रुख़्सार
कथा साहित्य | कहानी प्रदीप श्रीवास्तव1 Jun 2025 (अंक: 278, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
ख़ाविंद ने थानेदार की मुट्ठी गरम कर दी थी। उसी के इशारे पर थानेदार उसकी रिपोर्ट लिखने के बजाय उस पर दबाव डाल रहा था, धमका रहा था कि वह ख़ाविंद के ख़िलाफ़ रिपोर्ट न लिखवाए, उसकी बात मान ले, घर चली जाए। सास-ससुर सहित परिवार के बाक़ी दर्जन भर लोग भी यही कहकर दबाव डाल रहे थे कि घर की बात थाने क्यों ले आई, मर्द है ग़ुस्से में तलाक़ बोल दिया। चल घर चल, घर का मसला है, घर पर ही निपटा लेंगे।
सास उसे बार-बार थाने से बाहर खींचने की कोशिश कर रही थी। दाँत पीसती हुई कह रही थी, “देख ऐसी बेअक़्ली का काम न कर, अल्लाह का ख़ौफ़ खा, हमें अपने मर्दों की बात माननी ही होती है, हमें उनके ही नीचे रहना है, हम उनके ख़िलाफ़ जाएँगे तो यह अल्लाह त’आला की नाफ़रमानी होगी। मसले तो हर घर में, हर शौहर बेगम के दरमियान होते हैं।
“मामूली सी बात है, छोटे से हलाला के बाद तू फिर बड़े से निकाह कर अपने शौहर की बेगम बन जाएगी। ऐसे घर की बात घर में ही रहेगी। बाहर निकलोगी तो दर-दर की ठोकरें खानी पड़ेंगी, तीनों बच्चों का क्या होगा, कुछ तो सोच न।
“ज़िन्दगी यूँ ही तो कटेगी नहीं। किसी की तो होना ही पड़ेगा। मर्द सारे एक से ही होते हैं, तू यह न सोच कि कोई तेरी जूती उठाने वाला मिल जाएगा। बहुत धूप-छाँव देखी है मैंने। ऐसे ही नहीं कह रही हूँ। अरे समझती क्यों नहीं, न जाने कितनी औरतें हलाला करवा रहीं हैं, रोज़ न जाने कितनी होतीं हैं जिन्हें हलाला के लिए कहा जाता है तो क्या सब घर छोड़ कर चली जाती हैं, पुलिस में रिपोर्ट लिखाती फिरती हैं। देखती नहीं जो ऐसा करती हैं, कैसे उनपर अल्लाह का क़हर टूटता है, वो बेमौत मरती हैं। अरे ये मज़हब की रिवायत है, तू, मैं, कोई भी मज़हब से ऊपर थोड़े ही हो जाएगी।”
रुख़्सार को लगा सास अपने नाख़ूनों से न सही अपनी न रुक रही बातों से ज़रूर उसे नोचती जा रही हैं, और दाँत पीस-पीस कर उन घावों पर जैसे पिघला शीशा उड़ेल-उड़ेल कर उन्हें झुलसा भी रही हैं। उसके ज़हर बुझे एक-एक हर्फ़ नुकीली बर्छी से बार-बार दिल को ज़ख़्मी कर रहे हैं।
इन बर्छियों ने उसे इतना ज़ख़्मी न किया होता, बुरी तरह झकझोरा न होता तो शायद वह एक बार शौहर से सुलह करने की सोचती। कहती अगर तुम फिर साथ रखना चाहते हो तो हलाला के लिए बिलकुल मत कहना, कोई और रास्ता निकाल सकते हो तो निकालो, मैं तीन-तीन बच्चों को पैदा करने के बाद अब शर्मोहया, ग़ैरत को छोड़कर किसी ग़ैर मर्द से हलाला के नाम पर ख़ुद को नुचवाने हमबिस्तरी के लिए हरगिज़ तैयार नहीं होऊँगी।
निकाह बचाना है तो तुम्हीं रास्ता निकालो, क्योंकि तोड़ा तुम्हीं ने हमने नहीं। ग़लती तुमने की और अपनी इज़्ज़त मैं बेचूँ, सज़ा मैं भुगतूँ, अब यह नहीं होगा। तुम लोगों ने पहले दहेज़ के लिए बरसों मुझे मारा-पीटा, मेरे घर वालों को बेइज़्ज़त किया, पैसे, गाड़ी लेकर ही माने। मैं पसमांदा हूँ तुम लोग ऊँचे सैयद इस बात पर ही रोज़ ज़लील करते हो, अब मैं और ज़लालत, ज़ुल्म एकदम बरदाश्त नहीं करूँगी।
वह इस बात से ही एकदम तड़प उठती है, ख़ून उसका खौल उठता है कि जिस निकाह को तोड़ा शौहर ने उसे बचाने के लिए उसे किसी ग़ैर मर्द, मुल्ला मौलवी या शौहर के अब्बू या भाइयों में से किसी के पास जाना होगा, उनसे निकाह कर, अपनी शर्मोहया, ग़ैरत को जूती तले रौंद कर उसके साथ हमबिस्तरी करनी होगी। यह उसकी मर्ज़ी जब तक चाहे करता रहेगा . . . हालात की कल्पना से ही उसकी रूह काँप उठती है।
उसे समझ में यह भी आ गया था कि वह चाहे जितना चीख चिल्ला ले, लेकिन नोटों की गर्मी से शोला बना थानेदार रिपोर्ट तो नहीं ही लिखेगा, उलटा उसे ही कोई ऊल-जलूल इल्ज़ाम लगा कर बंद कर देगा।
. . . तो क्या मैं इन सब के साथ जाकर क़यामत से पहले ही दोज़ख में जलूँ, जबकि मैंने कोई गुनाह किया ही नहीं। नहीं मैं यह ज़ुल्म क़तई बरदाश्त नहीं कर पाऊँगी, किसी मक्कार, किसी हवस के मुल्ला का शिकार बनना, उसकी हवस का खिलौना बनना मुझे बरदाश्त नहीं, अब यह नामुमकिन है, मेरे लिए किसी गुनाह से बढ़ कर होगा।
मन में यह तय करते ही वह उन सब की बात मानने, ससुराल वापस जाने का ड्रामा करते हुए थाने से बाहर निकली। उसको घेरे हुए साथ-साथ देवर और भतीजा भी था। लेकिन वह उन दोनों को चकमा देकर निकल दी मायके जाने के लिए। उसने तय कर लिया था कि वह मायके अपनी अम्मी, अब्बू के पास पहुँच कर, उन्हें, भाइयों को साथ लेकर थाने जाएगी, वहाँ रिपोर्ट लिखवाएगी। उसके साथ बरसों से जो ज़्यादतियाँ की गईं, जो ज़ुल्म ढाए गए वह सब बताएगी। इन सब जाहिलों, दरिंदों को जेल भिजवाए बिना चैन से नहीं बैठेगी।
अम्मी, अब्बू, भाइयों को बताएगी कि इनकी हिमाक़त तो देखिए कि क़ानून बना हुआ है कि तलाक़ ए बिद्दत नहीं दे सकते। ऐसा गुनाह किया तो तीन साल की सज़ा हो जाएगी। लेकिन फिर भी तलाक़ ए बिद्दत दिया। इन सब की मग़रूरई तो देखिए, कहते हैं कि ऐसे क़ानून मेरे जूते तले। कैसा क़ानून, कहाँ का क़ानून। हमारा अपना क़ानून है, हम अपने इस्लामी क़ानून शरिया के आगे कुछ भी नहीं मानते।
कहूँगी चाहे जैसे भी हो थाने में रिपोर्ट दर्ज करानी ही करानी है। इन्हें सबक़ सिखाए बिना छोड़ना नहीं है। तुम लोग परेशान न हो इसलिए यह सारे मग़रूर मुझ पर बीते आठ-नौ वर्षों से कितने ज़ुल्मो-सितम करते आ रहे हैं उसका ज़िक्र करने की हिम्मत ही नहीं कर सकी।
सारे ज़ुल्मो-सितम अकेली ही सहती रही, मार खाती रही, ज़लील होती रही। कमीने ऐसा ज़ालिमों की तरह मारते हैं कि दो बार मेरा हाथ टूट गया, खोपड़ी तो न जाने कितनी बार फटी, ख़ून से बार-बार भीगती रही, मगर इन ज़ालिमों को कभी मुझ पर रहम न आया।
कई-कई दिन बिना खाना-पानी के कमरे में बंद कर देते हैं। खोलने पर भी खाना तभी देते हैं जब घर भर का काम करवा लेते हैं। ये शौहर नाम का बे-ग़ैरत इंसान मुझे बच्चों के सामने भी मारता है, कपड़े नोंच फाड़ देता है। मैं बेपर्दा हो जाती हूँ, शर्म से ज़मीन में गड़ जाती हूँ, और यह बेशर्म इंसान जब बच्चे रोने लगते तो उन्हें भी मारता है।
मन में बरसों का ग़ुबार, ग़ुस्सा भरे रुख़्सार बच बचाकर मायके जाने वाली एक बस में सवार हो गई। सड़क ही नहीं बस स्टेशन और बस में भी उसे छिटपुट लोग ही दिखाई दिए। वह एकदम पीछे वाली सीट पर कोने में खिड़की के पास बैठी। अपने समय पर जब बस चली तो बस की आधी सीटें भी नहीं भरी थीं।
बेइंतेहा गर्मी के चलते लोग कोई मजबूरी होने पर ही घर से बाहर निकल रहे थे। वह भी ज़ुल्म की इंतेहा होने पर ही निकली थी, नहीं ऐसी गर्मी में वह कभी घर से बाहर न निकलती। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे आसमान से अंगारे बरस रहे हैं। बस में दो उम्रदराज़ भगवाधारी संत भी बैठे थे। कंधे से नीचे लटकते उनके बड़े-बड़े सफ़ेद बाल, छाती तक लटकती उनकी दाढ़ी बस में उन्हें एकदम अलग ही दिखा रहे थे।
बस चलते ही आगे बैठे लोगों में भीषण गर्मी को ही लेकर चर्चा शुरू हो गई। एक ने व्यंग्य करते हुए कहा, “और काटो पेड़, और विकास करो, अभी क्या अभी तो और अंगारे बरसेंगे, सब भस्म हो जाएगा। सारा विकास धरा रह जाएगा।” जैसे-जैसे बस की स्पीड बढ़ी वैसे-वैसे कई और चर्चा में कूद पड़े।
एक ने संतों को भी चर्चा में खींचते हुए पूछा, “महात्मा जी की यात्रा कहाँ को जा रहे हैं?”
संत ने कहा, “बेटा प्रभु राम दर्शन की इच्छा लिए अयोध्या जी के लिए प्रस्थान है।”
“महात्मा जी इतनी गर्मी में।”
महात्मा हल्का मुस्कुराते हुए बोले, “बेटा संत महात्माओं के लिए क्या ग्रीष्म, क्या शीत, क्या बारिश सब एक समान है। प्रभु की जैसी इच्छा होती है, वैसा ही होता है।”
“जी हाँ, यह तो आप सही कह रहे हैं। लेकिन गर्मी ऐसे कब तक पड़ेगी?”
“हाँ ऐसे में यही प्रश्न उठता है, इसका उत्तर महाराज जी देंगे।”
बाबा ने अपने बग़ल में बैठे अपने से ज़्यादा उम्रदराज़ बाबा की ओर संकेत किया तो उस व्यक्ति ने उनसे भी वही प्रश्न दोहरा दिया। अब तक शांत बैठे बाबा ने प्रश्न सुनकर बहुत गंभीर स्वर में कहा, “प्रकृति हमसे कुपित है। यह गर्मी उसी का संकेत है। भविष्य बड़ा भयावह है। उसकी चेतावनी भी। प्रकृति पर नियंत्रण का मानव प्रयास उसे अवश्यंभावी प्रलय की ओर धकेल चुका है। अभी संक्षेप में यही समझ में आता है कि रोहिणी नक्षत्र चल रहा है। यह पंद्रह दिन रहेगा। इसमें प्रारंभिक नौ दिन नौतपा माना गया है। इन नौ दिनों में भीषण गर्मी पड़ेगी। आज नौतपा का पाँचवाँ दिन है . . .”
धूप से तपती खिड़की के पास बैठी, यह सब सुन रही रुख़्सार मन ही मन बोली, “या अल्लाह रहम कर, अब बस भी कर। और कितना शोलों में जलाएगा।”
रुख़्सार भूख प्यास से परेशान थी। हलक़ सूख रहा था। भूख से आँतों में मरोड़-सी हो रही थी। बीते चौबीस घंटों से उसे खाने का एक निवाला भी नहीं मिला था। पसीने से पूरा बदन गीला हो रहा था। कपड़े ऐसे भीग गए थे जैसे ख़ूब नहाने के बाद बदन बिना पोंछे ही वे पहन लिए गए हों।
बस में सारी खिड़कियाँ बंद थीं कि गर्म हवा अंदर न आने पाए। लेकिन उसे ऐसा लग रहा था जैसे हर तरफ़ आग लगी हुई है और वह बीच में बैठी झुलसती जा रही है। उसे हाथ-पैरों में सनसनाहट महसूस हो रही थी। उसे लगा कि यह गर्मी अम्मी के पास पहुँचने से पहले ही उसकी जान ही ले लेगी। अभी इतनी दूर जाना है। एक बूँद पानी तक नहीं है।
ऐसी गर्मी पहले कभी नहीं देखी, ऊपर से यह कुंतल भर का बुर्क़ा और जान की आफ़त बना हुआ है। यह तो घर पहुँचने से पहले ही मेरा कफ़न बन जाएगा।
रुख़्सार जितनी ज़्यादा कोशिश कर रही थी ख़ुद को सँभालने की, उसे अपनी तबियत उतनी ही ज़्यादा ख़राब होती महसूस हो रही थी। आँखों को चुँधिया देने वाली धूप में भी उसे अँधेरा सा होता महसूस हो रहा था। घुटन भी। वह घबरा उठी कि अगर उसकी तबीयत ज़्यादा ख़राब हो गई तो कौन उसकी मदद करेगा? बस में एक भी महिला मुसाफ़िर नहीं है।
बाहर की हवा से कुछ राहत मिलेगी यह सोचकर उसने खिड़की थोड़ी सी खोली ही थी कि पल भर में बदन को झुलसा देने वाली हवा के तेज़ झोंको ने उसे हिला कर रख दिया। उसने तुरंत खिड़की बंद कर दी। वह एकदम व्याकुल हो उठी, उसे महसूस हुआ कि अगर तुरंत बुर्क़ा उतार न दिया तो वह बेहोश हो जाएगी।
बस में वह अकेली है, क़रीब दर्जन भर से ज़्यादा मर्द हैं, यह सब सोचे बिना हाँफते हुए उसने जल्दी-जल्दी बटन खोले, उतार कर बुर्क़ा बग़ल में रख लिया। वह ख़ाली हाथ थी। कोई बैग वग़ैरह कुछ भी तो उसके पास नहीं था।
जी को हलकान करती गर्मी और तलाक़, हलाला, ससुरालियों की धमकियाँ, पकड़े जाने का डर एक साथ इतनी बातों का दबाव जैसे कम था कि अचानक ही कंडक्टर की टिकट-टिकट की आवाज़ तीखी सुइयों सी उसके कानों में भीतर तक चुभती चली गई।
वह सिहर उठी, पैसे के नाम पर उसके पास एक रुपया भी नहीं था। अब इस भयानक गर्मी में वह ज़लील करके बस से नीचे उतार दी जाएगी, वह सब ढूँढ़ रहे होंगे, पकड़ कर फिर बहुत मारेंगे, हलाला के लिए घर के किसी मर्द या फिर किसी पेशेवर हलाला मौलवी के सामने डाल देंगे . . . इतने तनाव को झेल पाने की क़ूवत उसमें नहीं थी और वह सीट से नीचे लुढ़क गई।
जब उसकी आँखें खुलीं तो स्वयं को किसी अस्पताल के बेड पर पा कर वह सहम गई। उसने उठने की कोशिश की तो दाहिने हाथ में काफ़ी दर्द महसूस किया। निगाहें उधर कीं तो देखा हाथ में वीगो लगा हुआ था, साइड में लगे स्टैंड पर लटकती बोतल से उसे दवा चढ़ाई जा रही थी। उठ कर बैठने में उसे बहुत ताक़त लगानी पड़ी। उसे बहुत ज़्यादा कमज़ोरी थकान महसूस हो रही थी। वह हैरत में पड़ गई कि वह अस्पताल में कैसे पहुँच गई।
क्षण भर में उसे बस का पूरा वाक़या याद आ गया। वह घबरा उठी कि उसे यहाँ कौन ले आया? नज़र कपड़ों पर गई तो वह एक बार फिर सिहर उठी। वह काँपने लगी, होंठ फड़कने लगे, वह बुदबुदाई, “या अल्लाह मुझे क्या हो गया? मैं यहाँ कैसे आ गई? मेरे कपड़े किसने बदल दिए? क्या मैं उन ज़ालिमों के हाथों पड़ गई, वही मुझे यहाँ ले आए हैं, ठीक होते ही मुझे जीते जी ही फिर अपने यहाँ दोज़ख में ले जाकर मेरा हलाला करवाएँगे . . .”
वह सिसकती हुई बुदबुदाई, “या अल्लाह मुझे उठा क्यों नहीं लेता? मैं अब और ज़ुल्म, और ज़लालत बरदाश्त नहीं कर सकती। जिसने भी मेरे कपड़े बदले होंगे उसकी नज़रों के सामने बिलकुल बेपर्दा रही होऊँगी, उसने मुझे न जाने कहाँ कहाँ छुआ होगा . . . नहीं . . . नहीं अल्लाह त’आला नहीं . . . बाएँ हाथ से मुँह ढँक कर वह रोने लगी। रोती हुई ही फिर बुदबुदाई, “या अल्लाह रहम कर मुझ पर, यदि उन ज़ालिमों ने मुझे पकड़ लिया है तो मुझे मुआफ़ करना मैं यहीं ख़ुदकुशी कर लूँगी। मेरे लिए उस दोज़ख में जाने से हज़ार गुना ज़्यादा सुकूनकारी होगी मौत।”
अचानक ही कुछ सोच कर उसने जल्दी से आँसू पोंछ कर इधर-उधर नज़र घुमाई तो उसे अपने अलावा तीन-चार और मरीज़ दिखाई दिए जो अपने-अपने बेड पर सो रहे थे। वहाँ आमने-सामने क़रीब दर्जन भर बेड पड़े हुए थे। वह किसी क़स्बाई हॉस्पिटल का जनरल वार्ड लग रहा था। दो बड़ी-बड़ी खिड़कियों पर कूलर लगे हुए थे। जिनसे आती ठंडी हवा काफ़ी राहत दे रही थी। दरवाज़े पर नीले रंग का मोटा पर्दा पड़ा हुआ था।
उसने उधर नज़र की ही थी कि एक बेहद दुबली पतली, मध्यम क़द वाली, आसमानी ड्रेस पहने, बड़ी फ़ुर्तीली सी नर्स तेज़ क़दमों से आती हुई दिखाई दी। वह एकदम उतावली हो उठी। नर्स चार क़दम दूर ही थी कि उसने पूछ ही लिया, “मुझे क्या हुआ है?”
नर्स उसकी तरह उतावली नहीं थी, स्टैंड पर लगी बोतल को चेक करते हुए बड़े इत्मीनान से कहा, “आपको लू लग गई है, डिहाइड्रेशन के कारण बेहोश हो गई थीं। आपको काफ़ी सीरियस कंडीशन में आपके साथ जर्नी कर रहे दो लोग लेकर आए। आप कौन हैं, कहाँ से हैं वो यह भी नहीं बता सके।”
नर्स की बातें रुख़्सार को शीतल बयार सी सुकूनकारी लगीं। उसे बड़ी राहत महसूस हुई कि ज़ालिम ससुराल वाले अभी तक उसकी साया भी नहीं देख पाए हैं। वह उत्साहित हो उठी, अपने अनजान मददगारों से मिलने को मचल उठी। लेकिन उससे पहले यह पूछ लिया कि उसके कपड़े किसने बदले? नर्स ने जो बताया उससे उसे बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई, बात बदलने की ग़रज़ से उससे तुरंत पूछा, “जो लोग मुझे ले आए, वो कहाँ हैं?”
नर्स ने कोई उत्तर देने के बजाय दोनों लोगों को उसके पास भेज दिया। एक अधेड़ व्यक्ति एक युवक संग आया। क़रीब पचीस वर्षीय युवक ने जींस और शर्ट पहन रखी थी। अधेड़ व्यक्ति ने पैंट शर्ट। देखने में दोनों नौकरीपेशा लग रहे थे। रुख़्सार उन्हें देखकर बड़े असमंजस में पड़ गई कि इन अनजान मददगारों से क्या पूछे, कैसे बात शुरू करे? वह कुछ तय कर पाती कि उसके पहले ही अधेड़ व्यक्ति ने पूछा लिया, “अब आपकी तबियत कैसी है?”
रुख़्सार थरथराती आवाज़ में बोली, “जी अब मैं ठीक हूँ। आप लोग मुझे यहाँ ले आए, मेरी जान बचाई, इसके लिए तहेदिल से आप दोनों लोगों को शुक्रिया अदा करती हूँ।”
कहते हुए उसने हाथ जोड़ने की कोशिश की लेकिन वीगो लगा होने के कारण जोड़ नहीं सकी। अधेड़ व्यक्ति ने बड़ी शालीनता से कहा, “शुक्रिया वाली कोई बात नहीं है। गर्मी के कारण आप बेहोश होकर बस में सीट से नीचे गिर गई थीं। चेहरे पर पानी वग़ैरह भी डाला लेकिन जब आपको होश नहीं आया तो सभी घबरा गए थे। कोई दूसरी लेडी पैसेंजर भी नहीं थी, जिससे आपकी हेल्प करने में बड़ी मुश्किल हो रही थी। कोई समस्या न खड़ी हो जाए इस डर से ड्राइवर, कंडक्टर सड़क किनारे कहीं आपको उतार कर आगे चल देना चाहते थे। मुझे लगा कि ऐसी चिलचिलाती धूप में नीचे सड़क पर तो आप एक मिनट भी नहीं बच पाएँगी। मैंने सोचा आपका जीवन बचाना ज़्यादा ज़रूरी है, बाक़ी काम तो होते रहेंगे। जो होगा देख लेंगे। बहुत कहने-सुनने पर भी जब वह नहीं मान रहे थे तो मैंने कहा, मैं ज़िम्मेदारी लेता हूँ। उनको किराए के पैसे दिए, तब आपको यहाँ अस्पताल तक ला पाया। ईश्वर की बड़ी कृपा रही, आप बच गईं।”
यह सुनते-सुनते रुख़्सार की आँखें भर आईं, होंठ फड़कने लगे तो उस अधेड़ व्यक्ति ने कहा, “आप परेशान मत होइए। आप बिल्कुल ठीक हैं। कल सुबह आपको यहाँ से डिस्चार्ज कर दिया जाएगा। आप अपने घर सूचना देना चाहें तो मैं मोबाइल देता हूँ, बात कर लीजिए।”
यह सुनते ही रुख़्सार फूट-फूट कर रोने लगी। अधेड़ व्यक्ति ने हालात को कुछ-कुछ समझते हुए कहा, “आप रोइये नहीं। हम आपकी स्थिति समझ रहे हैं। आपको हम घर तक छोड़ देंगे। आज रात हम यहीं रुक जाएँगे। और हाँ, हमें बस में आपका कोई सामान नहीं मिला, एक कपड़ा था वह वहाँ उस सफ़ेद पॉलिथीन में है।”
उसने बेड के एक कोने में स्टूल पर रखी पॉलिथीन की ओर इशारा करते हुए कहा। रुख़्सार ने एक नज़र उधर डाली तो देखा पॉलिथीन के एक तरफ़ से उसके बुर्क़े का एक छोटा हिस्सा झाँक रहा था। उसने रोते हुए ही कहा, “बस यही था।”
अधेड़ ने उसे फिर समझाते हुए कहा, “आप शांत हो जाइए, सब ठीक हो जाएगा। हमसे जो हो सकेगा हम वह ज़रूर करेंगे। आप मुझ पर पूरा विश्वास कर सकती हैं। यह मेरा बेटा उत्कर्ष है। हम अपने बिज़नेस के सिलसिले में कहीं गए थे, वहाँ से अपने घर वापस जा रहे थे। आपकी हालत देखी तो रुक गए।”
उसने बड़ी आत्मीयता से कहा लेकिन फिर भी रुख़्सार अपनी रुलाई रोक नहीं पा रही थी। वह अधेड़ व्यक्ति अपने बेटे के साथ उसके लिए रुके यह सुनकर उसने सोचा कि एक यह बाप-बेटे हैं, अपना काम-धंधा छोड़ कर मुझ अनजान को हॉस्पिटल ले आए। पैसा ख़र्च कर रहे हैं, गर्मी में बाहर बरामदे वग़ैरह में पड़े हुए हैं। और एक हमारा परिवार है। लेकिन नहीं, अब तो मेरा कोई परिवार ही नहीं है . . . वह जितना सोचती, उतना ही ज़्यादा भावुक होती, रोती।
अगले दिन दोपहर तक जब वह डिस्चार्ज की गई तब भी उसकी हालत कुछ ख़ास अच्छी नहीं थी। वह अकेले ही घर जा पाने की स्थिति में नहीं थी, हिम्मत भी नहीं कर पा रही थी, मन ही मन सोच रही थी कि यह बाप-बेटे घर छोड़ देते तो बड़ा अच्छा था। अम्मी से कह कर इनको इनका जो भी पैसा मेरे इलाज में ख़र्च हुआ है वह दिलवा दूँगी। यह सोचती हुई वह ऊपर-ऊपर दबी ज़बान में बोली, “मैं अकेली चली जाऊँगी।”
लेकिन अनुभवी अधेड़ व्यक्ति उसकी आवाज़ से ही वास्तविकता को समझते हुए बोला, “आप परेशान न होइए, हम घर छोड़ देंगे।”
बाप बेटे संग जब वह घर पहुँची तो शाम हो चुकी थी। दरवाज़ा उसके अब्बू ने खोला। अम्मी उन्हीं के पीछे थीं। रुख़्सार को बीमार, कमज़ोर, बड़ी अजीब सी अस्त-व्यस्त हालत में दो अनजान मर्दों के साथ देखकर, उसकी अम्मी अब्बू हैरानी से उसे देखते ही रह गए। वह कुछ बोलते कि उसके पहले ही रुख़्सार ‘अम्मी’ कहती हुई उनसे लिपटकर रोने लगी।
हैरान परेशान अब्बू कभी उसे तो कभी उन दोनों अनजान लोगों को सवालिया निगाहों से देखते। अम्मी उसे लेकर अंदर चली गई। अब्बू, अम्मी दोनों उसके एक हाथ में छोटी सी पॉलिथीन में ठूँस कर रखे गए बुर्क़े को देख कर किसी अनहोनी की आशंका से घबरा उठे।
उस अनजान अधेड़ व्यक्ति ने भी अपना काम पूरा हुआ देख उसके अब्बू से कहा, “अब हम भी चलते हैं . . .”
यह सुनकर वह जैसे जागे, दोनों को लेकर अंदर आए। उनके मन में यह चल रहा था कि जब यह रुख़्सार को लेकर आए हैं तो इन्हें यह पता होगा कि मसला क्या है? इनसे बात करना ज़रूरी है। उन्होंने दोनों बाप-बेटे को बैठक में बैठाया, बात की, माजरा क्या है पूछा, उन्होंने जो कुछ बताया उसे सुनकर उन्हें लगा यह सफ़र के साथी हैं, मददगार स्वभाव के हैं। इंसानियत के नाते अपना काम छोड़कर रुख़्सार का इलाज करवाया, घर भी ले आए, अस्पताल में पता नहीं इनका कितना पैसा ख़र्च हुआ है। मगर रुख़्सार की जो हालत है उससे तो माजरा कुछ और लगता है। वह बिना बुर्क़ा पहने बेपर्दा आई है, बुर्क़ा पॉलिथीन में है, एकदम नए कपड़े पहने है, उसका ऐसे रोना यह सब कुछ और ही कहानी बता रहे हैं।
उनका मन गुत्थियाँ समझने का प्रयास कर रहा था, कि तभी बाप बेटे बोले, “अब हमें चलने दीजिए नहीं तो बहुत देर हो जाएगी। घर जाने के लिए कोई साधन भी नहीं मिल पाएगा।”
रुख़्सार के अब्बू ने सोचा ऐसी हालत में इनसे चाय के लिए भी नहीं कह सकता। बड़े संकोच में कहा, “आपने हमारी लड़की की मदद की, उसका इलाज कराया, इसके लिए हम आपके तहेदिल से शुक्रगुज़ार हैं। आपके कितने पैसे लगे यह आपने बताया ही नहीं।”
यह सुनकर अधेड़ व्यक्ति ने कहा, “पैसों की कोई बात नहीं है, हमने अपना कर्त्तव्य पूरा किया। अब हमें अनुमति दीजिए हम चलते हैं।”
रुख़्सार के अब्बू ने यह सुनते ही दाहिना हाथ अपनी ठुड्डी तक उठा कर ऐसे सलाम किया जैसे कह रहे हों जाइये, जल्दी जाइये हमें भी इजाज़त दीजिये। दरअसल रुख़्सार के साथ क्या हुआ उनका मन यह जानने के लिए व्याकुल हो रहा था। बाप बेटे के जाते ही उन्होंने जल्दी से दरवाज़ा बंद किया, लपक कर अंदर रुख़्सार के पास पहुँचे।
वह अब भी अम्मी से लिपट कर रो रही थी। तीनों लड़कों की बेगमें और उनके बच्चे भी आ गए थे। बच्चों को देखकर उन्हें रुख़्सार के बच्चों की याद आई। वह भयभीत हुए कि रुख़्सार के बच्चे कहाँ हैं? उन्होंने पूछा तो रुख़्सार ने रोते हुए सिलसिलेवार जो बातें बतानी शुरू कीं, उसे सुनकर पूरे घर में नीम सन्नाटा छाता चला गया। जिसे अकेले ही रुख़्सार की सिसकियाँ, बोलने की आवाज़ चुनौती दे रही थीं।
बच्चों को दूसरे कमरे में भेज दिया गया। मसले का हल निकालने के लिए अब्बू, अम्मी रुख़्सार को लेकर अपने कमरे में चले गए। वह यह महसूस कर रहे थे कि रुख़्सार अपनी भाभियों, भाइयों के समक्ष कुछ क्या बहुत संकोच कर रही है। दूसरे भाई लोग कुछ बातें ही सुनने के बाद उसे बड़ी हिक़ारत भरी नज़रों से देखने लगे थे।
अलग पहुँच कर रुख़्सार ने तफ़सील से जो बातें बताईं उससे उन लोगों के होश उड़ गए। बड़ी देर तक बातें होती रहीं, रुख़्सार उसकी अम्मी के आँसू भी बहते रहे। और अब्बू की कभी नम होतीं, कभी वीरान हवेली सी सूनी।
ग़म कुछ इस क़द्र हावी हुआ कि रुख़्सार भूल गई कि उसे तीन दिन से खाना नसीब नहीं हुआ है, भूख से आँतें उससे कहीं ज़्यादा हलक़ान हैं, वह तो हॉस्पिटल में जो ग्लूकोज़ चढ़ाया गया था उससे थोड़ी ताक़त बनी हुई थी, नहीं तो अब तक तो बेहोश ही हो जाती।
बेटी की दिल को रुला देने वाली बातों के चलते उसके अब्बू, अम्मी यह भूल से गए कि बेटी बीमार है, कई दिन से उसे खाना भी नसीब नहीं हुआ है। उससे पहले यह कहते कि रुख़्सार पहले तू कुछ खा पी ले फिर बात करते हैं, मसले का कुछ हल निकालते हैं।
बड़ी देर बाद जब सूखते हलक़, भूखी आँतों ने साथ देने से मना कर दिया, दवाओं की ताक़त ने भी जवाब दे दिया तब रुख़्सार अम्मी से सिसकती हुई बोली, “अम्मी मुझे जल्दी कुछ खाने को दो, कई दिनों से खाने का एक निवाला भी नसीब नहीं हुआ है, भूख से पेट में ऐंठन हो रही है . . .”
“अरे हाँ, या अल्लाह मैं इतनी देर से सब कुछ सुन रही हूँ लेकिन इतनी बात दिमाग़ में नहीं आई कि उन मग़रूर शैतानों ने तुम्हारा खाना-पीना भी बंद किया हुआ है, कई दिनों से भूखा रखा है, तबीयत अलग ख़राब है . . .”
वह उठीं और कमरे से बाहर निकलते-निकलते लड़कों की बेगमों के लिए बोल गईं कि, “इन सब की अक़्ल पर भी पत्थर पड़ गया है क्या जो इतनी देर हो गई लेकिन नाश्ता तक लेकर ना आ सकीं।”
रुख़्सार से बैठा नहीं गया, उसे कमरा घूमता हुआ सा लगा तो वह अम्मी के बिस्तर पर ही एक तरफ़ लुढ़क गई। उसके अब्बा सामने एक कुर्सी पर दोनों हाथों से सिर पकड़े बैठे रहे।
उनकी आँखों के सामने वह रील चल रही थी जब इस घर में भी हलाला का एक दौर हुआ था . . . आज भी बेगम उस वाक़ये को भूल नहीं पाई है। मौक़े बे-मौक़े पर भाईजान के लिए यह कहना नहीं भूलती कि ‘मुझे वह आज भी शैतान ही दीखते हैं, और त क़यामत शैतान ही दिखेंगे, तुम भी उस शैतान के बहकावे में आकर मुझ पर बेइंतिहा ज़ुल्म ढाते रहे।’
इतनी उम्र बीत गई लेकिन फिर भी समाचारों या कहीं भी हलाला हर्फ़ सुनते ही बुरी तरह सिहर उठती है, किसी कसाई की छूरी देखकर काँपते मेमने की मानिंद थरथरा उठती है। आज भी तब की दहशत इतनी है कि शैतान वाली बात कहने के बाद मुँह से एक शब्द नहीं निकाल पाती। बहते आँसू, फड़कते होंठ, उसके दिल की हालत बयाँ कर देते हैं।
मैं भी उस समय इसे कितना मारता-पीटता था, हमेशा गाली-गलौज करता रहता था, फिर उस दिन एक झटके में तलाक़ तलाक़ तलाक़ कहकर इसे राह पर खड़ी बेसहारा औरत बना दिया था, जिस दिन निहारी (सामान्यतः सुबह सुबह नाश्ते में खाया जाने वाला बहुत धीमी आँच में पका हुआ गोश्त) में नमक डालना भूल गई थी, और तीन महीने की रुख़्सार इसकी गोद में थी।
और आज इतने बरसों बाद रुख़्सार बग़ावत कर शौहर को छोड़ आई, लेकिन हलाला के लिए तैयार ही नहीं हुई, बल्कि उसे, पूरे परिवार को जेल भिजवाने पर तुली हुई है। मगर इसकी अम्मी ने हलक़ से आवाज़ तक नहीं निकलने दी थी, बस दिनभर हिचकियाँ लेती रही, रोती रही। भूखी, प्यासी, काँपती, सहमति, जो जो अम्मी ने कहा बिना किसी हील-हुज्जत के करती रही।
मुझ पर भी कैसा शैतान सवार था कि तीनों लड़के बड़े हो गए थे और मैं बेगम को तलाक़ देकर ख़ुशी-ख़ुशी उसका हलाला करवा रहा था। अपने ही भाई जान, उसके जेठ से। जिससे घर की बात घर में ही रहे बाहर किसी को ख़बर न हो। जिस भाई जान को मैं निहायत शरीफ़ इंसान समझता था वह शैतान से भी बड़ा शैतान निकला था। फरीदा को ऐसे रौंद रहा था जैसे वह बाज़ारू औरत से भी बत्तर माल ए ग़नीमत हो।
कितने झगड़े-फ़साद हुए तब भी तलाक़ देने में तीन महीने लगा दिए थे। इतने दिनों तक बेगम दोज़ख की आग में जलती रही। उसे दोज़ख न कहूँ तो और क्या कहूँ। अल्लाह त’आला का लाख-लाख शुक्र है कि उन्होंने मुझे जल्दी अक़्ल अता फ़रमाई और मैंने सारा ज़ोर लगाकर कमज़र्फ भाई जान से पहले से तय शर्त के मुताबिक़ फ़रीदा को तलाक़ दिलवाया, निकाह कर उसे फिर से बेगम बना लिया।
सूरज लाला सही ही कहता है, “हाफ़िज़ जी स्वर्ग नरक सब यहीं है, सब किए धरे का हिसाब-किताब यहीं इसी जन्म में हो जाता है। ऊपर कहीं कुछ नहीं है, सब छलावा है छलावा।” जो ज़ुल्मो-सितम मैंने बेगम पर किया वही मेरी बेटी रुख़्सार के साथ हो रहा है। या अल्लाह या अल्लाह मुझे मुआफ़ कर, रहम कर, रहम कर, मुझे बख़्श दे, मेरी रुख़्सार को बख़्श दे।
यह बुदबुदाते हुए उन्होंने दोनों हाथों से अपने चेहरे को ढँक लिया। इसी बीच बेटी रुख़्सार के लिए उसकी अम्मी को किचन में खाने को जो मिला वही लेकर आ गईं। उसे अपने हाथों से दो चम्मच बिरयानी खिलाई ही थी कि रुख़्सार को उबकाई सी आने लगी। वह आगे एक दाना भी नहीं खा सकी। देखते-देखते उसकी तबियत एकदम से ख़राब होती गई, इतनी कि उसे फिर से अस्पताल में एडमिट करना पड़ा।
दरअसल सरकारी अस्पताल में रुख़्सार की ज़िद पर ही उसका पूरा इलाज किए बिना ही उसे डिस्चार्ज कर दिया गया था। उसे अस्पताल में दोबारा एडमिट हुए एक दिन ही बीता था कि उसका ख़ाविंद अपने कुछ साथियों के साथ उसके घर पहुँच गया। उसे ज़बरदस्ती अपने घर ले जाने के लिए वह दबंगई गुंडई दिखाने लगा।
रुख़्सार के अब्बू, भाइयों ने उन्हें समझाया कि उसकी तबीयत अभी ख़राब है, ठीक हो जाएगी तो हम उसे ख़ुद ही ले आएँगे, उसका घर तो ससुराल ही है न, हम थोड़े ही न उसे रख पाएँगे। लेकिन उन सबको यक़ीन नहीं हो रहा था कि रुख़्सार के घर वाले सच बोल रहे हैं।
उन सब ने रुख़्सार से तुरंत मिलने की ज़िद करते हुए कहा कि, “वह घर में है या हॉस्पिटल में हमें साफ़-साफ़ बताइए। हम उसे देखेंगे, अगर उसकी तबीयत ख़राब है तो हम उसका इलाज वहीं करवाएँगे।” उनकी ज़िद दबंगई के आगे मजबूर होकर रुख़्सार के घर वालों को मानना पड़ा। वह सब हॉस्पिटल पहुँच गए। वहाँ उसके घर वालों को दरकिनार कर हॉस्पिटल स्टाफ़ से ही भिड़ गए कि रुख़्सार को अभी का अभी डिस्चार्ज करो हम उसे अपने शहर ले जाएँगे।
उनकी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि रुख़्सार ने बड़ी सख़्ती के साथ मना कर दिया। उसने डॉक्टर से सीधे-सीधे कह दिया कि, “यह लोग यहाँ से ले जाकर मेरी रास्ते में ही हत्या कर देंगे। मैं कोई बच्ची नहीं हूँ, मैं जहाँ चाहूँगी वहीं रहूँगी।” उसके यह कहते ही पलक झपकते ही विवाद एकदम से भड़क उठा, इतना ज़्यादा कि अस्पताल प्रशासन ने पुलिस बुला ली। अंततः बड़े विवाद के बाद रुख़्सार के ख़ाविंद को ख़ाली हाथ जाना पड़ा।
रुख़्सार ने उनके जाते समय ही पुरज़ोर आवाज़ में कहा, “इस ख़्वाब में ना रहना कि मैं उस दोज़ख में दोबारा आऊँगी, मैं तुम सबको जब तक जेल ना पहुँचा दूँगी तब तक चैन से नहीं बैठूँगी।”
उसकी यह धमकी सुनकर उसके अब्बू, अम्मी, भाई एकदम अवाक् से कभी उसे तो कभी ग़ुस्से से लाल-पीले होकर, पलट कर रुख़्सार को घूरते उसके ख़ाविंद को देखते रहे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था क्या करें?
रुख़्सार किसी भी क़ीमत पर जाने को तैयार नहीं है और ससुराल वाले गुंडई पर आमादा हैं। पूरा ख़ानदान ही गुंडे बदमाशों का है। उनसे पार पाना मुश्किल है। हॉस्पिटल स्टाफ़ ने पुलिस के सहयोग से उन सबको बाहर कर दिया था। बरामदे में पूरा परिवार इकट्ठा था। इस मसले का हल कैसे निकालें यह सलाह मशवरा कर रहा था।
कुछ ही देर में सलाह-मशविरा तीखी बहस, नोक झोंक में तब्दील हो गई। तीनों भाइयों और अब्बू की क़रीब-क़रीब एक ही राय थी कि ठीक होते ही रुख़्सार को उसके ख़ाविंद के पास ससुराल भेज दिया जाए। उसने इस तरह वहाँ से भाग कर बहुत बड़ा गुनाह किया है। उससे बड़ा गुनाह तो यह किया कि घर के मामले को बाहर पुलिस में ले गई। वह दीन की बात न मानकर गुनाह-ए-कबीरा कर रही है।
सब इस बात को ज़्यादा तवज्जोह देने के पक्ष में ही नहीं थे कि ससुराल में रुख़्सार पर ज़ुल्म ढाए जा रहे हैं। उनके नज़रिये में यह सब तो ऐसी मामूली बातें हैं जो घरों में होती ही रहती हैं। लेकिन रुख़्सार की अम्मी अकेले ही शौहर और बेटों की राय से ना इत्तिफ़ाक़ रखती हुई सख़्ती से कहती हैं कि, “रुख़्सार ने कोई गुनाह नहीं किया है, वह बेगुनाह है। गुनाह तो उन ज़ालिमों ने किया है। जो पूरा कुनबा मिलकर उस पर ज़ुल्म ढाता चला आ रहा है। उसने जो ज़ुल्म झेले हैं, उसे जानने के बाद मैं रुख़्सार को उस जहन्नुम में उसकी मर्ज़ी के बिना तो बिल्कुल नहीं भेजूँगी।”
उनके यह कहते ही लड़के उन पर एकदम से भड़क उठे। वह शौहर भी जो शुरू में ग़मगीन था कि रुख़्सार पर बहुत ज़ुल्म हुआ, लड़कों के साथ वह भी तनतनाते हुए उठकर खड़े हो गए। मँझले लड़के ने कहा, “हमारे अपने मसले कम हैं क्या जो एक और मुसीबत मोल ले लें, दूसरे वह मज़हब के ख़िलाफ़ जा रही है, जब हलाला जायज़ है तो यह बीच में क़ानून को लेकर क्यों कूद पड़ी है? यह कुफ़्र है। जो उसका साथ देगा वह भी कुफ़्र ही करेगा। मैं ऐसा गुनाह बिल्कुल नहीं करूँगा। उसे अपने गुनाह की माफ़ी माँगनी ही पड़ेगी, उसे अपने शौहर के पास जाना ही पड़ेगा, हलाला का नियम है, रिवाज़ है, यह उसे तोड़फोड़ नहीं सकती।”
उसकी बात पूरी होते ही दूसरा भाई बोला, “हाँ, उसे अपनी ग़लतियों के लिए माफ़ी माँग कर चुपचाप वहाँ जाना ही होगा। बेवजह का तमाशा खड़ा करके हमारा जीना हराम ना करे। घर की इज़्ज़त-आबरू को सड़कों पर नीलाम ना करे। हमें महल्ले में रहना है, इसके गुनाह के चलते हम क्यों महल्ले में अपनी आबरू उछालते फिरें। जो भी सुनेगा वह हम पर ही थूकेगा, कि हम मज़हब से भटक गए हैं। काफ़िर हो गए हैं। मैं तो कहता हूँ कि यह जैसे ही ठीक हो अब्बू इसे यहीं से लेकर इसकी ससुराल में छोड़ आएँ। यह अकेले जाएगी तो फिर कहीं भाग जाएगी। हमारी इज़्ज़त-आबरू ख़ाक कर देगी। मैं पुलिस थाने पहुँचने वाली ऐसी बदमाश औरत को घर में एक घड़ी भी बरदाश्त नहीं कर पाऊँगा। घर में हमारी बेगमें भी हैं, वह भी इसे देखकर रास्ते से भटक जाएँगी, यह उन्हें गुमराह करेगी।”
लड़कों की यह बातें सुनते ही रुख़्सार की अम्मी सकते में आ गईं। उन्हें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि लड़के ऐसे निकलेंगे। कुछ देर उनके मुँह से कोई बोल ही नहीं फूटे। उन्हें लगा जैसे रुख़्सार को नहीं, उन्हें घर से बाहर निकाला जा रहा है, उसे गुनहगार, बदमाश औरत कहा जा रहा है। उसे इस समय अपने लड़के अपने पचीस-तीस वर्ष पहले वाले देवर, जेठ लग रहे थे, और शौहर बिल्कुल ससुर जैसा, हालात बिलकुल पचीस साल पहले वाले।
उनकी आँखों में आँसू भर आए, और लड़के अब तक कई और ऊट-पटाँग बातें कह कर तमतमाते हुए चले गए थे। शौहर भी कुछ बोलते हुए उनके पीछे-पीछे चल दिए, लेकिन लड़के बहुत तेज़ी से आगे निकल गए तो वह वापस मुड़कर रुके, अपनी जालीदार गोल टोपी ठीक की। कुर्ते की जेब से सिगरेट की डिब्बी निकाली, उसमें से एक सिगरेट निकाल कर पीने लगे।
रुख़्सार की अम्मी उन्हें धुआँ उड़ाता देखती रहीं। आँसू आँखों से अभी भी ठीक वैसे ही टपक रहे थे जैसे अंदर बेड पर रुख़्सार के हाथों में लगी ड्रिप में बूँद-बूँद दवाई। शौहर जहाँ खड़े होकर अपने तनाव को सिगरेट के धुएँ के साथ उड़ाए जा रहे थे, उन्होंने देखा उनके पीछे उनसे थोड़ा बाएँ हटकर दीवार पर एक लाल गोल घेरे में काले रंग से सिगरेट बनी हुई थी, उस पर काले रंग से ही क्रॉस चिह्न बना हुआ था। नीचे नो स्मोकिंग ज़ोन और ऊपर हिंदी में धूम्रपान निषेध लिखा था। उन्होंने टपकते आँसुओं को दुपट्टे से पोंछते हुए मन ही मन कहा, ‘तुम बाप बेटों की जहालत का भी जवाब नहीं है।
‘हम माँ बेटी जीने के लिए अपने मन से सोच भी लें तो वह गुनाह है, कुफ़्र है और तुम नशा भी करो, मोबाइल पर जिस्मानी रिश्ते बनाती आवारा औरतों, मर्दों की पिक्चरें देखो, हफ़्ते में दो-चार बार से ज़्यादा नमाज़ भी न अदा करो, आज तक कभी रोज़ा न रखा, फ़ैशन में कमी ना आए तो कहने को छोटी सी दाढ़ी रखी, इतनी छोटी की मुट्ठी में आती ही नहीं। और मज़हब का पहाड़ा तुम बाप-बेटे हम दोनों को पढ़ा रहे हो, समझ रहे हो कि हमें कुछ मालूम नहीं। मज़हब की केवल उन्हीं बातों को मानते हो जिसमें तुम्हें मज़ा आता है।’
वह यही सब सोच ही रही थीं कि तभी एक एम्बुलेंस सायरन बजाती हुई गेट के अंदर आ पहुँची। उनका ध्यान पूरी तरह उस ओर जा भी ना पाया था कि तभी एक नर्स उन्हें एक पर्चा पकड़ाती हुई बोली, “यह दवाई तुरंत मँगवाइये।”
जितनी फ़ुर्ती से पर्चा पकड़ाते हुए उसने कहा, उतनी ही फ़ुर्ती से तुरंत ही अंदर चली भी गई। उसके जाते ही उन्होंने शौहर की तरफ़ निगाह दौड़ाई तो वह नदारद मिले। इधर-उधर हर तरफ़ नज़र डाली लेकिन वह कहीं भी नज़र नहीं आए। वह एकदम से परेशान हो गईं कि अब उन्हें कहाँ ढूँढ़े, नर्स ने दवा तुरंत लाने को कहा है।
वह खड़ी हुईं उन्हें देखने के लिए, तभी वह एम्बुलेंस आकर रुकी, कई लोगों ने एक गर्भवती महिला को स्ट्रेचर पर उतारा और जल्दी से एमरजेंसी की ओर लेकर चले गए। वह बेहोश लग रही थी। कई औरत मर्द स्ट्रेचर के आगे-पीछे भागते दौड़ते गए थे। सबसे पीछे मोबाइल पर किसी से बात करते हुए एक उम्रदराज़ महिला अफ़नाई हुई गई।
वह रो रही थी, शायद गर्भवती महिला उसकी बेटी थी। वह ठहर-सी गईं यह सब देखकर। उनके दिमाग़ में यह बात आए बिना नहीं रह सकी कि एक परिवार यह है। अपनों के लिए सब कैसे एक दूसरे के साथ हैं। बेटी के लिए या उनकी बहू जो भी है, सब उसे कितना दिल में समाए हुए हैं। या अल्लाह, रहम कर मेरी रुख़्सार पर।
मन ही मन बेटी की सलामती के लिए अल्लाह त’आला से दुआ माँगती हुई वह धीरे-धीरे बरामदे से निकल कर गेट की तरफ़ चलीं कि शौहर से कहूँ कि जल्दी से जल्दी यह दवा लाकर दो। उन्हें घुटनों का दर्द दो-तीन दिन से और भी ज़्यादा परेशान कर रहा था। बड़ी मुश्किल से वह चल पा रही थीं। साँस अलग फूल रही थी फिर भी रुख़्सार की चिंता उन्हें रुकने नहीं दे रही थी।
वह गेट तक गईं, सड़क पर इधर-उधर दूर तक देखा लेकिन शौहर कहीं भी दिखाई नहीं दिए। तेज़ धूप, गर्मी से सुलगती सड़क पर वह ज़्यादा आगे जाने की हिम्मत नहीं जुटा पायीं। सड़क पर उन्हें इक्का दुक्का लोग ही चलते हुए दिख रहे थे। वह भी लौट चलीं। अस्पताल में वापस पहुँचते-पहुँचते उन्हें लगा जैसे वह गिर जाएँगी। प्यास के मारे हलक़ सूख रहा था।
रुख़्सार के पास पहुँची तो वह आँखें बंद किए लेटी हुई थी। वह स्टूल पर बैठकर कुछ देर सुस्ताना चाहती थीं। वहाँ रखी पानी की बोतल की तरफ़ हाथ बढ़ाकर वह ठहर गईं कि इतनी धूप से आकर तुरंत पानी पिया तो तबीयत ख़राब हो जाएगी। कम से कम पसीना तो सूख ही जाने दूँ। उन्होंने हिजाब हटा दिया जिससे पंखे की हवा ठीक से लग सके।
उस छोटे से कमरे में उन्होंने अभी राहत महसूस ही की थी कि वही नर्स फिर से आ धमकी। नाराज़ होती हुई तेज़ आवाज़ में बोली, “पेशेंट को छोड़कर कहाँ ग़ायब हो गए आप सब लोग। दवा तुरंत लाने के लिए कहा था, एक घंटा हो रहा है, कहाँ है दवा, पेशेंट को टाइम से दवा नहीं मिलेगी, उसे कुछ हुआ तो हंगामा सबसे पहले खड़ा करेंगे। अस्पताल को ब्लेम करेंगे। लाइये दवा दीजिए।”
यह सुनते ही रुख़्सार की अम्मी का सिर घूम गया। क्या उत्तर दें उन्हें कुछ सुझाई ही नहीं दे रहा था। नर्स ने इंतज़ार किये बिना फिर माँग लिया तो उन्होंने हाँफते हुए बता दिया कि दवा क्यों नहीं ला पाईं। उनकी हालत देख कर नर्स एकदम नर्म पड़ गई। गर्मी पसीने से लाल हो रहे उनके चेहरे को देखते हुए कहा, “आप तो ख़ुद ही बीमार हैं, आप क्या दवा लाएँगी। मोबाइल भी नहीं है, घरवालों का कोई नंबर वग़ैरह याद हो तो बताइए मैं ही फोन करूँ। आप लोगों ने जो फोन नंबर यहाँ नोट कराया है वह वर्क ही नहीं कर रहा है।”
“नहीं, मुझे कोई नंबर याद नहीं है।”
“ओह, तो फिर कैसे काम चलेगा, पैसे हों तो दीजिए मैं किसी और को भेज कर मँगवा लूँ।”
यह सुनकर वह बुर्क़े का ऊपरी बटन खोलती हुई बोलीं, “मेरे पास सौ पचास ही होंगे।”
उन्होंने अंदर से एक पुराना-सा बटुआ निकाल कर देखा तो सच में मुश्किल से अस्सी-पिचासी रुपए ही थे। देख कर नर्स खीझ उठी, उसने कहा, “इतने में दवा कहाँ आती है। मैं दवा अरेंज करवाती हूँ। घरवाले आ जाएँ तो बीस हज़ार रुपए तुरंत जमा करवा दीजिए।”
यह कहती हुई वह तेज़ी से चली गई। रुख़्सार की अम्मी की घबराहट और बढ़ गई कि बीस हज़ार रुपए कैसे जमा हो पाएँगे। लड़के जिस तरह बद-सुलूकी करके, ज़हर बोलकर गए हैं वो एक पैसा देने को कौन कहे यहाँ पलटकर आएँगे भी नहीं। बाप अलग एक घंटे से न जाने कहाँ कितनी सिगरेटें फूँक रहा है कि क़दम अभी तक लौटे ही नहीं। खों खों कर खाँसते रहेंगे लेकिन मुँह ज़रूर फूँकेंगे। लानत है ऐसी लत पर।
वह शौहर का इंतज़ार करती रहीं, बार-बार बेटी रुख़्सार के चेहरे को देखती रहीं, जहाँ उन्हें चोट के कई ऐसे स्थायी निशान मिले जो निकाह से पहले बिल्कुल भी नहीं थे। भरे-पूरे बदन की उनकी रुख़्सार गोरी-चिट्टी थी। वह मन ही मन कोसने लगीं उसके ससुराल वालों को कि ज़ालिमों ने उसकी मासूम रुख़्सार को कितने ज़ख़्म दिए हैं। उन्होंने उसके पैरों, पेट, पीठ पर भी कई निशान देखे और यह सारे निशान उन्हें निकाह के बाद ख़ुद अपने बदन पर आए निशानों की याद दिलाते रहे। अनायास ही उनका हाथ अपनी नाक पर चला गया।
उन्हें आज भी अपनी नाक आईने में चिढ़ाती हुई लगती है। जो उनके जेठ ने तब तोड़ दी थी जब वह उसके साथ हलाला के दौर से गुज़र रही थीं। और एक दिन जेठ जब दरिंदगी की सारी हदें पार कर रहा था, तब उन्होंने तकलीफ़ से व्याकुल होकर विरोध किया तो उसने शैतानों की तरह मार-मार कर उनकी नाक तोड़ दी थी।
बात याद आने पर उसे कोसती हुई मन ही मन कहती हैं कि, ‘शैतानी घिनौनी हरकतें ख़ुद कर रहा था, इल्ज़ाम मुझ पर थोप रहा था कि वह मज़हब के कामों का माखौल उड़ा रही है। जब ख़ून से बिस्तर सुर्ख़ होने लगा, ख़ुद उसके बदन पर लगने लगा तब जाकर जाहिल कमरे से बाहर गया। अल्लाह का करम रहा कि जाहिल ज़ालिमों ने किसी तरह इलाज करवा दिया कि मरने न पाऊँ नहीं तो पुलिस घर खोद डालेगी।
‘डॉक्टर ने बार-बार कहा था कि किसी बड़े अस्पताल ले जाइए यहाँ पर सुविधा ठीक नहीं है, यहाँ ट्रीटमेंट और अच्छा नहीं हो सकता, इससे नाक टेढ़ी हो जाएगी, बड़े अस्पताल में सब कुछ नॉर्मल हो जाएगा, मगर ज़ालिमों ने उसकी बात को कोई तवज्जोह ही नहीं दिया था। मैंने ख़ुद कितनी मिन्नतें कीं . . . या अल्लाह हमें किस गुनाह की सज़ा दे रहा है। हमने क्या गुनाह किया है?’
वह भीतर ही भीतर रोती, इंतज़ार ही करती रहीं रुख़्सार की आँखें खुलने, शौहर के लौट आने का लेकिन देखते-देखते घंटा भर बीत गया न रुख़्सार की आँखें खुलीं, न शौहर लौट के आया। हाँ वह नर्स ज़रूर फिर आ धमकी।
आते ही पूछा, “कोई आया आपके घर से?”
अचानक उसकी आमद से सहमी रुख़्सार की अम्मी उसे कोई जवाब देतीं, उसके पहले ही नर्स ने रुख़्सार के ड्रिप में इंजेक्शन से कोई दवा इंजेक्ट कर दी फिर दोनों आँखों की पलकों को खोलकर, उसकी पुतलियों को ध्यान से देखने के बाद, उसकी ओर मुख़ातिब होती हुई थोड़ा तेज़ आवाज़ में बोली, “आपके घर से कोई लौटेगा कि नहीं, पेशेंट की तबीयत बिगड़ रही है। मैंने एक डोज़ अरेंज कर दी है। दो घंटे बाद एक डोज़ और देनी है। ट्रीटमेंट अब और पैसा जमा हो जाने पर ही आगे बढ़ेगा। शाम को सीनियर डॉक्टर राउन्ड पर आएँगे, उनके आने से पहले हो जाना चाहिए।”
उसकी बातों ने रुख़्सार की अम्मी को बहुत ज़्यादा परेशान कर दिया। वह गिड़गिड़ाती हुई बोलीं, “थोड़ा मेहरबानी कीजिए कुछ वक़्त और दे दीजिए। शायद तेज़ धूप के कारण कोई नहीं आ पा रहा है।”
“हद हो गई है, समझ में नहीं आता आपके परिवार में कैसे लोग हैं! पेशेंट सीरियस है, यह जानते हुए भी सभी के सभी लापता हैं। आपको यहाँ छोड़ गए जबकि आप ख़ुद ही इतनी बीमार हैं कि आपको एडमिट होने की ज़रूरत है। इतनी लापरवाही कि न तो आपको एक पैसा दे गए न ही मोबाइल कि संपर्क किया जा सके, आजकल तो छोटे-छोटे बच्चे भी बिना मोबाइल के नहीं रहते। ऐसा तो मैंने कभी देखा ही नहीं। आपकी और पेशेंट की हालत देखकर मुझसे जो हो सका वह मैंने मैनेज कर दिया लेकिन शाम को डॉक्टर साहब के आने तक पैसे जमा नहीं हुए तो मैं कुछ भी नहीं कर पाऊँगी। इन मामलों में डॉक्टर साहब बहुत ज़्यादा स्ट्रिक्ट हैं। जो भी हो फिर आप समझिएगा।”
नर्स की बातों से वह एकदम से हलकान हो उठीं। उनका चेहरा पसीना-पसीना होने लगा। उन्हें रुख़्सार के प्राण संकट में दिखने लगे। नर्स जाने लगी तो उन्होंने हाथ जोड़कर उससे मिन्नत की, “देखिये मेरी इतनी मदद और कर दीजिए कि मुझे घर जाने दीजिए। मैं जाकर ख़ुद पैसे लेकर आती हूँ। देख भी आऊँगी कि कोई और गंभीर मसला तो नहीं हो गया है कि शौहर और बेटों में से कोई भी नहीं लौटा . . .”
नर्स आँसुओं से भरी उनकी आँखों, रुंधी-रुंधी सी आवाज़ से भावुक हो उठी। कुछ क्षण चुप रह कर बोली, “आप तो मुझे भी मुश्किल में डालेंगी। लेकिन आपकी हालत देखकर मुझे बहुत तरस आ रहा है। चलिए जो होगा मैं देखूँगी। आप जाइए और जितनी जल्दी हो सके पैसे लेकर वापस आ जाइए। पेशेंट के पास एक आदमी का होना बहुत ज़रूरी है।”
“हाँ ज़रूर मैं जल्दी से जल्दी पैसे लेकर आती हूँ। तब तक मेरी बिटिया का ख़्याल रखिएगा। अल्लाह त’आला आपको हमेशा ख़ुश रखें। सारी ख़ुशियों से नवाज़ें।”
यह कहती हुईं वह दोनों हाथ घुटनों पर रखकर किसी तरह खड़ी हुईं और अर्ध बेहोशी की हालत में पड़ी बेटी का माथा चूमा और लगभग लंगड़ाती हुई बाहर की ओर अपने भरसक जितनी तेज़ चल सकतीं थीं, उतनी तेज़ चल दीं। नर्स अपनी बात पूरी कर उनसे पहले ही जा चुकी थी।
दो जगह ई-रिक्शा बदलती हुई, वह अंगारे बरसाती, झुकती दुपहरी में पसीने से भीगती हाँफती-काँपती जब घर पहुँचीं तो उनसे बोला भी नहीं जा रहा था। उन्हें लग रहा था कि जैसे अब प्राण ही निकल जाएँगे। बहुत गहरी गहरी सॉंसें ले रही थीं। दरवाज़ा शौहर ने ही खोला। उन्हें अब भी आराम से सिगरेट फूँकते देख कर उनका ख़ून खौल उठा। उन्होंने मन ही मन कहा, ‘कैसा ज़ालिम बाप है, वहाँ रुख़्सार की जान पर बनी हुई है और यह चुपचाप बिना बताए अस्पताल से भाग कर यहाँ घर में आराम फ़रमा रहा है।’
उनके मन में आया पहले इस ज़ालिम बाप को ज़लील करूँ फिर आगे की बात करूँ लेकिन स्थिति की नज़ाकत को देखते हुए अपने पर क़ाबू किए रखा, एकदम चुप रहीं और लंगड़ाते हुए अंदर जाकर सोफ़े पर बैठ गईं। पीछे-पीछे सिगरेट का धुआँ उड़ाते शौहर भी आए और बड़े बेपरवाह अंदाज़ में पूछा, “वहाँ रुख़्सार को अकेले छोड़कर तुम काहे को चली आई।”
रुख़्सार की अम्मी अब अपना आपा खो बैठीं। हाँफती हुई तेज़ आवाज़ में उल्टा उन्हीं से पूछ लिया, “तुम बिन बताए काहे चले आए? लड़की की जान ख़तरे में पड़ी है और तुम सब बाप बेटे घर भाग आए। यहाँ आराम से सिगरेट पर सिगरेट फूँक रहे हो। वह सब जिस तरह से झगड़ के वहाँ से चले उससे तो मुझे यह यक़ीन था कि इनमें से कोई लौटने वाला नहीं है, लेकिन तुम बिना बताए चले आओगे और लौट के नहीं पहुँचोगे यह ख़्वाब में भी नहीं सोचा था। कैसे बाप हो तुम? वहाँ नर्स, डॉक्टर पीछे पड़े हैं, बार-बार कह रहे हैं कि उसकी हालत ख़राब हो रही है, दवाओं की पर्ची लिख-लिख कर दे रहे हैं, तुरंत लाने को कह रहे हैं, बीस हज़ार रुपया तुरंत जमा करने को कहा है नहीं तो शाम को रुख़्सार को अस्पताल से बाहर निकाल देंगे। न मेरे पास मोबाइल है, न किसी का एक नंबर कि मैं किसी को फोन करवाती, और न ही पैसा। थोड़े से पैसे न रखे होते तो आने के लिए भीख माँगनी पड़ती। अभी जैसे भी हो बीस हज़ार तुरंत दो, चार-छह हज़ार अलग से दो, न जाने कैसी क्या ज़रूरत पड़ जाए और साथ में चलो, डॉक्टर से हम बात नहीं कर पाएँगे।”
“अब एकदम से इतने पैसे कहाँ से ले आऊँ।”
“अरे कैसी बात कर रहे हो, लड़की की जान चली जाएगी, तुरंत जैसे भी हो ले आओ।”
एक बार फिर से तीखी बहस शुरू हो गई। घर में इतने शोर-शराबे के बावजूद लड़कों की बेगमें, बच्चे अपने कमरे से बाहर नहीं आईं। लड़के भी नहीं, सब अपने काम-धंधे पर थे। रुख़्सार की अम्मी का ध्यान इस तरफ़ भी था, लेकिन वह इस बारे में अभी कुछ और बोलना नहीं चाह रही थीं।
बड़ी बहस मुबाहिस के बाद रुख़्सार के अब्बू क़रीब पचीस हज़ार रुपए लेकर साथ निकले। पहले तो बोले कि अभी धूप बहुत ज़्यादा है, थोड़ा रुक कर चलेंगे लेकिन रुख़्सार की अम्मी एक सेकेण्ड भी रुकना नहीं चाहती थीं।
घंटे भर के रास्ते में शौहर की मुसलसल चली बातों का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। हर बात पर हाँ हूँ करती रहीं। मन ही मन यह भी कहती रहीं तुम बाप बेटे सारे के सारे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो। लेकिन अब मैं तुम लोगों की एक भी न सुनूँगी, जो करूँगी वह तुम भी देखोगे, तुम्हारी औलादें भी। देखती हूँ तुम लोग मेरी रुख़्सार को उन ज़ालिमों के पास ज़ब्ह होने के लिए कैसे भेजते हो।
उनके ऐसा सोचने की वजह थी शौहर की बातें। जिनका कुल लब्बोलुआब यही था कि रुख़्सार ठीक होते ही अपनी ससुराल चली जाए। घर में बेवजह बखेड़ा न खड़ा करे। शौहर जो कह रहा है वह करे। हलाला करवा कर फिर से उससे निकाह कर ले।
अस्पताल पहुँचने पर वह अंदर भी नहीं गए, बेगम ने कई बार कहा लेकिन वह नहीं माने। हर बार कहा तुम जाओ न, मैं यहीं हूँ। दरअसल पचीस हज़ार रुपए न होते तो वह आते भी नहीं। बेगम के अंदर जाते ही उन्होंने फिर से सिगरेट निकाल ली थी।
गर्मी थकान से पस्त रुख़्सार की अम्मी जब किसी तरह उसके पास पहुँचीं तो नर्सिंग स्टाफ से लेकर डॉक्टर तक की तमाम बातें सुनीं। डॉक्टर ग़ुस्सा तो उस पर और ज़्यादा होते लेकिन उनकी हाँफती-काँपती दयनीय हालत का ध्यान कर शांत हो गए, बड़ी दया दिखाते हुए कहा, “क्या कहूँ आपसे, आप तो ख़ुद ही बीमार हैं। ऐसे कौन से काम हैं जो आपके यहाँ से कोई जेंट्स आ ही नहीं सकता।”
वह उन लोगों की बातों का जवाब देने के बजाय ज़्यादातर समय चुप ही रहीं, लेकिन मन ही मन कहा कि, ‘एक जेंट्स आया तो है लेकिन मुँहचोर बाहर सिगरेट फूँक रहा है।’ उन्होंने समय ज़ाया न कर जल्दी से पैसा जमा किया जिससे ट्रीटमेंट आगे बढ़ सके।
रुख़्सार का यह ट्रीटमेंट कई दिन चला। वह ठीक तो हो गई लेकिन कमज़ोर बहुत हो गई। अस्पताल से रुख़्सती का दिन आ गया। अस्पताल में बिल को लेकर ख़ूब बहस हुई। रुख़्सार के अब्बू ने ख़ूब हंगामा किया कि अस्पताल मामूली से इलाज का बेजा बिल बनाकर दिनदहाड़े लूट रहा है। मैं पैसा नहीं दूँगा।
उनकी इस ज़िद पर अस्पताल ने पेशेंट को रोक लिया। वह भी बिलकुल अड़ गए कि बिल का पूरा भुगतान होने पर ही पेशेंट को छोड़ेंगे। रुख़्सार को बेड से उठने ही नहीं दिया। गार्डों ने उसके अब्बू को खींच कर बाहर कर दिया, पुलिस बुला ली। उसने किसी तरह मामले को शांत कराया। लेकिन ग़ुस्से से तमतमाए उसके अब्बू बाहर निकलते ही उसे अपशब्दों, भद्दी भद्दी गलियों से नवाज़ने लगे।
एक बार भी नहीं सोचा कि लड़की बीमार है, जुम्मा-जुम्मा चार दिन ही हुए हैं तलाक़ की बर्छियों से घायल हुए, ज़ख़्म अभी हरे ही हैं, उलटे हरे ज़ख़्मों को और कुरेदते हुए बार-बार कहा, “शौहर के यहाँ से दग़ाबाज़ी करके भागने की सज़ा तुझे मिली है। तेरे गुनाहों की सज़ा हम भी भुगत रहे हैं। मेरा सारा पैसा बर्बाद कर दिया। अभी और न जाने आगे क्या-क्या करवाएगी।”
वह इतना उबाल खाए हुए थे कि रुख़्सार और उसकी अम्मी कुछ बोलने की हिम्मत ही नहीं कर पा रही थीं। दोनों एक चुप हज़ार चुप इसलिए भी रहीं एक शब्द भी बोलेंगे तो यह यहाँ सड़क पर ही हज़ारों लोगों के बीच गालियाँ देंगे, कोई ठिकाना नहीं कि हाथ भी उठा दें। इतना भी ख़्याल नहीं कर रहे कि ई रिक्शा ड्राइवर सब सुन रहा है
उन दोनों की धड़कनें तब ठहर-सी गईं, जब वह बेटों का नाम लेकर बोले, “यहाँ मुझे ज़लील करवाया, अब घर चलकर उन सब से ज़लील करवाना। मैं साफ़ बोल दे रहा हूँ, वहाँ मैं तेरा साथ देने वाला नहीं हूँ। वह तुझे घर में घुसने देंगे या नहीं यह वही जाने मैं कुछ बोलने वाला नहीं।”
यह सुनकर माँ बेटी अच्छी तरह समझ गईं कि असली तमाशा तो अब घर पर होगा। उन पर क़हर तो वहाँ टूटेगा। बेटों ने शुरू में ही कहा था कि रुख़्सार हॉस्पिटल से सीधे अपनी ससुराल जाएगी।
घर पहुँचने पर वही हुआ जिसका अंदेशा था। बाहर और घर के अंदर कोहराम मच गया। तीनों बेटों का एक ही कहना था कि अब हम इसे एक सेकेण्ड भी बरदाश्त नहीं कर पाएँगे। इसने मज़हब की तौहीन की है। कुफ़्र किया है, अब इस घर में इसके लिए कोई जगह नहीं है। इसको जगह देकर हम शिर्क नहीं करेंगे। इसने अल्लाह त’आला की बातों की नाफ़रमानी की है। इसको हम . . .
कोहराम इतना था कि पड़ोसी भी आ पहुँचे। लेकिन गेट खोला ही नहीं गया। बाहर लोग आपस में बातें करते रहे, . . . यह कौन सा तरीक़ा है। तहज़ीब नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। इतना ज़्यादा हंगामा बरपा रखा है, इनको इतना भी ख़्याल नहीं है कि और लोग भी रहते हैं महल्ले में। इन्हें ज़रा शर्म भी नहीं आती।
उन लोगों की पुलिस बुलाने की बातें अंदर घर को मैदान-ए-जंग बनाए लोगों के कानों में भी पड़ रही थी। सभी के कान चौकन्ने हो गए थे। लेकिन बहस क़रीब घंटे भर बाद तब भी बंद नहीं हुई जब रुख़्सार की अम्मी ने शौहर और बेटों से यह तक कह दिया कि, “अभी यह हॉस्पिटल से आई है, बहुत कमज़ोर हो गई है, पूरी तरह सही नहीं हुई है, डॉक्टर ने अभी हफ़्तों दवा चलाने को कहा है, ऐसे में इसे वहाँ भेजना मुनासिब नहीं है। दुनिया हम पर थूकेगी।
“वहाँ पर सब खार खाए बैठे हैं, इसके पहुँचते ही न इसकी तबीयत देखेंगे, न उन्हें किसी तहज़ीब का ख़्याल रहेगा। वह सब के सब इसको मारेंगे, ऐसे तो यह बेमौत ही मर जाएगी। इंसानियत का तक़ाज़ा है, अल्लाह त’आला के वास्ते थोड़ा सब्र करो। अगले जुम्मे या जैसे ही यह ठीक हो जाएगी मैं ख़ुद ही इसे वहाँ छोड़कर आऊँगी।”
लेकिन बेटे अपनी ज़िद पर अडिग यही कहते रहे शिर्क करने वाले की साया भी इस घर में हम बरदाश्त नहीं करेंगे। और दूसरी तरफ़ अम्मी की यह बात सुनते ही रुख़्सार के पैरों तले ज़मीन खिसक गई कि तबियत सुधरते ही वह उसे ख़ुद उस जहन्नुम में छोड़ आएँगी। एक बार फिर उसके आँसुओं की धार बह निकली, उसका कलेजा फट गया, उसकी आँखों के सामने फिर वैसा ही अन्धेरा होता दिखा जैसा बस में दिखा था। वह चौंकती हुई भर्राई आवाज़ में बोली, “अम्मी! तुम भी?”
लड़की का यह प्रश्न उसकी अम्मी के कलेजे को नुकीली फाँस सा चीरता चला गया। वह उसकी ओर मुख़ातिब होकर मर्माहत स्वर में रोती हुई बोलीं, “क्या करूँ रुख़्सार, इन लोगों ने हमारे लिए और कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा है। हम दोनों के मुक़द्दर में शायद अल्लाह त’आला ने यही लिखा है। तभी तो हमें यह दिन देखना पड़ रहा है।”
अम्मी की बात पूरी होते-होते रुख़्सार का चेहरा सख़्त हो उठा। अपनी सारी ताक़त लगा कर उसने ख़ुद को सँभाला, आँखों के सामने गाढ़े होते अँधेरे को रोका और आँसू पोंछती हुई बुलंद आवाज़ में बोली, “नहीं अम्मी, मुक़द्दर में यह नहीं लिखा है। यह मुझ पर ज़ुल्मो-सितम की इंतेहा है। ज़ुल्म को बरदाश्त करते रहना भी कुफ़्र है, गुनाह है। मैंने बहुत ज़ुल्म सहे हैं। ज़ुल्म सह-सह कर बहुत गुनाह किए हैं, अब मैं कोई और गुनाह नहीं करूँगी, अब मैं किसी का कोई भी ज़ुल्म एक भी मिनट को बरदाश्त नहीं करूँगी . . .”
रुख़्सार की बात पूरी भी न हो पाई थी कि उसके सभी भाई एकदम से भड़क उठे। उसे बड़े गंदे अपशब्द कहते हुए हाथ उठाने को लपके लेकिन अम्मी ने बीच में आकर उसे किसी तरह बचाया। भाइयों के हमलावर होने पर भी आक्रामक हुई रुख़्सार नरम नहीं पड़ी।
वह हाँफ रही थी लेकिन फिर भी पुरज़ोर आवाज़ में बोली, “उस मरदूद ने पूरे होशोहवास में तीन बार कहकर मुझे तलाक़ दिया है। मेरा निकाह ख़त्म हो गया है। लेकिन अम्मी मैं उसको इतनी आसानी से जाने नहीं दूँगी कि वह मेरा जीवन तबाह कर अब किसी और को ले आए, उसके साथ गुलछर्रे उड़ाए, जो उससे भी मन भर जाए तो पल भर में तलाक़ तलाक़ तलाक़ कहक़र पहनी हुई जूती की तरह घर से बाहर फेंक दे। मैं क़ानून का सहारा लेकर रहूँगी। उससे गुज़ारा भत्ता हर हाल में लेकर ही रहूँगी। अपना एक-एक हक़ लेकर ही मानूँगी . . .”
एक बार फिर रुख़्सार की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि उसके पहले ही एक भाई चीख पड़ा, “चोप्प . . .प्प . . . तेरी यह मजाल कि तू मज़हब की रवायत के ख़िलाफ़ जाएगी, क़ानून को मज़हब पर लादेगी। तू अपने दायरे में आ जा वर्ना . . .”
जितना तेज़ वह बोला था रुख़्सार भी पलट कर उतनी ही तेज़ चीखती हुई बोली, “वर्ना क्या? मैं अब क़ानून का ही सहारा लूँगी। मज़हब ही कहता है कि ज़ुल्म सहते रहना भी एक गुनाह है, मैं अब गुनाह नहीं करूँगी . . .”
इस बार उसकी बात पूरी होने से पहले ही उसी भाई ने उस पर पूरी ताक़त से हाथ उठा दिया। बीमार बेटी को बचाने के लिए अम्मी फिर बीच में आ गईं, पुरज़ोर चाँटा उनकी कनपटी पर पड़ गया। एक नौजवान हाथ की चोट वह सह नहीं सकीं। कटे पेड़ की तरह धड़ाम से ज़मीन पर गिर गईं।
उनको गिरते देख कर रुख़्सार “अम्मी . . .” चीखती हुई उन्हें सँभालने के लिए झपटी, उनका हाथ पकड़ कर उठाना चाहा लेकिन तभी उसी भाई ने उसका हाथ पकड़ कर, उसे खींचकर दूर कर दिया। अम्मी को न छूने की कठोर हिदायत दी। लेकिन रुख़्सार नहीं मानी। अम्मी पुकारती हुई उनकी तरफ़ फिर लपकी लेकिन उसने उसे भी एक झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया।
अम्मी की तरह वह भी ज़मीन पर गिर गई। उसे लगा जैसे वह अंधी होती जा रही है। सब तरफ़ धुआँ-धुआँ सा होता जा रहा है। तीनों भाई उसे जो फूहड़ गंदी गालियाँ देते जा रहे थे उनकी वह कर्कश आवाज़ें भी कम होती लगीं। ऐसी हालत में उसे सबसे ज़्यादा सदमा अब्बू के व्यवहार से लगा कि इतना कुछ नाजायज़, गंदा घिनौना हो रहा है, उनकी नालायक़ बेशर्म बे-ग़ैरत औलादों की मार, गालियाँ खाकर वह, अम्मी, ज़मीन पर गिरी पड़ी हैं, मौत की आग़ोश में जा रही हैं, लेकिन अब्बू के मुँह से एक बोल नहीं फूट रहे हैं।
वह क्रोध नफ़रत से भर उठी, उसने मन ही मन कहा, “चलो मुझसे तो तुम सब नफ़रत करते ही हो, अम्मी ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, वो ज़िंदा हैं या मर गईं तुम यह भी नहीं देख पा रहे हो। तुम्हारा भी असली चेहरा सामने आ गया अब्बू, तुम भी उन्हीं में से हो जो हम औरतों को मर्दों की खेतियाँ ही समझते हैं बस। लेकिन अब्बू मैं अपने जीते जी अम्मी को ऐसे मरने नहीं दूँगी।
अचानक ही रुख़्सार को मीडिया में आने वाली वह तमाम ख़बरें याद आ गईं जिसमें महिला को घर के लोगों ने सिर्फ़ इसलिए मार डाला क्योंकि उन्होंने तलाक़ ए बिद्दत, हलाला का विरोध किया था। क़ानून की मदद लेने का प्रयास किया था।
उसका ध्यान अंदर कमरे में तेज़ क़दमों से जाते छोटे भाई पर गया तो वह सशंकित हुई कि यह सब साथ में मिलकर मुझे मारने की कोशिश में तो नहीं हैं। उसने महसूस किया कि उसे चक्कर भी आ रहे हैं, जल्दी ही पानी नहीं मिला तो वह बेहोश हो जाएगी। उसे यह भी डरावना लग रहा था कि उसकी भाभियाँ, भतीजे, भतीजियाँ भी नहीं दिख रहे हैं। तो क्या इन लोगों ने मुझे मारने की साज़िश पहले से बना रखी है। इसीलिए अपनी बीवी और बच्चों को हटा दिया है।
उसका ध्यान बाहर से आती लोगों की तेज़ आवाज़ पर भी गया और फिर कुछ सोच कर उसने अचानक ही बचाओ-बचाओ चीखना शुरू कर दिया। उसके अब्बू, भाई कुछ समझ पाते उसके पहले ही उसकी चीखों ने बाहर इकट्ठा लोगों को झकझोर कर रख दिया। भाइयों ने लपक कर जब तक उसके मुँह को बंद किया तब तक उसकी चीखों ने बाहर अपना काम कर दिया था।
‘दरवाज़ा खोलो’ चीखते हुए लोगों ने दरवाज़े को पीटना शुरू कर दिया। वह दरवाज़े को बहुत तेज़-तेज़ पीटते हुए उस पर लातें भी बरसा रहे थे। अब उसके भाइयों और अब्बू को पसीना आने लगा। वह सब एक दूसरे को सवालिया निगाहों से देखने लगे। दरवाज़े पर हमले बढ़ते जा रहे थे, रुख़्सार की अचानक ही बंद हुई आवाज़ से बाहर लोगों को लगा कि उसे मार दिया गया है। लोगों के शोर से घबराए छोटे भाई ने कहा, “आप लोग अपने-अपने घरों को जाएँ, यह हमारा घरेलू मसला है इसे हम सुलटा लेंगे।”
यह सुनते ही बाहर कोई चीखा, “अबे दरवाज़ा खोल हम तुझे बताते हैं घरेलू मसला क्या होता है! पूरे महल्ले की ऐसी की तैसी कर रखी है और बता रहा है घरेलू मसला। खोल दरवाज़ा खोल हम मसला चुटकी में सुलटाते हैं।”
रुख़्सार बोलना चाह रही थी कि यह लोग मुझे मार रहे हैं, मेरी जान ले लेंगे। मेरी अम्मी बेहोश पड़ी हैं, हमारी जान बचाइए, यह लोग हमें मार डालेंगे। लेकिन भाई उसी के ऊपर चढ़ा बैठा उसके मुँह को इस क़द्र दबा रखा था कि वह सॉंस भी नहीं ले पा रही थी। उसके दोनों पैरों के नीचे कुचल सी रही थी।
लगातार दम घुटते जाने के कारण वह ज़मीन पर अपने पैरों को पटक रही थी, लेकिन उनकी आवाज़ लोगों और पीटे जा रहे दरवाज़े के शोर में नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बनकर रह गई। दरवाज़ा पीटते लोगों की आवाज़ भी उसे बड़ी तेज़ी से कम होती हुई-सी लगी। लेकिन अल्लाह से उसकी यह दुआ क़ुबूल हो गई कि दरवाज़ा टूट जाए। उसे पक्का यक़ीन था कि उसके घर वाले तो दरवाज़ा खोलेंगे नहीं।
दरवाज़ा टूटते ही उसके भाइयों, अब्बू ने ख़ुद को दूसरे कमरे में बंद कर लिया। वह अच्छी तरह समझ रहे थे कि ज़मीन पर दो महिलाएँ जिस तरह पड़ी हैं उन्हें देख कर भीड़ उन्हें सही सलामत छोड़ेगी नहीं।
भीड़ अंदर महिलाओं के क़रीब आकर रुक गई। वह दोनों एकदम बेसुध थीं। लोगों के बार-बार बुलाने पर भी कुछ बोली नहीं। इसी बीच पुलिस भी आ धमकी। किसी ने उन्हें फोन कर दिया था। सारा माजरा जानते ही पुलिस ने एम्बुलेंस बुलाई।
महिला कॉन्स्टेबल ने रुख़्सार की अम्मी की नब्ज़ देखकर कहा, “यह बेहोश है, कान से ख़ून आ रहा है।” रुख़्सार की नब्ज़ देख रही कॉन्स्टेबल कई बार चेक करने के बाद खड़ी होकर इंस्पेक्टर से बोली, “सर इनकी साँसें बिल्कुल नहीं चल रही हैं।”
जब तक एम्बुलेंस आई पुलिस रुख़्सार के अब्बू, भाइयों को कमरे से निकाल कर जीप में बैठा चुकी थी। पुलिस की लाख कोशिशों के बावजूद भीड़ ने उनकी अच्छी-ख़ासी कुटम्मस कर दी थी। रुख़्सार और उसकी अम्मी को एम्बुलेंस में इस तरह लिटाया गया कि शायद दोनों ही जीवित हैं। पुलिस ने घर में ताला लगा दिया की जाँच पूरी होने तक वहाँ यथा स्थिति बनी रहे।
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