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पॉलीटेक्निक वाले फ़ुटओवर ब्रिज पर

फ़ुटओवर ब्रिज पर इधर-उधर टहलते हुए रुहाना को आधा घंटे से ज़्यादा हो चुका था। उसे आते-जाते लोगों में घर जाने की जल्दी साफ़ दिख रही थी। सात बज गए थे। अँधेरा गहरा हो चुका था। दिन भर छिटपुट इधर-उधर फैले बादलों ने इस समय इकट्ठा होकर आसमान को पूरा ही ढंक लिया था। हवा कुछ और तेज़ हो चुकी थी। सवेरे ही रुहाना ने ई-पेपर में पढ़ा था कि आँधी के साथ तेज़ बारिश हो सकती है, ओले भी पड़ सकते हैं। इससे ठंड एक बार फिर लौट सकती है।

यह न्यूज़ पढ़कर ही उसने रोज़ की अपेक्षा ज़्यादा भारी कपड़े पहन रखे थे। वह ठंड से बचाव के प्रति ज़्यादा सतर्क रहती है। क्योंकि उसकी ज़रा सी लापरवाही से उसका इस्नोफीलिया एकदम बढ़ जाता है। फिर सर्दी जुखाम से वह हफ़्तों परेशान रहती है। इसीलिए वह इस समय कुछ ज़्यादा ही बेचैन हो रही थी कि कहीं मौसम विभाग की सूचना सही हो गई तो उसके लिए बड़ी मुश्किल हो सकती है। कपड़े कितने ही पहने हो बारिश, ओले उसके लिए कुछ ज़्यादा ही बड़ी मुसीबत हैं। परेशान होकर उसने श्वेतांश को फिर फोन किया, लेकिन इस बार उसने फोन रिसीव ही नहीं किया। उसे बड़ा ग़ुस्सा आया।

श्वेतांश की कॉल रिसीव ना करने की आदत को लेकर वह कई बार उससे लड़ चुकी थी। लेकिन हर बार वह कोई ना कोई बहाना बता कर निकल लेता है। उसने ग़ुस्से में सोचा कि आज इसे सबक़ सिखा ही देती हूँ। इसे भी यह एहसास होना चाहिए कि कॉल रिसीव ना होने पर कितनी टेंशन, कितनी इरिटेशन होती है। उसने एक बार ब्रिज से बाहर ऊपर आसमान में घने बादलों को देखा, अजीब भूरे-भूरे से हो रहे थे। फिर मोबाइल को ऑफ़ कर दिया। ऐसा करते वक़्त उसने मन ही मन सोचा कि, "आज तुम्हारी यह आदत छुड़वाती हूँ। तुम यहीं खड़े-खड़े इंतज़ार करते रहना। अपने इस प्रिय फ़ुटओवर ब्रिज पर। रात भर मेरा नंबर मिलाते रहना।"

यह सोचते हुए वह ब्रिज से नीचे उतरने के लिए बढ़ चली। दो-तीन सीढ़ियाँ ही उतरी होगी कि पीछे से उसके कानों में श्वेतांश का स्वर सुनाई दिया, "रुहाना रुको।" वह जब तक रुकी श्वेतांश हँसते हुए एकदम उसके सामने आ खड़ा हुआ। और बोला, "सॉरी जाम में फंस गया था।"

"क्या सॉरी, तुम्हारा हमेशा का यही तमाशा है। जब मैं कॉल नहीं रिसीव कर पाती तब तो दुनिया भर की बातें कह डालते हो।"

"सुनो-सुनो मेरी बात तो सुनो, इस बार जब तुमने कॉल की तो मैं नीचे बाइक खड़ी कर रहा था। सोचा जब पहुँच ही गया हूँ तो कॉल रिसीव करके क्यों बेवज़ह तुम्हारा बिल बढ़ाऊँ।"

रुहाना उसके साथ वापस ऊपर चलती हुई बोली, "अब क्यों बिल की बात करते हो, इतना सस्ता, इतना ज़्यादा टॉक टाइम मिलता है कि ख़त्म ही नहीं होता।"

"चलो अच्छा ठीक है। जा कहाँ रही थी?"

"घर जा रही थी। घंटे भर से इंतज़ार करते-करते थक गई हूँ। मौसम अलग ख़राब हो रहा है। फोन उठाते ही नहीं तो और क्या करती, कब तक यहाँ खड़े-खड़े आते-जाते लोगों की गिनती करती रहती।"

रुहाना ब्रिज के बीचों-बीच पहुँच कर उसकी रेलिंग से टिक कर खड़ी हो गई। श्वेतांश भी उसके सामने खड़ा हो गया। उसे शांत कराते हुए बोला, "तुम्हें कितनी बार सब बता चुका हूँ। नौकरी का हाल तो जानती हो। जब निकल लो तब समझो छुट्टी हुई। सीनियर जब छुट्टी का टाइम होता है तभी आकर बैठ जाता है। उसके रहते निकल नहीं सकता। बिना किसी ग़लती के ही चिल्लाता रहता है। बहाने ढूँढ़-ढूँढ़ कर डाँटता रहता है। उसके रहते निकल दूँ तो नौकरी ही ले लेगा। प्राइवेट सेक्टर की तो सारी बातें जानती ही हो, कोई सरकारी नौकरी तो है नहीं जो निश्चिंत रहो।"

"अरे यार मैं केवल कॉल रिसीव कर सिचुएशन बता देने की बात कर रही हूँ, जिससे कोई कंफ्यूजन ना रहे। बेवज़ह मन परेशान होता है ना। एक तो मैं यह नहीं समझ पा रही हूँ कि तुम हर बृहस्पति को यहाँ इस ब्रिज पर ही क्यों आते हो? मिलने के लिए तुम्हें और कोई जगह नहीं मिलती क्या?"

"लो पहले ये यह समोसा खाओ," श्वेतांश ने समोसे का पैकेट उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा तो रुहाना एक समोसा निकालती हुई बोली, "अब यहाँ समोसा खाएँगे और पानी कहाँ पिएँगे।"

"नीचे।"

"अरे यार बड़ा अजीब लगता है मुझे, यहाँ खाओ, पानी कहीं और पियो। उसके लिए भी अभी पता नहीं कितनी देर इंतज़ार करना पड़ेगा, क्योंकि घंटे भर से पहले तुम यहाँ से उतरने वाले नहीं।"

"चलो आज जल्दी चलूँगा क्यों परेशान हो रही हो।" 

"जल्दी कहाँ चल पाओगे। जब यह बारिश बंद होगी तब चलोगे ना।" रुहाना ने सामने की तरफ़ बाहर देखते हुए कहा। तेज़ हवा के साथ बारिश शुरू हो गई थी। बादल भी रह-रहकर ख़ूब तेज़ गरज-चमक रहे थे। श्वेतांश ने बाहर देखते हुए कहा, "ज़्यादा देर बरसने वाला नहीं है। तेज़ हवा चल रही है, जल्दी ही निकल जाएगा।"

उसका आख़िरी शब्द रुहाना नहीं सुन पाई, क्योंकि उसी समय बादल की तेज़ गड़गड़ाहट से पूरा एरिया थर्रा उठा था। उसने दोनों हाथों से कान बंद कर लिए थे। बिजली की तेज़ चमक से आँखें पहले ही चुधियाँ गई थीं। उसे श्वेतांश पर ग़ुस्सा आ गया कि उसी के कारण उसे इस हाल में यहाँ रुकना पड़ा। बादलों की गड़गड़ाहट कम ही हुई थी कि हर तरफ़ से तड़-तड़ की आवाज सुनाई देने लगी। सड़क पर स्ट्रीट लाइट में वह अच्छे ख़ासे बड़े-बड़े ओले साफ़ देख पा रही थी।

श्वेतांश ने उन्हें देखकर कहा, "बहुत दिनों बाद इतने बड़े-बड़े ओले देख रहा हूँ।"

"बड़े हों या छोटे लेकिन आज के बाद मैं इस ब्रिज पर नहीं आऊँगी।" रुहाना ने यह बात धीमी आवाज़ में कही क्योंकि पानी से बचने के लिए बहुत से लोग ऊपर आ गए थे। पूरा ब्रिज क़रीब-क़रीब भर गया था। उस के स्वर में ग़ुस्से को भाँपकर श्वेतांश ने कहा, "बारिश कोई अपने हाथ में नहीं है, अपने मौसम पर ही वह बरसेगी। तुम ब्रिज पर ग़ुस्सा क्यों निकाल रही हो। देर से मैं आया, इसमें ब्रिज का क्या लेना-देना।"

"है ना लेना-देना। बारिश पता नहीं कब बंद होगी। लोग बढ़ते ही जा रहे हैं। अब यहाँ खड़ी-खड़ी धक्के खाती रहूँ। समझ में नहीं आता तुम्हें इसके अलावा कोई और जगह क्यों नहीं मिलती। ऐसा क्या है यहाँ जो तुम्हें यह अच्छा लगता है।"

"तुम नहीं समझोगी यह ब्रिज मेरे लिए क्या है?"

"पूछ तो रही हूँ इतने दिनों से, जब बताते नहीं तो क्या जानूँगी। मैं तो सारी बातें बता देती हूँ। तुम्हीं पता नहीं क्यों मुझसे ना जाने कितनी बातें छुपाते रहते हो।"

"कुछ भी छुपाता नहीं हूँ। बस वह बातें मैं तुमसे नहीं करना चाहता या हर उस व्यक्ति से नहीं करना चाहता जिससे उस व्यक्ति का कोई मतलब नहीं है। और उन बातों को सुनकर उसका मूड ख़राब हो जाए।"

"ओफ़्फो तुम्हारी बातें कभी-कभी इतनी उलझी हुई होती हैं कि समझना मुश्किल हो जाता है। यहाँ हर बृहस्पति को तुम क्यों बहुत देर तक रहते हो यह ना बताने के लिए इतनी सारी बातें कर रहे हो। सीधी साफ़ बातें करना कब सीखोगे।" इसी बीच रुहाना को दो-तीन छीकें आ गईं। ठंडी हवा ने अपना असर उस पर दिखाना शुरू कर दिया था। उसने अपना स्टोल सिर, चेहरे पर कस कर लपेट लिया था। फिर भी उसे ठंड महसूस हो रही थी।

उसकी छीकों ने श्वेतांश को कुछ देर बोलने से रोक दिया। उसने एक नज़र बाहर डालकर कहा, "कहो तो टैक्सी बुला दूँ, तुम जल्दी घर चली जाओ। नहीं तो यह मौसम तुम्हें ज़्यादा नुक़सान पहुँचाएगा।"

"टैक्सी के लिए फ़ालतू पैसे नहीं हैं मेरे पास। इतना नहीं कमाती की टैक्सी में चलूँ।"

"मैं मजबूरी की बात कर रहा हूँ। ओला या ऊबर में दो-ढाई सौ रुपए में पहुँच जाओगी। तुम्हारी तबीयत बिगड़ी तो छह-सात सौ तो डॉक्टर की फ़ीस ही हो जाएगी। दवाएँ अलग से, हज़ारों रुपए का ख़र्चा है।" 

"चलो जो होगा देखा जाएगा।"

"देखना क्या, मुझे लग रहा है कि यह पानी जल्दी बंद होने वाला नहीं। आज तुम्हें टैक्सी की सवारी करनी ही पड़ेगी, नहीं तो रात भर इसी ब्रिज पर रहोगी। देख रही हो यह गूगल बता रहा है कि यहाँ आज रात का मिनिमम टेम्परेचर नौ सेंटीग्रेड हो जाएगा। इतनी ठंड के हिसाब से ना मैंने कपड़े पहने हैं ना तुमने।"

"अच्छा, मैं टैक्सी में चली जाऊँ और तुम, तुम क्या करोगे?"

"करूँगा कुछ, बाइक छोड़ कर तो जा नहीं सकता। और ना ही भीगते हुए। ठंड जो लगेगी वह तो लगेगी, इतनी तेज़ हवा में बाइक चलाना और मुश्किल है। रास्ते भर पेड़ों की टहनियाँ, पेड़ टूटे पड़े होंगे। यहीं देखो न, डिवाइडर पर लगे पेड़ों की कितनी डालियाँ टूटी पड़ी हुई हैं।"

"हाँ, देख रही हूँ," रुहाना ने बाहर की तरफ़ देखते हुए कहा। बड़ा चौराहा और पास ही वेब सिनेमा हाल होने के कारण वहाँ स्ट्रीट लाइट कुछ ज़्यादा ही तेज़ थी। ग़नीमत यह थी कि तेज़ हवा में भी लाइट वहाँ आ रही थी। अमूमन ऐसे में चली ही जाती है। फ़ुटओवर ब्रिज पर दोनों ओर बाउंड्री से ऊपर तक विज्ञापन की होर्डिंग लगी होने के कारण पूरी तरह बंद थी, जिससे ब्रिज पर हवा कम लग रही थी।

खड़े-खड़े बात करते हुए रुहाना थक गई तो उसने श्वेतांश से कहा, "यहाँ बैठने के लिए भी कुछ नहीं है।"

"इतनी जल्दी थक गई।"

श्वेतांश ने उसे छेड़ा तो वह बनावटी ग़ुस्सा दिखाती हुई बोली, "अच्छा, तुम्हारे आने के एक घंटा पहले से इंतज़ार करती यहाँ खड़ी थी। मेरे लिए यहाँ सोफ़े नहीं पड़े थे कि मैं आराम से बैठी थी, समझे। टाइम से आ जाते तो अब तक घर में होते। यहाँ ठंड से आ...च्छीं, आ...च्छीं ना कर रहे होते।" 

रुहाना की आ...च्छीं करने के ढंग से श्वेतांश को हँसी आ गई।

उसकी हँसी देखकर आख़िर में रुहाना भी हँस पड़ी। फिर बोली, "अब मुझसे खड़ा नहीं रहा जा रहा है। कुछ बैठने का जुगाड़ करोगे, कब तक खड़े रहेंगे।" 

"सही कह रही हो, पानी जल्दी बंद होने के आसार नहीं दिख रहे हैं। आज मैं भी ज़्यादा थका हुुुआ हूँ। एक ही रास्ता है कि ज़मीन पर ही कुछ बिछा कर बैठा जाए। मगर क्या बिछाया जाए, कोई पेपर वग़ैरह भी तो नहीं है। अपना-अपना रुमाल ही बलिदान करना पड़ेगा या फिर ऐसे ही ज़मीन पर बैठना होगा।"

"चलो करो रुमाल बलिदान। तुम्हारे इस ब्रिज प्रेम में रुमाल बलिदान होगा वो भी इस तूफ़ानी ठंडी रात में। कभी नहीं भूलेगी यह रात और ना ही यह ब्रिज और तुम्हारा ब्रिज प्रेम।"

रुहाना ने बैग से रुमाल निकाला तो श्वेतांश ने उसके हाथ से खींचकर ले लिया फिर उसके हाथ में वापस थमाते हुए कहा, "इसे रखो, मेरे पास दो हैं।"

"दो रुमाल क्या करते हो?" 

"एक हेलमेट लगाते समय सिर पर रखता हूँ और दूसरा हाथ चेहरे वग़ैरह के लिए।"

इतना कहते हुए श्वेतांश ने दोनों रुमाल निकालकर ब्रिज की दीवार से लगाकर बिछा दिया और एक पर बैठते हुए कहा, "देखा तुम्हारे लिए मैंने रुमाल तक बलिदान कर दिया और तुम हो कि मेरे लिए एक घंटा इंतज़ार करने में ही परेशान हो गई। ब्रिज को कोस रही हो।" 

श्वेतांश के व्यंग्य से रुहाना को हँसी आ गई। बोली, "लोग तो अपने पार्टनर के लिए ख़ुद को भी बलिदान कर देते हैैं। तुम सिर के पसीने, हाथ को पोंछने से बैक्टीरिया भरे रुमाल को भी नहीं निकाल पा रहे हो और जब देखो तब दस बार डींगे हाँकोगे कि तुम्हारे लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ। घर-बाहर सब कुछ छोड़ सकता हूँ।" कहते हुए वह भी उसके बग़ल में बैठ गई।

उसने देखा बारिश के ना रुकने के कारण कई लोग भीगते या फिर जैसे-तैसे निकल गए थे। मगर फिर भी दो ढाई दर्जन लोग अब भी थे। और उससे कुछ ही दूरी पर कई महिलाएँ, उनके छोटे-बड़े बच्चे भी ज़मीन पर बैठे हुए थे। उनमें तीन-चार महिलाएँ ऐसी थीं जिनकी गोद में बच्चे भी थे। छोटे दुधमुँहे बच्चे। जो ठंड, भूख से रो रहे थे। दो-तीन साल और आठ साल के भी बच्चे थे। दिनभर में इन सबने माँगकर जो पैसा पाया था उसी से खाने का कुछ सामान लिया था। ज़मीन पर ही पॉलिथीन, पेपर वग़ैरह बिछा कर खा रहे थे। बच्चों में खाने को लेकर हल्की-फुल्की छीना-झपटी, रोना-पीटना फिर उनकी माँओं का डपटना-चिल्लाना भी चल रहा था।

सब अपने में व्यस्त थे। आस-पास खड़े लोगों का उन पर कोई असर नहीं था। रुहाना की नज़र एक ऐसी माँ पर बड़ी देर तक टिकी रही जिसकी गोद में मुश्किल से सात-आठ महीने का एक बेहद कमज़ोर सा बच्चा था। जिसे उसने स्वेटर वग़ैरह तो फटे-पुराने पहनाए हुए थे, मगर नीचे कोई कपड़ा नहीं था। कमर से नीचे वह पूरा खुला हुआ था। उसकी माँ भी रुहाना को बच्ची ही लग रही थी। उसकी उम्र मुश्किल से पंद्रह-सोलह रही होगी। वह ख़ुद भी बीमार लग रही थी। आँखें अंदर धँसी हुई थीं। चेहरे पर थकान लाचारी के अलावा कुछ नहीं था।

सामने एक पेपर पर ही कुछ खाना था। जिसे वह खा रही थी। खाना क्या था उसे रुहाना वहाँ से नहीं देख पा रही थी। उसकी बग़ल में एक डेढ़ दो साल का बच्चा बैठा था, बिल्कुल सटा हुआ। बीच-बीच में उसे भी खिलाती जा रही थी। और जो बच्चा गोद में था वह माँ का दूध पिए जा रहा था और वह अबोध माँ निर्लिप्त भाव से उसे दूध पिला रही थी, कपड़ा हटा हुआ था। बच्चे का मुँह खुला हुआ था। बहुत से लोग आस-पास ही खड़े हैं, इसका जैसे उसे कुछ पता ही नहीं था। 

रुहाना को उसकी हालत पर बड़ी दया आ रही थी। ख़ासतौर से उस दुधमुँहे डेढ़ साल के बच्चे पर, जो उस ठंड में बचने लायक़ कपड़े तक नहीं पहने था। उसे उसी तरफ़ देखते पाकर श्वेतांश समझ गया कि वह क्या देख रही है। उसने उसे टोकते हुए कहा, "क्या देख रही हो?" श्वेतांश ने अपना चेहरा तभी दूसरी तरफ़ घुमा लिया था जब उन सब ने खाना शुरू किया था। उसके प्रश्न पर रुहाना ने भी उसी की तरफ़ मुँह कर लिया और कहा, "इन सब को देख रही हूँ। इस ठंड में बेचारों के पास कपड़े तक नहीं हैं। ठंड से ठिठुर रहे हैं, खाना भी पता नहीं क्या खा रहे हैं? जो बच्चा दूध पी रहा है, उस बेचारे को देखो वह भी आधा नंगा है। नन्हीं सी जान को ठंड लग गई तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।"

"हाँ, लेकिन तुम, हम क्या कर सकते हैं। जब उसकी माँ को ही अपने बच्चे का ध्यान नहीं है, बच्चा नंगा है, उसे ठंड लग रही है या नहीं, इससे बढ़कर यह कि जब उसे अपना ही होश नहीं है तो वह बच्चे के बारे में क्या सोचेगी। बेवज़ह परेशान हो रही हो।"

"अरे यार इतना कठोर ना बनो। सोचो हम लोग इतने कपड़े पहने हुए हैं, तब भी ठंड से परेशान हैं। मुझे ग़ुस्सा तो इन औरतों के आदमियों पर आ रहा है कि इतने बच्चे पैदा करके सब पता नहीं कहाँ ग़ायब हैं। इनमें से किसी का भी आदमी इनके साथ दिखाई नहीं दे रहा है।"

"इनके आदमी होंगे तब ना दिखेंगे।" 

"क्या मतलब?" रुहाना चौंक कर बोली, "हाँ, इनको शायद पता भी नहीं होगा कि इनके बच्चों के पिता कहाँ हैं। वह सब भी कहीं माँगते-खाते घूम रहे होंगे। सुनता तो यहाँ तक हूँ कि कई बच्चों के बारे में तो ख़ुद इन्हें भी मालूम नहीं होगा कि इनके बच्चों का पिता कौन है? कभी कुछ पुलिसवाले, तो कभी रात में घूमते कुछ और कमीने लोग इन्हें शिकार बनाते हैं। कुछ पैसे इनके सामने डाल देते हैं बस। अब तुम इस छोटे बच्चे वाली माँ को ही देखो, अभी तो बेचारी ख़ुद ही बच्ची है, लेकिन ना जाने किस मजबूरी में दो-दो बच्चों की माँ बनी हुई है। इनके आदमियों की जो तुमने बात की तो वह सब भी कभी-कभी रात-दिन में आते हैं और बच्चों का बोझ इनमें रोप कर चल देते हैं। ख़ुद आए, ऐश की, चल दिए और तिल-तिल कर मरने के लिए इन्हें छोड़ जाते हैं?"

"इन बेचारी लड़कियों, बच्चों के बारे में इतना सब कुछ तुम कैसे जानते हो?" 

रुहाना के प्रश्न पर श्वेतांश बिल्कुल गम्भीर हो गया। सोचता रहा कुछ। तो रुहाना ने फिर पूछा, "क्या बात है, तुम क्यों इतना सीरियस हो गए?"

"तुम बहुत दिन से पूछ रही हो ना कि मैं इस ब्रिज पर हर बृहस्पति को क्यों आता हूँ, क्यों देर तक रहता हूँ, मुझे लगता है यह सब बताने का इससे अच्छा अवसर दूसरा नहीं मिलेगा। पहले तो सोचा था कि यह बात जीवन में कभी किसी को नहीं बताऊँगा। लेकिन अभी स्थिति ऐसी बन गई है कि तुम्हें इस बारे में सब बता देना मुझे ठीक लगता है।" 

"लेकिन अभी तो मैंने यह पूछा कि इन महिलाओं, बच्चों के बारे में इतना कुछ तुम कैसे जानते हो?"

"वही बताने जा रहा हूँ कि इनके बारे में कैसे जानता हूँ।"

"ये तभी जान समझ पाओगी जब यह जानोगी कि यहाँ मैं क्यों आता हूँ।"

"बड़ी अजीब बात है। ठीक है बताओ।" 

"हुआ यह कि मैं पैसों की तंगी के चलते पढ़ाई-लिखाई तो ठीक से कर नहीं सका। सच यह भी है कि पढ़ने-लिखने में मेरा मन भी नहीं लगता था। शुरू से ही नेता बनने का सपना देखता था। सोचता जब अनपढ़, गुंडे, माफ़िया नेता बन जाते हैं। मंत्री-मुख्यमंत्री, माननीय बन जाते हैं तो वही बना जाए। पढ़ाई-लिखाई सिवाय समय बरबादी के और कुछ नहीं है। मगर इन माफ़िया से नेता बने लोगों की तरह मैं नेता अकूत कमाई के लिए नहीं बनना चाहता था। मैं सपने देखता था कि मैं क्रांति करूँगा। देश को बदल कर रख दूँगा। 

लोकतंत्र ख़त्म कर दूँगा। क्योंकि मैं यह समझता था बल्कि अब भी मानता हूँ कि लोकतंत्र ने अपने देश को बनाया कम बरबाद ज़्यादा किया। यदि बनाया ज़्यादा होता तो हम-तुम यूँ दर-दर भटक न रहे होते। ये जो भिखारी हैं ये भिखारी न होते। लोग, बच्चे ऐसे फटेहाल न होते। सड़कों-गलियों-चौराहों पर एक जून खाने, सिर ढकने के लिए एक छत को तरस न रहे होते। मैं हर आदमी को शिक्षा-चिकित्सा, रोटी-कपड़ा और मकान सच में हरहाल में देने का सपना देखता था। 

इसके लिए मैं डिक्टेटरशिप, डेमोक्रेसी, आर्मी रूल के एक मिले-जुले रूप वाली शासन व्यवस्था लागू करने की सोचता था। मगर जब आगे बढ़ा तो ऐसे मगरमच्छों के झुंड के झुंड मिले कि मुझे अपना रास्ता बंद मिला। फिर सोचा पढ़-लिख कर ही कुछ बना जाए। जब-तक यह समझा समय मेरे हाथ से निकल चुका था। पढ़ाई-लिखाई डिस्टर्ब हो चुकी थी। बस खींचतान के पढ़ रहा था। मन पढ़ने में तब लगना शुरू हुआ जब सब बिखर चुका था। बेरोज़गारी मुझे भी परेशान करने लगी। रोज़गार के लिए हाथ-पैर मारने लगा। एक दिन घर पर था, वहीं पेपर में यहाँ नौकरी का विज्ञापन देखा।

पापा से बहुत कहने पर यहाँ आने-जाने का किराया भर मिला। यहाँ आया, पेपर में दिए एड्रेस पर पहुँचा तो वह फर्जी निकला। मेरी तरह ठगे गए कई और लड़के-लड़कियाँ वहाँ मिले। वह सब कई दिन पहले ही वहाँ पहुँचे थे। रजिस्ट्रेशन के नाम पर वह फर्जी कंपनी उन सब से पैसे हड़प कर भाग चुकी थी। मैं देर से पहुँचा था इसलिए रुपये-पैसे ठगे जाने से बच गया।"

"थैंक गॉड। फिर क्या हुआ?"

"फिर उस फर्जी कंपनी के ऑफ़िस के गेट से बाहर आया। क्या करूँ, किधर जाऊँ कुछ समझ में नहीं आ रहा था। बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता रहा। वहीं पर मिला एक और लड़का भी साथ था। वह बड़ा जुझारू लड़का है। उसी के साथ बैठा जीपीओ के पास चाय पी रहा था।

पहले मैंने सोचा कि घर लौट जाऊँ। मगर घर पर क्या जवाब दूँगा यह सोच कर मैं परेशान हो गया। उससे पूछा तो वह बोला उसके क्षेत्र के विधायक यहीं विधायक निवास में रहते हैं। वह उन्हीं के यहाँ रुकेगा। कोशिश करेगा किसी और कंपनी में। उसी की सलाह पर मैं भी रुक गया। चाय वाले के यहाँ पेपर में एक और विज्ञापन देखकर उसी लड़के के साथ वहाँ चला गया। संयोग देखो कि वह वहाँ पर सुपरवाइज़र हो गया और मैं सिक्योरिटी गार्ड।

मैंने सोचा चलो कुछ तो बात बने, जब बात स्टार्ट हुई है तो आगे तक भी जाएगी। दोनों को तुरंत ही काम पर लग जाना पड़ा। मैंने सोचा शाम को उसी के साथ विधायक निवास पर ही रुक जाऊँगा। एक-दो दिन में फिर देखूँगा कहीं ठौर-ठिकाना। लेकिन शाम को उसने मजबूरी बता दी कि वह वहाँ किसी और को लेकर नहीं जा सकता। मैंने कहा किसी तरह एक रात की व्यवस्था हो जाए, अगले दिन कुछ ना कुछ इंतजाम कर लूँगा, लेकिन उसने साफ़ मना कर दिया।

रात बिताने के चक्कर में भटकते-भटकते यहाँ पहुँच गया। भूख बड़ी तेज़ लगी हुई थी। तो यहीं इसी वेब सिनेमा के पास एक ठेले वाला पूड़ी सब्ज़ी बेचता है। घर वापस जाने के लिए जो किराए का पैसा था उसी से खाना खा लिया। अब बात आई सोने की, कि कहाँ सोऊँ? दिनभर इधर-उधर भटकने, ड्यूटी करने से बुरी तरह थक गया था। पैदल ही इसी पॉलिटेक्निक चौराहे की तरफ़ चला आ रहा था। यहाँ गोरखपुर जाने वाली बस दिखी तो मन में एकदम से आया कि भाड़ में जाए गार्ड की नौकरी। चलता हूँ गोरखपुर घर। सच बताऊँ उस समय यदि किराए के पैसे रहे होते तो मैं घर वापस चल देता। तो पैसे की मजबूरी ने मुझे यहीं रोक दिया। बस चली गई। मैं भटकते-भटकते इस फ़ुटओवर ब्रिज की बेहद थके क़दमों से सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ ऊपर आ गया। थक कर एकदम चूर हो रहा था।

तो यहीं एक जगह किनारे बैठ गया। जो न्यूज़ पेपर घर से आते समय बस में लिया था वही बैग से निकाल कर बिछाया और बैग को सिर के नीचे रख कर लेट गया। उसके पहले घर फोन करके पैरेंट्स को बता दिया था कि नौकरी मिल गई है। यहीं एक दोस्त के साथ रहने का भी इंतज़ाम हो गया है। थक कर चूर था ही तो लेटते ही गहरी नींद में सो गया।

दो-तीन घंटे बाद पेशाब लगी तो नींद खुल गई। उठने लगा तो मुझे लगा कि मेरा सिर तो पथरीली फर्श पर टकरा रहा हैै। एक झटके में दिमाग़ बैग की तरफ़ गया। देखा तो चौंक गया। मैं एकदम पसीने-पसीने हो गया। अब क्या करूँ, बड़ी देर तक तो पेशाब लगी है यह भी भूल गया। इधर-उधर नज़र डाली तो मेरे जैसे एक दो और लोग भी सोते मिले। मगर सोते समय तीन-चार भिखारियों का जो समूह पहले से ही यहाँ सो रहा था वह नहीं दिखा। मुझे पक्का यक़ीन हो गया कि वही सब मेरा बैग ले गए।

वहीं देर तक बैठा मैं सोचता रहा कि अब क्या करूँ। जेब में तीस-चालीस रुपए से ज़्यादा कुछ है नहीं। खाना खाने के बाद यही बचे थे। बैग में एक सेट कपड़ा, तौलिया मेरा जो कुछ था, सब चला गया था। मोबाइल ऑफ़ करके पैंट की जेब में रखा था तो वही बच गया था।

"पहली रात इस ब्रिज पर बिताई, शायद बृहस्पति का दिन था इसीलिए यहाँ आते हो हर बृहस्पति को।"

"रुहाना सिर्फ़ पहली रात ही यहाँ नहीं बिताई, आगे और अड़सठ दिनों तक यह ब्रिज मेरा ठिकाना बना रहा है। इस शहर में मेरा पहला आशियाना यही था।" 

"क्या! दो महिने और, क्यों, जहाँ नौकरी कर रहे थे वहाँ सैलरी नहीं मिल रही थी क्या?" 

"मिली, पहली सैलरी दो महीने बाद मिली।"

"क्यों, दो महीने बाद क्यों?"

"इतना क्यों चौंक रही हो, यह छोटी-मोटी प्राइवेट कंपनियाँ क्या करती हैं तुम्हें मालूम नहीं। तुम भी तो प्राइवेट कंपनी में हो।" 

"हाँ लेकिन मेरे यहाँ पहली सैलरी पैंतीस दिन बाद मिल गई थी। उसके बाद अब हर तीन-चार तारीख़ को मिल जाती है। मैं पहला एक हफ़्ता यहाँ एक रिश्तेदार के यहाँ रही। सोचा था कि पहला एक महीना वहीं गुज़ारूँगी। उसके बाद किसी गर्ल्स हॉस्टल में रूम लूँगी। लेकिन पहले दिन से ही उनकी नाक-भौं ऐसी सिकुड़ी रही कि मैंने हफ़्ते भर में ही हॉस्टल में रूम ले लिया। लेकिन तुम दो महीने तक इस ब्रिेज पर कैसे रहे? मैं तो सोच कर ही परेशान हो रही हूँ। यहाँ रुके हुए दो घंटे ही हुए हैं। लेकिन मैं ऊब गई हूँ कि कैसे पानी बंद हो और यहाँ से निकलूँ।"

"मेरे पास कोई ऑप्शन ही नहीं था तो क्या करता। दूसरे किसी से कोई हेल्प मैं तभी माँगता हूँ जब कोई दूसरा ऑप्शन नहीं होता।" 

"घर वापस नहीं जाना चाहते थे तो कम से कम काम भर का पैसा तो मँगा ही सकते थे। सामान चोरी हो गया था, पैसे भी नहीं थे, कैसे क्या करते?"

"देखो मैं अपने घर की हालत जानता हूँ। यह सब जानने के बाद फ़ादर पैसा ज़रूर भेजते, लेकिन उन्हें किसी से क़र्ज़ लेना पड़ता। इसलिए मैंने सोचा जो भी हो पैसा नहीं माँगूँगा।"

"तो फिर क्या किया? कैसे चलाया खाना-पीना, नहाना-धोना सब कैसे हुआ?"

"नहाना-धोना तो नीचे कॉर्नर पर यह जो पब्लिक टॉयलेट है यहाँ होता था। सोना यहाँ ब्रिज पर और खाना-पीना ठेलों पर।"

"इन सब के लिए पैसे, वह कहाँ से लाए? तुम्हारे पास तो पैसेे नहीं थे।"

"हाँ पहले दिन चालीस-पचास रुपये बचे थे। वह सुबह पब्लिक टॉयलेट और यहाँ से ऑफ़िस जाने के लिए किराए में निकल गए। ऑफ़िस में फिर उसी पहले दिन वाले लड़के से मिला उसे सारी बातें बता कर मदद माँगी, तो उसने कहा घबराओ नहीं कुछ करता हूँ। असल में वह काम कैसे निकाला जाता है यह बहुत अच्छी तरह जानता है। उसने सवेरे का चाय नाश्ता और बाद में लंच भी कराया। लंच के समय ही उसने बताया कि पैसे का इंतज़ाम नहीं हो पाया है। और ना ही कहीं रुकने का। बहुत सोच-विचार कर मैंने कहा मेरा मोबाइल ही किसी तरह बिक जाता तो अच्छा था। तो उसी ने कोशिश करके शाम तक मोबाइल चार हज़ार में बिकवा दिया।

ऑफ़िस के ही एक आदमी ने लिया था। लेकिन उसने पूरे पैसे नहीं दिए। दो हज़ार उसी दिन दिए और दो हज़ार एक हफ़्ते बाद। तो इन्हीं चार हज़ार रुपयों से मैंने दो महीने निकाले।" 

"सिर्फ़ चार हज़ार में दो महीना।"

"हाँ, टॉयलेट वाले से हालात बताकर हेल्प के लिए कहा तो कुछ ना नुकुर के बाद वह पैसा इकट्ठा लेने को तैयार हो गया। सारी डिटेल्स नोट करने के बाद माना। इस तरह डेली का बीस रुपया बचा। यहीं पास में एक ठेले पर कभी छोले चावल तो कभी रोटी सब्ज़ी से काम चलाया। खाना अक़्सर एक टाइम ही खाता। दिनभर ऑफ़िस की वर्दी में रहता। एक सेट जो कपड़ा था वही पहन कर आता-जाता।" 

"घर से कपड़े पार्सल मँगवा सकते थे। ऑफ़िस के पते पर।"

रुहाना की बात पर श्वेतांश ने एक गहरी साँस ली। फिर कहा, "घर पर भी मेरे पास ऐसे कपड़े नहीं बचे थे जिन्हें मँगा कर मैं यहाँ काम चला लेता। दो थे वही लेकर आया था। एक चोरी चला गया।

इस टॉयलेट वाले ने बड़ी मदद की। उसी ने दो अँगौछे मँगवाए। उसी को पहन कर नहाता-धोता, कपड़े धोता-सुखाता। इसी तरह पूरे दो महीने निकाले। जब दो महीने की सैलरी मिली तो पहला काम इसका पूरा क़र्ज़ चुकाया। एक सेट कपड़ा ख़रीदा। और पंद्रह सौ रुपए का एक सस्ता सा मोबाइल लिया। जो मोबाइल बेचा था उसे ट्यूशन वग़ैरह के पैसे से आठ-दस महीने में ख़रीद पाया था। जब पंद्रह सौ का मोबाइल ले रहा था तो उस मोबाइल की बड़ी याद आ रही थी।"

"सच में तुमने बड़े कष्ट उठाए हैं।"

"हाँ, वह दो महीने तो बड़े कष्ट में बीते। इसीलिए उन दो महीनों में जहाँ भी मुझे एक पैसे की भी मदद मिली उसे मैं भूल नहीं पाया और सच यह है कि मैं भूलना भी नहीं चाहता। इस ब्रिज को तो बिल्कुल नहीं। यहाँ आकर मुझे लगता है कि जैसे मैं अपने किसी दोस्त के पास आ गया हूँ। मैं अपने ही घर के किसी कोने में हूँ। वहाँ की नौकरी मैंने तीन महीने बाद ही छोड़ दी थी। लेकिन आज भी महीने में दो चार बार वहाँ ज़रूर जाता हूँ। वहाँ अपने साथियों से ज़रूर मिलता हूँ।"

"वहाँ छोड़ क्यों दिया?"

"असल में गार्ड की नौकरी मुझे पसंद नहीं थी। मजबूरी में ही कर रहा था। इसलिए जैसे ही इस वाली कंपनी में किसी तरह मौक़ा मिला तो छोड़ दिया। पैसा भी यहाँ डेढ़ गुना ज़्यादा था। और सबसे बड़ी बात यह कि अगर वहाँ छोड़ता नहीं तो तुम कहाँ से मिलती।"

श्वेतांश की इस बात पर रुहाना हल्के से हँस दी, फिर बोली, "सही कह रहे हो। पहले जब तुमको वहाँ बस स्टॉप पर लोगों को लिफ़्ट देते देखती तो मैं तुम्हें कोई मवाली लफंगा समझती। सोचती अजीब मूर्ख आदमी है। आजकल लोग लिफ़्ट माँगने पर भी नहीं देते और यह मूर्ख रोज़ निश्चित समय पर इधर से निकलता है, सबको लिफ़्ट ऑफ़र करता है, लोगों को बैठा कर ले जाता है। लेकिन जब बहुत दिनों तक रोज़ ही देखने लगी तो सोचा समाज सेवा का नया-नया भूत सवार है, कुछ दिन में उतर जाएगा।

“कोइंसिडेंट देखो उस दिन एक तो मुझे देर हो गई, दूसरे जो बस आई वह वहीं ख़राब हो गई। जितनी टेंपो और आटो आते सब पर लोग पहले से ठसाठस भरे होते। आते ही सब टूट पड़ते थे। मैं इस धक्का-मुक्की में बैठ नहीं पा रही थी। देखते-देखते ज़्यादातर लोग चले गए, मैं दो-चार और लोग ही बस स्टॉप पर रह गए। थोड़ी देर में तुम आ गए। 

“उस दिन तुम भी पता नहीं क्यों देर से आए? तो मैंने सोचा अगर आज भी ऑफ़र करता है तो बैठूँगी। तुमने जैसे ही ऑफ़र किया वैसे ही मैं सबसे आगे आकर बैठ गई। तुमने रास्ते भर में सिर्फ़ इतनी ही बात की कि मैं इस रास्ते से होते हुए यहाँ तक जा रहा हूँ। इस बीच जहाँ पर कहें वहाँ छोड़ दूँ। उस दिन के बाद मैंने सोचा चलो रोज़ लिफ़्ट लेती हूँ। कम से कम जाने के तो पैसे बच जाएँगे। लेकिन फिर उसी रास्ते पर सुबह भी मिलने लगे तो मैंने सोचा . . ."

श्वेतांश बीच में ही बोला, "चलो दोनों तरफ़ का किराया बचेगा।" 

"क्या करें यार, पैसे तो बचाने ही पड़ेंगे ना। तुम्हारे कारण किराया तो बच ही जा रहा है ना।"

"तुम चाहो तो हॉस्टल का भी ख़र्चा बच सकता है।"

"कैसे?"

"मेरे साथ चल कर रहो ना, कब तक ऐसे बाहर मिलते रहेंगे। मैं तो तुम्हारे पैरेंट्स से कब से सीधे बात करने को तैयार हूँ। तुम्हीं पता नहीं क्यों बार-बार मना कर देती हो।"

"देखो यार समझने की कोशिश करो। मैं उन लोगों को धीरे-धीरे बताना चाहती हूँ। एकदम से बता कर उन्हें कष्ट नहीं देना चाहती। यार कुछ भी हो माँ-बाप हैं। हमें जन्म दिया है, पाला-पोसा है। बड़े कष्टों से माँ-बाप बच्चे पालते हैं। आख़िर हमारा भी तो कोई कर्तव्य बनता है।

“उस औरत को ही देखो, पिछले दो-ढाई घंटे में अपने बच्चे को तीसरी बार दूध पिला रही है। एक बच्चे को किनारे एक हाथ से दबाए हुए है। नींद के मारे आँखें नहीं खुल रही हैं। लेकिन बच्चे को टटोल-टटोल कर मुँह में निपुल दे रही है। बार-बार दूध पिला रही है।"

"तुम सही कर रही हो। मैं तुम्हारी इस बात की प्रशंसा हमेशा करता हूँ, क्यों कि मैं भी पैरेंट्स को इग्नोर करने के फ़ेवर में कभी नहीं रहा। इसीलिए तो बात करने के लिए बार-बार कहता हूँ। मैं इसलिए भी हर हाल में तुम्हें चाहता हूँ क्योंकि मैं यह समझता हूँ कि हर चीज़ में हमारी तुम्हारी सोच क़रीब-क़रीब एक जैसी है। तुम्हें फ़ालतू ख़र्च पसंद नहीं, मुझे भी नहीं। सरल साधारण जीवन को तुम जीवन की सुंदरता मानती हो। मैं भी ख़ुशहाल जीवन के लिए इसे ही एक मात्र आधार मानता हूँ। मैं जैसा जीवन जीता हूँ, उसे तुम प्रमाण के तौर पर ले सकती हो। जानती हो देखा जाए तो मैं आज भी चौकीदारी ही कर रहा हूँ।"

"मैं समझी नहीं, कैसे?" 

"असल में जिस मकान में रह रहा हूँ वह मेरे ही बॉस के एक बड़े रिश्तेदार का है। बहुत बड़ा मकान है। अभी पूरा नहीं बन पाया है। धीरे-धीरे काम चलता है। कभी बंद रहता है, उसी में मैं एक कमरे में रहता हूँ। किचेन बाथरूम वग़ैरह सब बन चुके हैं। उन्हें यूज़ करता हूँ। और मकान की रखवाली भी करता हूँ। इससे वह चौकीदार रखने का ख़र्चा बचा लेते हैं। 

जब भी मकान में काम लगता है तो उस समय भी मैं देखता हूँ। इससे उनकी भी बचत हो रही है। जगह बहुत है। कोई रोक-टोक नहीं है। इसीलिए बार-बार कह रहा हूँ कि चलो, हॉस्टल का तुम्हारा पूरा-पूरा ख़र्चा बच जाएगा। वैसे भी हम दोनों जिस रिश्ते को जी रहे हैं उसके बाद तो एक साथ रहना एक औपचारिकता भर है बस। ऐसे में तो मुझे लगता है कि बात करने में देरी करना सिर्फ़ टाइम वेस्ट करना है।"

"यार इतना उतावले क्यों हो रहे हो? मेरे पेरेंट्स किस बात को किस तरह लेंगे यह मैं तुमसे बेहतर जानती हूँ। इसलिए मुझे उन्हें स्टेप बाय स्टेप समझाने दो। एकदम से कहने पर वो भड़क भी सकते हैं। बात यहाँ इंटर कास्ट की नहीं इंटर रीलिजन की है। इसलिए प्लीज़ थोड़ा समय और दो।" 

"तुम कैसी बात कर रही हो?मैं कोई प्रेशर नहीं डाल रहा हूँ। सिर्फ़ टाइम की बात कर रहा हूँ। एक बात और मेरे दिमाग़ में आ रही है कि यदि तुम्हारे पैरेंट्स ने तुम्हारी बात मानने से इनकार कर दिया तब क्या करोगी?उनकी बात मानोगी या अपने मन की करोगी।"

श्वेतांश की इस बात पर रुहाना बड़ी देर तक सोचती रही तो श्वेतांश ने अपनी बात दोहरा दी। तब रुहाना ने एक गहरी साँस ली और कहा, "तब मेरे जीवन का सबसे कठिन समय होगा श्वेतांश। मैं उनसे माफ़ी माँग लूँगी। कहूँगी क्योंकि आपने हमें इतना बड़ा किया, पाला-पोसा मुझे अपना कॅरियर अपने हिसाब से चुनने की आज़ादी दी, मुझे इस लायक़ बनाया कि मैं अपना भला-बुरा समझ सकूँ। एक इनायत और करिए की मुझे अपने जीवन का सबसे अहम फ़ैसला लेने की भी आज़ादी दीजिए। आप इस बात से एकदम निश्चिंत रहिए कि मैं जो भी फ़ैसला लूँगी सही लूँगी। इस लायक़ तो आपने बना ही दिया है।"

"और यदि यह अहम फ़ैसला लेने की आज़ादी नहीं दी तब क्या करोगी?"

"ओफ्फ श्वेतांश मुझे डराओ नहीं प्लीज़, प्लीज़," यह कहते हुए रुहाना ने उसका हाथ अपने दोनों हाथों में पकड़ लिया। वह उससे एकदम सटकर बैठी थी।

श्वेतांश ने बहुत स्नेहपूर्वक एक हाथ उसकी पीठ पर रखते हुए कहा, "मैं तुम्हें डरा नहीं रहा हूँ। मैं तो सिर्फ़ इतना कह रहा हूँ कि यह स्थिति आ सकती है, तब क्या करोगी?" 

रुहाना फिर कुछ देर चुप रही। उसके चेहरे पर कुछ सख़्त भाव उभर आए। उसने कहा, "तब मैं उनसे माफ़ी माँग लूँगी। कहूँगी आपने अब तक जैसा कहा, जैसा चाहा मैं वह करती रही और अब जीवन का एक फ़ैसला मैं अपने मन का करूँगी। और मैं यह भी यक़ीन दिलाती हूँ कि जल्दी ही आप मेरे इस फ़ैसले की तारीफ़ करेंगे। यह जो कुछ हो रहा है इसे आप सही मानिए। ऊपर वाले की रज़ा मानिए क्योंकि होता है वही है जो ऊपर वाला चाहता है। इतना कहकर मैं अपनी नई दुनिया बनाऊँगी। उसे आबाद करूँगी। माँ-बाप की दुनिया से अलग, अपनी एक ख़ूबसूरत दुनिया।"

"रुहाना मुझे तुम पर पूरा विश्वास है। हम दोनों की दुनिया निश्चित ही बहुत ख़ुशहाल होगी। मुझे भरोसा अपने माँ-बाप पर भी है। वह लोग बहुत खुले विचारों के हैं। हम दोनों का साथ ज़रूर देंगे। अपना आशीर्वाद ज़रूर देंगे।" 

रुहाना इस समय अपना सिर उसी के कंधे पर टिकाए बैठी थी। वहाँ उन दोनों के अलावा अन्य जो लोग थे, सब सो रहे थे। बाक़ी लोग जा चुके थे। रुहाना ने एक नज़र ब्रिज की रेलिंग पर लगे विज्ञापन पट के टूटे हिस्से से बाहर डाली। पानी बंद हो चुका था। वह सीधी बैठती हुई बोली, "श्वेतांश पानी बंद हो चुका है, अब घर चलो, मुझे बहुत नींद लगी है, बहुत थक गई हूँ मैं।" 

"घर?"

"हाँ . . . कल शाम को ऑफ़िस से थोड़ा जल्दी निकलना। हॉस्टल ख़ाली करना है। सारा सामान साथ लेकर चलना है। हॉस्टल में तो बेवज़ह ख़र्चा हो रहा है। दोनों एक जगह रहेंगे। बेवज़ह पैसा ख़र्च करने से क्या फ़ायदा।"

श्वेतांश ने उसकी बात समझते ही उसे बाँहों में भर कर कहा, "ज़रूर, कल शाम को क्यों? आज सुबह ही पहला काम यही करेंगे। आओ चलें।"

दोनों उठ कर चल दिए। रुहाना की नज़र एक बार फिर उस दुध-मुँहे बच्चे पर चली गई। वह दूध के लिए कुनमुना रहा था। हाथ से माँ की छाती टटोल रहा था। और माँ फिर पहले ही की तरह कपड़ा हटा कर निपुल उसके मुँह में दे देती है, और हाथ से उसे अपनी छाती से चिपका लेती है। एक बेहद दयनीय हालत का कंबल जो वह ओढ़े़े थी उसी से बच्चे को फिर पूरा ढँक लेती है।

उसे ठिठकता देखकर श्वेतांश ने कहा, "कैसे बेख़बर हैं बाक़ी दुनिया से यह सब अपनी दुनिया में। भगवान से प्रार्थना है कि जैसे उसने इस दुनिया में बाक़ी लोगों के लिए ख़ूबसूरत चीज़ें दीं हैं, वैसे ही इन सब की दुनिया भी बढ़िया बना दे।"

दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे। तभी श्वेतांश से रुहाना से कहा, "अब तो समझ ही गई होगी कि इस ब्रिज पर मैं क्यों आता हूँ। यहीं मेरी नई दुनिया की नींव पड़ी और . . . "

"और?"

"और जीवन का हमसफ़र भी यहीं मिला। अब तुम ही बताओ इसे कैसे भूल सकता हूँ?"

"सही कह रहे हो, मैं भी तुम्हारे साथ आया करूँगी। यह सिर्फ़ कंक्रीट स्टील का एक फ़ुटओवर ब्रिज नहीं है। हम दोनों की ज़िंदगी का एक हिस्सा है। हमारा पॉलिटेक्निक चौराहे वाला फ़ुट ओवर ब्रिज।" कह कर रुहाना हँस पड़ी। तब तक श्वेतांश ने बाइक स्टार्ट कर दी थी।

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टिप्पणियाँ

shaily 2021/11/13 02:14 PM

बहुत सच्चाई है, बहुत वर्णन

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