बादल भी अपना काम सही समय पर करता है। जब-तक ख़ूब इकट्ठा नहीं होता, तब-तक इधर-उधर भटकता रहता है। जब इकट्ठा हो जाता है तो बरसने लगता है। अभी हमें भी फिर से खड़ा होने के लिए सब-कुछ इकट्ठा करने दो। सही समय आने पर फिर खोलेंगे होटल। 

पहले जैसे छोटी-सी चाय की दुकान से होटल तक पहुँचा था, वैसे ही फिर पहुँचूँगा। अभी तो ठेला इसलिए ठेल रहा हूँ कि इस सब-कुछ को इकट्ठा करने का समय मिल सके। हर काम सही समय पर करूँगा। ठेला गृहस्थी की गाड़ी दौड़ा तो नहीं पा रहा है, लेकिन कम से कम चला तो रहा है। एक बड़ी मदद सरकार से तो मिल ही रही है, चावल, गेहूँ, दाल, चना मुफ़्त आगे भी मिलना जारी रहेगा। यह सब-कुछ हमें फिर से खड़ा कर ही देंगे।” 

“हाँ, इससे मदद तो बहुत हो जा रही है, लेकिन तुम्हें क्या लगता है, सरकार ऐसे मुफ़्त अनाज कब-तक देती रहेगी, अगर बंद कर दिया तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।”

“देखो तुम यह तय मान कर चलो कि बंद नहीं करेगी। क्योंकि सरकार भी अच्छी तरह जानती है कि कोरोना ने देखते-देखते काम-धंधा, बाज़ार, ख़रीदार सभी को तबाह कर दिया है। ऊपर से रोज़ हज़ारों लोगों की जान अलग ले रहा है। करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिनकी जेब में एक जून की रोटी के लिए भी पैसे नहीं हैं। ऐसे में अनाज देना बंद किया तो कोरोना से ज़्यादा लोग भूख से मर जाएँगे, इसलिए सरकार ऐसी मूर्खता तो क़तई नहीं करेगी। 

“जितनी बुरी तरह से सब-कुछ तबाह हुआ है, उसे फिर से रास्ते पर आने में कम से कम चार-पाँच साल लग जाएँगे। सरकार को गाड़ी पटरी पर आने तक तो यह योजना चलानी ही पड़ेगी। फिर सरकार कह भी रही है कि घबराने की ज़रूरत नहीं है, अनाज भरा पड़ा है।” 

यह सुनकर गहरी साँस लेती हुई निशि कह रही है, “सरकार ऐसा करती रहेगी तो अपनी क्या, सबकी गाड़ी चल पड़ेगी। ये अनाज न मिल रहा होता तो ज़िन्दगी और भी कठिन हो जाती। लेकिन फिर से होटल खोलने के लिए पैसा कहाँ से लाओगे?” 

“बैंक से काम भर का क़र्ज़़ लूँगा। रोज़ पेपर पढ़ती हो, देख नहीं रही हो ऐसे कामों के लिए कितना लोन गवर्नमेंट की तरफ़ से दिया जा रहा है।”

लोन शब्द सुनकर निशि कुछ देर शांत हो गई है तो रुद्र पूछ रहा है, “क्या हुआ, ऐसे चुप क्यों हो गई?” 

“तुम फिर से लोन लेने की सोच लिए। मैं तो सोच रही थी कि लोन के सहारे एक नारकीय ने तुम्हारी पत्नी पर ग़लत आँखें गड़ाईं, उसे लूटने, हथियाने की पूरी कोशिश की। मुझे नहीं हथिया पाया तो आख़िरकार होटल हथिया ही लिया। इसके बाद तो तुम कभी भी लोन का नाम नहीं लोगे।”

निशि ने बहुत ही भरे मन से उत्तर दिया। सगे बहनोई ने लोन के सहारे उसके तन पर अपनी घिनौनी आँखें गड़ाईं, यह जानने के बाद से वह स्वयं को बहुत आहत, अपमानित महसूस कर रही है। उसे लोन शब्द से ही घृणा हो गई है, कि यही वह रास्ता बन रहा था, जिस पर चल कर एक गंदा आदमी उसके तन को हथियाने के लिए बढ़ा चला आ रहा था। 

उसके मनोभावों को समझते ही रुद्र तुरंत कह रहा है, “तुम भी कैसी बात कर रही हो, किसी गुंडे और बैंक से लोन लेने में ज़मीन-आसमान का अंतर है। फिर उस अय्याश गुंडे ने लोन नहीं दिया था, फँसाने के लिए लोन का जाल फेंका था, जिसमें उसने होटल फँसा ही लिया। तुम्हें फँसाने से रह गया। 

“उस समय भी मैं बैंक से ही लोन लेना चाहता था। मैंने बात चलाई ही थी कि यह कमीना एकदम से कूद पड़ा। बोला, ‘अरे भाई साहब कहाँ बैंक के चक्कर काटेंगे। जितना चाहिए उतना पैसा मुझसे ले लीजिए। जैसे बैंक को देंगे, वैसे ही मुझे वापस कर दीजिएगा।’ फिर जितना चाहता था, जानबूझकर उससे ज़्यादा लाद दिया। मैं आस्तीन के साँप के ज़हरीले दाँत नहीं देख पाया, नहीं तो उसी समय उसका फन कुचल देता।”

लेकिन निशि असहमत होती हुई कह रही है, “देखो लोन न ही लेना पड़े तो अच्छा है। लोन लेना उतना कष्टदाई नहीं है, जितनी कष्टदाई उसकी वापसी है। सारी समस्या तो किसी अड़चन की वजह से वापस न कर पाने पर खड़ी होती है। वसूली के लिए दबंगई, सख़्ती तो सरकार भी करती है। अगर न करती तो बिजली का कनेक्शन क्यों काटती। 

“आदमी को खाने-पीने के लाले पड़े हुए हैं, हर तरफ़ तबाही मची हुई है, जब हालात सुधर जाते, तब वसूली करते, काट-पीट करते। बड़े-बड़े नेताओं, अधिकारियों का लाखों-लाख पानी-बिजली का बिल बकाया रहता है। वहाँ पर इतनी जल्दी कनेक्शन काटने की कार्यवाई क्यों नहीं करते। बस छोटे-मझले लोगों पर ही डंडा चलता है।”

इसी समय एक बार फिर घनघोर घटाओं में ख़ूब ज़ोर की बिजली चमकी, पलक झपकने भर को बड़ी-बड़ी बरसती बूँदों की झलक मिली, लेकिन अगले ही पल कड़कते बादलों ने निशि की आँखें बंद कर दीं, कान सुन्न कर दिए। डर कर उसने रुद्र को जकड़ लिया। 

रुद्र उसे कसते हुए फिर व्यंग्य कर रहा है, “ज़रा सी आवाज़ होती नहीं कि हिरणी सी काँपने लगती हैं। अभी बातें बड़ी-बड़ी कर रही थी, बिना जाने-समझे सरकार की ऐसी की तैसी कर रही थी, लेकिन बेवक़ूफ़ यह नहीं सोच रही हो कि तुम बेवजह सरकार पर ग़ुस्सा कर रही हो। तुम उनकी नज़र में ग़रीब नहीं एक बड़े एसी कूल्ड मकान वाली हो।”

“अब जो भी हो, मैं तो यही कहूँगी कि लोन लेना ठीक नहीं है। इसके बारे में सोचो ही नहीं। मेरे पास थोड़े बहुत गहने अभी भी हैं, उनको बेचकर अपना काम शुरू करो। वैसे भी इस समय सोने का भाव आसमान छू रहा है। आधा भी मिलेगा तब भी काम भर का पैसा हो जाएगा।”

इसी बीच नीचे उतरने की उसकी एक और कोशिश को रोकते हुए रुद्र कह रहा है, “ठीक है, जब करना होगा तब देखेंगे। मैं गहने के बारे में इसलिए नहीं सोचता कि शादी के बाद तुम्हारे लिए कुछ ख़ास बनवा नहीं सका। ऐसे में जो हैं, उन पर पर हाथ लगाना अच्छा नहीं है।”

“तुम भी हद करते हो। गहना तो होता ही है हारे-गाढ़े काम आने के लिए। रोज़ पहनने के लिए कोई बनवाता है क्या? और सुनो ऐसे तो जब देखो तब हम ही को गहना कहते रहते हो। जब हम गहना हैं, तो मेरे सामने उन गहनों की कौन सी बिसात है। उनको रख कर क्या करोगे?” 

“सही तो कहता हूँ कि मेरी गहना तुम ही हो, इसीलिए तो इतनी देर से लादे हुए हूँ।” 

इसके साथ ही उसके हाथों ने उस घुप्प अँधेरे में भी बादलों ही की तरह कुछ ख़ूबसूरत से काम किए। जिससे निशि हल्की सी चिंहुकती हुई, उसके ऊपर से नीचे सरक कर बग़ल में लेट गई है। बारिश अब भी तेज़ हो रही है, इसलिए उसकी आवाज़ में उसके चिहुंकने और कुछ अन्य आवाज़ें केवल रुद्र के कानों तक ही पहुँच सकीं। उसने उसे बाँहों में समेट रखा है। 

वह उससे कह रही है, “पानी बरस रहा है, शराब नहीं कि तुम्हें नशा हो रहा है। हम तो काम की बात करना चाह रहे हैं, और तुम्हें मस्ती सवार है।”

“तुम कह तो ठीक रही हो, बरस तो पानी ही रहा है, लेकिन तुम हो तो यह बारिश शराब सी होकर बरस रही है।”

“शराब, पानी बाद में करना। मैं सोच रही हूँ कि जब होटल फिर से शुरू करना ही है, तो जैसे ही कल-परसों में दुकानें खुलें, तुम वैसे ही गहने बेचकर होटल का काम शुरू कर दो। ठेला, दिन-भर पैदल चलने से मुक्ति पाओ।”

यह सुनते ही रुद्र फिर व्यंग्य कर रहा है, “कह मैं रहा हूँ कि शराब बरस रही है, लेकिन लगता है नशा तुम्हारे चढ़ा हुआ है। अरे थोड़ा दिमाग़ लगाओ, वायरस से लोग इतने डरे हुए हैं कि ज़रूरी सामान भी बाहर से लेने में डर रहे हैं। होटल, रेस्त्रां, नुक्कड़ी चाय-समोसे की दुकानें लोग भूल से गए हैं। अभी सरकार यह सब खोलने भी नहीं दे रही है। ऐसे में होटल खोलने की बात सोचना भी पागलपन है। जब स्थितियाँ सुधरेंगी, लोग नुक्कड़ी रेस्त्रां, होटल जाने लगेंगे तब शुरू करेंगे। समझी।”

“हाँ, मतलब यह कि अभी कई महीने और यह सब झेलना है।”

निशि बड़ी मायूसी के साथ बोली। इसी समय आसमान में एक बारीक़ लंबी-तीखी चमकीली सर्प लाइन पृथ्वी की तरफ़ लपक कर ग़ायब हो गई। मगर चमक उसकी इतनी तेज़ थी, कि पूरा आसमान, पृथ्वी जैसे पानी नहीं रोशनी से नहाने चल दी, और भयानक गड़गड़ाहट से निशि एक बार फिर डर गई। बारिश पहले की तरह से ही हो रही है। 

मगर अब हवा भी तेज़ हो गई है, जिससे पानी की हल्की फुवारें चौकी की तरफ़ भी लपकने लगीं हैं, तो निशि कह रही है, “अब पानी इधर आने लगा है। अंदर चलिए, रात भी बहुत ज़्यादा नहीं बची है।”

इसी के साथ उसने उठना चाहा तो रुद्र उसे और क़रीब लाते हुए कह रहा है, “ऐसा मौसम छोड़ कर कहाँ अंदर जाना। जब-तक बारिश हो रही है, तब-तक हम-लोग पंद्रह-सोलह साल पीछे चलते हैं।”

निशि कह रही है, “पीछे नहीं, अब आगे चलना है, बच्चे बड़े हो गए हैं।”

लेकिन रूद्र की ज़िद पीछे, बहुत ही पीछे लेती ही चली जा रही है। वह आगे नहीं बढ़ पा रही है। शायद बढ़ना भी नहीं चाह रही है। बारिश भी रुकने का नाम ही नहीं ले रही है। बल्कि तेज़ ही होती जा रही है, लग रहा है कि जैसे सारी बारिश चौकी पर ही, उन्हीं दोनों को भिगोने के लिए हो रही है। दोनों ख़ूब भीगते हुए बहुत देर तक सब-कुछ भूल गए। निशि के भूल जाने के कारण ही, अंदर तेल का दिया कई घंटे जलकर जैसे थक चुका है। लौ बस ठहरने ही वाली है। वह दोनों भी चौकी खड़ी कर अंदर सोने जा रहे हैं। और बारिश . . .

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