नई रोसनी: न्याय के लिए लामबंदी
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा प्रदीप श्रीवास्तव23 Feb 2019
समीक्ष्य पुस्तक: नई रोसनी (अवधी)
लेखक - भारतेन्दु मिश्र
प्रकाशक - कश्यप पब्लिकेशन, दिलशाद, एक्सटेंशन-2
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
नई रोसनी उपन्यास मुझे थमाते हुए मेरे बड़े साहित्यकार मित्र ने कहा यह उपन्यास पढ़ें, यह आपको प्रेमचंद की दुनिया में ले जाएगा, जहाँ आप होरी और धनिया से नए संदर्भों में आसानी से साक्षात्कार कर पाएँगे। अवधी भाषा के इस उपन्यास के लिए उनकी इस टिप्पणी ने इसे तुरंत पढ़ने की आग पैदा कर दी। और पढ़ा तो लगा कि इसे न पढ़ता तो निश्चित ही अवधी की एक उत्कृष्ट रचना को पढ़ने के सुख से वंचित रह जाता। सचमुच एक अर्से के बाद अवधी में आला दर्जे का उपन्यास पढ़ने को मिला। जिसमें लेखक ने गिनती के कुछ पात्रों के ज़रिए गाँव से लेकर महानगरों तक की पूरी दुनिया के स्याह पक्षों को पाठकों के सामने उजागर कर दिया है। जो सही मायनों में समाज की विभिन्न समस्याओं की जड़ हैं। और समाज को अंदर ही अंदर सालती जा रही हैं। खोखला करती जा रही हैं। पात्रों की कम संख्या जहाँ पाठकों को उलझने का अवसर नहीं देती वहीं रोचकता उन्हें हर पन्ने को पढ़ने के बाद और आगे पढ़ने के लिए व्याकुल कर देती है।
उत्तर प्रदेश के एक गाँव धांधी में रहने वाले उपन्यास के नायक निरहू, शोषक वर्ग का प्रतीक ठाकुर रामबकस, पंडित, रजोले और नायक के बड़े भाई रमेसुर जो दिल्ली में रिक्शा चलवाने का धंधा जमाए हुए हैं के इर्द-गिर्द बुने इस उपन्यास में जहाँ नक्सलवाद जैसी समस्या की जड़ दिखाई देती है वहीं नगरों, महानगरों सहित हर जगह बढ़ती धनलिप्सा, चरित्र, नैतिकता के पतन की निरंतर बिगड़ती जा रही तस्वीर भी दिखाई देती है। आज़ादी के बाद शोषित वर्ग को न्याय न दे पाने, उन्हें आधारभूत मौलिक आवश्यकताओं को पूरा कर पाने लायक न बना पाने, शोषण का दायरा बढ़ते जाने का ही प्रतिफल है कि नक्सलवाद अपनी जड़ें मज़बूत कर पाने में सफल हो पा रहा है। क्योंकि आज़ादी के पूर्व का होरी यानी शोषित वर्ग जहाँ शोषण के ख़िलाफ़ बमुश्किल ही खड़े हो पाने की कोशिश कर पाता था वहीं आज़ादी के छह दशकों के बाद यह परिवर्तन ज़रूर आया है कि आज उसने अपनी नियति को बदलने के लिए तन कर खड़ा हो जाने की कूवत पैदा कर ली है।
निरहू जो ठाकुर के यहाँ तीन सौ रुपए माहवार की पगार पर काम करता है वह अपनी आज़ादी अपनी दशा बदलने और टूट चुके मकान की छत बनवाने की जुगाड़ में सारे प्रयत्न करता है। भैंस का दूध बेचकर आर्थिक स्थिति बदलने और ठाकुर की चाकरी से मुक्ति पाने के सपने सँजोता है। इस क्रम में अपने बड़े भाई रमेसुर से कुछ पैसे उधार लेने दिल्ली जाता है। जहाँ शहरी ज़िंदगी देखकर उसे अचंभा होता है। पांडे पनवाड़ी की दुकान पर यह जान कर उसकी आँखें खुली रह जाती हैं कि अपने शरीर को एसेट मान ज़्यादा धन कमाने की लिप्सा ने किस कदर देह की मंडी को विस्तार दिया है। लेखक भारतेंदु मिश्र ने पांडे पनवाड़ी जैसे एक पात्र के ज़रिए इसका राज़ क्या है, कैसे यह शासन प्रशासन सबको धता बताते हुए आगे बढ़ रहा है, इसका बहुत ही संक्षेप में बहुत प्रभावशाली चित्रण किया है। उपन्यास का चरम तब शुरू होता है जब निरहु भाई से पैसे लेकर वापस घर धांधी पहुँचता है और ठाकुर उसके हालात को सुधरते देख नहीं पाता। वास्तव में पाठकों को यही से प्रेमचंद के होरी और धनिया ज़्यादा साफ दिखाई देने लगते हैं। जो अब अत्याचारों को और सहने के मूड में नहीं हैं और अपनी नियति को बदल डालने के लिए, ठाकुर के कुटिल संसार को नेस्तनाबूत करने के लिए उठ खड़े होते हैं। निरहू के सपने उसकी सारी आशाओं के केन्द्र उसकी भैंस को ठाकुर ज़हर देकर मरवा देता है तो निरहू आपा खो बैठता है। और फिर एक ऐसा झंझावात पैदा होता है जिसमें शोषक ठाकुर का कुटिल संसार नेस्तनाबूत हो जाता है। इस क्रम में निरहू की रजोले जिसकी पत्नी गायब कर दी थी ठाकुर ने और पंडित से लेकर हर शोषित व्यक्ति ने मदद की। निरहू शोषितों के बीच एक मुक्तिदाता जैसा बन कर उभरता है। नक्सलवाद की पृष्ठभूमि में झाँकें तो क्या हम यही सब नहीं पाएँगे? समर्थ वर्ग की अनुचित क्रियाओं, अपने अधिकारों को पाने की प्रतिक्रिया में ही उपजा है यह। और विस्तृत होता जा रहा है और निरहू जैसे शोषित विवश हो कर हंसिया हथौड़ा के सहारे ही सही विरोध में उठ खड़े होते जा रहे हैं, और उनके साथ बाकी शोषित बिना किसी प्रयास के ही लागबंद होते जा रहे हैं।
इस समस्या के समाधान के लिए नीति विशेषज्ञ भी यह मानते हैं कि विकास की रोशनी आखिरी व्यक्ति तक पहुँचा कर शोषण की काली छाया से मुक्ति दिलाकर ही नक्सलवाद को मिटाया जा सकता है। भारतेंदु मिश्र ने जो एक नई रोशनी देखी है शोषितों में शोषण के ख़िलाफ़ उसे विस्तार मिलना ही चाहिए, मगर नक्सलवाद के रूप में कतई नहीं। यह बात साहित्य के विमर्श का केन्द्र होनी ही चाहिए भले ही वह अवधी का हो या हिन्दी, उर्दू, बंगला का। दलित विमर्श से कहीं कमतर तो नहीं है शोषितों का विमर्श। क्योंकि यथार्थ यह है कि धनबल बाहूबल पैदा कर ही देता है, और फिर शोषण का दौर चलता है। शोषित होने वाला कमज़ोर ही होता है। जाति या वर्ग तो गौण हो जाता है। कम से कम आज के परिवेश में तो यही हो रहा है। और जब तक यह होता रहेगा ‘नई रोसनी’ जैसी कृतियाँ भी भारतेंदु जैसे रचनाकार रचते ही रहेंगे। उनकी यह रचना निश्चित तौर पर अवधी ही नहीं किसी भी भाषा के बेहतर उपन्यासों में शुमार होने की काबिलियत रखती है। क्योंकि यह वातानुकूलित कमरों में बैठकर संगणक के संजाल या कहीं पर पढ़ी जानकारियों के आधार पर नहीं लिखा गया है। बल्कि लेखक ने उपन्यास के केन्द्र बिन्दु धांधी को लंबे समय तक बहुत करीब से देखा, जाना, जीया, अनुभव किया, फिर उससे तैयार उर्वरभूमि पर यह उपन्यास पैदा हुआ। जो यथार्थ दिखाता है। जिसमें शब्दों की बाजीगरी नहीं है, पढ़ते वक्त लगता है जैसे घटना का पुनर्नाट्यांतरण देख रहे हैं।
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