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जब वह मिला

उस दिन जेठ महीने का तीसरा बड़ा मंगल था। इस दिन लखनऊ के सभी हनुमान मंदिरों पर विशेष पूजा-अर्चना होती है। सुबह से ही मंदिरों पर भक्तों का ताँता लग जाता है। जगह-जगह भंडारों का आयोजन किया जाता है। जो देर रात तक चलता है।

मैं पूजा-अर्चना किशोरावस्था में ही छोड़ चुका था। क्योंकि मैं पूरी तरह ईश्वरी सत्ता पर विश्वास नहीं कर पा रहा था। बीस का होते-होते आधा-अधूरा विश्वास भी ख़त्म हो गया था। ईश्वर है, ईश्वर की सत्ता है, यह सब मुझे कोरी कल्पना लगते।

मैं किसी पूजा स्थान में न जाता। घर पर भी पूजा के समय हट जाता। माता-पिता ने कई बार ईश्वर की सत्ता, जीवन में उसके महत्व को लेकर समझाया। लेकिन मुझ पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। आख़िर मैंने एक दिन कह दिया कि, मैं विवश हूँ। कहने भर को भी मेरा विश्वास नहीं है, तो पूजा-पाठ का आडंबर मैं कैसे कर सकता हूँ, जिस दिन हो जाएगा उस दिन करने लगूँगा। इसके बाद पिता श्री ने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा।

भक्त टाइप के एक मामा जब भी वाराणसी से आते तो ज़रूर कहते कि, "बेटा जब पड़ती है तो बड़े-बड़े विश्वास करने लगते हैं। सारी नास्तिकता क्षण भर में दूर हो जाती है।"

मेरे कई दोस्त भी ऐसा ही कहते। मैं सबको यही जवाब देता कि, मैं कोई सोच समझ कर ऐसा नहीं कर रहा हूँ। जिस दिन मन में विश्वास जागेगा उस दिन से करने लगूँगा। नहीं जागेगा तो नहीं करूँगा।

जीवन का पचीसवाँ साल पूरा करते-करते दो अवसर ऐसे आए, जब मौत एकदम मेरे सामने आ खड़ी हुई। पहली बार तब, जब वाराणसी से पटना रेलवे का एक एग्ज़ाम देने जा रहा था। ट्रेन लेट थी, रात एक बजे तक उसके चलने की संभावना थी। मैं प्लेटफ़ॉर्म पर बैग लिए खड़ा था।

तभी यह एनाउंस हुआ कि, ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म नंबर तीन पर आएगी। मैंने देखा तमाम लोग जो उस ट्रेन से जाने वाले थे, वो सब फ़ुटओवर ब्रिज से जाने के बजाए प्लेटफ़ॉर्म से नीचे ट्रैक पर उतर गए, और दो लाइनें क्रॉस कर अगले प्लेटफ़ॉर्म पर जाने लगे।

मुझे ऐसा करना ठीक नहीं लगा, इसलिए फ़ुट ओवर ब्रिज की तरफ़ बढ़ा। लेकिन दिन भर का थका होने के कारण, और सबको शॉर्ट-कट से उधर पहुँचते देख कर मेरा मन क्षण-भर में बदल गया। मैं जहाँ था वहीं रुक गया दो मिनट को। मन में कुछ हिचक तो आयी। पर आख़िर हिचक पर शॉर्ट-कट ने विजय पा ली और मैं अपना बैग लेकर प्लेटफ़ॉर्म से नीचे उतर गया।

मैं पहला ट्रैक क्रॉस करके आगे बढ़ा ही था कि पूरे स्टेशन की लाइट चली गई। अब-तक जिनको उधर जाना था वो सब जा चुके थे। मैं अकेला था। अँधेरा होते ही मैंने क़दम और तेज़ बढ़ाए, जल्दी से दूसरे प्लेटफ़ॉर्म के पास पहुँचा। बैग प्लेटफ़ॉर्म पर ऊपर रखा। प्लेटफ़ॉर्म मेरी छाती तक ऊँचा था। मैं ऊपर चढ़ने की कोशिश करने लगा कि, तभी दो लोगों ने मेरे दोनों हाथों को, मेरे कंधे के पास पकड़ा और पूरी ताक़त लगा कर जितना तेज़ हो सकता था, मुझे ऊपर खींच लिया।

मैं प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँचा ही था कि, ट्रेन की बोगियाँ आगे निकलती चली गईं। गाड़ी यार्ड से प्लेटफ़ॉर्म पर लाई जा रही थी। सबसे पिछला डिब्बा मेरी तरफ़ था। और इंजन बहुत आगे दूसरी तरफ़, इसीलिए इंजन की लाइट, आवाज़ वग़ैरह कुछ देख सुन नहीं सका था। ट्रेन की बोगियाँ आठ-दस की स्पीड से मेरी तरफ़ खिसकती चली आई थीं। मेरी मौत बन कर। लेकिन उन दो अनजान लोगों ने आधे सेकेंड के अंतर पर मुझे मौत के सामने से खींच लिया था।

मेरा शरीर पेट, जांघों, घुटने के पास बुरी तरह छिल गया। पैंट भी फट गई थी। अब तक कई लोग मेरे इर्द-गिर्द जमा हो गए थे। सब भगवान की दुहाई देने लगे कि, इन्होंने बचा लिया। इन दोनों लोगों ने देवता बन कर तुम्हें बचा लिया। बहुत भाग्यशाली हो भइया। मैं एकदम संज्ञा-शून्य हो गया था। चेतना लौटी तो दर्द ने परेशान करना शुरू कर दिया।

अब तक लोगों ने मुझसे पूछताछ कर स्थिति जान लेने के बाद घर लौट जाने की सलाह दी। लेकिन ज़िद्दी स्वभाव का मैं नहीं माना। पटना जाने वाली ट्रेन पर चढ़ गया। जब ट्रेन चल दी तो बैग से एक पैंट निकाली, बाथरूम में जाकर पैंट बदल ली। क्योंकि वह घुटने के आस-पास बुरी तरह फट गई थी। पैंट बदलने से पहले रुमाल गीला कर घावों को साफ़ कर लिया था।

दूसरी बार मौत के सामने मैं तब पहुँच गया था जब एक बार चार-पाँच मोटर-साइकिलों पर दोस्तों के एक गुट के साथ पिकनिक के लिए निकला। साथ में मेरा फुफेरा भाई भी था। जो गाँव से आया था। रास्ते में एक नहर पड़ी तो गुट रुक गया वहीं, जो लोग तैरना जानते थे वो नहर में तैरने लगे। मैंने गाँव में ही दो-तीन बार हाथ आज़माए थे। तैराकी की ए.बी.सी.डी. से पूरी तरह वाक़िफ़ नहीं था।

मगर दोस्तों के उकसाने में कूद पड़ा। तेज़ बहाव में बहने लगा। हुड़दंगी दोस्तों को जब-तक मालूम होता तब तक मैं डूबने लगा। इस बीच अच्छे तैराक मेरे भाई की नज़र मुझ पर पड़ गई। फिर उसने किसी तरह मुझे बाहर निकाला। मैं बेहोश हो चुका था। दोस्तों ने अस्पताल पहुँचाया और मैं बच गया। मगर तब भी मेरे मन में अणु भर भी ईश्वर को लेकर कोई बात आई ही नहीं।

जब शादी का वक़्त आया तो शर्त लगा दी कि, जिसे जो करना है करे, लेकिन किसी तरह की रस्म अदायगी के नाम पर भी मुझसे कोई पूजा-पाठ ना कराई जाए। मेरी इस ज़िद पर पिता श्री दुर्वासा ऋषि बन गए। सबका यह ख़्याल टूट गया था कि, मैं शादी के नाम पर बदल जाऊँगा। अनुमान ग़लत निकलते ही सब बिफर पड़े थे। होने वाली ससुराल पक्ष के लोग भी हतप्रभ थे।

हालात ऐसे बने कि, लगा रिश्ता हो ही नहीं पाएगा। मगर कन्या-पक्ष ऐसा किसी सूरत में नहीं होने देना चाहता था। वह रास्ता निकालने में लगा हुआ था। इस बीच मेरा एक मित्र जो आज भी मेरे परिवार के सदस्य जैसा है। हर सुख-दुख का साथी है, उसने मुझसे एक ऐसी तीखी चुभती हुई बात कही कि, अंततः रास्ता निकल आया। वह मुझे गाली देते हुए बोला, "साले एक से एक एहसानफ़रामोश कमीने देखे। मगर तुम्हारे सा कमीना दूसरा नहीं होगा।

“बहुत बड़े नास्तिक बने हो। अपनी ऐंठ के लिए माँ-बाप, भाई-बहन, पूरे घर की ख़ुशी में आग लगा रखी है। तुमसे पूजा करने को कौन कह रहा है। सबकी ख़ुशी के लिए थोड़ी सी रस्मों का आडंबर भी नहीं कर सकते। ये अच्छी तरह सुन लो कि, एहसानफ़रामोशों को देख कर मेरा ख़ून खौलता है। आज के बाद मेरी नज़रों के सामने भी न पड़ना। क्योंकि पड़ गए तो छोड़ूँगा नहीं।"

इतना कह कर उसने बाइक स्टार्ट की और ऐसे भागा कि, जैसे पीछे मौत पड़ी है। मैं एकदम सन्नाटे में उसे देखता रह गया। मेरी कल्पना से परे था उसका यह व्यवहार। दरअसल बरसों से वह मेरे परिवार में इतना घुल-मिल चुका है, मेरे माँ-बाप की इतनी सेवा करता है, मानता है कि, देखने वालों को लगता है मानों वह सगा बेटा है।

मेरे माँ-बाप भी उसे अपने बेटे सा ही प्यार देते हैं। उनका यही बेटा अपने इस माँ-बाप के कष्ट से बिफर पड़ा था। मुझे पीटने की धमकी देकर चला गया था। मैं हक्का-बक्का शाम को ऑफ़िस से जानबूझ कर देर से घर पहुँचा।

दोपहर से ही दोस्त की गालियाँ, धमकी भरी बातें दिमाग़ को मथे जा रही थीं। मैं आश्चर्य में था कि, किसी से भी मामूली बात पर भी मरने-मारने को उतारू हो जाने वाला मैं, आख़िर ऐसा क्या हुआ कि, उसकी इतनी गालियों, पीटने की धमकी को सुनता चुपचाप खड़ा रहा। मुझमें ज़रा सी जुंबिश तक नहीं हुई। इतने घंटे हो गए लेकिन अभी तक उसके लिए ग़ुस्से जैसी कोई बात मन में आई ही नहीं। देर रात तक इस उलझन में नींद नहीं आई।

मन में कुछ आया तो बस यही कि, दोस्त सही ही तो कह रहा है। मेरी इस एक बात से कितने लोगों के हृदय टूट रहे हैं। यदि शादी टूटती है तो उस लड़की पर क्या बीतेगी जो एंगेजमेंट के बाद से ही कितने ही सपने सँजोए बैठी होगी। पूरा परिवार किस तरह बार-बार हाथ जोड़ रहा है, छटपटा रहा है।

घर में भी सबके चेहरे पर कितना तनाव कितना संत्रास दिख रहा है। सबके चेहरे पर यातना की कितनी गाढ़ी लकीरें दिख रही हैं। यह सारी लकीरें मेरे द्वारा कुछ रस्में अदा कर देने भर से ख़ुशी की लकीरों में बदल जाएँगी। और फिर यही हुआ। जब सुबह मैंने छोटे भाई और बहनोई को फ़ोन करके कहा कि, जैसा आप लोग करना चाहते हैं करें। मैं सारी रस्में पूरी करने को तैयार हूँ। इस तरह घर में अचानक ही ख़ुशी बरस पड़ी।

जिसके कारण यह ख़ुशी बरसी, मैंने फिर अपने उस दोस्त को फ़ोन किया। छूटते ही मैंने कहा, "साले, गाली, धमकी देके गया था ना। बड़े जोश में था। उसके बाद क्या हुआ पता किया एक बार भी।"

वह अब भी ताव खाए हुए था। बोला, "अबे धमकी नहीं दी थी समझे, जो कहा था सही कहा था। और सुन, तुम जो बताने वाले हो, वो मुझे मालूम है कि तुम लाइन पर आ गए हो। तभी तुम्हारी काल रिसीव की नहीं तो करता ही नहीं। तुम इसी से सोच लो कि, इस ज़रा सी बात से सब घर भर कितना ख़ुश हैं। जिसमें तुम आग लगाए हुए थे।"

मैंने कहा, "सही कह रहे हो यार, अक़्सर ज़िद के कारण नुक़सान उठाता रहता हूँ।"

"तो ऐसा करो कि अब ज़िद छोड़ दो। घर वालों, बीवी आ जाए तो उसकी भी सुनो। अपनी ख़ुशी से पहले दूसरे की ख़ुशी के बारे में सोचोगे तो हमेशा ख़ुश रहोगे, हाथों-हाथ लिए जाओगे।"

अपने उस मित्र से ऐसी गंभीर अर्थ-पूर्ण बातें भी सुन सकता हूँ, यह कभी कल्पना भी नहीं की थी। उसकी बात सुन कर मैंने कहा, "ठीक है फिलॉसफर भाई याद रखूँगा।"

इस पर वह ज़ोर से हँसा, बोला, "शाम को घर होते हुए जाना।" इसके बाद शादी-ब्याह सब हँसी-ख़ुशी निपट गया। लेकिन, "दूसरे की ख़ुशी के बारे में सोचोगे तो हमेशा ख़ुश रहोगे”, यह बात दिमाग़ से नहीं निकली। यह दिमाग़ में ऐसी बैठी कि, किसी को मेरे कारण कष्ट तो नहीं हो रहा मन इसी विश्लेषण में लगा रहता।

कई महीने बाद लगा कि, यह तो मेरा स्थायी भाव बन गया है। बड़े क्लियर कांसेप्ट वाली बीवी ने छह-सात महीने बाद ही यह कह दिया कि, "रोज़ आप हनुमान सेतु मंदिर के सामने से निकलते हैं। दो मिनट रुक कर पूजा कर लिया करेंगे, हर मंगल को प्रसाद चढ़ा दिया करेंगे तो बड़ा अच्छा होगा। हमें बल्कि हम सबको बड़ी ख़ुशी होगी।"

उसकी बात सुन कर मैं उसका चेहरा देखने लगा। ऐसी बात कही थी जो मेरे लिए किसी सज़ा से कम नहीं थी। मगर उसकी, सबकी ख़ुशी इसी में छिपी थी। और मेरी आदत सी होती जा रही थी दूसरे की ख़ुशी देखने की। मुझे एकटक ख़ुद को देखते पाकर बीवी बोली, "अगर आप को अच्छा नहीं लग रहा है तो कोई बात नहीं।"

नई-नई बीवी जो कुल मिला कर मेरी उम्मीदों से ज़्यादा अच्छी थी। उसकी ख़ुशी का मामला आ पड़ा तो मैं जाने लगा। दो-चार दिन की कोशिश के बाद ही मैं यह शुरू कर पाया। और जब दो हफ़्ते बाद मंगल को प्रसाद चढ़ा कर लौटा तो बीवी को जो ख़ुशी मिली वह तो मिली ही माँ-बाप की ख़ुशी तो रोके नहीं रुक रही थी।

पिताश्री ने पीठ पर धौल जमाते हुए कहा, "वाह बेटा, मैं बीसों साल कहता रहा तो नहीं समझ में आया, बीवी ने दो दिन में समझा दिया।" यह सुन कर बीवी मुस्कुरा कर चली गई भीतर कमरे में।

पिता श्री को देख कर लग रहा था कि, जैसे बरसों बरस बाद उनकी ना जाने कितनी बड़ी मनोकामना पूरी हो गई। इधर मैं पहले दूसरों की ख़ुशी का ध्यान रखते-रखते कब अपने ज़िद्दी स्वभाव से दूर हो गया, इसका अहसास मुझे बहुत बाद में हुआ।

मेरे दोस्त के एक सेंटेंस ने मेरा जीवन बदल दिया था। मेरा घर परिवार बदल गया था। मंदिर जाना मेरी आदत में आ चुका था। मगर सच यह भी था कि, विश्वास कोई बहुत प्रगाढ़ नहीं था। जब पहला बेटा हुआ तो उसे भी ले कर गया। बराबर जाने लगा।

देखते-देखते शादी के आठ साल बीत गए बेटा पाँच साल का हो गया। एक और संतान के लिए बीवी व परिवार का दबाव बराबर पड़ रहा था। तर्क यह कि एक औलाद यानी कानी आँख।

दबाव तब और बढ़ गया जब मेरे छोटे भाई जिसकी शादी मुझ से डेढ़ साल बाद हुई थी, वह जल्दी-जल्दी दो बच्चों का पिता बन गया। बीवी अब हफ़्ते में कम से कम दो बार तो यह डायलॉग बोल देती कि, "बेटा पाँच साल का हो गया है। अम्मा-बाबूजी की भी उमर अब सत्तर पार हो रही है। अगला बच्चा क्या बुढ़ापे में करोगे। अम्मा-बाबूजी के रहते हो जाएगा तो वो कितना ख़ुश होंगे। अब दोनों लोग जीवन के ऐसे पड़ाव पर हैं कि, कब तक साथ रहेंगे कुछ नहीं कहा जा सकता।"

इस बात ने मन में एक बार फिर यह उलझन पैदा कर दी कि, सबकी ख़ुशी की बात फिर आ खड़ी हुई है। कुछ महीनों में यह ज़्यादा गंभीर हो चुकी है। बीवी को छेड़ने के लिए मैंने कई बार कहा भी कि, "यार तुम समझती क्यों नहीं। ज़्यादा बच्चे पैदा करोगी तो तुम्हारा फ़िगर ख़राब हो जाएगा।

“अपना पेट देख रही हो पहले से कितना निकल आया है। कमर कमरा होती जा रही है। और ब्रेस्ट मध्यकाल के रीति कालीन कवियों की नायिकाओं के सुमेरू पर्वत से हो रहे हैं। उनकी साइज़ के तुम्हारे लिए आसानी से कपड़े भी मार्केट में नहीं मिलते, ढूँढ़ने पड़ते हैं। एक्स एल साइज़ में भी तुम्हारे सुमेरू पर्वत फिट नहीं हो रहे हैं। लगता है क़िला तोड़ बाहर ही आ जाएँगे। और बच्चे पैदा करके पूरी पृथ्वी ही हिलाओगी क्या?"

इस पर वह कुछ देर आँखें तरेरती हुई देखती, फिर उसके होठों पर प्यार भरी मुस्कुराहट की एक बड़ी बारीक़ रेखा दिखाई देती और तब वह बड़े अंदाज़ में कहती, "ऐसा है घड़ी-घड़ी नया ड्रामा मत किया करिए। कभी तो इनकी ऐसे तारीफ़ करोगे कि मानो मुझसे सुंदर कोई है ही नहीं। और जब बच्चे की बात करो तो वे सुमेरू पर्वत नज़र आने लगते हैं।

“अपनी पढ़ाई-लिखाई का इस तरह मिसयूज़ ना किया करिए। और ख़ुद की बताइए, मैं तो बच्चा पैदा कर के धरती हिलाऊ हो रही हूँ। ये तुम्हारा पेट चौराहे के भन्गू हलवाई की तरह तिब्बत का पठार क्यों हो रहा है?" ऐेसे ही तर्क-वितर्क देते-देते आख़िर हम दोनों हँस पड़ते थे।

उस दिन रात को भी ऐसा ही हुआ था। तो मैंने कहा, "देखो, हँसी-मज़ाक अपनी जगह है। अम्मा-बाबूजी तो अपने ज़माने, अपनी सोच के हिसाब से बात करेंगे। मगर हमें तो आज के हिसाब से देखना है ना। एक बच्चे को ही पढ़ाने-लिखाने में कितना ख़र्च हो रहा है। अभी मनरीत फ़र्स्ट में है, कितना पैसा लग रहा है? आगे की पढ़ाई के लिए लाखों रुपए चाहिए। इस एक को इस कमाई में ठीक से लिखा-पढ़ा लूँ यही बड़ी बात है। और पैदा कर लिए तो क्या करेंगे? बच्चों को अगर अच्छा भविष्य ना दे सके तो इससे बड़ा अपराध और कोई नहीं होगा।"

बच्चों के भविष्य को लेकर मेरी यह सारी चिंताएँ, सारे तर्क मेरी सुमेरू पर्वत वाली बीवी ने हल्की मुस्कुराहट, रीति कालीन कवियों के शब्दों में मादक-मोहक मुस्कुराहट, चितवन के बाण से पल-भर में एक किनारे कर दी। साफ़ कह दिया कि, "देखो ये सब ठीक है। लेकिन ये बड़े बुज़ुर्ग, घर के बाक़ी छोटे, यह सब लोग भी तो आज ही की दुनिया में जी रहे हैं। क्या वो लोग यह सब नहीं जानते-समझते? सब एक ही बात कह रहे हैं, तो कोई तो मतलब होगा ही ना उसके पीछे। फिर आप यह क्यों नहीं सोचते कि अम्मा-बाबूजी को कितनी ख़ुशी मिलेगी।

“भगवान की कृपा से उन्होंने जीवन में जो चाहा उन्हें सब मिला। सारी ख़ुशियाँ मिलीं। एक तरह से यह उनकी आख़िरी इच्छा, ख़ुशी जैसी बात है। क्या हम-लोग अपने माँ-बाप की आख़िरी इच्छा नहीं पूरी कर सकते। आख़िर में उनका रिकॉर्ड क्यों ख़राब करें कि, उन्होंने जो चाहा, उन्हें सब मिला लेकिन आख़िर में बस एक इच्छा रह गई।"

सबकी ख़ुशी के सरोवर में मेरी बात, मेरी इच्छा फिर कहीं डूब कर विलीन हो गई। मैं सुमेरू पर्वत के नीचे दब कर रह गया।

बीवी ने बताया कि, उसकी माँ-बहनें भी ना जाने कितनी बार यह सब कह चुकी हैं। अंततः फ़ैसले पर अंतिम मोहर लग गई कि, हम-दोनों मनरीत जूनियर को भी इस दुनिया में जल्दी से जल्दी ले आएँगे। रही बात सुमेरू के हिमालय बनने की तो शहर में बॉडी आल्टर के क्लिीनिक्स खुल चुके हैं। वहाँ भी हो आएँगे। इस फ़ैसले के बाद बीवी ख़ुशी से बहक रही थी। मैं भी कहीं कानों में ख़ुशी की रुनझुन सुन रहा था।

अगले दिन तीसरे बड़े मंगल के अवसर पर मंदिर पहुँचना है, यह भी अगले दिन के कार्यक्रमों की लिस्ट में सबसे ऊपर लिख दिया गया था। इसीलिए घर से निकल कर हनुमान सेतु मंदिर हो कर फिर अपने तय रास्ते बँधे वाली रोड से होते हुए निशातगंज रोड की तरफ़ बाइक से चल पड़ा। उस दिन अन्य दिनों की अपेक्षा सड़क पर भीड़ बहुत ज़्यादा थी इसलिए ज़्यादा तेज़ नहीं चल पा रहा था।

कुछ देर बाद मैं निशातगंज रोड के पास पहुँचने ही वाला था कि, देखा पुल से थोड़ा पहले बंधे पर और फिर नीचे उतर कर नदी की तरफ़ उसकी धारा से पहले तक सैकड़ों लोगों की भीड़ लगी थी। मैं भी ठिठक गया। मैंने अगल-बग़ल के लोगों से पूछा, "क्या हुआ ?" तो कई ने कहा, "मालूम नहीं।" और आगे बढ़ा तो पता चला कल एक प्रेमी-युगल यहाँ कूद गया था। उन्हीं को ढूँढ़ा जा रहा है।

यह सुन कर मैंने बाइक किनारे खड़ी की। और बंधे से नीचे उतर गया। सुबह-सुबह अख़बार में यह ख़बर मैं पढ़ चुका था कि एक प्रेमी जोडे़ ने गोमती नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली है। लड़की की लाश तो दो घंटे बाद ही गोताखोरों की मदद से निकाल ली गई थी। लेकिन लड़के की डेड-बॉडी का कुछ पता नहीं चल रहा था।

मैं नीचे पहुँचा तो लड़के के बुज़ुर्ग माँ-बाप उसका छोटा भाई, तीन बहनें और दो बहनोई सब धारा से कुछ पहले ही सारी उम्मीदों के बिखर जाने से आहत, भरी-भरी सूजी हुई आँखें लिए दिखाई दिए। माँ दुपट्टे से अपना मुँह दबाए रोए जा रही थी। बीच-बीच में टूटती आवाज़ों में कहे जा रही थी, "या अल्लाह रहम कर, मेरे बच्चे को बचा लो, मेरा बच्चा मुझे बख़्श दो।"

मैं अपेक्षाकृत शांत खड़े उसके बहनोइयों के पास पहुँचा कि उनसे तफ़सील से सब जान लूँ। दरअसल किसी भी घटना की तह तक पहुँच कर उसकी सारी बातें जान लेने, रेशा-रेशा समझ लेने की मेरी आदत सी है। मैं अभी उनके पास पहुँचा ही था कि, एक पुलिस वाले ने फिर से सबको डंडे से फटकारते हुए ऊपर जाने को कहा।

एक मेरे पास भी पहुँचा और उखड़ते हुए बोला, "अरे! चलिए ऊपर जाइए। आपको अलग से कहा जाएगा क्या?" इस पर मैंने उसके क़रीब पहुँच कर अपना परिचय देते हुए कहा, "मैं सूचना विभाग में हूँ। मैं कुछ बातें जानना चाहता हूँ।" इस पर वह नम्र हुआ। और पूछने पर उसने पूरी घटना बताई कि, "दोनों पुराने शहर के टुड़ियागंज के पास के एक मोहल्ले के हैं। कुछ साल पहले तक दोनों घरों में आना-जाना था। वहीं लड़का-लड़की क़रीब आए। इसको लेकर दोनों परिवार में झगड़ा शुरू हो गया। लाख बंदिशों के बावजूद दोनों मिल ही लेते थे। लड़की वाले काफ़ी अच्छे बिजनेसमैन हैं, पैसे वाले हैं। लड़के वाले उसके सामने कुछ भी नहीं। दूसरे लड़की पढ़ी-लिखी थी। लड़का सातवीं-आठवीं पास था, किसी टेलर शॉप में टेलर था।

“बंदिशें ज़्यादा हुईं तो पिछले महीने दोनों भाग गए। बरेली में जाकर निक़ाह कर लिया। हफ़्ते भर बाद लौटे तो लड़के के परिवार ने दोनों को हाथों-हाथ लिया। मगर लड़की वाले पैसे के दम पर निक़ाह को अवैध ठहराते हुए पुलिस के पास पहुँच गए। लड़की को ज़बरदस्ती साथ लेते गए। लेकिन दोनों एक दूसरे के दीवाने थे। मौक़ा मिलते ही भाग निकले। शहर छोड़ने की फ़िराक़ में थे। दोनों रेलवे स्टेशन पर भी देखे गए थे। मगर फिर पता नहीं क्या हुआ कि, यहाँ आकर कूद गए।

“लड़की की डेड बॉडी तो कल ही दो घंटे बाद मिल गई थी। पोस्टमार्टम के बाद आज उसके घर वालों को मिल जाएगी। मगर लड़के की अभी तक नहीं मिल पाई है। गोताखोर अंदर जा-जाकर ख़ाली हाथ लौट रहे हैं।"

मैंने कहा, "अब तक तो बॉडी फूल कर ख़ुद ही ऊपर आ जाती।"
वह बोला, "हाँ, लेकिन हो सकता है, इतनी ऊपर से कूदने पर नीचे किसी पत्थर, झाड़ी वग़ैरह में हाथ-पैर फँस गए हों।"

मैंने कहा, "यह भी हो सकता है बॉडी आगे बह गई हो।"

इस पर वह कांस्टेबिल बोला, "हाँ, यह भी हो सकता है।"

उसके लापरवाही भरे अंदाज़ से मैं जल-भुन उठा। मैं वहाँ से तुरंत लड़के के माँ-बाप के पास पहुँचा लेकिन उनका रोना, उनकी दयनीय हालत देख कर मैं अंदर तक काँप उठा। कुछ मिनट उन्हें देखता रहा फिर भारी मन से ऊपर चला आया।

सड़क पर आने-जाने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। मैंने बाइक स्टार्ट की, ऑफ़िस चला गया। लेकिन काम में मन बिल्कुल नहीं लग रहा था। नज़रों के सामने से लड़के के माँ-बाप का चेहरा हट ही नहीं रहा था। माँ रोते-रोते बार-बार अपने बेटे का नाम ले रही थी। "अरे! कोई मेरे लाल को ला दो। अरे! बेटा नाज़िम ये क्या कर डाला तूने। या अल्लाह। क्या हो गया था तुझे . . .”

उसकी माँ की इस करुण हालत ने मुझे इतना परेशान कर दिया कि, काम-धाम तो दूर की बात थी। मेरा ऑफ़िस में रुकना ही मुश्किल हो गया। बस जी करता कि, तुरंत नाज़िम के घर वालों के पास पहुँच कर कैसे भी हो उनकी मदद करूँ। नाज़िम की डेड बॉडी निकलवा लूँ।

उसके परिवार के सदस्यों की हालत देख कर अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था कि, आर्थिक रूप से वो बहुत कमज़ोर हैं। मेरी व्याकुलता इतनी बढ़ी कि, लंच के बाद सीनियर से तबियत ख़राब होने की बात कह कर निकल लिया।

ए.टी.एम. से दस हज़ार रुपए निकाले कि, नाज़िम के परिवार को दे दूँगा। उनकी कुछ तो मदद हो जाएगी। अभी डेड बॉडी का पोस्ट-मार्टम वग़ैरह होने का भी झंझट है। चलते समय मैंने यह भी तय कर लिया कि, यदि डेड-बॉडी अब-तक मिल गई होगी, और वो लोग घर चले गए होंगे तो फिर उनके घर जाऊँगा।

बंधे पर जब पहुँचा तो देखा हालात जस के तस थे। तेज़ चिल-चिलाती धूप थी लेकिन रोड पर मंदिर जाने वालों का ताँता जस का तस लगा हुआ था। नीचे नाज़िम के परिवार के पास गिने-चुने लोग थे। पुल की दीवार की छाया में नाज़िम का परिवार था। सब के चेहरे पर मायूसी, दुख की गाढ़ी लकीरें थीं। माँ वहीं एक कपड़े पर निश्चल लेटी हुई थी। मुझे लगा शायद कल से रोते, जागते रहने के कारण पस्त होकर निढाल हो गई है।

मैंने पास पहुँच कर उनकी लड़की से पूछा तो उसने कहा, "कुछ देर पहले गश खाकर लुढ़क गईं थीं, तो लिटा दिया है। इतनी निढाल हो गई हैं कि बैठना मुश्किल हो गया है।"

उनकी बात सुनते ही मेरे मुँह से अचानक ही निकल गया कि, "हो सके तो इन्हें घर भिजवा दीजिए, गाड़ी की व्यवस्था मैं करवा देता हूँ।" उसने कहा, "कोई फ़ायदा नहीं, जाने को ही तैयार नहीं हैं। कहतीं हैं कि, बेटा मिलेगा तभी जाऊँगी। नहीं तो यहीं मैं भी डूब जाऊँगी।"

यह सुन कर मैं एकदम परेशान हो उठा। मन जैसे एकदम छटपटा उठा कि इस दुखियारी माँ के लिए ऐसा क्या कर दूँ कि, इसका बेटा मिल जाए।

उसके कराहने की आवाज़ मेरे कानों तक आ रही थी। इसी बीच उसके दामाद और परिवार के एक-दो और लोग मुझे वहाँ खड़ा देख कर आ गए तो मैं उनकी ओर मुख़ातिब हुआ और संक्षेप में अपना परिचय दे कर पूछा कि, "ये गोताख़ोर क्या बता रहा है? दोनों एक ही जगह कूदे हैं? एक डेड-बॉडी दो घंटे मिल गई। दूसरे में इतना वक़्त क्यों लगा रहा है?" इस पर एक व्यक्ति जो पड़ोसी था उनका, वह गोताख़ोरों और पुलिसवालों को गरियाते हुए बोला, "साले जानबूझ कर नहीं निकाल रहे हैं।"

उसने लड़की पक्ष के लोगों को भी अपशब्द कहते हुए कहा कि, "सालों ने इसको पैसा तौल दिया होगा, कह दिया होगा मत निकालना। यहाँ ग़रीबों की सुनने वाला कौन है?"

मुझे उसकी बात में कुछ दम नज़र आया। उसका ग़ुस्सा जायज़ था। उसकी बात को सिरे से नकारा नहीं जा सकता था। आग बरसाती धूप, गर्म हवा के थपेड़ों ने मेरी परेशानी दो गुनी कर रखी थी। पसीने से लथपथ हो गया था। जान-बूझ कर डेड बॉडी नहीं निकाल रहे हैं, यह सुन कर मैं बड़ा खिन्न हो गया कि, आख़िर लोग इतने नीच, इतने गिरे हुए कैसे हो जाते हैं कि, लाश को भी नहीं छोड़ते।

एक इंसान जो अब इस दुनिया में नहीं रहा, उसके शरीर पर भी खिलवाड़, प्रतिशोध, वार। यह सोचते-सोचते मैं पुल के नीचे छाया में पहुँच गया। गोमती की धारा पुल से काफ़ी आगे बीचों-बीच थी। वहाँ पाँच-छह लोग और भी थे, जो दीवार के सहारे टेक लगाए बैठे थे।

ये गाँजा, भाँग, चरस, स्मैक का नशा करने वाले वह नशेड़ी टाइप के लोग थे, जो हनुमान सेतु मंदिर, इस पुल के बीच मँडराया करते हैं। मंदिर में आने वाले भक्तों से जो कुछ खाने-पीने को और पैसे मिल जाते है उन्हीं से पेट भरते हैं, और नशे का जुगाड़ करते हैं। मैं उन सबसे चार क़दम पहले खड़ा सोच ही रहा था कि, क्या करूँ तभी देखा गोताख़ोर भी वहीं आ कर बैठ गया।

वह कुछ देर पहले ही दो मिनट से ज़्यादा समय तक डुबकी लगा कर ख़ाली हाथ लौटा था। नाज़िम के घर वाले एकदम उसके पास पहुँचे थे। फिर उसने जो भी कहा हो, उसके बाद फिर सब अपनी-अपनी जगह चले गए।

मैं भी उसके पास पहुँचा, पूछा, "क्या बात है? बॉडी क्यों नहीं मिल रही है?"
इस पर उसने मुँह ऊपर करके, आँखें तरेर कर एक नज़र मुझे देखा फिर कहा, "वो मेरे सामने नहीं पड़ी है कि, हम जाएँ और उठा कर लेते आएँ। इतनी गहरी, बड़ी नदी है। अंदर जाकर ढूँढ़ना पड़ता है। जान हथेली पर ले के जाता हूँ। भूसे में सूई की तरह ढूँढ़ता हूँ। हम कोई जान-बूझ कर तो उसे नीचे ही छोड़ कर नहीं आ रहे। बार-बार गोता लगाने में मेरी भी जान को ख़तरा है। हमारा भी परिवार है।"

उसकी इस दबंगई से मैं ग़ुस्से में आ गया।

बड़ी मुश्किल से अपने ग़ुस्से को जज़्ब कर शांत रहा। सोचा कहीं बिगड़ गया तो नाज़िम के परिवार वाले ग़ुस्सा 
होंगे। वह गोताखोर क़रीब दस मिनट वहाँ बैठा रहा फिर उठ कर नदी की धारा के किनारे-किनारे क़रीब डेढ़ सौ क़दम आगे चला गया। नाज़िम के परिवार के चार-पाँच लोग भी उसी से कुछ बात करते हुए साथ-साथ गए थे। मैं उसे तब तक देखता रहा जब-तक कि, वह आगे जाकर फिर नदी में नहीं कूद गया।

जब वह कूदा तभी वहाँ बैठे नशेड़ियों में से एक बोला, "साला नौटंकी कई रहा है। फिर ख़ाली हाथ आई। गर्मी माँ तैरे का मजा लई रहा है। अबै हाथ माँ गड्डी थमाय दौ, निकाल के सामने रखि देई।"

उसकी यह बात सुन कर मेरे कान खड़े हो गए। सोचा कि, यह क्या कह रहा है? जो बातें अक़्सर सुनता था क्या वह सच है कि, ये सब बिना पैसा लिए डेड-बॉडी नहीं निकालते। तो क्या लड़की वालों ने पैसा तौल दिया था जो इसने दो घंटे में ही उसकी डेड-बॉडी निकाल दी थी।

बात की तह तक जाने के लिए मैं उन नशेड़ियों के पास ही बैठ गया। ज़रा सी उन सब जैसी बात की तो वह सब खुल गए। बात-चीत में सब ने साफ़ कहा अभी पाँच-दस हज़ार हाथ पर रख दो, बस थोड़ी देर में सब काम हो जाएगा। देर करने से कोई फ़ायदा नहीं। लाश अंदर सड़ जाएगी। जो जलीय जीव हैं, नोच खा कर वो उसकी बुरी गति अलग बना रहे होंगे।

यह सब सुन कर मैं गोताख़ोर पर ग़ुस्सा हो उठा। मुँह से कुछ गालियाँ निकल गईं तो एक नशेड़ी फिर बोला, "बाबू जी इनका पुलिस वाले भी कुछ ना कर पहिएँ। ई ऐइसे डुबकी लगाए-लगाए कहता रही, कि नहीं मिली। मुर्दा की गति खराब करने से कोई फ़ायदा नहीं। ज्यादा टाइम होई जाई तो डूबकीयों लगाईब बंद कर देई, चला जाई। कह देई लाश कहीं बह गई। फिर कबहूँ लाश ना मिली।"

यह सुन कर मैं घबरा गया कि, नाज़िम की माँ की ऐसे में क्या हालत होगी, क्षण-भर में यह सोचते ही मेरा हलक़ सूख गया। मैंने सशंकित मन से कहा, "लेकिन इतना टाइम हो रहा है, अब-तक तो लाश फूल कर ख़ुद ही उतराने लगती।"

नशेड़ियों में से फिर एक बोला, "अरे! बाबूजी ये गोताखोर आने देगा तब ना।"

मैंने चौंकते हुए पूछा, "क्या मतलब?"

तो वह बोला, "ये सब लाश को नीचे पत्थर-वत्थर से दबा देते हैं या बाँध देते हैं किसी चीज से। इनके इस काम का कभी किसी को पता नहीं चलता।"

उसकी इन बातों को सुन कर अचानक ही मेरे मुँह से स्वतः ही यह निकल गया कि, "हे भगवान ये क्या हो रहा है? लाश का भी सौदा हो रहा है।" इस तरफ़ ध्यान जाते ही मैं चिहुँक पड़ा कि मेरे मुँह से यह क्या निकल गया? मैंने तो ऐसा सोचा ही नहीं।

मैंने यह महसूस किया कि, मन में ईश्वर पर आस्था का अथाह सागर लहराने लगा है। शरीर में ऐसी अजीब सी अनुभूति हो रही थी कि उसे अभिव्यक्त करने के लिए मैं कोई शब्द अभी तक नहीं ढूँढ़ पाया। उसी समय मुझे मारने की धमकी देने वाले अपने उसी मित्र की बात भी असमय ही याद आ गई। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि, मुझे क्या हो रहा है। तभी मैंने दूर से नाज़िम के कुछ परिवारीजन के साथ गोताख़ोर को ख़ाली हाथ आते देख लिया।

मन उसको लेकर क्रोध से उबल पड़ा लेकिन नशेड़ी की बात याद आई कि, पुलिस भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मैंने फिर ख़ुद को सँभाला और तय कर लिया क्या करना है। कुछ देर में वह फिर नशेड़ियों से कुछ दूर छाया में बैठ गया।

नाज़िम के लोग अपने लोगों के पास चले गए। तब मैं उठ कर उसके पास जाकर बैठ गया। उसने एक नज़र मुझ पर डाली फिर सामने नदी की तरफ़ देखने लगा। उस को वहाँ मेरा बैठना खल रहा था। फिर मैंने सही बात जानने के लिए उससे उसके जैसे हो कर बात की तो वह कुछ खुला।

उसने अपना नाम कल्लू बताया। नाम सुन कर मैंने मन ही मन कहा कि, माँ-बाप ने सही ही नाम रखा है। कल्लू। दिल का, तन का, विचारों का काला आदमी।

मैंने उसे कुरेदते हुए पूछा, "तुम अकेले कर लोगे यह काम?"

वह बोला, "इस समय कई गोताख़ोर बाहर गए हैं, मैं फ़िलहाल अकेला हूँ।"

मैंने कमाई के बारे में पूछा तो वह टाल गया, "अरे! साहब मौत हाथ पर लिए जाता हूँ। लेकिन कमाई-धमाई क्या कुछ नहीं। आज-कल लोग काम तो तुरंत चाहते हैं। मगर सब मुफ़्त में। काम होने के बाद कोई मुड़ कर देखता भी नहीं कि, गोताख़ोर भी नदी से बाहर आ गया है कि नहीं।" उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए मैंने कहा, "तुम सही कह रहे हो। दुनिया है ही इतनी स्वार्थी। आख़िर तुम लोगों का भी तो कोई वजूद है।

“अच्छा एक बात बताओ इस काम में तुम कल से लगे हो। लड़की की डेड बॉडी दो घंटे में ही निकाल दी। लड़के की भी ढूँढ़ ही रहे हो। निकाल ही दोगे। कल उन लोगों ने काम होने के बाद कुछ दिया-विआ की नहीं, कि बस काम बनते ही चलते बने।"

मेरी इस बात पर गहरी साँस ली फिर बोला, "जाने भी दीजिए बाबूजी, क्या करना है। मिल गया तो ठीक है, नहीं तो कोई बात नहीं।"

उसकी मंशा भाँपते हुए मैंने कहा, "देखो कल्लू, बुरा नहीं मानना। लड़की वालों ने तुम्हें दिया कि नहीं, मैं नहीं जानता। और सच यह है कि, जानना भी नहीं चाहता। मैं तुमसे एक बहुत ज़रूरी बात कहना चाहता हूँ। सुनो, मैं बाद की कोई बात ही नहीं रखना चाहता हूँ। ये पाँच हज़ार तुम अभी लो और लड़के को अब बाहर ले आओ, बाद में और हो सका तो वो भी देखेंगे।"

अचानक ही मेरे द्वारा पैसा एकदम उसके हाथ पर रख देने से वह चौंक सा गया। बोला, "मगर साहब घर वाले तो कुछ बोल ही नहीं रहे हैं, आप क्यों ये सब कर रहे हैं। आप उसके घर के तो नहीं लगते।"

मैं बातों में उलझना नहीं चाहता था। इसलिए कहा, "छोड़ो, ये सब बातें बाद में हो जाएँगी। अभी तो जैसे भी हो जल्दी से काम पूरा कर दो।"

इस के बाद उसने नशेड़ियों के झुंड में किसी को इशारा किया। उनमें एक अजीब सी चाल में लगभग दौड़ता आया। गोताख़ोर ने उसकी मुट्ठी में नोट थमाते हुए ना जाने कौन सी बात भुन्न से कही कि, मैं सुन नहीं पाया। मगर वह नशेड़ी सुनते ही उसी गति से वहाँ से भाग गया। नशेड़ियों के झुंड में वापस नहीं गया। बल्कि सीधा ऊपर बंधे वाली सड़क पर चढ़ कर मंदिर की ओर जाते भक्तों की भीड़ में ओझल हो गया।

उसके ओझल होने के बाद मेरा ध्यान गोताख़ोर की ओर गया। मैंने उसकी तरफ़ देखा ही था कि, वह बोला, "घबराइए नहीं साहब, जी-जान लगा दूँगा। जैसे भी हो निकाल कर लाऊँगा।"

इतना कहते हुए वह उठ कर चला गया। मैं इस वक़्त अपने को बड़ा ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था। वह नशेड़ी इसी गोताख़ोर का आदमी था। इतना क़रीबी, इतना विश्वसनीय कि, उसने उसे बिना हिचक सारे पैसे दे दिए। मैं उससे कुछ पूछ सकूँ इसके पहले ही वह गोता लगाने चल दिया।

बोल ऐसे रहा था जैसे उससे सज्जन आदमी कोई दूसरा नहीं होगा। पैसा लेकर जाने वाले नशेड़ी ने ही मेरे कान तक यह बात पहुँचाई थी कि, पाँच-दस हज़ार दे दो, अभी निकाल कर रख देगा। यह सुन कर ही मेरा दिमाग़ इस ओर गया था। और मैंने यह सोचा यदि, पैसा देकर ही काम बन जाता है तो दे देते हैं।

नाज़िम का शव उसके परिवार को तो मिल जाएगा। एक माँ के वह आँसू तो बंद हो जाएँगे जो शव न मिलने के कारण बह रहे हैं। ठगे जाने के अहसास से दोनों पर बड़ी ग़ुस्सा आ रहा था। मैं वहीं बैठा था। तभी देखा नाज़िम के परिवार के लोग उस जगह तक आगे चले गए थे, जहाँ वह गोताख़ोर गया था।

अगले क़रीब आधे घंटे तक मैं वहीं बैठा रहा। बड़ी कशमकश, बड़ी उधेड़बुन में बीता यह समय। भगवान के लिए बेसाख़्ता ही मेरे मुँह से जैसे शब्द निकल गए थे, वह मेरे लिए अचरज भरा था। ऐसी कौन सी अदृश्य ताक़त थी जिसके प्रभाव से यह हो गया। मुझे अहसास यह होने के बाद हुआ।

नाज़िम के लिए जिस तरह से सुबह से परेशान हूँ, उसके लिए तो मुझे अचरज जैसा कुछ नहीं लगा, क्योंकि मेरे मित्र की बात ने जो उसने बरसों-बरस पहले कही थी केवल परिवार के संबंध में, वह जाने-अनजाने मेरी प्रकृति बन गई थी, कि दूसरे की ख़ुशी भी कभी देख लिया करो। आदत में परिवर्तन ऐसा हुआ था कि, किसी की मदद या उसकी ख़ुशी के लिए क़दम ख़ुद ब ख़ुद बढ़ जाते हैं। इसी में मुझे ख़ुशी मिलती है। या यह कहे कि इसी में मैं अपने लिए ख़ुशी पाता था।

अचानक मेरे कानों में नाज़िम के परिवार के उन सदस्यों की तेज़ रोने की आवाज़ सुनाई दी, जो गोताख़ोर के पीछे गए थे। मैं भी उठ कर तेज़ी से भाग कर वहाँ पहुँचा। वहाँ का दृश्य देख कर मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई। आँखें भर आईं।

गोताख़ोर कल्लू एक युवक की अच्छी-ख़ासी फूल चुकी डेड-बॉडी दोनों हाथों में लिए किनारे आ चुका था। यह निश्चित ही नाज़िम था। उसका बदन अकड़ा हुआ था। चेहरा बेहद डरावना वीभत्स हो रहा था। दोनों आँखों की जगह बड़े गढ्ढे से नज़र आ रहे थे। माँस, चमड़ी छितरा चुकी थी। हाथों-पैरों में भी कई जगह जलीय जन्तुओं द्वारा काटे जाने के वीभत्स निशान थे।

कपड़े शरीर से एकदम तने हुए थे। शर्ट की बटन लगता था कि, बस अब टूट ही जाऐगी। बॉडी देख कर यह साफ़ था कि, युवक अच्छा-ख़ासा लंबा था। कल्लू ने नाज़िम के शरीर को जैसे ही रेतीली ज़मीन पर रखना चाहा, उसके पहले ही नाज़िम की बड़ी बहन ने चीख़ कर कहा, "रुको भइया।"

कल्लू एकदम से ठिठक गया। इसी बीच बहन ने अपना दुपट्टा झटके से उतार कर ज़मीन पर फैला दिया कि, उसके दिवंगत भाई का शव यूँ ही ज़मीन पर ना रखा जाए।

शव को सँभालना कल्लू के लिए भारी पड़ रहा था। वह दुपट्टा पूरी तरह बिछा भी ना पाई थी कि, कल्लू ने शव को उसी पर लिटा दिया और हाँफते हुए दो क़दम पीछे हट गया। शव को देख कर परिवार की तीन महिलाएँ जो उसकी बहन के साथ आई थीं, वो भी बहन के साथ पछाड़ खा-खा कर गिरी जा रही थीं। पुरुष सदस्य भी फफक पड़े थे।

सभी शव के इर्द-गिर्द बैठ गए थे। इसी बीच दो कांस्टेबल भी वहाँ आ धमके। उनके पीछे-पीछे चार-पाँच लोग नाज़िम की माँ को बिल्कुल पस्त हालत में लेकर पहुँच गए। वह बेटे को देखते ही बेहोश हो गईं। साथ की महिलाओं ने समय पर न सँभाल लिया होता तो वह धड़ाम से रेतीली ज़मीन पर चित्त पड़ी होतीं।

सभी का रोना, करुण क्रंदन ऐसा था कि, मानो कलेजा ही फट पड़ेगा। मैं अपने लोगों के बीच कठोर हृदय व्यक्ति के रूप में जाना जाता हूँ। लेकिन उस दृश्य को देख कर मेरी भी आँखें भर आईं। मुझ से रहा नहीं जा रहा था।

मैंने सोचा अब चलूँ यहाँ से, नाज़िम का शव मिल गया है। उसके परिवार के सारे लोग उसके साथ हैं। मुझे तो कोई जानता भी नहीं। अब मेरा यहाँ क्या काम? तभी मुझे कल्लू से कही बात याद आई कि शव बाहर ले आओ फिर और हो सका तो करते हैं।

मैंने सोचा चलो उसको हज़ार पाँच सौ और दे कर निकलूँ यहाँ से, घर चलूँ। थक गया हूँ। मेरी नज़र कल्लू को ढूँढ़ने लगी लेकिन वह नदारद था। मैं आश्चर्य में पड़ गया कि, पुलिस ने इतनी जल्दी उसे क्यों निकल जाने दिया। अब तक आस-पास सौ के क़रीब लोग इकट्ठा हो चुके थे। कल्लू पर मुझे बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था। उसकी हरकत पर गालियाँ निकलने लगीं मुँह से।

जिस तरह पैसे मिलने के बाद उसने देखते-देखते शव निकाल दिया था। उससे यह साफ़ था कि, उसने पैसों के लिए ही जानबूझ कर शव को दबाया था। जिसकी वज़ह से पूरा परिवार चौबीस घंटों से ख़ून के आँसू रो रहा है।
एक शव पानी में सड़ रहा था। जलीय जीव-जन्तु उसे नोच-खसोट रहे थे। वह कुछ हज़ार रुपयों के लिए यह सब कर रहा था। यह क्रूरता, हृदयहीनता की निशानी नहीं है, तो इसे और क्या कह सकते हैं? मेरा चित्त बिल्कुल फट गया।

नाज़िम के परिवारजनों के रोने बिलखने की आवाज़ अब भी आ रही थी। पुलिस अपनी कार्यवाई में लग चुकी थी। तभी मेरे दिमाग़ में आया कि बचे हुए पाँच हज़ार रुपए नाज़ि़म के परिवार को दे दूँ। उनके इस गाढ़े वक़्त में ये कुछ तो काम आ ही जाएँगे। अभी पोस्टमार्टम और ना जाने क्या-क्या क़ानूनी कार्यवाइयों के झमेले भी झेलने हैं इस परिवार को। बदनसीब का अंतिम संस्कार आज भी नहीं हो पाएगा। मिट्टी की दुर्गति अलग होगी।

मैंने किसी तरह पूछताछ कर नाज़ि़म के बहनोई को यह कहते हुए पाँच हज़ार रुपए दे दिए कि, "ये रखिए, कुछ काम से नाज़िम ने मुझे दिए थे। नाज़ि़म का सुना तो चला आया। कल घर आऊँगा।" मेरी इस बात से उनको लगा कि, मैं शायद नाज़िम का दोस्त या कोई परिचित ही हूँ। मैंने ऐसा यह सोच कर कहा कि, कोई किसी अनजान से , ऐसे भला पैसा क्यों लेगा, वो आगे कुछ पूछे-ताछे, उनके परिवार को रोता-बिलखता छोड़ कर मैं घर आ गया।

घर पर उस दिन सामान्य से ज़्यादा चहल-पहल थी। लेकिन मेरा मन किसी चीज़ में नहीं लग रहा था। देर रात तक सब खा-पी कर सो गए। मैं बेड पर पीछे तकिया लगाए बैठा था। बग़ल में ही पत्नी भी अस्त-व्यस्त पड़ी थी। निश्चिंत सो रही थी। उसके सुमेरू पर्वत क़रीब-क़रीब पूरे खुले हुए थे। लेकिन मेरा मन फिर भी मित्र की इस बात का विश्लेषण कर रहे थे कि, "कभी किसी दूसरे की ख़ुशी के बारे में भी सोच लिया करो।"

मुझे लगा कि, उसके इस एक सेंटेंस ने किस तरह मेरा मूल चरित्र ही बदल दिया है। अब किसी का कष्ट देखना संभव नहीं बन पा रहा है। लोगों को यदि नाज़ि़म की घटना बताऊँगा तो शायद इसे वो मेरा पागलपन ही कहेंगे। तभी स्कूली जीवन में पढ़ा प्रताप नारायण मिश्र का एक निबंध "बात" याद आने लगा। जिसमें बात के प्रभाव का विश्लेषण था।

आख़िर एक बात ने ही तो मुझे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। तभी घनघोर गहरी नींद में सो रही मेरी पत्नी का एक हाथ मेरी जांघों पर आ गिरा। मेरी विचार शृंखला टूट गई। और दुबारा नहीं जुड़ पाई। मैं लेटने के बाद भी देर तक जागता रहा। आख़िर सोता भी कैसे, बरसों-बरस बाद अनायास ही दिन में मुँह से भगवान का नाम निकल आया। उनमें पूरी आस्था प्रकट हो चुकी थी। अब मुझे कहीं किंतु-परंतु नज़र ही नहीं आ रहा था।

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/11/21 07:14 PM

बेहद भावुक और संवेदनशील अभिव्यक्ति

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