नक्सलबाड़ी की चिंगारी
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा प्रदीप श्रीवास्तव21 Feb 2019
समीक्ष्य पुस्तक:
‘बेनीमाधो तिवारी की पतोह’
लेखक: मधुकर सिंह
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ,
18, इंस्टीट्यूशनल एरिया,
लोदी रोड, नई दिल्ली-110003
मूल्य: 140 रुपए
शोषण, अन्याय, रूढ़िवाद, सामंतवाद के ख़िलाफ़ साहित्यकारों की क़लम बराबर चलती ही रहती है। नक्सलबाड़ी में शोषण के ख़िलाफ़ दशकों पहले जनसामान्य का फूटा आक्रोश नक्सल आंदोलन के रूप में विराट रूप ले चुका है। लेकिन आज कहा यह भी जाता है कि शोषण के ख़िलाफ़ उठी यह आवाज़ आज अपना रास्ता भटक गई है। इस आंदोलन के सूत्रधारों में गिने जाने वालों में से एक कानू सान्याल जिन्होंने पूरा जीवन इस आंदोलन को धार देने में झोंक दिया था और आखिरी समय तक झोपड़ी में फटेहाल रहे, उन्होंने आखिर समय यह स्वीकार किया था कि आंदोलन अपने रास्ते पर नहीं है। दरअसल कानू आंदोलन के हिंसा की पराकाष्ठा तक पहुँच जाने से आक्रांत थे। नक्सल आंदोलन के बीज क्यों पड़े, इसका उद्देश्य क्या था और यह किस रास्ते पर चल पड़ा है इसका बहुत ही विश्लेषणात्मक विवेचन महाश्वेता देवी के साहित्य में मिलता है। आलोचक यहाँ तक मानते हैं कि भोजपुरी क्षेत्र में इसके प्रभाव का जितना जीवंत चित्रण उन्होंने किया है उतना वे साहित्यकार भी नहीं कर पाए हैं जो वहीं के हैं, वहीं के होकर रहे। समीक्ष्य पुस्तक ‘बेनीमाधव तिवारी की पतोह’ के लेखक मधुकर सिंह जैसे आलोचकों के इस निष्कर्ष को चुनौती देते हुए से लगते हैं। उन्होंने अपने इस दसवें उपन्यास में भोजपुरी क्षेत्र में नक्सलाइट मूवमेंट के जो सकारात्मक प्रभाव देखे उनको ही आधार बनाकर एक प्रभावशाली रचना की। जिसमें नक्सलाइट मूवमेंट के नकारात्मक पक्षों की तरफ नज़र डालने के बजाय इसका समाज पर सकारात्मक प्रभाव क्या पड़ा उन्होंने केवल इसी पर अपनी नज़र केंद्रित रखी। मधुकर यह स्थापित करना चाहते हैं कि नक्सलाइट मूवमेंट ने अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर न सही पर किसी हद तक रूढ़िवादिता, जातियों की बेड़ी को बहुत कमज़ोर करने का काम किया है। साथ ही शोषण, अन्याय, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लोगों में लामबंद होने की सोच, कूवत पैदा की है। उन्होंने पात्रों की कोई भीड़ इकट्ठा न करके गिने चुने पात्र लिए हैं और उन्हीं के कंधों पर रख कर अपनी बात पूरी की है। ठीक वैसे ही जैसे अवधी के उपन्यासकार भारतेंदु मिश्र ने अपने उपन्यास ‘नई रोसनी’ में किया है कि जन-आक्रोश को रेखांकित करने के लिए नायक निरहू, शोषक वर्ग के प्रतीक ठाकुर राम बकस सिंह, पंडित, रजोल जैसे कुछ पात्रों के ज़रिए बेहद सशक्त उपन्यास लिखा। उसकी पृष्ठभूमि काफी हद तक समीक्ष्य उपन्यास सी है। वह अवध क्षेत्र में घटता है तो यह भोजपुरी में। समीक्ष्य उपन्यास नायिका सुनंदा और उसके श्वसुर बेनीमाधव तिवारी के इर्दगिर्द ही चलता है। बाकी पात्र भुनेसर, हरिहर यादव, हरिकिशुनी, रंगीला सिंह इन दोनों से नत्थी हुए से चलते हैं।
बेनीमाधव रिटायरमेंट के बाद शहर से अपने गाँव चले आते हैं मय लावलश्कर अपने कई सपनों के साथ रहने के लिए। लेकिन बदले हालात उन्हें हिलाकर रख देते हैं। इस स्थिति में अपना अहम स्थान बनाने और अपने दुश्मन पर भारी पड़ने के चक्कर में गाँव की राजनीति में कूदने का मन बनाते हैं। यहीं से उनकी दिक्कतें शुरू होती हैं और साथ ही उनकी कट्टर ब्राह्मणवादी सोच, श्रेष्ठतम होने की सोच भी दरकनी शुरू हो जाती है। वह रंगीला सिंह के घोर अनैतिक कार्यों से भी आक्रांत हो गाँव को उससे मुक्ति दिलाने की ठान बैठते हैं। सपनों को पूरा करने के लिए वह जब साधन ढूँढते हैं तो उनकी नज़र हर तरफ से घूम फिर कर अपनी विधवा बहू पर टिकती है। जो गाँव में अकेली स्नातक है और अब अकेली जीवन काट रही थी, साथ के लिए उसका भाई आया हुआ था। बेनीमाधव योजनानुसार बहू को आंगनबाड़ी में प्रवेश कराते हैं तो अचानक अपने को फँसा हुआ महसूस करने लगते हैं कि उनकी बहू ब्राह्मण वर्ग की स्थापित मूल्य-मान्यताओं को दरकिनार कर ऐसे क़दम उठा सकती है जो उसकी नाक कटवा देंगे। लेकिन क़दम आगे बढ़ा चुके बेनी के पास लौटने का रास्ता नहीं बचता। अंततः हालात बहू को मुखिया बना देते हैं। इस काम में नक्सलाइट मूवमेंट से जुड़े लोग, प्रगतिवादी सोच के लोग और गाँव का पूरा शोषित वर्ग उसके साथ होता है।
असमंजस में फँसे बेनी की बहू सुनंदा अपने तर्कों से यह समझाने में सफल होती है कि जड़वादी सोच से बाहर आकर बदलते परिवेश को स्वीकारने, रूढ़ियों, जातिगत बंधनों को तोड़ने में ही समझदारी है, भलाई है। और जब बेनी की काया पलट होती है तो वह पूरी तरह से बहू, शोषितों के साथ संबल बन खड़े हो जाते हैं। इतना ही नहीं तहेदिल से विधवा बहू का अंतरजातीय पुनर्विवाह स्वीकार कर उसे आशीर्वाद देते हैं। सामंतवादी ताकतें बदलाव की इस बयार को बर्दाश्त नहीं कर पातीं और बेनी की हत्या कर देते हैं। मगर बदलाव की बयार रुकने के बजाय तेज़ हो जाती है और सामंतवादी ताकतों को नेस्तनाबूद कर देती है। उपन्यास में दर्ज़ यह सारी बातें इतने प्रभावशाली ढंग से दर्ज़ हैं कि पढ़ते हुए लगता है जैसे किसी सही घटना का ब्यौरा पढ़ रहे हैं। इस पूरे उपन्यास की चर्चा में यदि गोरख पांडे के गीत और एक कैरेक्टर जो कि मैना है उसकी चर्चा न हो तो गलत होगा। लेखक ने जहाँ गोरख पांडे के गीतों का प्रशंसनीय प्रयोग किया है वहीं मैना कई जगह हास्यास्पद लगने लगती है। पक्षी होकर जब वह रंगीला सिंह जैसे दुर्दांत बंदूकधारी को धराशायी कर देती है तो दृश्य बड़ा हास्यास्पद लगता है, किसी मुंबइया फ़िल्म की याद दिला देता है। उपन्यास शुरू से आखिर तक बेहद दिलचस्प होता यदि उसके समापन में लेखक ने जल्दबाज़ी न की होती। पता नहीं जल्दी का दबाव प्रकाशक का था या किसी और का। मगर इन सबके बावजूद एक आम पाठक के लिए बेहद दिलचस्प है यह कृति। साथ ही मधुकर सिंह की इस के लिए भी भरपूर प्रशंसा करनी होगी कि आज जब साहित्य में गाँव, खलिहान, दालान, उपले, रहट, पंच परमेश्वर, चौपाल, गाँववासी, गंवई माटी विस्मृत होते जा रहे हैं ऐसे में मधुकर ने उसे ही केंद्र में लाने की कोशिश की। यह ज़रूरी है क्योंकि लाख प्रगति और शहरों की ओर पलायन के बाद भी मुख्य भारत गाँव में ही बसता है। यदि उसकी आवाज़ अनसुनी की जाएगी तो नक्सलबाड़ी की चिंगारी और फैलती ही जाएगी।
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