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वो गुम हुई बारिश में

मुझे उसकी बहुत याद आ रही थी। उसी की याद में खोया, बालकनी में बैठा, हल्दीराम की भुजिया नमकीन खा रहा था। साथ ही व्हिस्की भी ज़्यादा पानी के साथ बहुत धीरे-धीरे पी रहा था। जून का पहला सप्ताह बस समाप्त ही होने वाला था। कोविड-१९ के कारण, लंबे लॉक-डाउन के बाद, कड़ी शर्तों के साथ, अनलॉक होने का भी समय शुरू हो गया था। 

मानसून भी आ धमका था तो पिछले चौबीस घंटे से रिमझिम बारिश लगातार हो रही थी। इसी बारिश को देखता हुआ, उसकी तमाम बातों को सोच रहा था। रह-रह कर उसके आस-पास ही होने का अहसास हो रहा था। 

व्हिस्की का पाँचवाँ पैग ख़त्म होने के बाद छठा बना ही रहा था कि तभी अचानक ही वह मुझे सामने पार्क में एक पेड़ के नीचे खड़ी, भीगती हुई दिख गई। वह अपनी प्रिय ड्रेस सफ़ेद रंग की चुस्त सलवार सूट में थी। 

उसके कपड़ों, खुले बालों की लटों से पानी की बूँदें टपक रही थीं। जो रिमझिम बारिश की फ़ुहार सी छोटी बूँदों से बहुत बड़ी थीं। शीशे की तरह चमक रही थीं। उसका दुपट्टा दाहिने कंधे पर था। उसका एक छोर नीचे घुटने तक लटका हुआ था। 

कपड़े बदन से ऐसे चिपके हुए थे, जैसे कि कोई बारीक़ सी पॉलिथीन भीग कर उसके बदन से चिपक गई हो। बदन के उतार-चढ़ाव की हर रेखा बहुत साफ़ और व्हिस्की सी नशीली दिख रही थी। उसके चेहरे पर हमेशा बनी रहने वाली उसकी गंभीरता को रिमझिम बूँदें मानो ख़ुद के साथ बहा ले जाने की कोशिश कर रही थीं। 

आँखों की बरौनियों के ऊपर फुहारों सी बूँदें जब कुछ पल ठहर जातीं तो वह धीरे से पलकों को झुका लेती। ऐसे जैसे स्लो मोशन में कोई वीडियो क्लिप चलकर ठहर गई हो। अचानक मैंने ध्यान दिया कि वह, वहाँ दूर से मुझे देख रही है। संकेतों से बुला रही है। उसकी आँखों में गहन आमंत्रण है। 

वह हमेशा की तरह जैसे मुझसे बहुत कुछ कहना चाह रही है। लेकिन होंठ जैसे फड़क कर रह जा रहे हों। मैं बहुत ध्यान से उसके होंठों की गतिविधियों को पढ़ने की कोशिश करता हूँ, जिससे कि उसकी बातों को समझ लूँ। लेकिन होठों की गतिविधियाँ इतनी हल्की थीं कि मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। 

आख़िर खीझ कर मैंने कोविड-१९ काल से ठीक पहले वाले, मेरे जन्म-दिवस पर उसी की भेंट की गई क्रिस्टल गिलास में, कुछ घूँट बची व्हिस्की भी एक झटके में उठाकर पी ली, और खड़ा हो गया कि छाता लेकर जाऊँ और उसे साथ ले आऊँ। मगर छाता कहाँ रखा है, यह याद ही नहीं कर पा रहा था। 

मैंने जल्दी-जल्दी बालकनी में इधर-उधर नज़र डाली लेकिन वह कहीं नहीं दिखा। मुझे अचानक ही बहुत तेज़ ग़ुस्सा आ गया कि आख़िर मुझे कोई भी चीज़ समय पर क्यों नहीं मिलती। हर चीज़ ढूँढ़नी क्यों पड़ती है। क्यों इधर-उधर भटकना पड़ता है। हार कर मैंने सोचा और बहुत सी न मिलने वाली चीज़ों की तरह, भाड़ में जाए यह छाता भी। 

मैं अब और ज़्यादा प्रतीक्षा नहीं कर सकता। मैं उसे भीगते हुए ही ले आऊँगा। आख़िर वह भी तो इतनी देर से भीग रही है। अच्छा है मैं भी भीग जाऊँ। यहाँ लाकर उसे दो पैग व्हिस्की के ज़रूर पिलाऊँगा। नहीं तो इतनी देर से भीगने के कारण उसे ज़ुख़ाम हो जाएगा। उसके साथ दो और पैग मैं भी ले लूँगा। जिससे मुझे भी न हो। 

लेकिन तभी मैंने सोचा कि उसे यहाँ लाऊँ या गाड़ी ले चलूँ, उसे वहीं से उसके घर छोड़ आऊँ। समझा दूँ कि ऐसे मौसम में बाहर नहीं निकला करो। मुझसे मिलना था तो फ़ोन कर देती। मैं स्वयं ही चला आता। चलने से पहले मैंने एक बार फिर उधर ही नज़र डाली जहाँ वह खड़ी थी। लेकिन उधर देखते ही मैं हक्का-बक्का मूर्तिवत खड़ा रह गया। 

वह वहाँ पर नहीं थी। मैंने अपनी आँखें मलीं, फिर उधर ध्यान से देखा जहाँ वह खड़ी थी। लेकिन वह कहीं नहीं दिखी। पूरा ज़ोर लगाया तो वह पेड़ तो दिखने लगा, जिसके नीचे वह खड़ी थी। वह मुझे साफ़-साफ़ दिखने लगा। लेकिन उसकी छाया भी नहीं दिखी। और जहाँ तक मेरी दृष्टि जा सकती थी, मैं वहाँ तक उसे देखने का प्रयास करता रहा। 

लेकिन . . . पता नहीं वह कितनी तेज़ चली थी कि, एकदम से ग़ायब हो गई। मैं हार कर फिर बैठ गया अपनी कुर्सी पर। मुझे स्वयं पर बड़ा ग़ुस्सा आने लगा कि, मैंने उस तक जाने में इतनी ज़्यादा देर क्यों कर दी। वह बेचारी भीगते-भीगते परेशान हो गई होगी। उसे निश्चित ही बहुत बुरा लगा होगा कि वह इतनी देर भीगती रही और मैं बेवक़ूफ़ों की तरह उसे देखता रहा। मुझमें सामान्य शिष्टाचार नाम की तो कोई चीज़ ही नहीं है। 

मुझे यहाँ पर आराम से बैठा देख कर उसने सोचा होगा कि, वह वहाँ बुरी तरह भीग रही है, और मैं बालकनी में बैठा व्हिस्की पीते हुए बारिश का मज़ा ले रहा हूँ। उसे भीगते हुए देख कर ख़ुश हो रहा हूँ। वाक़ई मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई है। पहले उसे फ़ोन करके पूछता हूँ कि, वह कहाँ पहुँच गई है। उससे कहूँगा कि, वह जहाँ पर है, वहीं रुक जाए। मैं गाड़ी लेकर तुरंत आ रहा हूँ। सॉरी बोल कर उसे जैसे भी हो, यहाँ ले आऊँगा। 

अपनी ग़लती मानते हुए उसके भीगे बदन को तौलिए से मैं स्वयं पोछूँगा। उसे बैठा कर अपने हाथों से उसके लिए पहले व्हिस्की का एक स्मॉल पैग बनाऊँगा। और अपने लिए भी। आख़िर उसका साथ तो देना ही पड़ेगा न। नहीं तो कहेगी ये क्या तरीक़ा हुआ? तुम्हें पीने-पिलाने का भी शऊर नहीं है। और फिर तुरंत नीरज का शेर जड़ देगी कि, ’न पीने का सलीक़ा न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आए हैं मयखाने में।’ उसे उसकी मनपसंद काजू नमकीन भी अपने ही हाथों से खिलाऊँगा। 

लेकिन उसको यहाँ लाने पर सबसे बड़ी समस्या तो यह होगी कि वह भीगे कपड़ों में यहाँ बैठेगी कैसे? मेरे कपड़े तो उसे होंगे नहीं। हाँ मिसेज के . . . ओह नो नो नो। उसकी समस्या तो यह भी है कि वह किसी और के कपड़े पहनती ही नहीं। ओफ्फ़, समस्या ही समस्या है। क्या करूँ। 

तभी मैंने सोचा कि सबसे अच्छा तो यही है कि ऐसे में उसे उसके घर ही छोड़ आऊँ। चलूँ जल्दी से पहले उसे फ़ोन मिलाऊँ, कहीं वह मेरे पहुँचने से पहले ही अपने घर न पहुँच जाए। ऐसे भीगती हुई घर पहुँच गई तो मैं कभी उससे कुछ कह नहीं पाऊँगा। 

मैंने मोबाईल उठा कर उसे फ़ोन करना चाहा तो वह भी ग़ायब मिला। मैं ग़ुस्से से एकदम बड़बड़ा उठा यह क्या तमाशा है मेरे साथ। समय पर मेरी हर चीज़ ग़ायब क्यों हो जाती है? सामने टेबल पर, इधर-उधर नज़र डाली, लेकिन मोबाईल कहीं भी नहीं दिखा। 

कहाँ रखा था कुछ भी याद नहीं आ रहा था। सोचा पत्नी होती तो वह तुरंत ही निकाल कर दे देती। उसकी आँखें तो एक्स-रे हैं, दीवार के पार भी देख लेतीं हैं। मगर इस कोविड-१९ ने तो सब कबाड़ा कर के रख दिया है। 

मायके से उसके आने के ऐन-टाइम पर ही लॉक-डाउन लग गया। अब चलने को हुई तो उसका घर रेड-ज़ोन में आ गया। कॉलोनी ही सील कर दी गई है। हे भगवन, हे प्रभु अन्नदाता क्या आप यह बताएँगे कि इस कोविड-१९ के जरिये, अभी और कब तक प्रताड़ित करते रहेंगे। 

आप भी यह अच्छी तरह समझ लीजिए कि मैं भी चुप रहने वाला नहीं हूँ। बिना मोबाईल के ऐसे ही कार लेकर निकलता हूँ। उसके घर को जितनी भी सड़कें जाती हैं, सभी पर कार दौड़ाऊँगा, कहीं तो वह मिल ही जाएगी। 

नहीं मिली तो घर तक जाऊँगा। सॉरी बोल दूँगा। इस मौसम में उसके लिए गरम-गरम समोसे ले जाऊँगा। तीखी हरी और लाल चटनी के साथ। उसको यह बहुत पसंद है। लेकिन नहीं यह भी सही नहीं होगा। वायरस इन्फ़ेक्शन का डर है। 

बाहर का कोई भी सामान लेने से लोग बच रहें हैं। मैं भी ऐसा कोई रिस्क लेकर उसको ख़तरे में नहीं डालूँगा। इसके लिए भी उससे सॉरी बोल दूँगा। ऐसी ही उधेड़बुन के साथ मैं कुर्सी से उठने ही वाला था कि, तभी मोबाइल की रिंग बजी। 

सुनते ही मैं बुदबुदाया, निश्चित ही यह उसी की कॉल होगी। मुझे मेरी अशिष्टता के लिए कुछ न कुछ सख़्त बात आज यह पहली बार ज़रूर बोलेगी। क्योंकि यह तो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि मैं उसे भीगते हुए ऐसे देखता रहूँगा, लेकिन उसे घर नहीं बुलाऊँगा। 

डर तो इस बात का भी है कि कहीं ग़ुस्से में वह सम्बन्ध ही न ख़त्म कर दे। लेकिन यह सब उसके लिए भी इतना आसान नहीं होगा। उसे मैं इतना आसान रास्ता तो कभी भी नहीं दे सकता। चलूँ पहले बात करूँ। 

यह सोच कर मैं देखने लगा कि मोबाइल किधर है। वह अभी तक तो ग़ायब था, अब कहाँ से आ गया। जहाँ-जहाँ पर पहले नज़र डाली थी, उन सभी जगहों पर फिर से देखा, लेकिन मोबाईल नहीं मिला, मैं खीझ कर एकदम से उठ कर खड़ा हो गया। 

जहाँ नज़र नहीं डाली थी, मुझे मोबाईल वहीं पर मिला। उसी पर मैं इतनी देर से बैठा हुआ था। रिंग अब-तक बंद हो चुकी थी। मोबाईल उठाते हुए सोचा कि बच गया। टूटा नहीं। लेकिन जब ध्यान से देखा तो पाया कि, स्क्रीन पर लगा टेफलॉन बीचों-बीच से क्रैक पड़ गया है। 

उसे ऑन कर मैंने मिस कॉल देखी तो मुझे बड़ा ग़ुस्सा आया। मोबाईल पर जिससे मैं बात करने से हमेशा बचने की कोशिश करता हूँ, उसी की कॉल थी। मैंने सोचा कि मैं भी क्या-क्या बेवक़ूफ़ी करता रहता हूँ। वह भीगती खड़ी रही। भीगती ही, पैदल ही, ग़ुस्सा होकर गई है घर। आख़िर वह क्यों मुझे फ़ोन करेगी। 

मैंने तुरंत ही उसे कॉल की। उधर रिंग हुई ही थी कि तुरंत ही कॉल रिसीव कर ली गई। मेरे मन में तत्काल ही यह बात आई कि वह ग़ुस्सा निकालने के लिए कॉल करने ही वाली थी। उसके हेलो बोलते ही मैंने कहा, “सॉरी, सॉरी। आय एम रियली वेरी सॉरी। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था।” 

“सॉरी! सॉरी किस बात के लिए? इतना घबराए हुए क्यों हो?” 

उसकी इस बात से मुझे बड़ी राहत मिली कि, चलो कम से कम वह नाराज़ नहीं है। मैंने तुरंत ही सँभलते हुए कहा, “सॉरी इसलिए कि, तुम पार्क में पेड़ के नीचे भीगती खड़ी रही और मैं तुम्हें लेने नहीं आया। बस, बालकनी में बैठा देखता रहा। वाक़ई मुझे इसका बहुत पछतावा है।” 

“क्या! क्या कह रहे हो तुम? मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मैं कहाँ, किस पार्क में भीगती खड़ी थी।” 

मुझे उसकी बात से लगा कि यह कुछ ज़्यादा ही ग़ुस्सा हो गई है। जल्दी शांत होने वाली नहीं। हो गई हफ़्तों कि फ़ुर्सत। मैंने बहुत नम्र होते हुए उससे फिर कहा, “अब ग़ुस्सा थूक भी दो यार। सॉरी बोल दिया है ना। मेरे घर के सामने वाली पार्क में, पेड़ के नीचे तुम बहुत देर तक भीगती हुई खड़ी थी। 

“शायद तुम मेरे साथ बारिश में भीगने का मज़ा लेना चाहती थी। मुझे तुम एकटक देखती रही और मैं बेवक़ूफ़ों की तरह बालकनी में बैठा तुम्हें देखता रहा। लेकिन तुम्हें घर ले आने के लिए नीचे नहीं उतरा। एक छाता भी लेकर तुम्हारे पास नहीं आया।” 

मेरे इतना कहते ही वह एक बार फिर से खिलखिला कर हँस पड़ी। और बड़ी देर तक हँसती ही रही। उसकी खनकती हँसी सुनकर मेरी बड़ी अजीब सी हालत हो गई। मैं सोचने लगा कि यह हँस रही है या मुझ पर ऐसे हँस कर, मुझे मेरी बदतमीज़ी के लिए सज़ा दे रही है। 

जब उसकी हँसी कुछ कम हुई तो उसने कहा, “यह क्या हो गया है तुम्हें? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो। ज़्यादा पी ली है क्या? मैं ढाई महीने से बच्चों सहित यहाँ मायके में पड़ी हूँ, और तुम्हें वहाँ पार्क में पेड़ के नीचे भीगती हुई नज़र आ रही हूँ। 

“मैं, बच्चे सब इंतज़ार कर रहे हैं कि किसी तरह आकर हमें घर ले चलो। हमें घर आने के लिए तुम्हारा इंतज़ार करना पड़ रहा है। पूरी बोतल ही ख़त्म कर दी है या कि सपना देख रहे थे। सपना टूटा तो हड़बड़ा कर कॉल कर दी, नींद में ही।” 

यह तो पत्नी की आवाज़ है। यह समझते ही मुझे तेज़ करंट लगा। मेरी चैतन्यता एकदम झंकृत हो उठी। जितने पैग पिए थे, उनमें से आधे एकदम कम हो गए। सँभलते हुए कहाँ, “अरे यार तुम बिल्कुल ठीक कह रही हो। वाक़ई बहुत गहरी नींद में सो गया था। सपने में देखा तुम पार्क में पेड़ के नीचे भीग रही हो। वैसे इस समय यहाँ सच में बारिश हो रही है।” 

मैंने जानबूझ कर उबासी लेते हुए कहा तो वह बोली, “अपना ध्यान रखिए, और कहीं बाहर इधर-उधर घूमने जाने की ज़रूरत नहीं है। यहाँ जैसे ही छूट मिलती है, मैं कोई टैक्सी बुक करके आती हूँ। यहाँ बाबूजी भी ऐसे ही कुछ ना कुछ ऊट-पटांग बोलते रहते हैं। अम्मा कहती हैं, बुढ़ऊ को ढाई महीने से बाहर घूमने, खड़े हो कर ठेले पर चाट खाने को नहीं मिल रहा है, तो एकदम सठिया रहे हैं। बच्चों को बुलाऊँ उनसे बात करनी है क्या?” 

“अभी नहीं, बाद में करूँगा।” 

मैं जल्दी से जल्दी पिंड छुड़ाना चाह रहा था। मैंने चैन की साँस ली कि बाल-बाल बच गए। इससे बातों-बातों में कहीं भूल कर भी उसका नाम ले लिया होता, तो इसका रोना-धोना शुरू हो जाता। बहुत नहीं, ’बहुतै बड़ी वाली’ आफ़त आ जाती। 

गवर्नमेंट की सारी नाकाबंदी, कोविड-१९ की बेड़ियाँ तोड़कर, यह अभी की अभी यहाँ के लिए चल देती। लेकिन अब जब साफ़-साफ़ बच गया हूँ तो उसको कॉल ज़रूर करूँगा। मैं उसे कैसे भूल सकता हूँ। लेकिन पहले क़ायदे से मुँह तो धो लूँ, जिससे कहीं फिर कोई ग़फ़लत न हो। कॉल उसी को करूँ, किसी और को नहीं। बातें वही कहूँ जो उससे कहनी है न कि पत्नी वाली। 

उसे याद दिलाऊँ ऐसे ही मौसम में बीस साल पहले वाला वह दिन, जब पूरा समय साथ बिताया था। और कहूँ कि वह अद्भुत पल यदि तुम तैयार हो तो आज फिर से जीते हैं। यह पूरा दिन और यदि तुम वापसी की जल्दी ना करो तो एक पूरी रात भी। 

मन में ऐसी पूरी योजना बनाता हुआ मैं मुँह धोने के लिए बाथरूम की ओर जाने लगा, कि तभी मोबाईल पर फिर रिंग हुई। उस कॉल को रिसीव करने से पहले कॉलर का नाम देखा तो मूड ख़राब हो गया। उसी की कॉल थी जिससे मैं कभी भी बात नहीं करना चाहता था। 

मेरा ग़ुस्सा एकदम सातवें आसमान के पार चला गया। मोबाईल उठा कर कुर्सी पर ही पटकते हुए चीखा, 'यह क्या तमाशा है। जो सामान ढूँढ़ता हूँ, वह ग़ायब हो जाता है। जिससे बात करनी है, बीस साल पुराना इतिहास दोहराना है, उसकी जगह अन्य की कॉल आ जाती है। इससे तो अच्छा है यहीं कुर्सी पर बैठा पीते हुए बारिश की बूँदें गिनूँ। 

मैं काजू नमकीन का पैकेट, नई बोतल लेकर बैठ गया फिर से कुर्सी पर। 

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