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किसी ने नहीं सुना

 

रक्षा-बंधन का वह दिन मेरे जीवन का सबसे बड़ा अभिशप्त दिन है। जो मुझे तिल-तिल कर मार रहा है। आठ साल हो गए जेल की इस कोठरी में घुट-घुटकर मरते हुए। तब उस दिन सफ़ाई देते-देते शब्द ख़त्म हो गए थे। चिल्लाते-चिल्लाते मुँह ख़ून से भर गया था। मगर किसी ने यक़ीन नहीं किया। 

पुलिस क़ानून, दोस्त, रिश्तेदार, बच्चे और बीवी किसी ने भी नहीं। सभी की नज़रों में मुझे घृणा दिख रही थी। सभी मुझे ग़लत मान रहे थे। मेरी हर सफ़ाई, हर प्रयास घृणा की उस आग में जलकर ख़ाक हो गए थे। 

ज़िन्दगी भर से सुनता आ रहा हूँ, क़ानून के हाथ बड़े लंबे होते हैं, उससे बड़े से बड़ा चालाक अपराधी भी नहीं बच सकता, लेकिन यहाँ अपराधी आठ बरस से आराम से घूम रहे हैं, मस्त जीवन जी रहे हैं। अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए एक निर्दोष को धोखे से फँसा कर अपराधी साबित कर दिया। 

क़ानून के शिकंजे में वे नहीं बल्कि उन सबने उसे अपने शिकंजे में कर प्रयोग कर लिया। और उनकी साज़िश का शिकार बना मैं जेल में सड़ रहा हूँ। वो भी दुनिया के सबसे घृणित अपराध के आरोप में। एक बलात्कारी के रूप में। अपनी ही साथी से बर्बरता-पूर्वक बलात्कार करने, उसकी हत्या करने के प्रयास के आरोप में। धारा तीन सौ छिहत्तर, तीन सौ सात के तहत। 

आज भी बीवी से नज़र मिला नहीं पाता। बहन राखी बँधवाने फिर आने लगी है। शुरू के दो बरस तो वह आई ही नहीं। हाँ न जाने क्यों बहनोई शुरू से ही अन्य सबकी अपेक्षा मेरे प्रति नरम रहे हैं और ढाढ़स बँधाते रहते हैं, और जिस साले को मैं उठाईगीर, छुट्ट-भैया नेता मानता था वह सबसे ज़्यादा काम आया। 

उस दिन भी जब मैं राखी बँधवाने के बाद वापस घर आने के लिए निकला और बहनोई के पैर छूने लगा तो उन्होंने गले से लगाकर कहा था, “नीरज गाड़ी आराम से चलाना। यार कहना तो नहीं चाह रहा था लेकिन बात क्योंकि तुम मियाँ-बीवी के बीच खटास का कारण बनती जा रही है, इसलिए कह रहा हूँ। 

“इसे एक बहनोई की नहीं एक सच्चे मित्र की सलाह मानकर विचार करना। देखो बाहर जो भी करो मगर इसका ध्यान रखो कि उससे तुम्हारा परिवार डिस्टर्ब न हो। घर की शान्ति न भंग हो। क्योंकि घर की शान्ति गई तो समझ लो सब गया। ऑफ़िस में संजना के साथ तुम्हारे जो भी सम्बन्ध हैं, उसे मैं तुम्हारा पर्सनल मैटर मानता हूँ। 

“मगर जब कोई मैटर अच्छे ख़ासे ख़ुशहाल परिवार की नींव हिलाने लगे तो ज़रूर सोचना चाहिए। तुम एक ख़ुशहाल परिवार के मालिक हो। दो होनहार बच्चे हैं। और बहुत ख़ुशक़िस्मत हो कि नीला जैसी बेहद समझदार पढ़ी-लिखी बीवी मिली है। ऐसे में संजना जैसी औरत की तुम्हारी ज़िन्दगी में कैसे कोई अहमियत हो सकती है? कम से कम मैं तो नहीं समझता। गंभीरता से विचार करो। नीला और बच्चों में ही तुम्हारी सब ख़ुशी है, सारा संसार है और उन सबका तुम में। तुम अपने परिवार की ख़ुशी छीन कर कहीं और लुटा रहे हो, नीरज। जबकि वह तुम्हें पहले ही एक बार चीट कर चुकी है। यदि मेरी बात अच्छी न लगे तो क्षमा करना।” 

उन्होंने इतना कहकर बड़े प्यार से कंधा थप-थपाकर विदा किया था। उनकी बात में, कंधा थप-थपाने में एक पिता का सा भाव था। अपनत्व की शीतलता थी। लेकिन तब मेरी मति पर पत्थर पड़ा था। संजना के प्यार नहीं बल्कि उसके छद्म प्यार की काली छाया थी मुझ पर, और मुझे उनकी बात बुरी लगी थी। 

तब मेरे मन में आया था कि यह समझाना-बुझाना ज़्यादा हुआ तो आना ही बंद कर दूँगा। बहन पर भी ग़ुस्सा आया था कि, वह भी कभी फ़ोन पर कभी मिलने पर संजना को लेकर व्यंग्य करना नहीं भूलती। भले ही मज़ाक के रूप में कहे, कहती ज़रूर है। 

ग़ुस्सा बीवी पर भी बहुत आया था। उसे मन ही मन न जाने कितनी गालियाँ दी थीं। कोई भी ऐसी भद्दी गाली न थी जो उस वक़्त न दी हो। घर पहुँच कर पीटने का भी मन कर रहा था कि यह मेरी बातें बताती क्यों है बहन-बहनोई से। और न जाने किस-किस से बताती रहती है। 

ग़ुस्सा इतना बढ़ गया, कि घर न जाकर एक होटल में बैठ गया था। फिर वहीं चाय नाश्ता करते-करते ग़ुस्से से उबलते-उबलते संजना को फ़ोन कर दिया था। मन में उस वक़्त चल रहा था कि, रोकना हो तो रोक लो। जितना कहोगे उतना जाऊँगा। इन सबसे मेरी ज़रा सी ख़ुशी देखी नहीं जाती। सब सिर्फ़ पैसे के साथी हैं। अपने-अपने सुखों के लिए मरते रहते हैं। मैं दो पल की ख़ुशी कहीं ढूँढ़ लेता हूँ तो, सब भड़क उठते हैं। 

ग़ुस्सा और प्रतिशोध उस वक़्त इतना बढ़ गया था कि, संजना से फ़ोन पर उस वक़्त यह सारी बातें शेयर कर डाली थीं। बीच में कुछ दिनों गंभीर अनबन के बाद संजना से दुबारा मेरे रिश्ते जब से मधुर हुए थे तब से मैं उसको लेकर और भी ज़्यादा पोजेसिव हो गया था। 

यह सब बताते-बताते एकदम भावुक हो उठा था। उस वक़्त बीवी बच्चे सब मुझे सबसे बड़े दुश्मन लग रहे थे और संजना सबसे बड़ी हितैषी। तब की अपनी सबसे बड़ी हितैषी से मैंने तुरंत मिलने के लिए कहा। पहले वह तैयार न हुई। बहुत ज़ोर देने पर दो घंटे बाद आई थी। उसे देखकर मैं ख़ुशी से एकदम फूल गया था। 

मुझे अपनी सारी ख़ुशियाँ उसी में दिख रही थीं। इत्तेफ़ाक से वह भी अपने घर वालों से झगड़ा करके आई थी। अपनी माँ और अपने इकलौते भाई से। उसकी चार बहनें थीं उनसे भी उसकी पटती नहीं थी। दरअसल वह अपने मायके में ही रहती थी। अपने पति से अलग रहते उसे तीन साल हो गए थे। 

जब छोड़कर आई थी तो अपने छह वर्षीय बेटे को भी साथ ले आई थी। उसके ससुरालियों का कहना था कि वह बेहद झगड़ालू है, किसी के साथ उसकी नहीं निभ सकती। पति ने जब अलग रहने की उसकी बात नहीं मानी थी तब उसने उन्हें भी छोड़ने का फ़ैसला एक झटके में ले लिया था। 

पति की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उसने नौकरी भी शुरू की थी। यह भी दोनों के बीच झगड़े का एक और कारण था। पति कहता था जितना कमाता हूँ वह काफ़ी है। लेकिन वह कहती तुम्हारा बिज़नेस बाक़ी भाइयों की तरह अच्छा नहीं चल रहा। इसलिए मैं भी कमाऊँगी। 

जिठानियों, देवरानियों के पैसों को लेकर जो कमेंट होते हैं, मैं एक सेकेंड को सहन नहीं करूँगी। मैं किसी से कम नहीं रह सकती। तुम अपना हिस्सा लेकर अलग क्यों नहीं रहते। पति जब नहीं माना तो छोड़ आई घर, रहने लगी थी मायके में। 

यह संयोग ही था कि उसकी एक और बहन भी मायके में ही रहती थी। उसके आदमी ने उसे शादी के कुछ ही महीनों बाद छोड़ दिया था, कि वह पत्नी धर्म निभा ही नहीं सकती। धोखे से शादी कर उसकी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी। पर अब और नहीं। संजना की अपनी ऐसी संन्यासिनी बहन से भी नहीं पटती थी। 

संन्यासिनी इसलिए कि पति से संबंध-विच्छेद के बाद उसका अधिकांश समय पूजा-पाठ में ही बीतता था। चार-छह महीने में ही कभी बोल-चाल हो पाती थी। घर वाले भी उसकी सारी ज़्यादती इसलिए सहते कि फ़िलहाल दो साल से पूरे घर का ख़र्च वही चला रही थी। क्योंकि भाई का बिज़नेस ठप्प पड़ गया था, और फ़ादर को रिटायर हुए कई साल हो गए थे। बीमार अलग। वह घर की इस स्थिति का पूरा फ़ायदा उठाती थी। जो चाहती थी करती थी। 

ऐसी संजना जो अपनों की, अपने पति की नहीं थी, अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकती थी, मैं उसी का दिवाना बना हुआ था। दिवानगी ऐसी थी कि उसके लिए मैं भी अपनों, अपनी पत्नी, बच्चों को दरकिनार कर बैठा था। उस दिन बहनोई ने सब समझाया तो अंदर ही अंदर तिलमिला उठा था। और रोम-रोम, संजना-संजना चिल्ला उठा था। उससे मिलने के लिए बेवक़ूफ़ों की तरह उसका देर तक इंतज़ार किया था। 
जब आई तो घर-भर की शिकायत कर डाली थी उससे। और उसने भी बताया कि वह भी झगड़ कर आई है। और जी-भर कर अंड-बंड अपने घर वालों को कहा। भाई को भी राखी बाँधने के आधे घंटे बाद ही ख़ूब खरी-खोटी सुनाई और हिदायत भी दी कि, वह छोटा है छोटे की ही तरह रहे। उससे कोई पूछताछ न किया करे। उसने यह धमकी उसके माध्यम से वास्तव में पूरे घर को दी थी। अपने घर वालों पर जी-भर भड़ास-निकालने के साथ ही उसने होटल में जी-भर कर पकौड़ी और दही बड़े खाए थे। 

उसका हाथ फेंक-फेंक कर, आँखें नचा-नचाकर बातें करना उस समय मुझे बहुत भाया था। वह बला की ख़ूबसूरत लग रही थी। उसकी बातों से साफ़ था कि झगड़कर आने के कारण उसे घर जाने की कोई जल्दी नहीं है। 

तभी मेरे दिमाग़ में पत्नी से पिछली रात को हुई बहस याद आ गई जिसकी तरफ़ से घर पहुँचने पर ही ध्यान हटा था। उस रात खाने के वक़्त वह उदास सी लग रही थी। मैंने तब कोई ध्यान नहीं दिया था। ड्रॉइंग-रूम में टीवी पर देर तक मैच देखकर जब बेडरूम पहुँचा तो देखा लाइट ऑफ़ थी। नाइट लैंप भी ऑफ़ था। 

लाइट ऑन की तो देखा वह बेड पर एक तरफ़ करवट किए लेटी है। पीठ मेरी तरफ़ थी, इसलिए यह नहीं जान पाया कि सो रही है कि, जाग रही है। आज फिर उसने कई दिन पहले की तरह स्लीपिंग गाऊन की जगह साड़ी ही पहन रखी थी। यानी कपड़े चेंज नहीं किए थे। साड़ी भी अस्त-व्यस्त सी थी, कुछ-कुछ अध-खुली सी। 
कुछ क्षण देखने के बाद मैंने लाइट ऑफ की और नाइट लैंप ऑन कर उसकी बगल में लेट गया। सो रही हो पूछने पर जब कोई उत्तर नहीं मिला तो उसे पकड़कर चेहरा उसका अपनी तरफ़ करना चाहा तो उसने शरीर एकदम कड़ा कर लिया। मैंने और ताक़त लगाई तो उसने और कड़ा कर लिया। तो मैंने पूछा, “क्यों, आज क्या तमाशा है?” 

“कुछ नहीं, तबीयत ठीक नहीं है।”

“क्या हुआ? ऐसे लेटने से सही हो जाएगी क्या?” 

इस पर उसने कोई जवाब नहीं दिया और लेटी रही निश्चल तो, उसे पकड़ कर मैंने फिर से अपनी तरफ़ करने का प्रयास करते हुए कहा, “मेरे पास आओ तबीयत ठीक हो जाएगी।”

मगर उसने पहले की तरह शरीर को कड़ा किए रखा। मेरी इच्छा जितनी प्रबल होती जा रही थी, नीला का प्रतिरोध भी उतना ही प्रगाढ़ होता जा रहा था। लेकिन मेरी इच्छा हावी हो ही गई। नीला का प्रतिरोध हार गया। उसने अंततः समर्पण कर दिया। 

मैंने जब अपनी मनमानी कर ली तब मेरा ध्यान उसकी सिसकी और उस कम रोशनी में आँसू से भरी उसकी आँखों की तरफ़ गया। मैं अंदर ही अंदर और ग़ुस्से से भर रहा था कि तभी उसने भर्रायी आवाज़ में कहा, “बस दिखा ली ताक़त, और कुछ नहीं करना है। जो बाक़ी रह गया हो वह भी कर लो, मैं कुछ भी नहीं कहने वाली।”

उसके इस ताने को जज़्ब करने की कोशिश करते हुए मैंने कहा, “मेरा दिमाग़ मत ख़राब करो समझी। आजकल कुछ ज़्यादा ही सिर पर सवार हो रही हो।”

“दिमाग़ किसका ख़राब है यह अच्छी तरह जानते हो। और मेरी हैसियत ही तुमने इस घर में क्या बना रखी है जो मैं सिर पर सवार होऊँगी। मेरी हालत एक ग़ुलाम से बदतर है, दिन भर सारी ज़िम्मेदारियों को पूरा करो, उसके बाद तुम जैसा चाहो वैसे यूज़ करो। बस यही हैसियत है मेरी।”

“मैं यूज़ करता हूँ तुम्हें?” 

“और क्या करते हो? अभी जो किया वह यूज़ करना नहीं तो और क्या है?” 

“तो क्यों ड्रॉमा कर रही थी?” 

“मैं कोई ड्रामा नहीं कर रही थी। अगर संजना से सम्बन्ध नहीं तोड़ सकते तो मुझे छोड़ दो। क्योंकि मैं किसी भी सूरत में अब यह नहीं बर्दाश्त कर पाऊँगी कि, तुम जब मेरे पास आओ तो तुम्हारे तन-मन से, कपड़ों से उस बदजात औरत की गंदी बदबू भी साथ आए।”

“ज़ुबान सँभाल कर बात करो तो ज़्यादा अच्छा है समझी।”

“मेरी ज़ुबान सँभालने के बजाय आप अपने को सँभालिए। क्यों अपने बसे बसाए घर को अपने ही हाथों आग के हवाले कर रहे हैं?” 

“आग के हवाले मैं नहीं तुम कर रही हो। पिछले आठ-नौ महीनों से तुमने जीना हराम कर रखा है। जब-तक घर में रहो तब-तक ताने मारती हो। तुम्हारे हर काम में ताना, व्यंग्य, नफ़रत नज़र आती है। यहाँ तक कि बच्चों को बिना उनकी ग़लती के मेरे सामने पीटती हो। वास्तव में उस समय तुम बच्चों को नहीं एक तरह से मुझे पीट रही होती हो। घर को आग के हवाले तो तुम कर रही हो।”

“मैं ऐसा कुछ नहीं कर रही हूँ, यदि यह हो रहा है तो इसका कारण भी अच्छी तरह जान-समझ रहे हो। और जब कारण जानते हो तो उसे दूर क्यों नहीं करते? क्यों चिपकाए हुए संजना को अपने साथ? जबकि वो जब चाहती है, तब आती है तुम्हारे पास, तभी मिलती है तुमसे। उसके चक्कर में इतना तमाशा हो गया। नौकरी जाते-जाते बची आख़िर क्या मजबूरी है आपकी? क्या ज़रूरत है उसको साथ चिपकाने की। लोग तरह-तरह की बातें करते हैं, तुम्हें ज़रा भी शर्म-संकोच नहीं आता।”

नीला की बातों से मेरा क्रोध और बढ़ गाया। मैं क़रीब-क़रीब चीखते हुए बोला, “संजना, संजना, संजना, दिमाग़ ख़राब कर रखा है, किसी से बात करना भी मुश्किल कर दिया है।”

मेरी इस बात पर नीला भी और उत्तेजित होकर बोली थी। 

“बात करने के लिए कौन मना करता है। बात तो और भी तमाम औरतों से करते हो। और किसी के साथ तो यह समस्या नहीं है। क्योंकि और किसी के साथ तो कोई समस्या है ही नहीं। समस्या सिर्फ़ इसी के साथ है, इसलिए लोग तरह-तरह की बातें करते हैं। यह बातें छिपती नहीं हैं। ऑफ़िस से लेकर यहाँ कॉलोनी तक में आप और संजना चर्चा का विषय बने हुए हैं। पता सब आपको भी है। घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया है। बच्चे बड़े हो रहे हैं, क्या असर पड़ेगा उन पर?” 

“लोगों की बातों, अफ़वाहों पर तुम्हें बड़ा यक़ीन हो गया है। और मैं जो कहता हूँ उस पर यक़ीन नहीं है।”

“मैं किसी की बात पर या अफ़वाहों पर ध्यान देकर नहीं बोलती। आठ-नौ महीनों से ख़ुद जो देख सुन रही हूँ, उससे आँखें नहीं मूँद सकती। रात बारह-एक बजे तक उससे बतियाते रहते हैं। उसको लेकर न जाने कहां-कहां घूमते रहते हैं। उससे कैसी-कैसी, क्या-क्या बातें करते हैं, यह सब मुझसे छिपा नहीं है।”

“झूठ है सब। ऐसे बोल रही हो जैसे हमेशा मेरे पीछे-पीछे चलती हो और मैं या संजना ख़ुद आकर तुमको सारी बातें बताते हैं। अफ़वाहें तो तुम ख़ुद उड़ा रही हो मनगढ़न्त कहानी बना-बना कर।”

“मेरी एक-एक बात सच है, मैं कोई मनगढ़न्त कहानी नहीं बता रही समझे।”

नीला की इस बात पर मैंने कड़ा प्रतिरोध करते हुए कहा था कि, “कुछ भी सच नहीं है सब बकवास है समझी।” 

मेरे इतना कहने पर नीला ने मेरा मोबाइल उठा लिया तो मुझे लगा कि शायद यह किसी को फ़ोन करने जा रही है। शायद संजना को ही। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता उसने मोबाइल की ऑटो कॉल रिकॉर्ड का फ़ोल्डर ओपन कर रिकॉर्ड बातों में से किसी एक फ़ोल्डर को ऑन कर दिया। जिसमें मेरी और संजना की अश्लील बातें सुनाई देने लगीं। यह पूरा हो इससे पहले उसने दूसरा ऑन कर दिया, जिसमें वह मुझसे फ़ोन पर ही ओरल सेक्स करने का मज़ा देने को बोल रही थी। और मैं बोल रहा था, 'यार ये थ्रू सेटेलाइट सेक्स में मज़ा नहीं।' तो वह बोली, “क्यों?” मैंने कहा, ”तुमसे थ्रू सेटेलाइट सेक्स करते-करते मैं एक्साइटेड हो जाऊँगा और फिर बीवी पर टूट पड़ूँगा। और आजकल उसका मूड ख़राब रहता है, इसलिए उसके नख़रे उठाने पड़ेंगे।” 

यह बात पूरी हो इसके पहले नीला ने अगले फ़ोल्डर को ऑन कर दिया। जिसमें वह अपने अंगों के बारे में बता रही थी। और मैं अपने। यह बात हमारे उसके बीच सेक्स रिलेशनशिप बनने से पहले की थीं। जिसमें वह अपने सौंदर्य को बनाए रखने के लिए की जाने वाली कोशिशों और अल्ट्रा इनर पहनने के बारे में बोल रही थी। और मैं उसे और सेक्सी बनने के नुस्ख़े बताए जा रहा था। नीला जितने फ़ोल्डर ओपन करती सबमें एक से बढ़कर एक अश्लील बातें सुनाई देतीं। 

मैं एकदम हक्का-बक्का था। मेरे मोबाइल ने मुझे मेरी बीवी के सामने एकदम नंगा कर दिया था। अपने को दबंग क़िस्म का मानने वाला मैं उस समय बीवी के सामने सहमा सा महसूस कर रहा था। 

बड़ा आश्चर्य तो मुझे इस बात का था कि, मेरी बातें मेरे मोबाइल में रिकॉर्ड हैं और यह मुझे पता ही नहीं। मेरी बीवी सब जानती है। मुझे यह भी पता नहीं था कि मेरे मोबाइल में बातचीत रिकॉर्ड हो जाती है। जब कि पिछले छह महीने से यह मोबाइल मेरे पास था। 

संयोग यह कि इसे मैंने एक बार संजना के यह कहने पर ही ख़रीदा था कि, 'यार कब तक पुराने मोबाइल पर लगे रहोगे। इससे आवाज़ साफ़ नहीं आती। नया लो न।' तब उसी मोबाइल ने मेरी पोल खोल दी थी। मुझे हक्का-बक्का देखकर बीवी कुछ क्षण मुझे देखती रही फिर मोबाइल मेरी तरफ़ धीरे से उछाल दिया। 

उसकी आँखें भरी थीं। वह बेड से उतर कर अलमारी से अपना नाइट गाउन निकालने को चल दी। मेरी एक नज़र उसके बदन पर गई, मगर मेरा मन शून्य हो गया था। भावनाहीन हो गया था। गाऊन पहनकर उसने बेड पर से साड़ी आदि उठा कर एक तरफ़ रख दिया। फिर भरे गले से बोली, “मुझे नहीं लगता कि मैंने पत्नी धर्म निभाने में कभी कोई ग़लती की है कि, तुम्हें किसी और की तरफ़ देखने की ज़रूरत हो। फिर ऐसा क्यों कर रहे हो, अरे! इतनी सी बात आपकी समझ में नहीं आ रही कि, जो औरत अपने पति की नहीं हुई, तुम्हीं बता चुके हो कि उसका पति महीनों से बीमार पड़ा है, लेकिन वह देखने को कौन कहे उससे बात तक नहीं करती, जो अपने भाई-बहन, माँ-बाप की न हुई आप की क्या होगी। 

“अरे! इतना भी आपकी समझ में नहीं आ रहा जो पति के रहते ग़ैर मर्द से अपने अंग-अंग का बखान करे, फ़ोन पर सेक्स करने का मज़ा ले। ख़ुद कहे कल वहाँ चलो मज़ा करते हैं, यह कहे कि एक बच्चा मैं तुमसे चाहती हूँ। एक बच्चा जो है उसको तो पाल नहीं पा रही, उसे लावारिस सा डे-बोर्डिग में छोड़ रखा है। और एक बच्चा तुमसे और चाहती है। 

“यह सब उसकी कुटिल साज़िश है। तुम को फँसाकर तुम्हारी सारी सम्पत्ति हड़प लेगी। ठीक वैसे ही जैसे सुख-शांति, घर का ख़ुशहाल माहौल छीन लिया है। इस समय इतने तनाव में हो तुम, हम, यह पूरा माहौल, सिर्फ़ एक उसकी वजह से, जिससे तुम्हें क्षणिक छद्म सुख के सिवा सिर्फ़ बर्बादी ही मिलती है।” 

बीवी की बातें मुझे उस वक़्त काटने को दौड़ती लग रही थीं। तब मेरे दिमाग़ में एक ही बात घूम रही थी कि बातें रिकॉर्ड कैसे हुईं? मैंने पूछ लिया तो उसने जो बताया उससे मेरा मन और ज़्यादा खिन्न हो गया। उसने नफ़रत भरे शब्दों में कहा कि, “एक दिन बेटे के हाथ में मोबाइल लग गया और उसने रिकॉर्डिंग ऑन कर ली। जब बातें मेरे कानों में पड़ीं तो मोबाइल लेकर मैंने चेक किया। तब पता चला कि, इसमें तो ऑटो कॉल रिकॉर्डिंग का भी सिस्टम है। उसे ऑन करने पर सब रिकॉर्ड हो जाएगा। उसके बाद मैं बराबर रिकॉर्डिंग सुनती रही। सोचा कि एक दिन साफ़-साफ़ बात करूँगी इस बारे में।”

इसके बाद नीला दूसरी तरफ़ मुँह किए लेटी रही। कुछ देर उसकी सिसकियां भी सुनाई दीं। मैं उस वक़्त नीला को अपने दुश्मन की तरह देख रहा था। मैं ख़ुद पर इस बात के लिए भी खीझ रहा था कि, मैं मोबाइल, कम्प्यूटर आदि के बारे में अच्छे से जानकारी क्यों नहीं रखता हूँ। 

आज जब जेल में हूँ, तब नीला की सारी बातें इतनी अच्छी, इतनी तर्क-पूर्ण लग रही हैं कि, मन-मसोस कर रह जाता है कि, काश उसकी बातें मान लेता। 

आज भी नहीं भूल पाया हूँ संजना के साथ किया गया वह पहला लंच। जब वह लंच के वक़्त अपना लंच बॉक्स लेकर नि:संकोच मेरे पास आकर बोली थी, “नीरज जी मैं आज लंच आप के साथ करूँगी। आप को कोई एतराज़ तो नहीं है।”

उस दिन उसे नौकरी ज्वाइन किए मुश्किल से हफ़्ता भर हुआ था। उसका इस तरह बोलना मुझे कुछ चौंका गया। क्योंकि इतने दिनों में मेरी उससे हाय-हैलो के अलावा और कोई बात नहीं हुई थी। दूसरे वह सेक्शन की महिलाओं के साथ मिक्सअप होने के बजाय मेरे पास आई थी। जबकि सेक्शन की सारी महिलाएँ एक गुट में आती थीं। साथ ही लंच करती थीं। पुरुषों का भी यही हाल था। 

कुछ-कुछ लोगों के कई गुट थे। सभी लंच ऊपर कैंटीन में जाकर करते थे। लेकिन मैं कैंटीन न जाकर अपनी टेबल पर ही करता था। संयोग से उस दिन लंच मैंने ही बनाया था। क्योंकि नीला कई दिन से बुखार में तप रही थी। 

लंच करते वक़्त वह चपर-चपर बातें भी किए जा रही थी, जो मुझे अच्छी नहीं लग रहीं थीं। अचानक मुझे लगा कि, वह साड़ी का आँचल खिसक जाने के बावजूद जानबूझ कर उस पर ध्यान नहीं दे रही है। जबकि स्तनों का अच्छा-ख़ासा हिस्सा दिख रहा है। 

मुझे यह भी लगा कि, वह जान-बूझ कर लंच को लंबा खींच रही है। उसने अपने लंच के काफ़ी हिस्से की अदला-बदला कर ली थी। मैं अजीब सी स्थिति का अहसास करते हुए लंच जल्दी ख़त्म करने की कोशिश में था, क्योंकि उसके स्तन, जिसकी गोलाइयों के बीच में, उसकी सोने की पतली सी चेन गहराई तक उतर गई थी, मुझे असहज किए जा रहे थे। 

दूसरे बाक़ी लोग लंच करके वापस आने लगे थे और हम-दोनों पर अर्थ-पूर्ण नज़रें डालते हुए आगे जा रहे थे। मुझे जल्दी लंच ख़त्म कर लेने पर उसने कहा, “आप बहुत स्पीड में लंच करते हैं।” फिर जल्दी ही अपना लंच ख़त्म कर कहा, “भाभी जी खाना अच्छा बनाती हैं।”

मुझे लगा वह जली हुई सब्ज़ी, और मोटे-मोटे बेडौल से पराठों पर व्यंग्य मार रही है तो, अनायास मैंने सारी बातें बताते हुए कह दिया कि, 
“मैंने बनाया है।”

मेरा इतना कहना था कि, उसने चौंकने का नाटक करते हुए मेरी हथेली को तेज़ी से मुँह के पास खींचकर चूम लिया। मुझे लगा कि उसने जान-बूझ कर मेरे हाथ को ठुड्डी के नीचे रखकर इस ढंग से चूमा कि, मेरा हाथ उसके स्तनों को छू जाए। मैं अपनी सकपकाहट को छिपाने की कोशिश में लंच बॉक्स बंद करने लगा। और वह अपने को बेख़बर सा दिखाते हुए बोली, “वाक़ई आप बहुत अच्छा खाना बनाते हैं। भाभी जी को छुट्टियों में तो आपके हाथों के बने टेस्टी खाने का मज़ा मिलता ही होगा। वह बड़ी लकी हैं। सॉरी नीरज जी मैंने एक्साइटेड हो कर आपके हाथ को किस कर लिया, उसमें जूठा लगा गया होगा। लाइए मैं साफ़ कर देती हूँ।”

इसके पहले कि वह मेरा हाथ पकड़ती मैंने उसे मना कर दिया और उठकर चल दिया बाथरूम की ओर। उसके बदन का स्पर्श मुझे शाम को घर पहुँचने तक कुछ ज़्यादा ही परेशान करने लगा। मैंने रात में सोते वक़्त नीला से सारी बातें शेयर की तो वह तमककर बोली थी, “ऐसी बेशर्म औरत से दूर ही रहिए। आप उसे डाँट कर हटा भी सकते थे। पक्का वो अपना कोई स्वार्थ सिद्ध करने के लिए तुम्हारे पीछे पड़ गई है।” 

मुझे उस वक़्त नीला की यह बात एक पत्नी का दूसरी औरत का अपने पति की तरफ़ देखना बर्दाश्त न कर पाने जैसी ही लगी थी। तब यह अनुमान नहीं था कि, नीला की यह बातें आगे चलकर अक्षरशः सच साबित होने वाली हैं। 

लंच वाली घटना के अगले ही दिन से संजना से मुझे रोज़ एक नया अनुभव, एक नया अहसास मिलने लगा था। दो-चार दिन में वह बातचीत में इतना घुल-मिल गई थी कि लगता जैसे न जाने कितने बरसों से मेरे साथ ही रह रही है। 

मेरा ध्यान जब इस तरफ़ जाता तो मैं हैरान हो जाता कि, मैं तो इस बात के लिए जाना जाता हूँ कि, मैं किसी से जल्दी मिक्सअप नहीं होता, वह भी औरतों से तो और भी नहीं। फिर इसने ऐसा क्या जादू कर दिया है कि लगता है कि यह मेरे पास ही बैठी रही। 

दो-तीन हफ़्ते बीतते-बीतते ही हम-दोनों की दोस्ती लोगों के बीच काना-फूसी का सबब बन गई। लोग देखते ही व्यंग्य भरी मुस्कुराहटें फेंकने लगे। मैं इस बात से जब कुछ अचकचाता तो संजना का सीधा जवाब होता, “क्या राजा जी, तुम भी कमाल करते हो। ऐसी बातों की इतनी परवाह करते हो। मैं तो ऐसी बातों को सुनने के लायक़ भी नहीं समझती कि, इन्हें एक कान से सुनो फिर दूसरे कान से निकालने की ज़हमत उठाओ। फिर आप क्यों इतना परेशान होते हैं। ये सब जब भौंकते-भौंकते थक जाएँगे तो अपने आप चुप हो जाएँगे।” 

उसकी इस बात से मैं दंग रह गया। इस बीच मेरा काम बढ़ गया था। उसका भी काम मुझे करना पड़ रहा था। क्योंकि वह इतने प्यार-मनुहार के साथ अपना काम करने को कहती कि मैं इंकार न कर पाता। काम सारा मैं करता और वह अपने नाम से उसे आगे बढ़ाती। 

जल्दी ही लोगों के बीच यह भी चर्चा का विषय बन गया। जब मैं अकेले होता तो रोज़ सोचता कि अब यह सब नहीं करूँगा। लेकिन उसके आते ही मैं सब भूल जाता, सम्मोहित सा हो जाता और मन प्राण से उसका हो जाता। 

डेढ़-दो महीने में ही हम-दोनों के सम्बन्ध अंतरंगता की सारी सीमा तोड़ने को मचल उठे। दीपावली की छुट्टी के बाद जब वह ऑफ़िस आई तो बहुत ही तड़क-भड़क के साथ। सरसों के फूल सी पीली साड़ी, जिस पर आसमानी रंग के चौड़े बार्डर और बीच में सिल्वर कलर की बुंदियाँ थीं। 

अल्ट्राडीप नेक, बैक ब्लाउज के साथ उसने, अल्ट्रा लो वेस्ट साड़ी पहन रखी थी। अन्य लोग जहाँ उसकी इस अदा को फूहड़ता बता रहे थे, वहीं वह मुझे न जाने क्यों सेक्स बम लग रही थी। मिलते ही मैंने उससे कहा भी यही, “जानेमन इस ड्रेस में तो एटम बम लग रही हो। कहाँ गिरेगा यह बम।” 

इस पर उसने बेहद उत्तेजक हाव-भाव बनाते हुए कहा, “घबराते क्यों हो राजा जी, तुम्हीं पर गिरेगा।” 

फिर मैंने उसकी क्लीविज और उसके खुले पेट पर तीखी नज़र डालते हुए भेद-भरी आवाज़ में कहा, “थोड़ा और डीप नहीं जा सकती थी क्या?” 

मेरा यह कहना था कि, वह कामुकता भरी नज़रों से देखते हुए अपने चेहरे को मेरे बहुत क़रीब लाकर बोली, “और डीप जाती राजा जी, तो एल.ओ.सी. क्रॉस हो जाती और तुम सारे मर्द मधुमक्ख्यिों की तरह चिपक जाते मुझसे।” 

मुझे वह मिक्सअप होने के डेढ़ दो हफ़्ते बाद से ही बड़े मादक अंदाज़ में राजाजी बोलने लगी थी। उसकी बात पर मैंने पूछा, “जानेमन यह एल.ओ.सी. क्या है?” 

“हद हो गई लाइन ऑफ़ कंट्रोल नहीं जानते। साड़ी और डीप ले जाती तो एल.ओ.सी. का अतिक्रमण हो जाता।” 

मैंने कहा, “जब एल.ओ.सी. का अतिक्रमण हो, यह नहीं चाहती तो इतना भी डीप जाने की क्या ज़रूरत थी। साड़ी और ऊपर से बांधती।” 

“मैंने ये कब कहा राजाजी कि मैं एल.ओ.सी. का अतिक्रमण नहीं चाहती। मगर इसका अधिकार सबको थोडे़ ही है।” 

“तो वह लकी पर्सन कौन है, जिसको तुमने अपनी एल.ओ.सी. के अतिक्रमण का अधिकार दे रखा है।” 

“कमाल है, तुम्हारे सिवा किसी और को यहाँ यह अधिकार दे सकती हूँ क्या?” 

उसकी इस बात ने मुझमें अजीब सी सनसनी पैदा कर दी। पल-भर चुप रहकर मैंने कहा, “नहीं कमाल तो ये है कि, मुझे तुम ने अपनी एल.ओ.सी. के अतिक्रमण का अधिकार दिया है। वो भी अपने पति के रहते। और ये अधिकार दिया कब यह पहले कभी बताया ही नहीं।” 

मेरी इस बात पर वह अचानक ही एकदम उदास हो उठी। आँखें भर आईं। कुछ इस क़द्र कि आँसू बस बह ही चलेंगे। उसकी अचानक बदली इस स्थिति को देखकर मैं सकपका गया कि, अभी कुछ देर पहले तक कितना हँस-बोल रही थी। रोमांटिक हुई जा रही थी, यह अचानक क्या हो गया है। 

मेरी बात से नाराज़ या दुखी हो गई है क्या? मैं परेशान इसलिए भी हो उठा कि कहीं इसके आँसुओं को किसी ने देख लिया तो आफ़त हो जाएगी। न जाने लोग क्या सोच बैठेंगे। दिमाग़ में यह बातें आते ही मैं एकदम घबरा उठा, डर गया मैं। तुरंत मैंने उससे माफ़ी माँगते हुए कहा, “संजना जी सॉरी मुझसे कोई ग़लती हुई हो तो माफ़ कीजिएगा। आप को दुखी करने का मेरा कोई इरादा नहीं था।” 

मैं अपनी यह बात पूरी भी न कर पाया था कि फिर और गड्मड् हो गया। उसने बिना किसी संकोच के अपने दोनों हाथों से मेरा दाहिना हाथ पकड़ कर कहा, “नहीं नीरज, ऐसा क्यों सोचते हो, तुम्हारे जैसे इंसान किसी का दिल दुखाने के लिए नहीं, दुख से तड़पते दिलों को सहारा देने के लिए होते हैं। आँसू तो इसलिए आ गए कि, तुम अचानक ही हसबैंड की बात छेड़ बैठे। जो मुझे लगता है कि, मेरी सबसे ज़्यादा दुखती रग है। जो ज़रा सी छू जाने पर दिल चीर देने वाली टीस दे जाती है। और तुमने अनजाने ही इस सबसे दुखती रग को छू दिया। 

“तुम्हारा मेरी इस बात से शॉक्ड होना सही था कि, पति के रहते मैंने एक ग़ैर मर्द को एल.ओ.सी. क्रॉस करने का अधिकार कैसे दे दिया? लेकिन यदि मेरी बातें सुनोगे तो तुम्हें शॉक नहीं लगेगा। यह सही है कि मैंने जो तुम्हें एल.ओ.सी. क्रॉस करने का अधिकार दिए जाने की बात कही वह मज़ाक नहीं है। 

“मैंने पूरे होशो-हवास में कई दिनों सोच-विचार के तुम्हें एल.ओ.सी. क्रॉस करने का अधिकार दिया है। तुम्हें इस बात का पूरा अधिकार है कि तुम जितना चाहो उतना मेरी साड़ी, ब्लाउज डीप ले जा सकते हो। उन्हें डीपेस्ट कर मुझ में जैसे चाहो वैसे समा सकते हो।” 

अब-तक संजना के आँसू उसकी पलकों से बाहर नहीं आए थे। वह भरी हुई थीं। मगर उसके चेहरे पर अब अवसाद से कहीं ज़्यादा दृढ़ता, कठोरता की लकीरें स्पष्ट होती जा रही थीं। और बातों का विस्तार बढ़ता जा रहा था। 

मैंने क्योंकि कभी ऐसी स्थिति की कल्पना ही नहीं की थी सो परेशान हो रहा था। संजना जैसी औरत जिससे मिले चंद रोज़ ही हुए हैं वह सीधे-सीधे शारीरिक सम्बन्ध के लिए ख़ुद ही कह देगी, वह भी ऑफ़िस में ही सारे अधिकार दे देने की बात करेगी कि जैसे चाहो वैसे उसके तन को भोगो। 

हालाँकि यह सच है कि जिस दिन उसने मेरे साथ पहली बार लंच किया था। और जानबूझ कर मेरे हाथ को अपने स्तनों का स्पर्श करा दिया था, तभी से मेरे मन के किसी कोने में उसके बदन के साथ एकाकार होने की इच्छा अँखुआ चुकी थी। जिसे संजना की दिन पर दिन होने वाली तमाम हरकतें बराबर पुष्पित-पल्लवित करती जा रही थीं। 

लेकिन मैंने अपनी तरफ़ से ऐसी कोई कोशिश कभी नहीं की थी कि वह अपना तन मेरे तन के साथ एकाकार करे। यह मन में ही रह जाने वाली बात जैसी थी। ठीक वैसी ही जैसे न जाने कितनी बातें मन में उभर कर फिर वहीं दफ़न हो जाती हैं सदा के लिए। जो कभी सम्भव नहीं बन पातीं। 

जैसे छात्र जीवन में एक बार मैं पड़ोसी मुल्क की एक सिंगर झुमा लैला की एक मैग्ज़ीन में बेहद बोल्ड तस्वीरें देखकर अर्सें तक एकाकार होता रहा उसके तन के संग। मगर मन की यह फ़ैंटेसी मन के सागर में कहीं गहरे ही डूब गई थी जल्दी ही। 

मगर उस दिन संजना के साथ जब एकाकार होने का मन हुआ था, तब मैं छात्र जीवन की तरह अकेला नहीं था। तब मेरे साथ मेरी बीवी नीला थी। जो उस वक़्त मेरी ही बग़ल में लेटी सो रही थी। और उस दिन इस इच्छा के चलते उसके साथ ऐसे एकाकार हुआ था मैं, जैसे मेरे रोम-रोम से संजना-संजना का स्वर फूट रहा हो। 

मेरे तन के नीचे पिस रहा था नीला का तन लेकिन मेरा तन संजना के तन को भोगने का अहसास कर रहा था। नीला के मुँह से निकलने वाली मादक आहों में मुझे संजना के स्वर सुनाई दे रहे थे। बड़ी ही जटिल स्थिति थी मेरी। 

अपनी आदर्श पत्नी, मुझको टूटकर चाहने वाली पत्नी से मिलने का कोई अहसास नहीं था। यहाँ तक की तन का संघर्ष समाप्त हो जाने के बाद नीला सो गई, मगर मैं संजना के तन की महक का अहसास कर रहा था। बराबर जाग रहा था। यह स्थिति दिन पर दिन प्रगाढ़ होती जा रही थी। जल्दी ही हालत यह हो गई थी कि, नीला में मुझे हर कमी नज़र आने लगी थी। 

मगर इन सब के बावजूद मैंने कभी भी संजना के तन को पाने के लिए गंभीरता से नहीं सोचा था। इसलिए जब अचानक ही उसने एल.ओ.सी. अतिक्रमण का अधिकार मुझे देने की बात बेहिचक कही तो, मैं हतप्रभ रह गया था। मैं व्याकुल हो उठा था इस बात के लिए कि, वह अपनी बातों को विस्तार न दे, तुरंत बंद कर दे। लेकिन वह चुप तब हुई जब शाम को कहीं अलग बैठकर बात करने का प्रोग्राम तय हो गया।

तय स्थान पर पहुँचने के लिए हम-दोनों छुट्टी होने से एक घंटे पहले ही अलग-अलग निकले। सड़क, होटल, मॉल हर जगह त्योहार की छुट्टी के बाद खुलने के कारण भीड़-भाड़ काफ़ी कम थी। एक प्रसिद्ध रेस्टोरेंट में हम-दोनों बैठे कॉफ़ी पी रहे थे। संजना के चेहरे को मैंने पढ़ने की कोशिश की, तो मुझे लगा कि वहाँ उदासी नहीं, बल्कि खिन्नता और उससे भी कहीं ज़्यादा न जाने किस बात की व्यग्रता दिख रही है। 

उसका मन जैसे वहाँ था ही नहीं, जैसे वह जल्दी से जल्दी वहाँ से निकल लेना चाहती हो। मैं विचारों के मकड़-जाल में ख़ुद को उलझा सा महसूस कर रहा था। हम-दोनों के बीच बातें भी छुट-पुट ही हो रही थीं। 

इस बीच मैंने देखा कि, जैसे वह मुझे पढ़ने की ग़रज़ से बराबर देख रही है। और मैं . . . मैं भी कभी पीली साड़ी में बैठी संजना को देखता तो, कभी कनखियों से आस-पास के दृश्यों पर भी नज़र डाल लेता। कुल मिला कर बोरियत ज़्यादा बढ़ी तो मैंने उससे कहा, “तुम पति के बारे में कुछ ख़ास बातें करना चाह रही थी।” 

इस पर वह कुछ खोई-खोई सी बोली, “हाँ . . . लेकिन कहीं ऐसी जगह चलो जहाँ हम-दोनों के अलावा कोई और न हो। ऐसे में मैं कोई बात कर ही नहीं पाऊँगी।” 

उसने इस बात की ऐसी ज़िद पकड़ ली कि, हार कर मैंने विधायक निवास में रहने वाले अपने एक मित्र से बात की, जो अपने क्षेत्र के विधायक को मिले आवास में अकेले ही रहता था। और दिनभर नेतागिरी या ये कहें कि, दलाली के चक्कर में सत्ता के गलियारों में चक्कर काटता था। और उसके विधायक जी मंत्री बनने का ख़्वाब पाले दिल्ली में पार्टी के बड़े नेताओं के यहाँ डेरा डाले रहते थे। 

मैंने कुछ घंटे के एकांत के लिए उससे आवास देने को कहा तो, वह तुरंत तैयार हो गया। चाबी देते समय उसने कनखियों से संजना को देखा था, फिर मेरे हाथ में चाबी थमाते हुए बोला था, 'मैं रात दस-ग्यारह बजे के बाद आऊँगा। एक प्रोग्राम में जाना है। '

उसकी बात से मैं तुरंत समझ गया था कि, वह फेंक रहा है कि, उसे प्रोगाम में जाना है। वह सिर्फ़ मुझे यह बताना चाह रहा था कि, वह ग्यारह बजे तक नहीं आएगा। तब-तक मैं संजना के साथ वक़्त बिता सकता हूँ। वह मेरे घर कई बार आ चुका था, जिससे वह मेरी पत्नी, बच्चों सभी को पहचानता था। 

संजना को देख कर वह बाक़ी के हालात तुरंत ताड़ गया था। यह बात तब और पक्की हो गई थी, जब उसने खाने-पीने का काफ़ी सामान अपने एक आदमी के हाथ पंद्रह-बीस मिनट में ही भिजवा दिया था। जिसमें उस एरिया में फ़ेमस ड्राई बडे़ भी थे। यह सब खाने-पीने के दौरान ही हम दोनों की बातें चल पड़ी थीं। 

संजना पति को लेकर ऐसी-ऐसी बातें कह रही थी कि, मेरे कान खडे़ हुए जा रहे थे। उसकी शारीरिक भाव-भंगिमाओं और बातों में कहीं कोई सामंजस्य नहीं दिख रहा था। शरीर कुछ कह रहा था और बातें कुछ और। 

उसकी बातों का कुल लब्बो-लुआब यह था कि, उसका पति बेहद पिछड़ी सोच का है। उसकी बात नहीं मानता था, जिससे बिज़नेस में वह घर में अन्य भाइयों से एकदम पिछड़ कर, सबसे दयनीय स्थिति में था और उसे शर्मिंदगी उठानी पड़ती थी। वह बहुत भाग्यवादी है। 

काम-काज का आधा वक़्त पूजा-पाठ और मंदिरों के चक्कर में बिता देता है। वह पति और पिता का रोल ठीक से नहीं निभा रहा था। वह जानते ही नहीं कि पति-पिता का रोल क्या होता है। सहस्त्राब्दियों पहले की बातें करते हैं कि, पत्नी केवल संतानोत्पत्ति के लिए है। हद तो यह कि महीने में पाँच-छह दिन उनके व्रत में निकल जाते हैं। 

व्रत वाले दिन उसे छूते नहीं थे। कोशिश करो तो दूसरे कमरे में चले जाते थे। उनके रहते टीवी पर मनचाहे सीरियल नहीं देख सकती। कहने पर दुनिया भर का लेक्चर दे डालते थे। और तीन इंच लंबा तिलक अलग लगाते हैं। कहीं घूमने-फिरने लेकर नहीं जाते थे। कपड़े ऐसे पहनों कि चेहरा और हाथ के अलावा कुछ नहीं दिखना चाहिए। खाना-पीना साधुओं सा। 

बाहर की चीज़ों फ़ास्ट-फ़ूड की बात नहीं कर सकते। विरोध करो तो दुश्मनों की तरह झगड़ा करते हैं। यह सब हद से ज़्यादा हो गया, ज़िन्दगी नरक हो गई तो वह छोड़ आई उन्हें। क्योंकि अब वह अपनी ज़िन्दगी व्यर्थ नहीं काटेगी। अब किसी के लिए वह मुड़ कर नहीं देखेगी। वह अब हर जगह से अपने लिए सुख का एक-एक क़तरा बटोर लेगी। जी-भर कर अपना आक्रोश निकालने के बाद वह उठ कर बाथरूम चली गई। जब लौटी तो मुँह-हाथ धोकर। 

अब उसके चेहरे पर विषाद की जगह काफ़ी हद तक ताज़गी नज़र आ रही थी। उसने कमरे में बेड पर रखे अपने बैग में से अपनी हैंकी निकाल कर चेहरा पोंछने के बाद वापस रखा और बेड पर लेट गई। उसके पहले उसने सीलिंग फ़ैन को स्लो स्पीड पर चला दिया था। 

हालाँकि मौसम में अच्छी-ख़ासी ख़ुमारी थी। लगता था कि ठंडक दस्तक देने के लिए कहीं नज़दीक आ चुकी है। मगर फिर भी फ़ैन चला दिया, आँचल बेड पर फैला था। और उसके दोनों हाथ भी। उसकी छाती ऊपर-नीचे उठ कर गिर रही थी। मैं अब भी प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठा था। कुछ ही क्षण शांत रहने के बाद उसने पूछा, “नीरज तुम व्रत रखते हो?” 

“हाँ“

“महीने में कितने दिन?” 

उसकी अब-तक की बातों से मेरा मूड पहले ही खिन्न हो चुका था, लेकिन फिर भी मैंने कहा, “मैं केवल मंगल का व्रत रखता हूँ।” 

“मतलब महीने में चार व्रत तुम भी रखते हो।” 

“हाँ।” 

“और तुम्हारी पत्नी?” 

“वह प्रदोष वग़ैरह जैसे व्रत रखती है। महीने में दो-तीन व्रत तो उसके भी हो ही जाते हैं। लेकिन तुम यह सब क्यों पूछ रही हो?” 

“कुछ समझना चाहती हूँ। ये बताओ जिस दिन तुम्हारा व्रत होता है, उस दिन यदि तुम्हारी पत्नी तुम से सेक्स की डिमांड करती है तो, क्या तुम व्रत की वजह से उसे मना कर देते हो?” 

“ये कैसी बातें कर रही हो। क्या जानना चाह रही हो तुम मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।” 

“मैं जानना नहीं, तुम्हें बताना चाह रही हूँ। तुम्हें वह बातें बताना चाह रही हूँ जिन्होंने मेरा सुख-चैन सब बरबाद ही नहीं कर दिया है, बल्कि मेरे हिस्से का सुख-चैन कभी मुझ तक पहुँचने ही नहीं दिया। जब शादी हुई तो ससुराल में धन-दौलत, सारी सुख-सुविधाएँ थीं। वह सब देखकर मैं फूली नहीं समाई थी। लेकिन पति ने पहली ही रात जीवन की शुरूआत ही ख़राब की। 

“यह जानकर तुम्हें यक़ीन नहीं होगा कि, सुहागरात को मेरा पति मेरे साथ इसलिए सम्बन्ध बनाने से मना करता है कि, वह बरसों से बृहस्पति का व्रत रखता आया है। और क्योंकि रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी यानी कि बृहस्पति आ चुका है, इसलिए वह व्रत में शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाएगा। इससे उसका व्रत भंग हो जाएगा। 

“यह सुनकर मैं दंग रह गई। मुझे लगा कि, जैसे मैं किसी संन्यासी के साथ बँध गई हूँ। शादी से पहले सहेलियों से इस पहली रात के बारे में न जाने कितनी बातें की थीं। नई-नई शादी-सुदा सहेलियों और अन्य के साथ जो हसीन बातें हुईं थीं, उससे मैंने भी एक से एक रंगीन सपने बुन रखे थे। 

“उन सपनों को और रंगीन बनाने के लिए अपनी अनुभवी सहेलियों से जो कुछ जाना था, उन सब के सहारे मैंने अपने को हर तरह से ख़ूब तैयार किया था। मगर यह नहीं जानती थी कि, मैं तो एक संन्यासी से ब्याह दी गई हूँ। जो ऋषि-मुनियों से भी बड़ा हठी-व्रती है। औरत की जिस कमनीय काया के काम बाण से ऋषि-मुनि, देवता भी पल में सारे व्रत भूल स्खलित हो जाते हैं, उस अजेय काम-बाण के सारे वार मेरे पति को छू भी न पाएँगे। 

“मेरे सारे जतन धरे के धरे रह जाएँगे। मेरी कमनीय काया के सामने पति ऐसे निर्विकार बना रहेगा कि ऋषि-मुनि भी पानी माँगेंगे, यह सपने में भी नहीं सोचा था। ऐसा नहीं कि, यह तान के सो गए, सारी रात बात करते रहे, मगर सारी बातें ऐसी, जैसे कि हमारी शादी के पंद्रह-बीस साल हो गए हों। मैं अंदर ही अंदर कुढ़ती रही, सुनती रही उनकी बकवास। हालत यह थी कि चाह कर भी न तो मैं सो पा रही थी। और न ही जो हसीन सपने बुने थे उन्हें हक़ीक़त में तब्दील कर पा रही थी।” 

“बड़ी अजीब दास्तान सुनाई तुमने, यक़ीन ही नहीं कर पा रहा हूँ कि कोई आदमी ऐसा भी होगा। पहली रात केवल उबाऊ बातों में बिताएगा इससे बड़ी बात तो यह कि, तुम यह सब सुनती भी रही।” 

“यार तुम भी हद करते हो। मैं क्या कर सकती थी।” 

“क्यों नहीं कर सकती थी। आख़िर पत्नी थी। बोल सकती थी कि आज पहली रात है। तो बातें पहली रात वाली हों, न कि पंद्रह साल बाद वाली। और फिर पंद्रह साल बाद भी पति-पत्नी की बातें ऐसी तो नहीं होतीं।” 

“अच्छा तो मैं उनसे कहती कि, आओ रोमांटिक बातें करो, मुझे प्यार करो।” 

“किसी को तो आगे आना ही होता है।” 

“अच्छा, तो मुझे ये बताओगे कि, अगर पहली रात तुम यही सब करते और तुम्हारी बीवी रोमांस के लिए, सेक्स के लिए पहल करती तो, उस समय तुम क्या करते। अपनी पत्नी को किस रूप में लेते। सच बताना ज़रा भी झूठ नहीं बोलना।” 

“संजना जिन हालात से गुज़रा नहीं, जिस बारे में कुछ जानता नहीं उसके बारे में क्या कहूँ।” 

“क्यों, सोचो और अपने को उस हालात में ले जाकर सोचो फिर जवाब दो। मैं यह अच्छी तरह जानती हूँ कि, तुम जवाब दे सकते हो, यदि तुम देना चाहोगे।” 

“तुम्हारी इस ज़िद पर सिर्फ़ इतना कह सकता हूँ कि, मैं आश्चर्य में पड़ जाता। शायद इस आश्चर्य में पड़ जाने के बाद मैं सेक्स कर ही न पाता। फिर उसे परे धकेलकर किसी और कमरे में चला जाता।” 

“और फिर अगले दिन क्या करते?” 

“अगले दिन . . . 

“हाँ अगले दिन तुम क्या करते। बीवी को रखते या उसे करेक्टरलेस या फिर न जाने क्या-क्या समझ कर वापस कर देते।” 

“ओफ़्फ़ यार मुझे इन बातों में मत उलझाओ। मैं तुम्हारे आदमी की ऐसी विचारधारा को सुनकर सिर्फ़ हैरत में हूँ। कोई आदमी पहली ही रात में ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता है। ऐसी हरकतें तो आदमी उसी हालत में करता है जबकि वह सेक्सुअली कमज़ोर हो। नहीं तो अमूमन औरतों की शिकायत यह होती है कि, पहली रात को उसका पति इतना दिवाना था कि बात-चीत तो बाद में, आते ही टूट पड़ा और मन की करके तान कर सो गया। बात तो की ही नहीं। तुम्हारे आदमी के साथ क्या ऐसी कोई प्रॉब्लम है।” 

“नहीं भगवान ने शारीरिक दृष्टि से तो उन्हें एक ज़बरदस्त मर्द बनाकर भेजा है। जो किसी भी औरत के लिए पसंदीदा मर्द हो सकता है। लेकिन विचारों की दृष्टि से वह एक विरक्त इंसान हैं। ऐसे में उनके ज़बरदस्त मर्द होने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। ऐसे विरक्त मर्द से तो एक कमज़ोर मर्द ही सही है। कुछ तो करेगा। न पूरी सही कुछ तो भूख शांत करेगा।” 

“समझ में नहीं आता कि तुम्हारा पति कैसा है। और साथ ही तुम भी। तुम कहीं से भी कम ख़ूबसूरत नहीं हो। न ही किसी बात से अनजान, इसलिए आश्चर्य तो यह भी है कि, तुम अपने पति की विरक्ति दूर नहीं कर सकी। बल्कि ख़ुद ही उससे दूर हो गई।” 

“नीरज तुमने बड़ी आसानी से मुझ पर तोहमत लगा दी। मुझे फ़ेल्रयोर कह दिया। मैं मानती हूँ कि मैं फ़ेल नहीं हूँ। मेरे पति के विचारों को बदलना, उन्हें स्वाभाविक नज़रिया रखने के लिए तैयार कर पाना, मैं क्या किसी भी औरत के लिए सम्भव नहीं है। 

तुम यक़ीन नहीं कर पाओगे कि शादी के तीसरे दिन हमारे सम्बन्ध बने और उन्हें मैंने कहीं पंद्रहवें दिन जाकर बिना कपड़ों के देखा। नहीं तो सेक्स के समय भी बनियान उतारते ही नहीं थे। मेरे कपड़े भी बस ऊपर नीचे कर देते थे। और उन्होंने भी उसी दिन मुझे पूरी तरह से बिना कपड़ों के देखा। और यह भी तब हुआ जब मैंने पंद्रहवें दिन जान-बूझकर एक नाटक किया। सोचा कि हम शादी के पंद्रहवें दिन तीसरी बार सम्बन्ध बना रहे हैं। जबकि सहेलियों में से क‍इयों ने बताया था कि, उन्होंने पहली ही रात को इससे कहीं ज़्यादा बार सम्बन्ध बनाए थे।” 

“बड़ा विचित्र है तुम्हारा अनुभव। पति को देख सको, इसके लिए तुम्हें नाटक करना पड़ा। पहली बार सुन रहा हूँ यह सब। मगर आश्चर्य यह भी है कि, तुमने ऐसा कौन सा नाटक किया था कि तुम्हारे पति जैसा व्यक्ति फँस गया उसमें।” 

“हुआ यह कि, उस रात को मैंने जब देखा कि, क़रीब आधे घंटे की फ़ालतू बातों के साथ यह कुछ ज़्यादा खुल गए हैं, तो मेरे दिमाग़ में आया कि, आज इन्हें इनके दब्बू उबाऊ खोल से बाहर निकाल कर मज़ेदार खुली दुनिया में ले आऊँ। जब यह अपने ऊबाऊ तरीक़े के साथ आगे बढ़े तो, मैंने हल्की सी सिसकारी ली और अलग हटते हुए कहा, 'लगता है कपड़े में कुछ है, काट रहा है। '

“फिर कपड़ों में इधर-उधर कसमसाते हुए एक-एक कर सारे कपड़े उतार डाले। और कीड़ा ढूँढ़ने को कहती रही। आहें भरती रही कि, बड़ा दर्द हो रहा है। कुछ देर यही सब बहाना करते हुए इनके भी उतार दिए। मगर हमारे बैरागी मियाँ जी अपने खोल से बाहर आकर कुछ ही देर में घबरा उठे। कुछ ही देर में पति कर्म पूरा किया और फिर लौट गए अपने खोल में। किसी शर्मीली औरत की तरह बंद कर लिया ख़ुद को कपड़ों में और मुझे भी बंद कर दिया। 

“कुछ पल को जो खुली साँस मिली थी वह समाप्त हो गई। फिर से घुटन भरी दुनिया में पहुँच गई। अगले दिन उनसे यह भी सुनने को मिला कि मुझमें शर्मों-हया नाम की चीज़ नहीं है। 

“अब इसी बात से अंदाज़ा लगाओ कि, मेरी ज़िन्दगी पति के साथ कैसी बीत रही थी। इतना ही नहीं, जब प्रेग्नेंट हुई तो घर में बात मालूम होते ही सास के हुक्म के चलते डिलीवरी के एक महीने बाद जाकर यह मेरे कमरे में सोने आए। 

“इस दौरान मैं तड़प कर रह गई कि पति के साथ अकेले में इन अद्भुत क्षणों को जीयूँ। मगर पूरी न हुई यह आस। कुछ बोल नहीं सकती थी क्योंकि पति उनकी सलाह को मानकर ख़ुद ही दूर भाग रहे थे। मैं कैसे घुट-घुटकर काट रही हूँ अपनी ज़िन्दगी यह समझना आसान नहीं है नीरज।” 

संजना धारा-प्रवाह एक से एक बातें बताए जा रही थी। जिनका कुल लब्बो-लुआब यह था कि पति की कट्टर दकियानूसी विचारधारा, आचरण ने उसकी सारी ख़ुशियों को जलाकर राख कर दिया है। जिससे ऊबकर वह खुले में साँस लेने की ग़रज़ से उन्हें छोड़ मायके चली आई। लेकिन यहाँ परिस्थितियों के चलते पूरे घर का ही बोझ उस पर आ पड़ा है। उस पर तुर्रा यह कि लोग उस पर हुकुम भी चलाना चाहते हैं। 

भाई एक पैसा कमाकर नहीं लाता है, लेकिन चाहता है कि वह उसकी सारी बात माने। साफ़-साफ़ यह बोला कि, सारी सैलरी उसे दो। वह चलाएगा घर। जब यह नहीं किया तो झगड़ा करने लगा। इन सारी चीज़ों से ऊबकर उसने मायके में भी बग़ावत कर दी कि वह जो चाहेगी वह करेगी। 

इस खुन्नस से लोग उसके बच्चे को पीटते हैं। इसका अहसास करते ही उसने उसे डे-बोर्डिंग में डाल दिया। और अब वह हर पल को ख़ुशी के पल में बदलना चाहती है। उसकी बातें काफ़ी हद तक यह बता रही थीं कि वाक़ई उसके साथ हर स्तर पर अन्याय हुआ है। उसकी लंबी बातों को ख़त्म करने की ग़रज़ से मैंने कहा, “आख़िर इन सारी बातों के बीच मुझ से क्या चाहती हो, मैं क्या कर सकता हूँ तुम्हारे लिए, भविष्य में क्या करोगी, क्या सोचा है इस बारे में?” 

“ख़ुशी के पल चाहती हूँ, मुझे पूरा यक़ीन है कि यह तुम्हीं दे सकते हो। रही बात भविष्य की तो, तुम अगर ऐसे ही सहयोग करोगे तो मेरा कंफ़र्मेशन आसानी से हो जाएगा। और आगे चल कर प्रमोशन भी। और यह भी जानती हूँ कि, यह सब तुम्हारे हाथ में है। तुम चाहोगे तो कोई रोक नहीं पाएगा।” 

संजना की इन बातों से मैं बड़े पशोपेश में पड़ गया था। मुझसे उसकी यह अपेक्षाएँ छोटी नहीं बहुत बड़ी थीं। मैं सोच में पड़ गया कि उसकी इतनी सारी अपेक्षाओं को पूरा करने में तो जो मुश्किल है, वह है ही। उससे बड़ी बात ये कि यह इतनी ज़्यादा डिमांडिंग है कि, इसकी माँगें कभी ख़त्म नहीं होगी। 

कुछ देर पहले तक जहाँ मेरा मन उसके तन पर लगा हुआ था, मैं उसके साथ गहन अंतरंग पलों में खोना चाहता था बल्कि उतावला था, उसकी इन बातों ने उतावलेपन पर ठंडा पानी उड़ेलना शुरू कर दिया था। अब-तक हम दोनों खाने-पीने की अधिकांश चीज़ें चट कर चुके थे। इस बीच उसका मादक अंदाज़ में बार-बार पहलू बदलना, ख़ुद पर मेरे नियंत्रण को कमज़ोर करता जा रहा था। मगर इन बातों ने मेरे मन को भ्रमित कर दिया था। वक़्त बीतता जा रहा था तो मैंने कहा, “संजना ऑफ़िस में जो कुछ है मेरे हाथ में है उसके हिसाब से मैं तुम्हारी हर मदद करूँगा। लेकिन ख़ुशी के पल दे पाऊँगा इस बारे में कुछ नहीं कह सकता। क्योंकि तुमने जो कुछ बताया उस हिसाब से तुम पति-ससुराल से सारे सम्बन्ध ख़त्म कर चुकी हो। मायके में भी बस रह रही हो। और जैसे ख़ुशी के पल मुझसे पाने की बात तुम कर रही हो, पता नहीं वह तुम्हें दे पाऊँगा कि नहीं। 

“मेरी पत्नी है, बच्चे हैं, उन्हें छोड़ पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं है। और जैसी ख़ुशी तुम चाहती हो वह तो पति के साथ ही मिल सकती है। ऐसे में रास्ता यही बचता है कि या तो पति के पास वापस जाओ और उन्हें समझा-बुझाकर अपने रास्ते पर ले आओ। अगर यह सम्भव नहीं है तो ऐसे में बेहतर यही है कि डायवोर्स देकर दूसरी शादी कर लो।” 

मेरी इस बात पर वह बड़ी देर तक मुझे ऐसे देखती रही जैसे मैंने निहायत बेवक़ूफ़ी भरी बात कह दी है। फिर बोली, “यह दोनों ही सम्भव नहीं है नीरज। पति के पास वापस जाने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि उन्हें बदलना असम्भव है। कम से कम मेरे वश में तो क़तई नहीं है। रही बात डायवोर्स और दूसरी शादी की तो वह भी सम्भव नहीं है। एक तो वह डायवोर्स नहीं देंगे यह आख़िरी बार झगड़े के समय ही उन्होंने कह दिया था। इसलिए यह आसान नहीं। 

“यदि मान भी लूँ कि किसी तरह यह हो गया तो दूसरी शादी के बारे में मैं अब सोचना भी नहीं चाहती। पहली शादी का अनुभव ऐसा है। दूसरी शादी में मन की बात हो जाएगी इस बात की क्या गारंटी। वह मेरे बच्चे को स्वीकार करेगा यह मुझे नामुमकिन ही लगता है। यही सब सोच कर मैंने यह तय कर लिया है कि, न पति को डायवोर्स दूँगी न दूसरी शादी करूँगी। कुछ पल ख़ुशी के तुम से मिल सकते हैं यही सोचकर तुम्हारी तरफ़ बढ़ी। मुझे ख़ुशी मिलेगी या नहीं यह सब अब तुम्हारे हाथ में है।” 

“तुम्हें यक़ीन है कि इस तरह तुम्हें ख़ुशी मिल जाएगी। जैसा चाहती हो वैसा मिल जाएगा।” 

“हाँ मुझे लगता है कि इन हालातों में जितना चाहती हूँ, उतना मिला जाएगा। मगर तुम इतनी बहस क्यों कर रहे हो? नीरज क्या तुम डर रहे हो?” 

“मैं कोई बहस नहीं कर रहा हूँ, न ही इसमें डरने या न डरने जैसी कोई बात है। मैं सिर्फ़ इतना जानना चाहता हूँ कि क्या तुम सोच समझकर यह क़दम बढ़ा रही हो। यदि तुम्हारे मन का नहीं हुआ तब क्या करोगी।” 

मेरी इस बात पर संजना फिर लेट गई बेड पर, उसके दोनों पैर नीचे लटक रहे थे। कपड़े पहले से ज़्यादा अस्त-व्यस्त हो रहे थे। बदन पहले से अब कहीं और ज़्यादा उघाड़ हो रहा था। उसका कामुक लुक और ज़्यादा कामुक हो रहा था। उसकी बॉडी लैंग्वेज और ज़्यादा प्रगाढ़ आमंत्रण दे रही थी। मैं उसके सामने कुर्सी पर बैठा उसे निहार रहा था। उसने कुछ क्षण मेरी आँखों में देखा फिर बोली, “मैंने बहुत सोच समझ कर ही तुम्हारी तरफ़ यह क़दम बढ़ाया है। तुममें कुछ ख़ास देखा तभी तो तुम्हें एल। ओ। सी। के अतिक्रण का अधिकार दिया। किसी और के पास तो नहीं गई। फिर मैं तुमसे तुम्हारी पत्नी, बच्चों के हिस्से का कुछ नहीं माँग रही हूँ। इन सबके हिस्से से अलग जो वक़्त है तुम्हारा, मैं उसी में से थोड़ा समय चाहती हूँ, यह भी नहीं कह रही कि अपना सारा समय मुझे दे दो। भले ही यह समय बहुत थोड़ा होगा। लेकिन मैं उसी में ढूँढ़ लूँगी अपनी ख़ुशी। यदि तुम्हें कोई एतराज़ न हो।” 

इतना कहकर जब वह चुप हो गई तो मैं एकटक उसे देखता रहा। उसकी वासना से भरी आँखें, पूरा बदन मुझे बरबस ही खींचे ले रहे थे। जब मैं उसे कुछ देर ऐसे ही देखता रहा तो उसने दोनों हाथ बढ़ा दिए मेरी ओर ऐसे जैसे कि बाँहों में भर लेना चाहती हो। बिना कुछ बोले मुझे देखे जा रही थी। अब मेरे दिमाग़ में तर्क-वितर्क, सोच-विचार, एकदम स्थिर हो गए। मैं चेतना शून्य होता गया। 

मेरा नियंत्रण संजना के हाथों में चला जा रहा था। मैं खिंचा हुआ सा उठा और एकाकार हो गया उससे। और तब उसकी अफनाहट इतनी तीव्र थी कि मैं उस स्थिति में भी दंग रह गया। एकाकार होने का यह क्रम फिर रात साढ़े दस बजे तक चला। इस बीच हम कई बार एक दूसरे में समाए। 

संजना की अफनाहट, चाहत, उसकी कोशिश ही इतनी ज़बरदस्त थी कि मैं चाहकर भी एक बार में ही ठहर नहीं सकता था। संजना का वश चलता तो सारी रात रहती मेरे साथ। इस बीच उसके और मेरे घर से फ़ोन आने लगे थे। हम-दोनों ने घर वालों से झूठ बोला। मगर अब रुकना सम्भव नहीं था। क्योंकि जिस दोस्त ने चाबी दी थी, उसके आने का वक़्त हो रहा था। इसलिए हम दोनों ने जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह धोए। कपड़े पहने, वहाँ की सारी चीज़ें व्यवस्थित कीं और चल दिए। मैंने संजना को उसके घर छोड़कर अपने घर की राह ली थी। 

मन में संजना की अफनाहट को लेकर उधेड़बुन चल रही थी, कि उसकी यह अफनाहट इतनी तीव्र न होती यदि पति ने उसे वह सब दिया होता जो एक पत्नी पति से चाहती है। यदि वह न पूरा सही, कुछ ही उसके मन की करता तो उसे छोड़ती नहीं। बेचारी ऊपर से कितनी हँसमुख सी दिखती है। देखने वाला कह ही नहीं सकता कि उसे इतनी तकलीफ़ है। इतनी सारी तकलीफ़ों के बाद भी चेहरे पर उदासी नहीं आने देती। बहुत हिम्मती है। मुझे बड़ा तरस आने लगा था उसकी स्थिति पर। 

उसकी स्थिति का आकलन करते-करते मैं जब घर पहुँचा तो क़रीब बारह बज चुके थे। बच्चे खा-पी के सो चुके। नीला पत्नी धर्म निभाते हुए अभी जाग रही थी। चेहरे पर परेशानी चिंता झलक रही थी। क्योंकि मैं इतनी देर तक घर से बाहर नहीं रहता था। मैं उससे नज़रें मिलाकर बात करने में कुछ असहजता महसूस कर रहा था। वह जो कुछ पूछती उसका जवाब दाएँ-बाएँ देखते हुए देता। उसने समझा मेरा मूड ख़राब है तो उसने कहा, “चेंज करिए मैं खाना लगाती हूँ।” 

मैंने खाने के लिए मना कर दिया। क्योंकि वहाँ इतना खा लिया था कि, कुछ और खाने का मन नहीं था। दूसरे पत्नी के सामने अजीब सी झेंप महसूस कर रहा था। शादी के बाद यह पहला अवसर था जब मैंने पत्नी के अलावा बाहर किसी अन्य औरत के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाए थे। शादी के पहले मेरे किसी भी लड़की या औरत से सम्बन्ध इतने क़रीबी नहीं थे कि वह शारीरिक सीमा की हद तक पहुँचते। इसलिए मेरी बड़ी अजीब हालत हो रही थी। 

मैं चेंज कर के लेट गया बेड पर लेकिन अपनी इस मनोदशा के चलते नीला से यह कहना भूल गया कि वह खाना खा ले। नीला मुझे खिलाए बिना खाती नहीं थी। मेरी आँखें नींद से बोझिल हो रही थीं लेकिन न जाने क्यों सो नहीं पा रहा था। नीला मुझे गंभीर परेशानी में समझ कर कुछ अजीब सी सावधानी बरतती हुई सी लग रही थी। मैं उसकी तरफ़ पीठ किए हुए लेटा था। कुछ देर बाद नीला ने पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “क्या, बात है इतना सीरियस क्यों हो? तबियत तो ठीक है न?” 

मैं नीला के भावनात्मक लगाव से भरे इस प्रश्न से एकदम से कुछ हद तक सकते में आ गया। तुरंत कोई जवाब न बन पड़ा बस 'हूँ' कर के रह गया। उसने फिर और ज़्यादा पूछ-ताछ शुरू कर दी। उसकी पूछ-ताछ में भावनात्मक लगाव का पुट इतना ज़्यादा था कि मैं कई बार पूरी कोशिश के बाद भी उसे चुप नहीं करा पाया बस, “हाँ, कुछ नहीं, बस थकान महसूस कर रहा हूँ।” कहकर चुप हो गया कि नीला भी चुपचाप सो जाए। 

मैं गुनहगार होने के भाव से ऐसा दबा जा रहा था कि नीला की तरफ़ मुँह करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। हम-दोनों के बीच यह कसमकस कुछ देर यूँ ही चलती रही। नीला सब-कुछ जानने के लिए कुछ इस क़द्र पीछे पड़ी थी जैसे कोई दारोगा ज़िद पर आ गया हो कि अभियुक्त से सच उगलवा कर रहेगा। इसके लिए वह हर हथकंडे अपनाता है। नीला कुछ वैसे ही दारोगा की तरह पीछे पड़ी थी। 

मुझे लगा जैसे उसे शक हो गया है। वह मेरी चोरी पकड़ चुकी है। लेकिन मेरे मुँह से सुनना चाहती है। कुछ देर बाद उसने एक पत्नी की तरह नहीं एक शातिर बेहद चालाक औरत वाला हथकंडा अपनाया। अपने तन का बहुत ही शालीनता से प्रयोग करना शुरू किया। मुझे इस क़द्र प्यार करना शुरू किया मानो मैं उससे बरसों बाद मिला हूँ और फिर बरसों के लिए दूर चला जाऊँगा। 

मैं अंदर ही अंदर खीज से भरा जा रहा था लेकिन मन-मस्तिष्क में अंदर न जाने ऐसा क्या चल रहा था कि नीला का मैं विरोध नहीं कर पा रहा था। उसे मना करने की जैसे मुझ में ताक़त ही न थी। अपराध बोध ने उस वक़्त जितना पस्त कर दिया था नीला के सामने उसके पहले कभी न किया था। इसका आधा भी नहीं। जबकि पहले भी कई काम उससे छिपाकर करता रहा था। 

मैं नीला से प्यार के मूड में उस वक़्त दो वजहों से नहीं था। एक तो अपराध-बोध के तले कुचला जा रहा था। दूसरे संजना के साथ कई घंटों तक व्यस्त रहने के कारण बुरी तरह थका था। मैं गहरी नींद सोना चाहता था। 

एक बात और कि आने के बाद नहाया नहीं था। इन सबके चलते मैं उस रात नीला से हर हाल में दूर रहना चाहता था। जब नीला ने कोई रास्ता नहीं छोड़ा तो मैं अचानक ही फट पड़ा। क्योंकि मेरे पास और कोई रास्ता ही नहीं बचा था। मैंने एक हाथ से उसे एक तरफ़ परे धकेलते हुए चीख कर कहा, “सोने क्यों नहीं देती।” 

मैं उस वक़्त यह भी भूल गया कि, बच्चे चीख सुनकर उठ सकते हैं। मेरी इस हरकत से नीला एकदम हतप्रभ हो कुछ क्षण को जिस पोज़ में थी उसी में स्थिर हो गई। और मैं गहरी-गहरी साँसें लेते हुए नाइट लैंप की बेहद कम नीली रोशनी में छत को देखने लगा। कुछ देर बाद नीला धीरे-धीरे यंत्रवत सी बेड से नीचे उतरी, अपना गाऊन उठाया और कुछ सेकेंड मुझे देखती रही। 

उस कम रोशनी में भी मैंने अहसास किया कि उसकी बड़ी-बड़ी आँखें भरी हुई थीं। और शरीर का सारा तनाव विलुप्त हो चुका था। उसने वैसे ही खड़े-खड़े अपना गाऊन पहना। और हारे हुए जुआरी की तरह, थकी हारी सी कमरे से बाहर चली गई दूसरे कमरे में। मैं कुछ देर तरह-तरह की बातों में उलझा सो गया। 

सुबह क़रीब चार बजे ही मेरी नींद खुल गई। मैं सपने में खोया हुआ था संजना के साथ। विधायक के उसी कमरे में कि तभी नीला न जाने कहाँ से आ गई थी और संजना को बालों से पकड़ कर खींचते हुए विधायक निवास की गैलरी में खींचे जा रही थी। और लोग आँखें फाड़कर-फाड़कर देख रहे थे। मैं उसे बचाने के लिए उठा था कि नींद खुल गई। रात का दृश्य मेरी नज़रों के सामने आ गया। मैं उठकर कमरे से अटैच बाथरूम में गया, पेशाब कर, आ कर फिर बैठ गया। 

तरह-तरह के विचारों में फिर उलझने लगा तो, नीला कहाँ सो रही है, यह देखने की ग़रज़ से पहले बच्चों के कमरे में गया। वहाँ नहीं मिली तो ड्रॉइंगरूम में गया। वहाँ वह सोफ़े पर सो रही थी। वह चादर नीचे गिरी हुई थी जो उसने ओढ़ी थी। गाऊन की जो बेल्ट उसने बाँधी थी वह क़रीब-क़रीब खुल चुकी थी। 

गाऊन का एक तरफ़ का हिस्सा, बेल्ट के पास तक का सोफ़े से नीचे लटका हुआ था। जिससे कमर के पास तक का उसका बदन पूरी तरह खुल गया था। जिसे देखकर मेरा मन अचानक ही संजना के बदन से उसकी तुलना कर बैठा कि कौन ज़्यादा सुंदर है। उस वक़्त संजना का बदन मुझे नीला से कहीं बेहतर नज़र आया था। दोनों की तुलना करता मैं क़रीब एक मिनट वैसे ही खड़ा रह गया। 

अचानक नीला कुछ कसमसाई तो मेरा ध्यान भंग हुआ। फिर यह सोचकर मैंने उसका कपड़ा ठीक कर दिया, कहीं बच्चे उठकर आ गए तो नीला को इस हाल में देखना ग़लत होगा। मैं जाने के लिए जैसे ही मुड़ा कि गाऊन का वह हिस्सा फिर पहले जैसी हालत में आ गया। सिल्क का होने की वजह से तुरंत फिसल जा रहा था। 

अंततः मैंने उसे उठाने की कोशिश की, कि चलकर सो जाए अंदर क्योंकि उसके उठने का वक़्त छह बजे है। और अभी दो घंटा बाक़ी है। लेकिन उसने आँख खुलते ही जैसे ही मुझे देखा तो मेरा हाथ परे झटक दिया। मैंने कहा, “इस हालत में बच्चे देख सकते हैं, अंदर क्यों नहीं चलती।” तो उसने ग़ुस्सा दिखाते हुए गाऊन की बेल्ट कसी, चादर उठायी, उसे कस के लपेट कर फिर सोफ़े पर ही लेट गई। 

अमूमन ऐसा ग़ुस्सा दिखाने पर मैं भड़क उठता लेकिन उस दिन मैं कुछ सहमा सा एकदम चुप रहा। चला आया बेडरूम में और सिगरेट पीने लगा। फिर लेट गया। बहुत थकान महसूस कर रहा था, लेकिन फिर भी दुबारा सो न सका। 

सुबह का माहौल बहुत तनावपूर्ण रहा। सूजा चेहरा, सूजी आँखें लिए नीला ने सारा काम किया। मुझ पर ग़ुस्सा दिखाते हुए बच्चों पर चीखती-चिल्लाती रही। मैंने कुछ कोशिश की तो मुझसे भी लड़ गई। मैं बिना चाय-नाश्ता किए, लंच लिए बिना ही ऑफ़िस आ गया। 

एक तरफ़ मेरे चेहरे पर जहाँ तनाव ग़ुस्से की लकीरें हल्की, गाढ़ी हो रही थीं, वहीं संजना खिलखिलाती हुई मिली। चेहरा ऐसा ताज़गी-भरा लग रहा था, मानो कोई बेहद भाग्यशाली नई-नवेली दुलहन, पति के साथ ढेर सारा स्वर्गिक आनंद लूटने के बाद पूरी रात सुख की गहरी नींद सोई हो। और सुबह तरो-ताज़ा होकर आई हो। मुझे देखते ही चहकते हुए पूछा, “कैसे हो राजा जी?” 

मैंने उखड़े हुए मन से कहा, “ठीक हूँ।” 

“तो चेहरे पर हवाइयाँ क्यों उड़ रही हैं?” 

“कुछ नहीं यार, बस ऐसे ही तबियत कुछ ठीक नहीं है।” 

“तबियत ठीक नहीं है। या बीवी से झगड़ा कर के आए हो।” 

“छोड़ो यार, काम करने दो, बहुत काम पेंडिंग पड़ा हुआ है।” 

“ठीक है, काम करो जब मूड ठीक हो जाए तो बताना। कुछ ज़रूरी बातें करनी हैं।” 

इतना कहकर संजना जाने को मुड़ी तो, मैंने रेस्ट लेने की ग़रज़ से सिर कुर्सी पर पीछे टिका दिया। आँखें बंद करने ही जा रहा था कि, वह बिजली की फ़ुर्ती से पलटी और सीधे मेरे होठों पर किस कर बोली, “अब मूड सही हो जाएगा। ठीक से काम करोगे। लंच साथ करेंगे।” 

इससे पहले कि मैं कुछ बोलता, उसने बड़ी अश्लीलतापूर्ण ढंग से आँख मारी और चली गई। मुझे यह देख कर बड़ी राहत मिली कि आस-पास कोई नहीं था। अचानक मुझे होठों का ध्यान आया कि, कहीं उसकी लिपस्टिक तो नहीं लग गई। बाथरूम में देखा तो शक सही निकला। उस वक़्त ग़ुस्सा बहुत आया लेकिन उससे कुछ कहने की हिम्मत न जुटा सका। आख़िर मैं उसके कहने पर एल.ओ.सी. क्रॉस कर चुका था। 

लंच का वक़्त आते-आते भूख से आँतें कुलबुलाने लगी थीं। मैं रेस्टोरेंट जाने के इरादे से उठा ही था कि संजना आ धमकी लंच बॉक्स लिए हुए। मैंने कहा, “मैं लेकर नहीं आया हूँ, कम पड़ जाएगा।” 

लेकिन वह अड़ी रही, साथ ही लंच करना पड़ा। उसका बनाया परांठा-सब्ज़ी मुझे बिल्कुल भी अच्छे नहीं लगे थे। जबकि उसने कहा कि, उसके लिए भी वह बडे़ प्यार से बना कर ले आई है। मैंने उसके खाने की झूठी तारीफ़ कर दी कि अच्छा बना है। 

लंच के आधे घंटे तक उसने यही बताया कि देर से पहुँचने के कारण सबने बड़ी हाय-तौबा मचाई, लेकिन उसने किसी की परवाह नहीं की। और सबको चुप करा दिया। बरसों बाद कल वह ख़ूब चैन की नींद सोई थी। इसके लिए उसने मेरा धन्यवाद करते हुए रिक्वेस्ट की यह वादा करने की, कि मैं उसका साथ अब कभी न छोड़ूँगा। 

मुझसे वादा कराने के बाद ही वह मानी। उसकी निश्चिंतता उसकी ख़ुशी देखकर मेरे दिमाग़ में आया कि, यह सच बोल रही है कि, यह बरसों बाद कल चैन की नींद सोई है। इसकी चैन-भरी इस नींद की क़ीमत उधर नीला ने चुकाई। रात-भर तड़पी और सोफ़े पर पड़ी रही। और मैं भी तभी से तनाव में जी रहा हूँ। मगर मेरा यह सारा तर्क-वितर्क तब धरा का धरा रह जाता जब संजना शुरू हो जाती। जैसे ही वह अपने प्यार की बयार चलाती, मैं वैसे ही उड़ जाता। 

यह सिलसिला जब एक बार शुरू हुआ तो फिर वह चलता ही चला गया। हम-दोनों के सम्बन्ध अब ऑफ़िस के अलावा बाक़ी जगहों में भी चर्चा का विषय बन गए। हालत यह थी कि जो भी मुझे टोकता वही मेरा दुश्मन बन जाता। मैं उससे सम्बन्ध विच्छेद कर लेता। नीला से सम्बन्ध तनाव की सीमा तक पहुँच गए थे। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जिस दिन तीखी नोंक-झोंक न होती। बच्चे भी मुझसे कटे-कटे अपनी माँ के ही साथ चिपके रहते। 

बहुत बाद में मेरे ध्यान में आया कि, नीला की आँखें अब स्थायी रूप से सूजी रहने लगी हैं। आज मैं यह सोच कर ही सिहर उठता हूँ कि, कैसे उसने वह अनगिनत रातें काटी होगी तड़पती हुई अकेले ही। क्योंकि मेरा रहना तो न रहने के ही बराबर था। उसके हिस्से का हँसने-बोलने का सारा समय सारी बातें तो संजना छीन लेती थी। उसके हिस्से का तन का सुख भी वही छीन लेती थी। 

मुझे अच्छी तरह याद है कि, मैंने उससे उस एक बरस में, एक बार भी रात या दिन कभी भी सम्बन्ध नहीं बनाए। क्योंकि संजना के तन का मैं इतना प्यासा था कि, उसके सिवा मुझे कुछ दिखता ही नहीं था। उसके साथ महीने में जितनी बार सम्बन्ध बनाता था, पत्नी नीला से तो कभी उतनी बार नहीं बनाया, सिवाय शादी के कुछ महीनों बाद। 

मेरा रोम-रोम आज काँप उठता है यह सोचकर कि, नीला ने कैसे इतने लंबे समय तक इतना तनाव झेला। कैसे वह फिर भी पूरे घर को पहले ही की तरह चलाती रही। मेरी वजह से ग़ुस्से, अपमान-जनक बातों को सहती, सुनती रही। और अपने तन की भूख पर इतना नियंत्रण कि, कभी इस दौरान भूलकर भी तन की भूख के चलते नहीं आई। बल्कि ग़ुस्सा, प्रतिरोध दर्ज कराने के लिए,-जान बूझकर ऐसे कपड़े, इस ढंग से पहनती कि जैसे कोई पर्दानशीं बहू अपने ससुर के साथ हो। 

बच्चों पर शुरू में तो बड़ा ग़ुस्सा दिखाती रही लेकिन बाद में शांत रहकर उनसे अतिशय प्यार जताने लगी। मैं सैलरी देता तो हाथ न लगाती, तो मैं अपने ख़र्च के लिए पैसे निकालकर बाक़ी उसकी अलमारी में रखने लगा। तनाव-पूर्ण यह माहौल जब एक बरस के क़रीब पहुँचा तो एक दिन नीला ने बच्चों को अलग कर तमाम बातें कहने के साथ यह कहा, “तुम्हारी हरकतों से घर तबाह हो गया है। बच्चे बड़े हो गए हैं? मैं नहीं चाहती कि तुम्हारी बुरी बातें मेरे बच्चों का भी भविष्य बरबाद करें। मैं अपनी आँखों के सामने यह सब बर्दाश्त नहीं कर सकती। इसलिए मैं बच्चों को लेकर अलग रहूँगी। तुम ख़ुश रहो उस डायन के साथ।”

इसके बाद नीला की कई और तीखी बातों ने माहौल बिगाड़ दिया। तीखी नोंक-झोंक हुई। शादी के बाद मैंने पहली बार उस पर हाथ उठाया। मगर उसने मुझे हैरत में डालते हुए पूरी मज़बूती से बीच में ही मेरा हाथ पकड़ कर चीखते हुए कहा, “होश में रहो बता दे रही हूँ। हद से आगे निकल चुके हो। अब मैं बर्दाश्त नहीं करूँगी।”

फिर उसने संजना को एक से बढ़ कर, एक गालियाँ देते हुए साफ़ कहा, “आइंदा फिर हाथ उठाने की कोशिश की तो मैं सीधे पुलिस में जाऊँगी। क्योंकि अब इज़्ज़त, मान-मर्यादा या लोग क्या कहेंगे, इन बातों का तो कोई मतलब रहा नहीं। तुम्हारी कीर्ति पताका कॉलोनी का बच्चा-बच्चा जान चुका है। और आज के बाद तुम मेरे बच्चों की तरफ़ भी आँख उठाकर नहीं देखोगे। नहीं तो मैं भी अपनी हद भूल जाऊँगी।”

मैं आज तक उसके हद भूल जाने की बात का अर्थ नहीं समझा कि क्या वह मेरे हाथ उठाने पर, मुझ पर हाथ उठाने को कह रही थी या जैसे मैं संजना के साथ रिश्ते जी रहा था वैसा ही कुछ करने को कह रही थी। ख़ैर उस दिन के बाद उसने बेडरूम में आना, उसकी साफ़-सफ़ाई तक बंद कर दी। बच्चे भी नहीं आते मेरे पास। 

एक बदलाव और हुआ, सैलरी आते ही उसने पिचहत्तर प्रतिशत हिस्सा पूरी दबंगई के साथ लेना शुरू कर दिया। सच यह था कि उसके इस रौद्र रूप से कई बार मैं अंदर ही अंदर डर जाता था। अब ऑफ़िस से घर आने में कतराने लगा था। ज़्यादा से ज़्यादा समय बाहर बिताता। संजना के साथ। मेरी सैलरी का बड़ा हिस्सा संजना के ऊपर ख़र्च होने लगा। इससे घर पर रक़म कम पहुँचने लगी। 

एक बार नीला ने पूछा, मैंने ध्यान नहीं दिया। अगली बार जब फिर मैंने सैलरी कम दी तो नीला भड़कते हुए बोली, “अगली बार एक पैसा भी कम दिया तो सीधे ऑफ़िस पहुँच जाऊँगी।”

इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी मुझे यक़ीन था कि, वह बहुत शर्मीली और संकोची है। ऑफ़िस नहीं आएगी। मगर मेरा यह आकलन ग़लत निकला। अगली बार जब मैंने फिर सैलरी कम दी तो उसने एक शब्द नहीं बोला, घूर कर जलती हुई एक नज़र मुझ पर डाली, पैर पटकती हुई अलमारी के पास जाकर पैसे रखे, फिर पलटकर एक और जलती नज़र डाली और चली गई। 

मैं फिर खो गया संजना में। उसको मैं उस वक़्त एक क्षण भी भूल नहीं पाता था। उस दिन भी रात में सोने से पहले एक बजे तक मैंने उससे बातें कीं। सारी बातें अश्लीलता की एक से बढ़कर एक इबारतें थीं। अगले दिन मैं संजना में ही खोया ऑफ़िस में था कि, नीला का फ़ोन आया, “मैं ऑफ़िस के गेट पर हूँ। तुरंत आओ नहीं तो मैं अंदर आ जाऊँगी।”

मैं एकदम घबरा गया। और क़रीब-क़रीब दौड़ता हुआ गेट पर पहुँचा। जबसे उसने मेरा हाथ पकड़ा था मैं उसकी दृढ़ता से वाकिफ़ हो गया था। उसके पास पहुँचते ही, मैं सबसे पहले उसे लेकर ऑफ़िस से कुछ दूर गया, फिर बहुत ही नम्रता-पूर्वक पूछा, “क्या बात है, घर पर सब ठीक तो है न?” 

मेरी ओढ़ी हुई नम्रता को उसने घृणा-पूर्वक साइड दिखाते हुए कहा, “ये घर की याद कहाँ से आ गई तुम्हें। तुम्हारा जो घर है तुम उसकी चिंता करो।”

“यहाँ किस लिए आ गई हो?” 

“सैलरी के लिए, जितनी सैलरी मुझे चाहिए वह तुम दो महीने से कहने के बाद भी नहीं दे रहे हो। और मैंने कहा था कि, मैं ऑफ़िस आकर ले लूँगी। क्योंकि मैं अपना, अपने बच्चों का हिस्सा किसी और पर नहीं लुटाने दूँगी।”

उसकी बात सुनकर मैं घबरा गया। चेहरे पर पसीने के आने का अहसास मैंने साफ़ महसूस किया। उस वक़्त ग़ुस्से से ज़्यादा मैं उससे डरा हुआ था। मैंने बात सँभालने की ग़रज़ से कहा, “ठीक है, अगले महीने पूरे मिल जाएँगे।”

“अगले महीने नहीं, जितने रुपए अब-तक कम दिए हैं, मुझे वह सारे के सारे आज ही चाहिए। शाम को यदि मुझे पैसे नहीं मिले तो मैं कल यहाँ गेट पर आकर फ़ोन नहीं करूँगी। बल्कि सीधे अंदर आकर उस छिनार संजना को सबके सामने चप्पलों से मारूँगी, फिर तुमसे हिसाब लूँगी सबके सामने समझे।”

इतना कह कर नीला ने सुर्ख़ और सूजी हुई आँखों से मुझे घूरा और पलट कर पैदल ही चल दी। मैं खड़ा उसे देखता रहा। उसके तेवर से मैं पसीने-पसीने हो गया था। जिस तरह उसने संजना को गाली देकर कहा था कि, आज पैसे न मिलने पर वह कल आकर पीटेगी उसे, उससे यह साफ़ था कि वह जो कह रही है वह नि:संदेह कर डालेगी। 

काफ़ी समय से उसकी एक से एक गालियाँ सुनकर मैं हैरान रह जाता कि, यह मेरी वही नीला है जो मध्यकालीन शृंगार रस के कवि विद्यापति की रचनाएँ सस्वर गा कर रिकॉर्ड कर चुकी है। उनकी अधिकांश रचनाएँ उसे ज़ुबानी याद हैं। जो महादेवी वर्मा को अपनी प्रिय लेखिका बताती है। और उनकी भी तमाम रचनाएँ याद कर रखी हैं। अवसर आने पर सुनाती भी है। 

हालाँकि संजना के मेरे जीवन में आने के बाद यह अवसर कभी नहीं आया। मैं सोचता आख़िर यह इतनी गालियाँ कहाँ से जान गई। और सिर्फ़ जानती ही नहीं, इस तरह बेधड़क देती है कि, लगता है ऐसे गाली-गलौज के माहौल में ही पली-बढ़ी है। फिर सोचा नहीं समाज में, घर-बाहर जो भी है अस्तित्व में, वह सब जानते हैं। बस संस्कार के चलते वही चीज़ें प्रमुखता से सामने आती हैं जो संस्कार में मिलती हैं। 

बाक़ी एक तरह से सुसुप्त अवस्था में रहती हैं, जो अनुकूल वक़्त पर ही उभरती हैं। तो क्या मैं जो कर रहा हूँ, वह इस स्तर का है कि, नीला जैसी औरत में गाली-गलौज जैसी जो चीज़ें सुसुप्तावस्था में थीं, उसके लिए अनुकूल स्थिति पैदा हो गई, और उसके मुँह से धड़ा-धड़ गालियाँ निकल रही हैं। जिसके लिए सिर्फ़ मैं ज़िम्मेदार हूँ। 

ऐसी तमाम उथल-पुथल लिए मैं नीला को आगे टेम्पो पर बैठकर जाने तक देखता रहा। इसके बाद मैं भी वापस अपनी सीट पर पहुँचा। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद मैं बाक़ी समय कोई काम नहीं कर सका। बस फ़ाइल खोले बैठा रहा। इस बीच संजना कई बार आई और चुहुलबाज़ी कर के चली गई। 

छुट्टी के बाद हम-दोनों फिर मिले। कहीं घूमने जाने का प्लान हम सवेरे ही बना चुके थे। लेकिन अब मैं नहीं जाना चाहता था। मेरी चिंता नीला की धमकी को लेकर थी। शाम को घर पहुँचते ही अगर उसे पैसे नहीं दिए तो कल वह ऑफ़िस आकर आफ़त कर देगी। घूमने जाने से मना किया तो संजना पीछे पड़ गई। जब मैंने उसे सब बताया तो वो भी चिंता में पड़ गई। फिर कुछ देर चुप रहने के बाद बोली, “चलो पहले कहीं कुछ खाते-पीते हैं। फिर सोचते हैं कुछ।”

एक होटल में कुछ खाने-पीने के बाद मैंने राहत महसूस की। तमाम बातचीत के बीच मुझे असमंजस में फँसा देख संजना ने कहा, “सुनो आज तुम उसे पैसा देकर पहले किसी तरह मामले को शांत करो। फिर सोचते हैं कि इसका परमानेंट सॉल्यूशन क्या होगा।”

“लेकिन मेरे पास अभी पैसे हैं ही नहीं, सब ख़त्म हो चुके हैं।”

“कोई बात नहीं, मैं अपने पास से देती हूँ। सैलरी मिले तो दे देना।”

फिर संजना ने ए.टी.एम. से पैसे निकाल कर दिए। 

घर पहुँचकर मैंने पैसे नीला के सामने पटक दिए। मेरे मन में आया कि कहूँ कि दोबारा ऑफ़िस आने की कोशिश मत करना। लेकिन हिम्मत न कर सका। हाँ ग़ुस्से में मैंने चाय-नाश्ता, खाना-पीना कुछ नहीं किया। संजना के साथ ही इतना खा-पी लिया था कि ज़रूरत ही नहीं रह गई थी। 

मैं बेड पर अकेले लेटे-लेटे सोने की कोशिश करने लगा, जिससे दिन-भर के तनाव से मुक्ति मिल सके। लेकिन दिन से ही नीला की हरकत कुछ इस तरह दिलो-दिमाग़ पर हावी हो गई कि रात दो बज गए, लेकिन नींद नहीं आई। 

कभी नीला की धमकी भरी बातें बेचैन करतीं, तो कभी संजना का परमानेंट सॉल्यूशन वाला डॉयलाग। मैंने उस दिन, उस वक़्त पहली बार महसूस किया कि, मैं दो औरतों के बीच पिस रहा हूँ। इसके लिए पूरी तरह से ज़िम्मेदार भी मैं हूँ। मगर कोई रास्ता तो होगा कि, इस पिसने की पीड़ा से बाहर आ सकूँ। 

यह बात आते ही, दिमाग़ में आया कि इन दो पाटों को अलग करना ही मुक्ति दे सकता है। लेकिन कैसे हो यह समझ नहीं पा रहा था। पहली बार उस दिन दिमाग़ में आया कि, नीला को छोड़ दूँ क्या? अलग हो जाऊँ उससे हमेशा के लिए, दे दूँ तलाक़ उसे? इसके अलावा तो परमानेंट सॉल्यूशन और कुछ हो नहीं सकता। कहीं संजना भी यही तो नहीं कहना चाह रही थी। 

इस बिंदु पर आते ही मुझे लगने लगा कि इसके अलावा मुक्ति का और कोई रास्ता है नहीं है। अब तलाक़ चाहिए ही, रही बात बच्चों कि तो उन्हें भी उसी के साथ दे दूँगा। जैसे चाहेगी पाल लेगी। दे दूँगा गुज़ारा भत्ता। यह मकान भी उसी को दे दूँगा। कोई दूसरा मकान किसी तरह ले लूँगा। संजना के साथ शादी करने के बाद उसकी सैलरी, मेरी आधी सैलरी के आधार पर इतना लोन तो बैंक से मिल ही जाएगा कि कोई एक ठीक-ठाक मकान ले लूँ। 

उस वक़्त संजना को लेकर दिवानगी के चलते मेरे दिमाग़ में यह नहीं आया कि नीला अकेले बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, लड़की की शादी की ज़िम्मेदारी कैसे निभा पाएगी। दोनों बच्चे मैंने पैदा किए हैं, वह अकेले क्यों ज़िम्मेदारी उठाए। यह बात भी दिमाग़ में न आई कि, संजना जब मेरे साथ आएगी तो उसका बेटा भी साथ होगा। उसे मैं कैसे स्वीकार कर पाऊँगा? 

अब मुझे यह सोचकर ही आश्चर्य होता है कि, तब मेरे दिमाग़ में कैसे अपनी पत्नी अपनी नीला को छोड़ने का विचार इतनी आसानी से आ गया था। लेकिन उस संजना को छोड़ने का विचार एक पल को न आया, जिसके कारण दो पाटों में दब गया था। उस संजना का जो अपने पति की नहीं हुई थी, उसे सिर्फ़ इसलिए छोड़ दिया था उसने, क्योंकि झूठ फ़रेब उससे नहीं होता था। 

जो उसकी कामुकता को ग़लत समझता था। उस संजना को जो मनमानी करने के लिए माँ-बाप, भाई-बहन को भी दुत्कार चुकी थी। और मुझसे परिचय के कुछ ही दिन बाद अपना तन खोल कर खड़ी हो गई कि, उसकी भूख शांत करो, क्यों कि उसके पति ने उसके तन की क्षुधा कभी शांत ही नहीं की, वह बेहद ठंडा आदमी है, जो किसी भी औरत के लायक़ नहीं। 

इतना ही नहीं तब मेरी आँखें उसके तन की चमक में ऐसी चुँधियाई हुई थीं, कि मैं उसकी इस हरकत से भी उसकी असलियत का अंदाज़ा नहीं लगा पाया कि, वह ऐसा कोई दिन नहीं जाता था, जिस दिन अपने कंफ़र्मेशन या प्रमोशन को लेकर बात न करती रही हो। 

जिस दिन शारीरिक सम्बन्धों का दौर चलता उस दिन तो पहले और बाद में भी पूरे अधिकार से यह कहती। बल्कि एक तरह से आदेश देती कि तुम्हें यह करना है। उस वक़्त उसकी यह बातें कुछ ख़ास नहीं लगती थीं। 

जब कंफ़र्मेशन का वक़्त निकल गया और कोई कार्यवाही नहीं हुई तो एक दिन फिर उसने मिलन के क्षण से पहले ही बड़े अधिकार से कहा, “लगता है तुम जानबूझकर मेरा कंफ़र्मेशन, प्रमोशन नहीं करा रहे हो। जिससे मुझे जब चाहो, ऐसे ही यूज़ करते रहो।”

मुझे उसी वक़्त उसकी इस बात से चौंक जाना चाहिए था। लेकिन नहीं चौंका, आँखों, दिलो-दिमाग़ पर पर्दा जो पड़ा था। उसकी इस बात पर कान दिए बिना मैं उसके तन पर टूटा हुआ था। उसके तन पर उस वक़्त सिर्फ़ मैं था। कपड़े के नाम पर एक सूत न था। 

न उस पर, न मुझ पर मगर ऐसी स्थिति में भी वह इतनी बड़ी बात कह गई थी। और मैं बेख़बर था। उसके दिमाग़ में ऐसी चरम स्थिति में भी यह सब कैलकुलेशन चल रही थी। और मेरे दिमाग़ में सिर्फ़ यह कि, मेरे तन से उसका तन कभी जुदा न हो। 

उस दिन उसकी परमॉनेंट सॉल्यूशन की बात का भी निहितार्थ मैं समझ न पाया, और पत्नी को तलाक़ देने की सोचने लगा था। देर रात तक इसी उथल-पुथल में जागता रहा कि कैसे जल्दी से जल्दी इसे तलाक़ देकर, इससे छुटकारा पा लूँ। 

मेरा ध्यान इस तरफ़ भी नहीं गया कि, नीला ने मेरे सारे कपड़े गंदे, साफ़ सब लाकर बेडरूम में ही पटक दिए थे। उसका एक बड़ा ढेर बना हुआ था। काफ़ी दिनों से साफ़-सफ़ाई न होने के कारण पूरा बेडरूम कचरा घर नज़र आ रहा था। तलाक़ देने की धुन में बहुत देर से सोया और जब सुबह उठा तो बहुत देर हो चुकी थी। 

बहुत जल्दी करने के बावजूद क़रीब दो घंटे देर से ऑफ़िस पहुँचा। उस दिन पूरा वक़्त इस उथल-पुथल में बीता कि नीला से तलाक़ के बारे में संजना से बात करूँ कि न करूँ। मेरे उखड़े मूड के बावजूद संजना अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आई। चुहुलबाज़ी उसकी रुकी नहीं। छुट्टी होने से कुछ पहले आकर बोली, “सुना है मेरा कंफ़र्मेशन लेटर आ गया है। कुछ पता भी करोगे या यूँ ही मुँह लटकाए रहोगे।”

उसकी इस बात से मैं थोड़ा अचरज में पड़ा गया कि, लेटर आ गया इसकी भनक इसको कैसे मिल गई। दूसरे ऐसे बेरूखे ढंग से बोल रही है। आख़िर और किन से इसके सम्बन्ध हैं, जो इसे सूचना देता है। उसकी इस बात से मैं इतना गड्मड् हो गया कि शाम को कहीं और चल कर बात करने की बात कहने की हिम्मत न जुटा सका। 

और उम्मीद से एकदम विपरीत वह बिना मुझे कुछ बताए चली गई। मुझे उसकी इस हरकत पर बड़ा ग़ुस्सा आया। ऑफ़िस से बाहर निकलते ही मैंने उसे मोबाइल पर फ़ोन किया, कई बार ट्राई करने के बाद उसने कॉल रिसीव की। फिर छूटते ही बोली, “अभी बिज़ी हूँ बाद में बात करती हूँ।”

मैं कुछ बोलूँ कि उसके पहले ही काट दिया। मेरा ग़ुस्सा और बढ़ गया। मैंने तुरंत फिर कॉल की लेकिन उसने रिसीव नहीं की। कई बार किया तो स्विच ऑफ़ कर दिया। उसने पहली बार ऐसी हरकत की थी। 

मैं ग़ुस्से से एकदम झल्ला उठा। मेरे मुँह से उस वक़्त पहली बार उसके लिए अपशब्द निकला, “कमीनी कहीं की एक मिनट बात नहीं कर सकती।” मैंने उस क्षण पहली बार महसूस किया कि मैं आसमान में कटी पतंग सा भटक रहा हूँ। या ओवर एज हो चुके बेरोज़गार सा सड़कों पर निरुद्देश्य चप्पलें चटका रहा हूँ। जिसे निकम्मा समझ घर वाले और बाहर वाले दोनों ही दुत्कार चुके हैं। 

जिसका न घर में कोई ठिकाना है और न ही कहीं बाहर। मैं सड़क किनारे काफ़ी देर तक खड़ा रहा मोटर-साइकिल खड़ी कर उसी के सहारे। घर जाता तो किसके लिए। बीवी दुश्मन बन चुकी थी, बच्चे बेगाने। अपने घर में ही मैं कचरा-घर बन चुके बेडरूम तक सीमित रह गया था। बेहद तनाव और काफ़ी देर तक खड़े रहने से जब थक गया तो मैं मोटर-साइकिल स्टार्ट कर चल दिया। मगर जाना कहाँ है, दिमाग़ में ऐसा कुछ नहीं था। 

ट्रैफ़िक से लदी-फंदी, हाँफती सड़क पर बढ़ता रहा और आख़िर में रेलवे स्टेशन के उस कोने पर जा कर खड़ा हो गया, जहाँ लोग सामने बने गेट से प्लैटफ़ॉर्म नंबर एक तक अनधिकृत रूप से पहुँच जाते हैं। वहाँ की सिक्योरिटी में बना यह सबसे बड़ा छेद जैसा है। 

आते-जाते लोगों को देखते मन में चलते तूफ़ान से मैं एकदम बिखर सा गया था। बाइक वहीं खड़ी कर मैं दिशाहीन सा आगे बढ़ता जा रहा था, मुझे यह भी होश नहीं था कि, बाइक वहाँ बिना लॉक किए ही खड़ी कर दी है। जिसके चोरी होने का पूरा ख़तरा है। 

मैं आगे बढ़ता गया और फिर वी.आई.पी. एंट्रेंस से आगे फुटओवर ब्रिज पर चढ़ गया। और बीच में पहुँचते-पहुँचते मेरे क़दम थम से गए। मैं रेलिंग के सहारे खड़ा हो गया। और दूर तक नीचे इधर-उधर, आते-जाते लोगों को देखता रहा। खो गया उसी भीड़ में एक तरह से। मगर कोई चेहरा ऊपर से साफ़ नहीं दिख रहा था। रात के आठ बज रहे थे। गाड़ियों, दुकानों की लाइट और स्ट्रीट लाइट इतनी नहीं थी कि ऊपर से किसी को स्पष्ट देखा जा सकता। 

मैं संजना तो, कभी नीला में खोया, थका-हारा, रेलिंग के सहारे तब-तक खड़ा रहा जब-तक कि एक लड़की के, “एस्क्यूज़ मी” शब्द कानों में नहीं पड़े। मैंने गर्दन घुमा कर दाहिनी तरफ़ आवाज़ की दिशा में देखा। एक क़रीब छब्बीस-सत्ताइस साल की लड़की खड़ी थी। वहाँ रोशनी बहुत कम थी, फिर भी मैं देख पा रहा था कि वह गेंहुएं रंग की थी और मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुरा रही थी। 

मेरे मुख़ातिब होते ही बोली, “किसी का इंतज़ार कर रहे हैं क्या?” मेरे लिए उस वक़्त यह अप्रत्याशित स्थिति थी। सो तुरंत मुझ से कोई जवाब न बन पड़ा। उसे देखता रहा मैं। औसत क़द से कुछ ज़्यादा लंबी थी वह। भरा-पूरा शरीर था। 

चुस्त कुर्ता और पजामा पहन रखा था। जिसे लैगी कहते हैं। वास्तव यह साठ-सत्तर के दशक में हिंदी फ़िल्मों में हिरोइनों द्वारा ख़ूब पहनी गई स्लेक्स ही हैं। जब मैं कुछ बोलने के बजाए उसे देखता ही रहा तो वह फिर बड़ी अदा से बोली, “कहाँ खो गए मिस्टर।”

“कहीं नहीं . . . लेकिन मैं आपको पहचानता नहीं, आप कौन हैं?” 

“कभी तो पहचान शुरू हो ही जाती है न। बैठ कर बातें करेंगे जान जाएँगे एक दूसरे को, और जब जान जाएँगे तो मज़े ही मज़े करेंगे।”

इस बार उसके और ज़्यादा इठला कर बोलने ने मुझे एकदम सचेत कर दिया कि, यह उस एरिया में चलती-फिरती, गर्म-गोश्त की दुकान है, जो ख़ुद ही माल भी है, और ख़ुद ही विक्रेता भी। यह उनमें से नहीं है जिनके सौदागर साथ होते हैं। मैं संजना और नीला के चलते बेहद ग़ुस्से और तनाव में था ही तो, दिमाग़ में एकदम से एक नई स्टोरी चल पड़ी। 

सोचा घर जाने का कोई मतलब नहीं है, वहाँ बीवी-बच्चे कोई भी पूछने वाला नहीं है। और जिस के लिए अपने भरे-पूरे, ख़ुशहाल परिवार को हाशिए पर धकेल रखा है, वह आज बात तक नहीं कर रही है। दग़ाबाज़ निकली। अच्छा है आज ज़िदगी का यह अनुभव भी लेते हैं। घर पर फ़ोन भी नहीं करूँगा। देखूँ नीला या बच्चों में से कोई फ़ोन करता है या नहीं। इससे यह भी पता चल जाएगा कि, यह सब वाक़ई मुझसे से नफ़रत करते हैं या सिर्फ़ ग़ुस्सा मात्र हैं। 

हालाँकि ज़िदंगी में गर्म-गोश्त का अनुभव लेने का यह कोई पहला निर्णय नहीं था। इससे क़रीब पंद्रह वर्ष पहले पाँच दोस्तों के साथ गोवा घूमने गया था। तब शादी नहीं हुई थी। वहाँ जिस होटल में रुके थे, वहीं के एक वेटर ने यह सेवा भी उपलब्ध कराने का ऑफ़र दिया था। और हम सबने कुछ असमंजस के बाद हाँ कर दी थी। 

तब उसने रात नौ बजते-बजते सबके लिए व्यवस्था कर दी थी। इनमें कोई भी लड़की बीस साल से ज़्यादा की नहीं थी। लेकिन अगले दिन सभी संतुष्ट थे कि जो ख़र्च किया उसका भरपूर मज़ा मिला। सभी लड़कियाँ कस्टमर को कैसे ख़ुश किया जाए इस हुनर में पारंगत थीं। 

आज इस फुट ओवर ब्रिज पर इस लड़की ने पंद्रह वर्ष पुरानी यादें ताज़ा कर दी थीं। साथ में एक नया जोश भी। बात आगे बढ़ाई तो, पता चला वह ऊपर से जितनी भोली दिख रही है, अपने क्षेत्र की अंदर से उतनी ही ज़्यादा मँझी हुई खिलाड़ी है। 

पहले तो मेरे सामने समस्या यह थी कि, उसे लेकर जाऊँ कहाँ। यह बात आते ही उसने कहा, उसके पास इस समस्या का भी समाधान है, उसे बस पेमेंट करना होगा। मगर मैं उसकी बताई जगह पर रात गुज़ारने में हिचक रहा था। तो फिर अपने विधायक वाले मित्र को फ़ोन किया। 

उसने अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहा, “यार दो दिन से तो विधायक जी रुके हुए हैं।” लगे हाथ उसने यह मज़ाक भी कर डाला, “क्या यार, भाभी जी आजकल मज़ा नहीं दे पा रही हैं क्या? जो इधर-उधर भटक रहा है।” कुछ और अश्लील बातें भी उसने कहीं, जिन्हें अनसुना कर मैंने बात ख़त्म कर दी। 

फिर नैंसी के साथ उसकी बताई जगह पर पहुँच गया। जो स्टेशन के नज़दीक ही उस एरिया का जाना-पहचाना दादा लॉज था। जहाँ गर्म-गोश्त को लेकर हुए, कई कांड पहले भी मीडिया में चर्चा में आ चुके थे। मैं भीतर ही भीतर डरा, लेकिन संजना और नीला के बीच जिस तरह से उलझा था उससे बहुत ग़ुस्से में था। 

खिन्नता नहीं आवेश में उबला जा रहा था। जो मेरे डर पर हावी हो गया। लॉज में सारी इंट्री नैंसी ही ने कराईं, जो क़रीब-क़रीब फ़र्ज़ी ही थीं। मैंने जब उस कर्मचारी की तरफ़ देखा तो, उसने दाईं आँख हल्के से दबाते हुए कहा, “क्यों परेशान हो रहे हैं सर, नैंसी जी सब मैनेज कर लेती हैं। आप बेफ़िक्र होकर एंज्वाय करें।”

फिर वह आदमी ऊपर रूम तक छोड़ने भी आ गया। रूम खोल कर दिखाया, सेवा की तमाम बातें करते हुए खड़ा हो गया तो, नैंसी ने उसे दो सौ रुपए दिलवाते हुए कहा, “ये हम-दोनों का पूरा ख़्याल रखेंगे आप निश्चिंत रहें।”

पैसा पाते ही वह चला गया। उसके जाते ही नैंसी बड़े ही मादक अंदाज़ में बोली, “आइए नीरज जी बैठिए। कुछ बातें करते हैं। जानते हैं एक दुसरे को फिर ऐश करते हैं। या फिर डिनर के बाद या जैसा आप कहें।”

यह कहकर वह बेड पर यूँ बैठ गई कि, गोया वह बड़ा लंबा सफ़र तय कर के थक गई है, और लंबे समय बाद आराम का अवसर मिला है। एक बात मैंने ग़ौर की, कि उसमें अन्य तमाम सेक्स वर्कर की तरह बाज़ारूपन नहीं था। या नाम-मात्र का था। मुझे शांत देखकर वह फिर बोली, “बैठिए ना नीरज जी, ऐसे क्या देख रहे हैं। है तो सब आप ही के लिए न। और हाँ थोड़ा रिलैक्स होइए। कोई टेंशन है तो मैं हूँ न, चुटकी बजाते दूर कर दूँगी।”

मैं कुछ बोलूँ कि, उसके पहले ही उसने फ़ोन उठाया और दो सूप का ऑर्डर कर दिया। मैंने भी सामने टेबिल पर हेलमेट रखा और बेड के सामने ही पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। फिर उसने अपने बारे में बातें शुरू कीं, जिन पर मेरा ध्यान बिल्कुल नहीं था। क्योंकि मेरा ध्यान रह-रहकर संजना पर चला जाता। 

मुझे लगता जैसे मेरे सामने वही बैठी बक-बक कर रही है। कुछ देर में वेटर सूप दे गया। जिसे चट करने से पहले उसने बाथरूम में जाकर मुँह धो लिया था। अब उसका चेहरा ज़्यादा ताज़गी भरा लग रहा था। मैंने सूप आधा ही छोड़ दिया था। 

नैंसी के सूप पीने के ढंग ने बता दिया था कि, उसे टेबल मैनर्स आदि की पूरी जानकारी है। और उसकी यह बात सच है कि, वह एक पढ़े-लिखे अच्छे घर की है। बस किसी वजह से इस फ़ील्ड में भी आ जाती है कभी-कभी। बातचीत में इतनी एक्सपर्ट थी कि कुछ ही मिनटों में उसने मुझे सारे तनावों, संजना के दायरे से एकदम खींचकर अपने दायरे में शामिल कर लिया। 

जल्दी ही मैं उसके साथ हँसने-खिलखिलाने लगा। तब मुझे लगा कि इसके साथ रात बिताने के लिए पाँच हज़ार देना कोई बुरा सौदा नहीं है। बात उसने दस हज़ार से शुरू की थी। कम करने की बात आई तो कई शर्तें रखकर उसने मूड ख़राब कर दिया था कि इतने पैसे में यह करने देंगे, यह नहीं या इतने पैसे देंगे तो यह भी कर देंगे। और इतने देंगे तो सब-कुछ। 

जिस तरह उसने खुल कर बात की थी, उससे मैं दंग रह गया था। उससे पहले यह सब सिर्फ़ सुना भर था। तब मैं एक बार को क़दम पीछे हटाने को सोचने लगा था। क्योंकि सौ रुपए ही थे। और दस हज़ार जो अलग रखे थे, वह बीमा के प्रीमियम के लिए था। जो इत्तिफ़ाक़ से एजेंट के न आ पाने के कारण मेरे ही पास था। 

उस दस हज़ार ने नैंसी के साथ क़दम आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई। अन्यथा मैं नैंसी के साथ होता ही नहीं। मगर अब इस बात को लेकर मैं किसी असमंजस में नहीं था। बल्कि मन के किसी कोने में कहीं संतोष ही था। एक कोने में कहीं यह भी कि, प्रीमियम का कहीं और जुगाड़ देखा जाएगा। अब मैं खोने लगा था नैंसी की खनक भरी हँसी में। 

बातों ही बातों में उसने डिनर का भी ऑर्डर दे दिया था। जिसमें मेरी पसंद भी उसने पूछी थी। खाना सब नॉनवेज ही था। जब वेटर डिनर रख कर जाने लगा था, तो उसने बाहर डू नॉट डिस्टर्ब का टैग लगा देने के लिए कह दिया। साथ ही नीचे रिसेप्शन पर भी फ़ोन कर मना कर दिया। 

डिनर ऑर्डर करने से पहले उसने अचानक ही शॉवर लेने की बात कर मुझे चौंका दिया था। मैंने जब यह कहा कि, “चेंज के लिए कपड़े कहाँ हैं?” तो उसने वहाँ रखे दो टॉवल की ओर इशारा करते हुए कहा, “होटल वाले ये इसीलिए तो रखते हैं।” फिर उसने बेहिचक सारे कपड़े उतारकर चेयर पर डाल दिए और बाथरूम की ओर चल दी। हाव-भाव ऐसे थे कि जैसे अपने पति के ही सामने सब-कुछ कर रही हो। दरवाज़े पर ठिठक कर बोली, “कमऑन यार एक साथ शॉवर लेते हैं। हालाँकि ये उस फ़ीस में शामिल नहीं है। लेकिन आपकी अदा पर, यह मेरी तरफ़ से एक गिफ़्ट है।”

मैं उसके बदन और उसकी बातों में उलझा था कि, तभी उसने आकर एक झटके में मेरी बेल्ट खींच दी। कुछ ही देर में, मैं भी उसी की तरह था। फिर दिगंबर ही उसके साथ शॉवर लिया। 

उस पल उसने जो किया उससे मैं सच में एकदम मदमस्त हो गया। उस पल को तब मैंने अपने जीवन के सबसे हसीन पलों में शामिल किया था। अब भी उस पल को इस सूची से हटाने का मन नहीं करता। जेल की इस बंद कोठरी में भी नहीं। 

बाथरूम में नीला के साथ बच्चों के बड़ा होने से पहले मैंने कई बार एक साथ शॉवर लिया था। मगर ईमानदारी से कहूँ कि, सच यही है कि नैंसी के साथ और नीला के साथ का कोई मुक़ाबला नहीं था। क्योंकि दोनों का मिज़ाज ही एकदम जुदा था। नीला में जहाँ शर्म-संकोच, शालीनता की तपिश की आँच थी, वहीं नैंसी में यह सिरे से नदारद थी। 

हाँ, नीला के साथ नैचुरल शॉवर का जो अनुभव था वह अद्भुत था। नैचुरल शॉवर यानी बारिश में अपनी पत्नी के साथ भीगने का। यह अनुभव तो क़रीब-क़रीब सभी ने लिया होता है, लेकिन मैंने जो किया था वह गिने-चुने लोग ही करते हैं। क्योंकि इसमें अहम रोल बारिश का होता है, वह भी ऐसी बारिश जो रात में हो रही हो और लगातार कई घंटों तक रिमझिम बारिश होती ही रहे। साथ ही सबसे ऊँचा मकान हो, और उसमें दूसरा कोई न हो। सौभाग्य ने मुझे यह सब दे रखा था। 

मेरे मकान की छत अगल-बग़ल के सारे मकानों से ऊँची थी। शादी को डेढ़ साल हो रहे थे। उस साल मानसून मौसम विभाग की सारी भविष्य वाणियों को धता बताते हुए एक हफ़्ता पहले ही आ गया था। दो-चार दिन एक आध हल्की फुहारों के बाद एक दिन जो शाम के बाद पहले कुछ ते़ज फिर धीरे-धीरे बारिश शुरू हुई तो, फिर वह बंद होने का नाम ही न ले। फिर लाइट भी चली गई। 

एमरजेंसी लाइट या फिर इन्वर्टर जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। मोमबत्ती से काम चल रहा था। गर्मी ने सताया तो अचानक छत पर घूमने का विचार एकदम से दिमाग़ में कौंध गया, जैसे उस समय आसमान में बार-बार बिजली कौंध रही थी। 

मैंने नीला को भी कुछ ना नुकुर के बाद साथ ले लिया था। छत पर पहले दोनों एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले चहल-क़दमी करते रहे। दूर-दूर तक घुप्प अँधेरा था। दूर सड़कों पर इक्का-दुक्का आती-जाती गाड़ियों की लाइट दिख जाती या फिर आसमान में कौंधती बिजली कुछ पल को आस-पास का इलाक़ा रोशन कर देती। 

जिससे नीला डर कर चिपक जाती और फिर कुछ देर में नीचे चलने को बोलने लगी। लेकिन यह सब मुझे बचपन के हसीन दिन भी याद दिला रहे थे। फिर जल्दी ही नीला के साथ, उसके भीगे बदन ने मेरा मूड एकदम रोमांटिक कर दिया। 

मैंने अपनी बातों और हरकतों से उसका मूड भी अपने जैसा ही बना लिया। फिर बाऊंड्री के बग़ल में ही मैं उसे लेकर लेट गया था ज़मीन पर। और फिर वहाँ हम-दोनों ने वह अद्भुत पल जिए। नेचर के साथ नैचुरल कंडीशन में ही। जो विरलों को ही नसीब होता है, नेचर के ही सहयोग से। 

इस अद्भुत स्थिति में हम-दोनों क़रीब घंटे भर रहे। इस बीच नीला को छींकें आने लगीं तो उसके आग्रह पर मैं मन न होते हुए भी नीचे चलने को तैयार हुआ। हम-दोनों नीचे आधे जीने तक बैठे-बैठे ही उतरे। क्योंकि छत पर खड़े होकर हम-दोनों कपड़े पहनने का रिस्क नहीं लेना चाहते थे कि, कहीं भूले-भटके किसी के नज़र में न आ जाएँ। उस दिन सवेरा होते-होते हम-दोनों तेज़ ज़ुख़ाम से पीड़ित थे। आज भी वह पल याद कर मन रोमांचित हो जाता है। 

नैंसी के साथ उस शॉवर ने भी तन-मन में गुदगुदी की थी लेकिन वैसा रोमांच नहीं। बाथरूम से हम-दोनों बीस-पच्चीस मिनट में ही बाहर आ गए थे। जहाँ कमरे में सिर्फ़ दो तौलिए थे। जिन से हमने तन पोंछा भी और उसे कहने भर को ढँका भी। फिर डिनर किया। तभी लगा गीले तौलिए दिक़्कत कर रहे हैं, तो दोनों ने उन्हें हटा दिया। 

हम-दोनों को अब उनकी ज़रूरत ही कहाँ थी। रात-भर नैंसी ने जीवन के कई नए अनुभव दिए। कई बार तो ऐसा लगा जैसे एंज्वाय करने के लिए उसने मुझे हॉयर किया है। एंज्वाय मैं नहीं, वह कर रही है। वह भी अपने तरीक़े से। जैसे चाहे वैसे मुझे इस्तेमाल कर रही है, जो चाहे कर या करवा रही है। 

सवेरे तक न वह सोई न ही सोने दिया। एक से एक बातें, काम करती या करवाती रही। सवेरे क़रीब छह बजे लॉज से बाहर आए तो उसने अपना सेल नंबर दिया फिर कॉल करने के लिए। फिर ऑटो कर चल दी। कहाँ यह नहीं बताया था। 

मैंने जब घर की राह ली तो जेब में मात्र दो हज़ार बचे थे। लॉज का किराया, वहाँ के कुछ कर्मचारियों को नैंसी ने इस तरह पैसे दिलवाए कि, मेरे पास कुछ पूछने के लिए वक़्त ही नहीं होता था। गोया कि मैं कोई धन-पशु हूँ। 

नैंसी के जाते ही मेरे दिमाग़ में घर हावी होने लगा। रात में कई बार मेरी नज़र मोबाइल पर इस आस में गई कि बस अब घंटी बजेगी। और नीला तनतनाती हुई पूछेगी कि कहाँ हो? या बच्चों की आवाज़ कि पापा कहाँ हो? ग़ुस्से में नीला ख़ुद फ़ोन न करके बच्चों से ऐसा करा सकती है। लेकिन मेरी आस पूरी नहीं हुई। भूल से भी एक कॉल नहीं आई। 

कई बार मन संजना पर भी गया। फ़ोन करूँ या न करूँ, मैंने इस असमंजस में रात में बारह बजे तक अपने को रोके रखा। फिर उसके बाद जब कॉल की तो उसने फ़ोन काट दिया। मैं ग़ुस्से से तिलमिला उठा था। पर नैंसी के सामने ज़ाहिर नहीं होने दिया। फिर नैंसी के माया-जाल में ऐसा डूबा था कि यह सब नेपथ्य में चले गए थे। 

मगर अब नैंसी नेपथ्य में थी। नीला हावी थी। एक बार भी फ़ोन न आने से मैं हैरत में था। सोचने लगा कि संजना से सम्बन्ध बना के क्या मैंने कोई गुनाह किया। और क्या यह गुनाह इतना बड़ा है कि, बीवी-बच्चे इस क़द्र मुँह मोड़ लें कि, यह तक जानने की कोशिश न करें कि मैं ज़िन्दा भी हूँ या कहीं मर-खप गया। फिर सोचा नीला ने शायद यह सोचकर फ़ोन न किया हो कि, संजना के साथ गुलछर्रे उड़ा रहा होऊँगा। 

विचारों के इस उथल-पुथल में अचानक ही यह बात भी दिमाग़ में कौंध गई कि जैसे मैं बाहर औरतों से सम्बन्ध बनाए घूम रहा हूँ, कहीं नीला भी तो . . . यह बात दिमाग़ में आते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मेरा गला सूखने लगा। 

मुझे महसूस हुआ कि अब जल्दी घर न पहुँचा, तुरंत पानी न पिया तो गिर जाऊँगा। मैंने बाइक की स्पीड यह सोचकर और बढ़ा दी। बल्कि यह कहें कि एक्सीलेटर पर हाथ ख़ुद ही और घूम गया। इस बीच मन के कोने में कहीं यह बात भी गुनगुनाई, नहीं मैं लाख कुछ भी करूँ लेकिन नीला किसी गैर-मर्द के सामने अपने को नहीं लाएगी। 

मैं कुछ भी करूँ वह मुझसे लड़ाई-झगड़ा सब कर लेगी। लेकिन अपना तन कहीं और नहीं उघाड़ेगी। वह ऐसी औरत है ही नहीं। उलझन के सागर में डूबता-उतराता मैं अंततः घर पहूँचा। गेट पर अंदर से ताला लगा था। मतलब सब घर में ही थे। मगर सुबह के साढ़े छह बजने वाले थे और ताला लगा था यह बात कुछ अलग थी। क्योंकि नीला जल्दी उठती है और गेट का ताला खोल कर फिर काम में जुट जाती है। 

कई बार घंटी बजाने के बाद दरवाज़ा खुला, जो ग्रिल के गेट से क़रीब पंद्रह फ़ीट दूर था। सामने नीला खड़ी थी। उससे मैं पूरी तरह नज़र नहीं मिला पा रहा था। क़रीब आठ-दस सेकेंड वह मुझे एकटक देखती रही फिर अंदर चली गई। ज़ाहिर है चाबी लेने गई थी। 

जब आई तो मुझे ऊपर से नीचे तक ऐसे देख रही थी मानो स्कैन कर रही हो कि, कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है। फिर उसके हिसाब से सवाल दागे जाएँ। मैं मुश्किल से उसके चेहरे पर नज़र डाल पाया था। आँखें चेहरा साफ़ बता रहे थे कि, वह रात-भर सोई नहीं थी। और संभवतः रोई भी बहुत थी। 

गेट का ताला खोलकर उसने गेट खोला नहीं, बल्कि ताले को कुंडे में चाबी सहित झटके से लटका कर, तीक्ष्ण नज़र मुझ पर फिर डाली और पैर पटकती हुई चली गई अंदर। उसकी बॉडी लैंग्वेज बता रही थी कि, स्कैन कर उसने यह जान समझ लिया था कि, मेरे साथ कुछ भी अनहोनी नहीं हुई थी, और मैंने रात-भर ऐश की है। 

जब मैं अंदर पहुँचा तो देखा बच्चे सो रहे थे। डाइनिंग टेबिल की स्थिति बता रही थी कि, किसी ने भी खाना ठीक से नहीं खाया। घर की एक-एक चीज़ इस बात की गवाही दे रही थी कि, यहाँ रहने वाला हर शख़्स बेचैन सा रात में इधर-उधर उठता-बैठता-लेटता रहा है। 

जागा तो मैं भी था रात-भर। इधर-उधर, डरता-बैठता-लेटता, उस लॉज में नैंसी के साथ जाने क्या-क्या करता रहा। फ़र्क़ इतना था कि, यहाँ सब हैरान-परेशान, व्याकुल तनाव में पस्त थे। और वहाँ मैं जश्न मना रहा था ऐश कर था। 

नींद से आँखें बोझिल हो रही थीं। और इन सबके पीछे सिर्फ़ एक इफ़ेक्ट संजना इफ़ेक्ट काम कर रहा था। मगर अब मेरी हालत ऐसी नहीं रह गई थी कि मैं कुछ सोच-विचार पाता। जूते उतार कर वही कपड़े पहने-पहने बेड पर पसर गया। और कोई मौक़ा होता तो नीला जूते ही नहीं, कपड़े भी उतार कर आराम से लिटाती। मैं भरे-पूरे घर में भी अकेला था। अकेले ही गहरी नींद में सो गया। 

जब मेरी नींद खुली तो मोबाइल पैंट की जेब में ही बजे जा रहा था। वाइब्रेटर भी ऑन था तो शरीर में झन-झनाहट भी हो रही थी। जेब से मोबाइल निकालते हुए मैंने घड़ी पर नज़र डाली तो ग्यारह बज रहे थे। मुझे एक झटका सा लगा। जल्दी से बैठ गया। मोबाइल तब-तक बंद हो चुका था। देखा तो सात मिस्ड कॉल पड़ी थीं। सभी ऑफ़िस की थीं। 

मैं अंदर ही अंदर सहम गया। फिर उस नंबर पर कॉल की जो मेरे क़रीबी कलिग का था। हाँ उसके पहले यह ज़रूर चेक कर लिया था कि, कहीं कोई कॉल संजना की तो नहीं थी। यह देख बेहद निराश हुआ कि, उसकी एक भी कॉल नहीं थी। कलिग लविंदर सिंह ने फ़ोन उठाने में देर नहीं की। छूटते ही बोला, “ओए कहाँ है तू? फ़ोन क्यों नहीं उठा रहा। तेरे घर फ़ोन किया तो भाभी जी बोलीं कुछ पता नहीं कहाँ हैं। कुछ नाराज़ सी लग रही थीं। तू आख़िर है कहाँ?” 

“कब फ़ोन किया था?” 

“अरे यार एक घंटे पहले किया था। जब कई बार करने पर भी तूने नहीं रिसीव किया तो घर वाले नंबर पर ट्राई किया था। तब पता चला कि किसी को भी पता ही नहीं कि, तुम कहाँ हो? तो फिर तुझे मिलाने लगा। आख़िर माजरा क्या है?” 

लविंदर की बात से साफ़ था कि, मैं सो रहा था लेकिन नीला ने ग़ुस्से में कह दिया पता नहीं कहाँ हैं। बात टालने की ग़रज़ से मैंने कहा, “माजरा कुछ नहीं है, मिलने पर बात करूँगा। ये बताओ ऑफ़िस में कोई पूछ तो नहीं रहा था।” 

“बॉस सुबह से कई बार पूछ चुके हैं। काफ़ी ग़ुस्से में हैं। तुमसे तुरंत मिलना चाहते हैं। बल्कि वो कल ही बुलाए थे। लेकिन तुम आधे घंटे पहले ही निकल चुके थे। फिर उन्होंने कई बार कॉल की तुम्हें, लेकिन तुमने कॉल रिसीव नहीं की।” 

“हाँ ऑफ़िस का लैंडलाइन नंबर देखकर मैंने समझा तुम्हीं लोगों में से कोई बात करना चाह रहा होगा। इसीलिए नहीं उठाया। मैं ज़रूरी काम से निकला था।” 

“अरे यार ऐसा भी क्या ज़रूरी काम था कि दो मिनट बात भी नहीं कर सकते थे। घर भी नहीं गए।” 

“जब मिलूँगा तब इस बारे में बात करूँगा। बॉस क्यों इतना पूछ रहे हैं। सब ठीक तो है न?” 

“मुझे कुछ ख़ास पता नहीं। बस इतना मालूम है कि तुमसे ही जुड़ा कोई सीरियस मैटर है। इसलिए जैसे भी हो तुरंत आओ।” 

लविंदर की बातों ने मेरे होश उड़ा दिए। कुछ ऐेसे कि संजना, नैंसी भी उड़ गए उसी में। आनन-फ़ानन में तैयार होकर मैं ऑफ़िस पहुँचा। वहाँ सब ऐसे देख रहे थे, जैसे मैं फाँसी के फंदे पर चढ़ने जा रहा हूँ। 

क‍इयों के चेहरे पर जहाँ हवाइयाँ उड़ रही थीं, वहीं कुछ चेहरों पर व्यंग्य भरी मुस्कुराहट भी साफ़ दिख रही थी। ख़ासतौर से लतख़ोरी लाल के चेहरे पर। मैं उस समय उससे बहस में नहीं उलझना चाहता था। डरता-डरता, अंदर-अंदर सहमता मैं चला गया, तमाम उलझनों में उलझा बॉस के चैंबर में। 

अंदर जो हुआ वह मेरी कल्पना से परे था। जो बॉस पिछले पंद्रह वर्षों से मुझे छोटे भाई की तरह मानता था, और मैं उन्हें बॉस से ज़्यादा बड़ा भाई मानता था, जिसके चलते ऑफ़िस में मेरी एक अलग ही धाक थी, उसी बॉस ने, बड़े भाई ने मुझे क्या नहीं कहा। 

बेहतर तो यह था कि, वह मुझे जूता उतार कर चार जूते मार लेते, मगर वह बातें न कहते, जो कहीं। मेरी आँखें भर आईं, तब कहीं वह कुछ नरम पड़े, मगर आगे जो बातें कहीं उससे मेरे पैंरों तले ज़मीन खिसक गई। मैंने हाथ जोड़कर रिक्वेस्ट की, कि मुझे किसी भी तरह बचा लें। मगर उन्होंने साफ़ कहा, “मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ कि, तुम्हारी नौकरी बच जाए। यह कोई सरकारी डिपार्टमेंट तो है नहीं। लिमिटेड कंपनी है। शहर के सबसे पुराने पब्लिशिंग हाउसेस में गिनती है इसकी। इतिहास के कई पन्नों में दर्ज हो चुकी है। इस समय टॉप मैनेजमेंट बहुत सख़्त है। क्योंकि पिछले काफ़ी समय से अव्यवस्था ज़्यादा फैली है। कई अनियमितताओं में तुम्हारा नाम ऊपर है। 

“पूरे ऑफ़िस में, ऊपर तक यह बात फैली हुई है कि, मेरा तुम पर वरदहस्त है। जिससे तुम मनमानी करते हो। नियमों का उल्लंघन करते हो। संजना के कंफ़र्मेशन के लिए तुमने जो रिपोर्ट भेजी पूरी तरह झूठी, बायस्ड, निराधार है। 

“मैनेजमेंट को उससे तुम्हारे सम्बन्धों की पूरी जानकारी है। यह भी पता है कि उसका सारा काम तुम करते हो। उसे कुछ नहीं आता। उसकी ग़लत साइड लेकर तुम लोगों से मिसबिहेव करते हो, ऑफ़िस का पूरा वर्क कल्चर, वर्क एटमॉस्फ़ियर किल कर दिया है। 

“कुछ लोगों ने सप्रमाण तुम्हारी एनॉनिमस रिपोर्ट तक की है। मैंने ऊपर समझाने की बहुत कोशिश की। लेकिन प्रमाण इतने पुख़्ता हैं कि, मैं कुछ नहीं कर सका। सस्पेंशन के अलावा फ़िलहाल कोई रास्ता नहीं बचा है। ख़ैर अभी जाओ, धैर्य से काम लो, लंच के बाद आकर मिलना। मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ।” 

कुर्सी से जब मैं उठा तब उन्होंने यह भी कहा, “चेहरे पर नियंत्रण रखो। ऐसा न हो कि बिना बोले ही सब कुछ कह दो।”

मगर मुझसे कंट्रोल कहाँ होना था। चेहरे पर थकान, ऊपर से उड़ती हवाइयों ने ऐसा बना दिया था, मानो मैं अपनी सारी दुनिया ही लुटाकर चला आ रहा हूँ। बाहर निकला तो फिर सब कनखियों से देख रहे थे। मैं किसी से नज़रें नहीं मिला सका। 

नॉर्मल दिखने की लाख कोशिशों के बावजूद बुझा-बुझा सा, चुनाव हारा सबसे हॉट उम्मीदवार सा, खिसयाया हुआ अपनी चेयर पर आकर बैठ गया। गला सूख रहा था। एक गिलास पानी पिया। कुछ राहत मिली। 

आश्चर्य मुझे अब इस बात का होता है कि, उस विकट स्थिति में भी दिलो-दिमाग़ के किसी कोने में बराबर संजना-संजना गूँज रहा था। कुर्सी पर सिर टिकाकर मैंने आँखें बंद कर लीं। मुझे लगा कि एक बार किसी तरह संजना आ जाती तो अच्छा था। उसे फ़ोन कर बुलाने का मन हुआ। मैं इस बात से अंदर ही अंदर खौल रहा था कि, कल से वह बात क्यों नहीं कर रही है? आ क्यों नहीं रही है? 

कई बार उसे फ़ोन करने के लिए इंटरकॉम की तरफ़ हाथ बढ़ा-बढ़ा कर मैं ठहर जाता। इस बीच कई लोगों ने तीन-चार बार फ़ोन करके हाल-चाल लेने के बहाने माजरा जानने की कोशिश ज़रूर की। मैं चतुराई से सबको साइड दिखाता रहा, नीला, संजना, नैंसी और बॉस की बातों में उलझता-गड्मड् होता रहा। जैसे-तैसे वक़्त बीता और लंच के बाद बॉस ने सस्पेंशन लेटर भी थमा दिया। 

तब मैंने महसूस किया कि जैसे मेरे तन में ख़ून रह ही नहीं गया। मेरी टाँगें इतनी कमज़ोर हो गई हैं कि, बदन का बोझ उठाने में उनका दम निकल सा रहा है। लग रहा था मानो बदन हज़ारों किलो का हो गया हो। शाम को किसी तरह घर पहुँचा और कचरा घर बने बेडरूम में पसर गया। कुछ देर बाद मेरी आँखों की कोरों से आँसू निकलकर कानों तक पहुँचने लगे। मुझे जिस तरह से सब-कुछ बताया गया था, उस हिसाब से नौकरी का बच पाना क़रीब-क़रीब नामुमकिन ही लग रहा था। 

इन सारी स्थितियों के लिए मुझे अब एक-मात्र दोषी संजना ही लग रही थी। मुझे अब वह नागिन सी लगने लगी। मन में उसके लिए गालियों, अपशब्दों की बाढ़ सी आ गई थी। कुछ देर बाद मुझे भूख-प्यास भी सताने लगी थी। 

मगर किससे कहूँ, नीला, बच्चों से तो कुछ कहने-सुनने का अधिकार मैं पहले ही खो चुका था। उनसे संवाद के सारे साधन ख़त्म थे। इन कुछ क्षणों में ही मैं अपने को इतना अकेला, हारा महसूस करने लगा कि, जी में आया आत्म-हत्या कर लूँ। रह-रह कर संजना को गाली देता। 

तब मुझे एक बात शीतल मरहम सी लगी कि, ठीक है मैं सस्पेंड हुआ, मगर मुझे धोखा देकर अपना उल्लू सीधा करने वाली संजना का कंफ़र्मेशन भी नहीं हुआ। इतना ही नहीं उसे सख़्त चेतावनी भी दी गई है। वैसे तो उसकी नौकरी ही जा रही थी। लेकिन तिकड़मी लतख़ोरी लाल की तिकड़म उसके काम आ गई। 

अब समझ में आया था कि, तिकड़मी लतख़ोरी पिछले काफ़ी समय से संजना के आगे-पीछे किसी न किसी बहाने क्यों लगा रहता था। साथ ही वह कमीनी भी मुझसे नज़र बचा-बचाकर मिलती थी उससे। वह वास्तव में मुझे डॉज दे रही थी। डबल क्रॉस कर रही थी। 

मैं मूर्ख पगलाया-अंधराया हुआ था। मुझे लतख़ोरी लाल से मिली यह बहुत बड़ी पराजय लग रही थी। मैं युद्ध के मैदान में ख़ुद को हारा, अकेला खड़ा पा रहा था। जिसके सारे फौजी भी उसका साथ छोड़कर भाग नहीं खड़े हुए थे, बल्कि विपक्षी से जा मिले थे। मुझे लगा अब सब-कुछ ख़त्म हो गया है। 

मैं अंतिम साँसें गिन रहा हूँ, और मेरा बेड, मेरी शरशैय्या है। मगर मेरी क़िस्मत इतनी काली है कि, कोई अर्जुन की तरह, मेरे सूखते गले को धरती का सीना वेधकर, शीतल जल कौन कहे, एक गिलास फ़िल्टर वाला पानी भी देने वाला नहीं है। मैं प्राण निकलने की प्रतीक्षा करता युद्ध-भूमि में घायल सिपाही सा पड़ा था, आँखें बंद किए हुए। ना जाने कब-तक। 

कान-तक पहुँचे आँसू, अब-तक सूख चुके। फिर अचानक ही माथे पर एक चिर-परिचित शीतल स्पर्श का अहसास किया और बोझिल सी आँखें खुल गईं। फिर आश्चर्य से निहारती रहीं, उस डबडबाई, झील सी गहरी आँखों को। आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी थी मेरे लिए। क्योंकि इस वक़्त उन आँखों में ख़ुद के लिए मैं प्यार-स्नेह का उमड़ता सागर देख रहा था। 

मैं न हिल सका, न कुछ बोल सका। बस आँसू फिर से कानों तक जाने लगे। जिसे मैं लंबे समय से अपना दुश्मन नंबर एक माने हुए था। उससे छुटकारा पाना चाहता था, वही मेरी पत्नी नीला मेरे सामने खड़ी थी। अपने शीतल स्पर्श से मेरी सारी पीड़ा खीचें जा रही थी। फिर बोली, “उठिए।”

आज उसकी आवाज़, मुझे शहद सी मधुर लग रही थी। मुझे निश्चल पड़ा देख मेरा हाथ पकड़ कर उसने उठाया। बाथरूम में छोड़ा और कहा, 
“हाथ-मुँह धोकर आइए।”

मैं जब बाथरूम से आया तो वह लॉबी में खड़ी बोली, “आइए नाश्ता करिए।”

मैं बिना कुछ बोले आज्ञाकारी फ़ौजी की तरह डाइनिंग टेबिल के गिर्द पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। नीला भी नाश्ता रखकर सामने बैठ गई। मेरे साथ ऐसे नाश्ता कर रही थी, मानो सारी समस्या उसने हल कर ली है। मैं बडे़ असमंजस में था उसके इस बदले रूप से। नाश्ता ख़त्म होते ही उसने कहा, “कपडे़ चेंज करके आप आराम करिए, मैं थोड़ी देर में खाना लगाती हूँ।”

मेरी किसी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किए बिना जाने लगी तो, मैंने हौले से बच्चों के बारे में पूछा। नाश्ता करने के बाद मैं कुछ राहत महसूस कर रहा था। वह किचन की तरफ़ बढ़ती हुए बोली, “दोनों मामा के यहाँ गए हैं। कल आएँगे। आज उनके बेटे का बर्थ-डे है।”

“तुम नहीं गई?” 

इतना कहने पर पलटकर उसने एक नज़र मुझ पर डाली फिर बोली, “बच्चों के कमरे में आराम करिए। बेडरूम कल साफ़ करूँगी। खाना वहीं लेती आऊँगी।”

मैं समझ गया नीला इस बारे में कुछ बात नहीं करना चाहती। सारी बात उसने बिना कुछ कहे ही कह दी थी। आगे कुछ कहने की मैं हिम्मत नहीं कर सका। चेंज करके लेट गया बच्चों के कमरे में। नीला के बदले रूप को समझने में मैं लगा हुआ था। मगर हर चीज़ पर भारी था सस्पेंशन। 

सारी आशाओं के विपरीत नीला ने बच्चों के बेड पर मेरे साथ ही पूरे मन से खाना खाया। फिर बच्चों के अलग-अलग पड़े बेड को मिला कर, डबल बेड बना दिया। इतना ही नहीं जब स्लीपिंग गाउन पहकर आई तो स्प्रे भी कर लिया था। यहाँ तक कि बेड पर भी काफ़ी स्प्रे कर दिया। 

उसकी इस हरकत से मैं अंदर-अंदर कुढ़ गया। मन में आया यहाँ नौकरी जा रही है। कल को खाने के लाले पड़ जाएँगे। और यह रोमांटिक हुई जा रही है। चाहती तो बच्चों को बुला सकती थी। आख़िर उनका घर है ही कितनी दूर। 

मन में यही उथल-पुथल लिए मैं लेट गया। उसने मेरी कुढ़न को और बढ़ाते हुए बच्चों के लिए कमरे में लगे टीवी को ऑन कर दिया, और फिर बड़े बेफ़िक्र अंदाज़ में सटकर लेट गई। मैं आख़िर ख़ुद को रोक न सका। 

“आज बहुत बुरा हुआ। बड़ा मनहूस दिन है मेरे लिए।”

आगे कुछ बोलने से पहले ही वह बोल पड़ी, “सब मालूम है मुझे। परेशान होने की ज़रूरत नहीं। सब ठीक हो जाएगा। तुम चाहोगे तो आगे भी हमेशा सब ठीक ही रहेगा।”

“क्या! क्या मालूम है तुम्हें?” 

“यही कि संजना का कंफ़र्मेशन रुक गया है। तुम्हें सस्पेंड कर दिया गया है। तुमने लाख कोशिश की, लेकिन वह धूर्त औरत तुमसे बात तक नहीं कर रही है।”

मुझे एकदम करंट सा लगा। मैं एक झटके में उठकर बैठ गया। और उतनी ही तेज़ी से पूछा, “ये सब तुमको कैसे मालूम। और इतनी आसानी से बोले जा रही हो जैसे कोई बात ही नहीं हुई।”

“आराम से लेटो सब बताती हूँ। रही बात तुम्हारी नौकरी की तो उसे कुछ नहीं होने वाला। मैंने सब ठीक कर लिया है। आश्चर्य नहीं कि तुमको सस्पेंड करने वाला तुम्हारा बॉस, कुछ दिन बाद अपनी नौकरी बचाने के लिए तुमसे मदद माँगे।”

“पागल हो गई हो क्या? आयं-बायं-सायं बके जा रही हो। ऑफ़िस है, तुम्हारा घर नहीं कि जो चाहो कर लो। बॉस कोई ऐसा-वैसा आदमी नहीं है। जो मुझसे मदद माँगने आएगा।”

“आएगा देख लेना। मैं भी कोई ऐसी-वैसी औरत नहीं हूँ। मेरा नाम भी नीला है। तुम्हारी बीवी हूँ समझे। और तुम शायद भूल गए कि, तुम्हारी कंपनी का मालिक प्रिंट पेपर, किताबों की बिक्री के लिए मेरे उसी नेता भाई पर पूरी तरह डिपेंड है, जिससे तुम आवारा, छुट-भैया नेता कहकर सारे सम्बन्ध ख़त्म किए हुए हो। 

"जब तुम रात-भर ग़ायब रहे तो, उसी ने तुम्हारी सारी खोज ख़बर ली। तुम ज़रूर उसे दुत्कारते रहते हो, बरसों से घर तक नहीं आने देते। उसी छुट-भैया नेता से तुम्हारे ऑफ़िस के कई लोग बेहद क़रीबी सम्बन्ध बनाए हुए हैं। 

"इतना तो समझ ही गए होगे कि मुझे पल-पल की जानकारी क्यों रहती है? ऐसे आँखें फाड़कर क्या देख रहे हो। जो कह रही हूँ, एकदम सही कह रही हूँ। जैसे अचानक सस्पेंशन लेटर मिला है न, वैसे ही जल्दी ही, रिवोक लेटर मिलेगा, विद प्रमोशन लेटर।”

“अच्छा! वो छुट-भैया इतना बड़ा नेता हो गया है कि, बड़े-बड़े बिज़नेसमैन उसके आगे हाथ जोड़ते हैं। मदद माँगते हैं। मेरी नौकरी उसके दम पर है। इतना है तो फिर संजना को बाहर क्यों नहीं कर दिया अब-तक?”

“जो चाहोगे सब हो जाएगा। अभी तक मैंने उससे कुछ नहीं कहा था सिर्फ़ भाभी के घमंडी, ऐंठू स्वभाव के कारण, कि वह मेरी खिल्ली उड़ाएगी।”

“अब तो बता दिया, अब नहीं उड़ाएगी क्या?” 

“मैंने उनसे बात ही नहीं की। भाई से फ़ोन पर बात की और मना भी कर दिया था कि भाभी को नहीं बताएँ।”

“और वो मान जाएँगे।”

“मुझे यक़ीन है उस पर। आज तक उसने मेरी किसी बात को मना नहीं किया है।”

“तब तो यह मानकर चलें कि अगले दो-चार दिन में संजना नौकरी से बाहर होगी। और बॉस अपनी नौकरी बचाने के लिए मेरे सामने गिड़-गिड़ा रहे होंगे।”

“वो है ही इसी लायक़। ऐसी कमीनी है, जो चाहे जितनी जगह मुँह मार ले, लेकिन उसकी क्षुधा शांत नहीं होगी। उसकी चालाकी का अंदाज़ा इसी बात से लगा लो कि, जब उसको वहाँ के लोगों से भाई की जानकारी हुई तो उसने कंफ़र्मेशन के लिए सीधे तुम्हारे बॉस को फाँस लिया। 

तुम्हें मालूम है कि, वह पिछले एक हफ़्ते में दो रातें तुम्हारे बॉस के साथ बिता चुकी है। तुम्हारा बॉस चाहता तो तुम्हें सस्पेंशन से बचा सकता था, लेकिन तुमको संजना से अलग कर, अकेले यूज़ करते रहने के लिए ऐसा नहीं किया। वही बॉस जिसको तुम बड़े भाई की तरह मानते हो।”

“तुम इतने यक़ीन से कैसे कह सकती हो?”

“भाई ने सब पता किया। तुम्हारे ऑफ़िस के लोगों ने ही सब बताया। इतना ही नहीं, वहाँ की बातें सुनकर तो मेरी नसें तनाव से फटने लगीं। मुझे या भाई को लोगों ने इसलिए नहीं बताया कि, वे हमसे डरते हैं, या फिर हमारे हितैषी हैं, इसलिए बताया क्योंकि सभी वहाँ एक दूसरे को जानवर की तरह काट खाने में लगे हैं। मुझे तो उस समय तुम पर बड़ा तरस आया कि आख़िर तुम कैसे रहते हो जानवरों के झुण्ड में। जो लोग सब बता रहे थे, वे तुम्हारे मामले के ज़रिए अपना-अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए थे। 

“जिसको तुम लोग लतख़ोरी लाल कहते हो, दरअसल ज़्यादातर लोग उससे त्रस्त हैं। वो लोग उसको इसी बहाने ठिकाने लगाने में लगे हुए हैं। पहले मुझे लगा कि, वहाँ वह अकेला इतना गंदा इंसान होगा, लेकिन भाई जब तह तक पहुँचा तो, पता लगा वहाँ तो हर तीसरा आदमी ही लतख़ोरी लाल है। 

“तुम्हारे मामले ने जो इतना तूल पकड़ा वह इस लतख़ोरी के चलते ही हुआ। क्योंकि ऑफ़िस में सीनियारिटी को लेकर वो तुमसे खुन्नस खाए रहता है। दूसरे संजना की हरकतों के चलते उसे लगा कि, वो आसानी से उसपे हाथ साफ़ कर लेगा। 

“लेकिन वो अपने स्वार्थ में तुम्हारे सामने बिछ गई। इससे वह और चिढ़ गया। और तुम्हारे बॉस को चढ़ा दिया कि, 'सर करना आपको है, लेकिन संजना के मज़े वह ले रहा है। सर राइट तो सिर्फ़ आपका बनता है।' बस चढ़ गए तुम्हारे बॉस। 

“मगर इतनी अंदर की बात तुम्हें कौन बताएगा?” 

“मास्टर साहब! जिसको तुम लोग मास्टर साहब कहते हो। तुम्हारे बॉस का चपरासी। उसके अनुसार उसने यह सब ख़ुद अपने कानों से सुना था।” 

“वो कह रहा है तो मान सकता हूँ।” 

“उस पर इतना यक़ीन है।” 

“हाँ, उसकी सबसे गंदी आदत है दूसरों की बात सुनना और चुगुलख़ोरी करना। मगर जो भी बातें बताता है, वह कभी ग़लत नहीं निकलतीं। बताने का अंदाज़ मास्टरों सा होता है, इसलिए सब मास्टर साब कहते हैं।” 

“मतलब लतख़ोरी की बातों में आकर, तुम्हारे भाई समान बॉस ने तुम्हारे साथ गद्दारी की।” 

“मैं . . . मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। यक़ीन नहीं होता मेरे साथ ऐसा विश्वासघात करेंगे।” 

“तुम्हारे यहाँ के हालात समझने में मैं ख़ुद बहुत उलझ गई। एक नज़र में देखूँ तो संजना ने तुमको यूज़ किया। मगर सच यह कि वह यूज़ हो रही है। लतख़ोरी फँसा नहीं सका तो बॉस के जाल में फँसवा दिया। अब वो उसको यूज़ कर रहे हैं। 

“लतख़ोरी जिस तरह कुत्ते सा उसके पीछे पड़ा है उससे यह तय है कि, वह और कई अन्य जल्दी ही उसे यूज़ करेंगे। उसकी हालत गलियों में कुत्तों के झुंड के बीच फँसी कुतिया सी हो गई है। जिसे हर कुत्ता नोचने में लगा है। कुत्तों से वह ऐसे घिर गई है कि, उसका बचना नामुमकिन है।” 

“यार अब इतना भी नहीं है जितना तुम कह रही हो।” 

“नाराज़ होने की ज़रूरत नहीं है। जिस मास्टर की बात पर तुम्हें पूरा भरोसा है न, उसी मास्टर की बताई बातों के आधार पर कह रही हूँ।” 

“अच्छा और क्या बताया उसने?” 

“बहुत सी बातें बताई हैं। उसी में एक यह भी है कि लतख़ोरी और एक और ने मिलकर संजना की बाथरूम में फ़्रेश होने आदि के समय की नेकेड वीडियोग्रॉफी की है।” 

“ये बकवास है, वो बहुत छोटा सा बाथरूम है, वहाँ कौन कैमरा लेकर बैठ सकता है।” 

“यही तो, तुम्हें तो अपने मोबाइल के बारे में ही ठीक से पता नहीं है। वहाँ पर एक ज़्यादा जी.बी. वाले मेमोरी कार्ड लगे मोबाइल को, नया सिम लगा कर, वीडियो रिकॉर्डिंग पर ऑन कर छिपा दिया। नए सिम का नंबर किसी को दिया नहीं था, इसलिए कॉल आ नहीं सकती थी। साइलेंट मोड पर भी था। 

“जानबूझकर सुबह दो घंटे और शाम को छुट्टी से पहले लगाया गया। क्योंकि महिलाएँ सुबह ऑफ़िस पहुँच कर बाथरूम ज़रूर जाती हैं, फ़्रेश होने के साथ-साथ अपना मेकअप और कपड़ा ठीक करने। यही शाम को घर चलने से पहले करती हैं। ऐसे ही टाइम में संजना और कई अन्य औरतों की रिकॉर्डिंग कर ली गई है।” 

“ये तुमने अच्छा बताया। मैं कल ही पोल खोलकर सालों को ठीक कर दूँगा।” 

“कुछ नहीं होगा। कोई सामने नहीं आएगा। तुम्हारे पास वीडियो क्लिपिंग तो है नहीं। तो तुम उसे रिकॉर्ड करने वाले का नाम प्रूव नहीं कर पाओगे। उलटा तुम्हीं अपराधी ठहरा दिए जाओगे। जब वो सब रिकॉर्डिंग यूज़ करें, बात खुले तब सामने आओ।” 

“मैंने सोचा भी नहीं था कि ये साले इतने नीचे गिर जाएँगे।” 

“जो कुछ लोगों ने बताया है मुझे, उस हिसाब से यह तो नीचता की एक झलक है। तुम्हारे यहाँ तो शबीहा, मानसी, श्रद्धा की ऐसी कहानियाँ बताई गईं कि, लगता है वहाँ सेक्सुअली बीमार फ्रस्टेटेड मर्दों का जमघट है। जो औरतों के लिए नीचता की कोई भी सीढ़ी चढ़ सकते हैं।” 

“ये दो-चार दिन में ही तुमको सालों-साल पुरानी बातें किसने बता दीं।” 

“दो-चार दिन नहीं, जब से तुम संजना के दीवाने हुए तभी से लोगों ने फ़ोन करने शुरू कर दिए थे। वो फ़ोन तो इसलिए करते थे कि, ऑफ़िस में आकर तुम्हारी छीछालेदर करूँ, लेकिन मैं ख़ुद पर किसी तरह नियंत्रण किए रहती। 

“फ़ोन करने वाले नाम नहीं बताते थे। अविश्वास करने पर ऐसे-ऐसे प्रमाण देते कि, कोई रास्ता न बचता। इस चक्कर में मैं कई बार तुम्हारे ऑफ़िस तक गई। उसे साथ लेकर तुम्हें जाते हुए भी देखा। इसीलिए घर पर मैं पूरी कड़ाई से पेश आती।” 

“ये फ़ोन किन नंबरों से आते थे?” 

“सब पी.सी.ओ. से होते थे। मैं जब भी कॉल-बैक करती, नंबर पी.सी.ओ. का निकलता। इनमें एक तो इतना हरामज़ादा है कि, बहुत ही हम-दर्द बनकर बात करता। दिन-भर में कई बार बात करता। 'तबियत कैसी है? कोई दिक़्क़त हो तो बताइए मैं आ जाऊँ। नीरज जी मेरे बड़े भाई समान है। थोड़ा बहक गए हैं। भाभी जी क्या करिएगा? कुछ औरतें ऐसी होती हैं कि अच्छे-अच्छे मर्दों को फँसा लेती हैं। फिर नीरज जी को क्या कहें? आप जैसी ख़ूबसूरत बीवी घर में है, फिर भी संजना के पीछे पड़े हैं। 

’अरे! भाभी जी इन लोगों ने लिमिट क्रॉस कर दी है ऑफ़िस हॉवर में ही जाने कहाँ घंटों बिताकर आ जाते हैं। भाभी जी आपको यक़ीन न हो तो जब मैं कहूँ तो आ जाइए सब दिखा देता हूँ।' ऐसी तमाम बातें सुनती तो मैं अंदर ही अंदर रो पड़ती, खीझ जाती। मगर सँभाले रहती ख़ुद को। 

वह इतनी आत्मीयता से बातें करता कि मेरे मन में उसके लिए सम्मान उभर आया। उसकी बातों ने एक बार मुझे इतना भावुक कर दिया कि मैंने रिक्वेस्ट करते हुए कहा, ’भइया किसी तरह उस चुड़ैल से इनको बचाओ।’ फिर कुछ बातों के बाद उसने अगले दिन मुझे ऑफ़िस के पास बुलाया। मैं जाने को तैयार हो गई।” 

नीला से यह सुनते ही मैंने ग़ुस्सा होते हुए पूछा, “कमीने फ़ोन करते रहे और तुमने मुझे बताया तक नहीं। जिसके पास गई थी वो कौन था, उस हरामज़ादे का नाम बताओ।” 

“बताती हूँ . . . मेरी स्थिति का शायद तुम्हें अंदाज़ा हो गया होगा। तुमने संजना के साथ जो रिश्ते रखे उससे मुझ पर क्या बीतती है? लोगों के फ़ोन आए चुगुलख़ोरी के लिए तो तुम्हें इतना बुरा लगा।” 

“मैंने नाम पूछा कि जब गई तो वहाँ कौन मिला?” 

“मैं नहीं गई।” 

“क्यों?” 

“क्यों कि उसी दिन क़रीब सात बजे उसका फ़ोन फिर आया। नमक-मिर्च लगा कर बताया कि तुम संजना के साथ ऐश कर रहे हो। मैंने कहा जगह बताइए में वहीं पहुँच जाऊँगी। तो बोला, ’आप नहीं पहुँच पाएँगी। आप मेरे पास आइए मैं ले चलूँगा आपको।’ 

“कुछ और बहस के बाद धीरे से हँसते हुए बोला, ’क्या भाभी जी इतना टेंशन लेकर कोई काम नहीं होता न। थोड़ा प्यार से काम करिए। आप आइए मैं आपको अपनी बाइक पर बैठा कर ले चलूँगा।’ उसकी नीचताई पर मैंने सोचा कि, आपसे पहले क्यों न उसी हरामज़ादे को पकड़ूँ। 

यह सोचकर मैंने कहा, ’ठीक है मैं आपके साथ चलूँगी, आप अपना नाम तो बताइए, परिचय दीजिए।’ तो वह धूर्त बोला फ़लाँ जगह आप पहुँचिए मैं आपको वहीं मिलूँगा। मैंने कहा, ’आपको पहचानूँगी कैसे? कुछ तो बताइए।’ मैंने उसको पकड़ने की ठान ली थी, इसलिए जानबूझ कर ऐसे अंदाज़ में बोली कि, उसको ये न लगे कि, मैं उसकी हरकतों से नाराज़ हो रही हूँ। लेकिन इससे उसकी हिम्मत एकदम बढ़ गई। 
वह आहें भरते हुए बोला, ’अरे! भाभी जी आप डर क्यों रही हैं? आप जैसी सेक्सी भाभी का मैं सेक्सी देवर हूँ। आपको पूरा एंज्वायमेंट दूँगा, फिर आपको पति देव के पास ले चलूँगा।’ मैं ग़ुस्से से अपना आपा खोने ही जा रही थी कि, बिना रुके ही वह आगे बोल पड़ा, ’अरे! भाभी जी आपकी कर्वी बॉडी का असली क़द्रदान तो मैं ही हूँ, आइए में आपको पूरा . . .’ इसके आगे मैं चिल्ला पड़ी। जी-भरकर गाली देते हुए कहा, ’जा अपनी बहनों का कर्वी बदन देख।’ इस पर उसने तुरंत फ़ोन काट दिया। 

“मैंने तुरंत कॉल बैक किया, लेकिन पहले ही की तरह पी.सी.ओ. का ही नंबर मिला। मैंने पी.सी.ओ. वाले से बाइक का नंबर देखकर बताने को कहा तो, उसने टाल-मटोल कर फ़ोन काट दिया। इससे मैं इतना आहत हुई कि बहुत देर तक रोती रही। कि दुनिया में कैसे-कैसे नीच लोग हैं। पति को दूसरी औरत के साथ देखा तो पत्नी को भी चरित्रहीन समझ कर उसी के पीछे पड़ गए। उसको सड़क-छाप चरित्रहीन औरत समझ लिया।” 

“तुम उसकी आवाज़ पहचान सकती हो?” 

“किसकी-किसकी पहचान करोगे। कई करते थे। एक-दो को छोड़कर बाक़ी सब कुत्तों की तरह लार टपकाते कुछ न कुछ बोल ही देते थे।” 

“तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया। ख़ैर एक न एक दिन पता करके ही रहूँगा। सालों को छोड़ूँगा नहीं।” 

“पहले अपनी नौकरी ठीक करो, फिर निपटना इन सबसे। तुम अगर नहीं भी निपटोगे इन सबसे, तो भी मैं छोड़ने वाली नहीं। मैंने भाई से बात कर रखी है। ख़ासतौर से लतख़ोरी के लिए, क्योंकि सारे फ़साद की जड़ वही है।” 

नीला को इसके बाद मैं इस श्रेणी में आने वाले लोगों के बारे में विस्तार से बताता रहा। ख़ासतौर से लतख़ोरी के बारे में कि, वो औरतों को फँसाने के लिए कैसे पहले उनकी मदद करता है। घर छोड़ने, सामान ख़रीदने से लेकर ज़रूरत पड़े तो चप्पल पहनाने तक। 

इसके बाद धीरे से काम के बहाने घूमाने निकलता है, फिर असली रूप में सामने आता है। शबीहा के साथ उसने यही किया था। उसका आदमी शराब का लती था। टी.बी. हो गई थी। डॉक्टरों ने कहा तुम्हारे लिए ज़हर है, छूना भी नहीं लेकिन वह नहीं माना फिर एक दिन सोया तो कभी न उठा। 

फिर एक लंबी थकाऊ प्रक्रिया के बाद उसकी बेगम शबीहा को नौकरी मिली। डिस्पैच का काम देखने में अनजान थी तो मददगार बड़े पैदा हो गए। सबसे आगे लतीफ़ था। जो अपने कर्मों के कारण लतख़ोरी नाम लिए घूमता है। 

इसकी बहुत सी हरकतें एक अनाम से साहित्यकार जी.सी. श्रीवास्तव की एक किताब के करेक्टर से मिलती-जुलती हैं। उसका नाम लतख़ोरी ही था किताब में, बस सबने उसे ही यह नाम दे दिया। उसने शबीहा का हर काम बडे़ मनोयोग से करके सबसे पहले उसे अपने वश में किया था। फिर उसके कान भर-भर के, उसने पहले उसे सास-ससुर, देवर से अलग कर, अलग मकान तक दिला दिया। 

अलग कुछ इस तरह किया कि, किसी से बात तक न करे। इसके लिए उसे ऐसा भरा कि, वह सब को दुश्मन मानती। अचानक एक दिन लंच के बाद ही शबीहा के रोने की आवाज़ और साथ ही अनगिनत गालियाँ सुनाई देने लगीं। लोग पहुँचे तो पता चला लतख़ोरी कई चप्पलें खा चुका है। 

शबीहा ने सारी पोल खोल दी सबके सामने कि, कैसे यह ज़बरदस्ती घर पहुँच जाता है। पिछले कई महीने से शारीरिक सम्बन्ध के लिए तरह-तरह से नाकेबंदी कर विवश कर रहा है। आए दिन अश्लील फोटो, मोबाइल पर ब्लू फ़िल्में दिखाता रहता है। इसके चक्कर में वह घर वालों से लड़ गई, अब न घर की रही न घाट की। दस साल के बेटे के साथ कैसे चलाए ज़िन्दगी। 

इस घटना को कई कारणों से दबा दिया गया। किसी नेता ने फ़ोन करे थे। अल्पसंख्यकों के बीच शहर में उसकी बड़ी पकड़ थी। मगर साज़िशें बंद न हुईं। महीना भर भी न हुआ कि, एक दूसरे मामले में शबीहा को फँसा दिया गया। जाँच के बाद डिमोट कर दी गई, इसके बाद भी लतीफ़ जैसे लोग उसे नोचने में लगे रहे। 

फिर एक दिन पता चला कि वह अपने एक चचाज़ात भाई के साथ हैदराबाद भाग गई। निकाह उसने कई महीने पहले ही कर लिया था। उसके साथ उसे एक-दो बार देखा गया था। जब वह बाइक पर छोड़ने आया था। 

ऐसी स्थिति मानसी, श्रद्धा के साथ भी आई थी। दोनों पति के न रहने पर नौकरी करने आयी थीं। भाई लोग उन दोनों पर भी पिल पड़े थे। लेकिन उनके घर वाले भारी पड़े। लोगों को लेने के देने पड़े तो, उनसे किनारा कर लिया। वह दोनों आज भी पूरी हनक, शान से कार्यरत हैं। 

मैं ऑफ़िस की ऐसी ही तमाम घटनाओं में डूबता-उतराता सारी रात जागता रहा। और नीला में लंबे समय बाद एकदम से उभर आई हनक और उसकी शान भी देखता रहा। इस लंबी बात के बाद उसने मानो बरसों से ढो रहे किसी बोझ को उतार फेंका था। विजयी भाव उसके चेहरे पर तारी था। अपनी विजय का उसने जश्न भी अपनी तरह ख़ूब मनाया था। 

बच्चों के न होने का भरपूर फ़ायदा उठा लेने में कोई कोर-कसर उसने नहीं छोड़ी थी। बरस-भर की अपनी प्यास उसने जी-भर के बुझाई। बेसुद्ध पड़ी थी। उस दिन नीला इस क़द्र निश्चिंत और बेधड़क थी कि, हमेशा की तरह नाइट लैंप ऑफ़ करने पर ज़ोर देने की बात तो दूर उसने ट्यूब लाइट जलाए रखी। ये नहीं कहा कि, ’अरे! घर में बच्चे हैं, जल्दी पहनने दो कपड़े।’

आज उसके कपड़े किनारे ही पड़े थे। मेरी नज़र उसकी आँखों पर गई, जिसके गिर्द अब काले घेरे साफ़ दिख रहे थे। जिसके लिए मैं ज़िम्मेदार था। मैं ख़ुद तो मस्त था संजना और नैंसी जैसी औरतों के साथ और नीला रोती थी, जागती थी। अंदर ही अंदर घुलती थी। इस घुलन ने आँखों के गिर्द स्याह धब्बों के रूप में अपने परिणाम छोड़ दिए थे और मैं अंधा आज, तब उसको देख रहा था जब, उन बाज़ारू औरतों द्वारा दुत्कारा जा चुका था। 

अब मुझे नीला फिर पहले की तरह दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत महिला लग रही थी। सबसे प्यारी। उसने जो तकलीफ़ें झेलीं, उसको सोचते-सोचते मेरी आँखें भर आईं। मैं एकटक ट्यूब लाईट की दूधिया रोशनी में उसके तन को मंत्र-मुग्ध सा देखता रहा। 

उसे देख ऐसा लग रहा था कि, मानो कोई मूर्तिकार अपनी कला को चरमोत्कर्ष देने के लिए अपनी स्वप्निल योजना पर काम कर रहा है। और उसकी मॉडल सौंदर्य देवी उसे सहयोग के लिए अपना योगदान मॉडल बनकर कर रही हैं। 

वह अपने अछूते सौंदर्य को समर्पित कर निश्चिंत पड़ी हैं, कि मूर्तिकार अपना कार्य सौंदर्य देवी की प्रतिमा ख़ूबसूरती से बना सके। मैं सौंदर्य देवी को देखते-देखते कब ठीक उसके चेहरे के ऊपर था पता नहीं चला। अचानक नीला ने चिहुंक कर आँखें खोल दीं। फिर जल्दी-जल्दी कई बार पलकें झपकाते हुए हाथ से अपने गालों को छुआ और उठ बैठी। दोनों हथेलियों में मेरा चेहरा लेते हुए बोली, “ये क्या! तुम रो रहे हो? हिम्मत से काम लो। मैंने कहा न सब ठीक हो जाएगा। कुछ होने वाला नहीं। पहले कभी तुम इतने कमज़ोर नहीं दिखे।”

उस वक़्त नीला मुझे अक्षत-यौवना सी दिखी। न जाने तब उसका कैसा सम्मोहन था मुझपे कि, वह मुझे धरा पर ईश्वर द्वारा भेजी ऐसी सौंदर्य प्रतिमा लगी, जिसे ईश्वर शायद वस्त्र पहनाना भूल गया था। क्योंकि वह अपनी ही बनाई कृति के सौंदर्य में ख़ुद ही सुध-बुध खो बैठा। 

और मैंने उस ईश्वर की अनुपम कृति पर कई बूँद आँसू टपका दिए थे, जिसने उसमें प्राण डाल दिए थे। जीवित हो उठी वह प्रतिमा, अब मुझे सांत्वना दे रही थी। समझा-बुझा रही थी, फिर अपनी बाँहों में समेट लिया। 

मेरे सब्र की सारी सीमा तब टूट गई और मैं फूटकर रो पड़ा था। वह कुछ न बोली। बाँहों में लिए-लिए ही लेट गई। फिर उसने मुझे कुछ न सोचने दिया। सुबह दोनों ही तब उठे जब मोबाइल पर घंटी बजी। बेटी ने माँ को फ़ोन किया था।

ऑफ़िस में दिन-भर मैं असाधारण रूप से शांत रहा। संजना दिमाग़ में ऐसी छायी रही कि, निकल ही न सकी। उसके साथ बिताए एक-एक पल याद करता फिर, उसको कई भद्दी गालियाँ देता। कुछ बातें ऐसी थीं जिनके मतलब मैं अब समझ पा रहा था। लतख़ोरी से उसकी जुगलबंदी, बॉस की कुछ ज़्यादा ही तारीफ़। जबकि पहले उसी बॉस को गाली देती थी। 

जिस-जिस दिन उसने मुझसे जो-जो कहा था वह अब ऐसे याद आ रहे थे कि, लगता है जैसे आँखों के सामने मानो उन्हीं बातों पर केंद्रित फ़िल्म चल रही हो। मैं तब भी उसकी धूर्तता पकड़ नहीं सका, जब वह घटना से दो-तीन महीने पहले से मुझसे बेरुख़ी दिखाने लगी थी। बुलाने पर भी नहीं सुनती थी। 

तब कुछ लोगों ने संकेतों में कहा भी था कि, यह बड़ी धूर्त है, मतलब परस्त है, अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकती है। सँभल कर रहो। यह सब काम से मतलब रखने वाले लोग थे। अपने पति की जगह चपरासी की नौकरी करने वाली जीवन के क़रीब पाँच दशक जी चुकी ननकई ने तो एक दिन अपने ठेठ अंदाज़ में कहा था, “साहब बुरा न मानो तो एक बात कही?” 

“कहो।”

“आप पढे़-लिखे हो, सब जानत हो। मुला हमहू पचास बरीस से दुनिया द्याखित है। हमरे हिआं ऐसी मेहुरूआ का नगिनया ब्वालत हैं। जेहिका डसा पानिऊ न माँगै।”

“तुम किसकी बात कर रही हो?” 

“अब साहब रिसियाओ न, सिजनवा कंहिआ सबै ऐइसे कहत हैं। जब आप रहत हों, तौ आपसे बाझि रहत है, नाहिं तो अऊर कई जन हैं, उन्हसे बाझि रहत है। कइओ जने कै साथ तौ ऑफ़िसिया के बाद हीआं-हुआं घूमा करत है। अबहिं पाछै महिनवा मा तौ यहू जानि पड़ा कि, इ तोमर साहब कै साथ कहूँ घूमत रहै, तौ हुवैं उन क्यार बीवी पहुँच गई, जिहिसे ऊबोलिन रहे घरै माँ कि ऑफ़िस माँ काम बहुत हवैं तो आय न पहिएं।”

“अच्छा ठीक है। तुम जाओ।”

तब ननकई ने और कई बातें कहीं थीं, वह विस्तार से बताना चाहती थी। लेकिन मैं उस वक़्त उसकी बातें बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। और उसे भगा दिया था। हालाँकि उसने जो बताया था, प्रमाण सहित बताया था, मगर तब संजना इफ़ेक्ट ने मेरा दिमाग़ शून्य कर दिया था। 

सच पर भी मैं ग़ुस्सा हुआ था। मैंने उसके जाते ही संजना को बुलाया वह पहले की तरह हँसते हुए आ गई। मैंने केवल उसे चेक करने के लिए शाम को घूमने का प्रोग्राम मन न होते हुए भी बनाया, वह एक पल देर किए बिना तैयार हो गई। 

मुझे ननकई पर तब और ग़ुस्सा आया, मगर कुछ सोचकर शांत हो गया। इस घटना के कुछ हफ़्ते बाद मुझे कई चीज़ें ऐसी मिलीं जो बड़ी अजीब थीं। एक दिन उसने किसी पत्रिका में रेप और उससे सम्बन्धित क़ानून, जाँच आदि पर केंद्रित एक रिपोर्ट दिखाते हुए पूछा, “ये टी.एफ़.टी. टेस्ट क्या होता है?” 

मैंने कहा मुझे नहीं मालूम तो रिपोर्ट के साथ छपे एक बॉक्स को खोलकर सामने करते हुए कहा, “यह पढ़ो।”

मैंने पढ़ कर कहा, “यह तो बड़ा भयानक है। मेरी नज़र में तो यह जिसके साथ रेप हुआ उसी के साथ क़ानून के द्वारा किया जाने वाला एक और रेप है। मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि, अँग्रेज़ों के ज़माने के इस अमानवीय क़ानून को अभी तक हमारी सरकार अमल में क्यों ला रही है।”

“ला तो रही है, लेकिन एक और रेप जैसा क्यों है?” 

“क्या बेवक़ूफ़ी भरा प्रश्न है। ये अत्याचार नहीं तो और क्या है। औरत के एक्स्ट्रीम सीक्रेट पार्ट पर पहले तो अपराधी धावा बोलता है। फिर जाँच के लिए महिला के उसी हिस्से पर जाँच करने वाली या वाले की दो अंगुलियाँ प्रवेश करती हैं। यानी टू फ़िंगर टेस्ट। 

“इस पर मूर्खतापूर्ण तर्क यह कि, यदि फ़िंगर ईज़ली इंसर्ट कर गई तो मतलब महिला हैविचुअल मानी जाएगी, अपराधी के छूटने के रास्ते खुल जाते हैं। अरे! किसी की शारीरिक बनावट भी तो ऐसी हो सकती है या फिर चेक करने वाले की अंगुलियाँ पतली भी तो हो सकती हैं। 

यह अवैज्ञानिक, मूर्खतापूर्ण तरीक़ा है कि नहीं। शारीरिक चोट, अपमान हर चीज़ औरत के हिस्से में। फिर कोर्ट में वकील ऐसे अश्लील, ज़लील बातें पूछता है कि, पीड़ित महिला थक-हार के पस्त हो जाती है। और मूँछों पर ताव देकर अपराधी फिर निकल पड़ता है अगले शिकार पर। ये तुमको एक और रेप जैसा नहीं लगता। मुझे लगता है एक औरत के नाते ऐसी औरतों की पीड़ा-दर्द मुझसे बेहतर तुम समझ सकती हो।”

“अहाँ . . . औरतों की पीड़ा का ज़िक्र इतनी ख़ूबसूरती कर रहे हो कि, औरतें ख़ुद भी न कर पाएँ। मगर जनाब की यह कोमल हृदयता तब तो मुझे कहीं नहीं दिखती जब जनाबे आली मेरी एल.ओ.सी. पर घुसपैठ करते हैं।”

“ओफ़्फ़ो तुम्हें इसके अलावा भी कुछ सूझता है क्या?” 

“हाँ, सूझता क्यों नहीं, मगर तुम्हारे सामने बस यही सूझता है तो मैं क्या करूँ?” 

इतना ही नहीं इसके बाद भी टी.एफ़.टी. को लेकर वह बड़ी देर तक निरर्थक फ़ालतू बातें करती रही। वकील क्या-क्या पूछते हैं? यह कुरेद-कुरेद कर पूछा। इसके बाद उसको लेकर मेरा तनाव धीरे-धीरे बढ़ता गया। और वह उतनी ही तेज़ी से मुझसे दूर होती गई। मेरे भरसक प्रयासों के बावजूद। 

मेरा सस्पेंशन और उसका कंफ़र्मेंशन रुकना अपने-आप में इस ऑफ़िस की पहली घटना थी। और उससे भी ज़्यादा यह कि, मेरा सस्पेंशन चौथे दिन न सिर्फ़ ख़त्म हो गया, बल्कि पाँचवें दिन ही संस्पेंड करने वाले बॉस ने ही बुला कर प्रमोशन लेटर भी थमा दिया। 

इस आर्श्चयजनक घटना पर ख़ुशी व्यक्त करने वालों में लतख़ोरी लाल सबसे आगे था। उसके दोगलेपन पर मैं भीतर-भीतर कुढ़ा जा रहा था। मगर साथ ही मन में नीला के भाई को धन्यवाद भी देता जा रहा था। पछताता हूँ, आज इस बात पर कि, तब मैंने अपनी झूठी शान, अकड़ दंभ के चलते उसको एक फ़ोन तक नहीं किया था। 

इस घटना के अगले ही दिन यह रियुमर दिन भर उड़ी कि, संजना की नौकरी जा रही है। एक बात और कि, लतख़ोरी लाल तक ने मुझे बधाई दी लेकिन संजना भूलकर भी न आई। 

अचानक एक दिन उसे मैंने लतख़ोरी के साथ बॉस के घर के सामने देखा। मैं वहाँ रुका रहा, फिर आधे घंटे बाद लतख़ोरी को वहाँ से जाते देखा। संजना उसके साथ नहीं थी। मेरा माथा ठनका मैं रुका रहा। देर तक जब वह न आई तो भीतर ही भीतर जलता-भुनता घर चला आया। इधर नीला पहले से कहीं ज़्यादा मुझ पर ध्यान दे रही थी, और बच्चे तो मानो दसियों साल बाद मिले हों मुझ से। अब मैं भी पहले सा नीलामय होता जा रहा था। यह नीला इफ़ेक्ट था। 

बॉस के घर जिस दिन संजना मुझे दिखी थी, उसके हफ़्ते भर बाद एक दिन गेट पर उससे आमना-सामना हो गया। मुझे आश्चर्य में डालते हुए वह एकदम हहा के मिली। मुझे बोलने का मौक़ा दिए बिना न जाने क्या-क्या बोल गई। आख़िर में बेलौस मेरा हाथ अपने हाथ में लेती हुई बोली, “मैं जानती हूँ कि तुम बहुत ग़ुस्सा हो। लेकिन मैं बहुत मुसीबत में हूँ। तुमसे मैं किसी दिन फ़ुरसत में सारी बातें करूँगी।”

इसके बाद सैटर-डे को शाम को कहीं बैठ कर बात करना तय हो गया। मैं उसके समक्ष जैसे चेतना शून्य हो गया था। रिमोट चालित खिलौना सा। जिसका रिमोट उसके हाथ में था। यह मैं लाख न चाहते हुए भी तमाम कोशिशों के बावजूद कर बैठा था। 

पुनः नीलामय होने के बावजूद। बदलकर फिर संजनामय हो गया। पहले की तरह सारे सम्बन्ध बहाल हो गए। और फिर यंत्रवत सा उस रक्षा-बंधन के दिन तय समय पर हम मिले, वह अपने भाई को राखी बाँध कर आई थी। और मैं अपनी बहन से राखी बँधवा कर आया था। 

उसके ही बताए शहर के अलग-थलग से एरिया में स्थित एक रेस्त्रां में, घंटे भर की बातचीत में उसने दुनिया-भर की पंचायत बता डाली। दसियों बार माफ़ी माँगी। कहा, “धोखे से लोगों ने ग़लत-फ़हमी पैदा की। मैंने झूठ पकड़ लिया है, मतलब समझ गई हूँ। मैं फिर पहले जैसे सम्बन्ध रखूँगी।”

इस बार फ़र्क़ सिर्फ़ इतना रहा कि, नीला से मैं विमुख न होने पाऊँ इसका पूरा ध्यान रखा। पूरी कोशिशों के बावजूद इसमें मैं पूर्णतः सफल नहीं था। असफल मैं लतख़ोरी और बॉस की साज़िश के सामने भी हुआ। नीला का भाई भी चारों खाने चित हो गया। सच केवल ननकई निकली। उसकी सारी बातें अक्षरशः सच साबित हुईं। संजना एंड कंपनी ने जो डसा तो मैं वाक़ई आज-तक पानी न माँग सका। 

उसके साथ अंतरंग क्षण बिताने उसकी ही बताई जगह लखनऊ के प्रसिद्ध पिकनिक स्पॉट कुकरैल के पास पहुँच गया। वह मकान वन विभाग की ज़मीन पर बने अवैध निर्माणों में था। जिसके लिए संजना ने बताया कि यह उसके एक रिश्तेदार का है, जिसे उसने किराए पर लिया है। अगले बृहस्पति को यहाँ शिफ़्ट करेगी। 

दो घंटे वहाँ बिताने के बाद हम-दोनों वहाँ से निकले। क़रीब पचास क़दम चलने पर ही संजना ने रोक दिया। उसने धीरे से कहा, “आगे देखो लतख़ोरी खड़ा है।” मैंने देखा लतख़ोरी दो और लोगों के साथ खड़ा है। मैंने कहा, “क्या फ़र्क़ पड़ता है, चलते हैं।” मगर वह नहीं मानी और मैं कुछ कहूँ उसके पहले ही बाइक से उतरकर चली गई वापस। जाते-जाते फुसफुसाकर बोली, “कल मिलूँगी।”

मैं ख़ुशी के मारे अंदर-अंदर फूलता पिचकता घर आ गया। थोड़ा वक़्त बच्चों के साथ बिताया। खाया-पिया बेडरूम में आ गया। नीला ने बताया जब मैं अपने बहनोई के यहाँ गया था, तब उसका भाई अपनी पत्नी संग आया था। मैंने छूटते ही कहा, “अहसान जताने आया होगा।”

वह बिदकते हुई बोली, “हमेशा उल्टा ही क्यों बोलते हो। उन दोनों ने इस बारे में बात तक नहीं की।”

इसके बाद हम इधर-उधर की बातें करते हुए सोने की तैयारी में थे। नींद आने लगी थी। बारह बजने ही वाले थे कि कॉल-बेल बज उठी। हम-दोनों चौंके इतनी रात में कौन आ गया। नीला बिना बताए आने वाले मेहमान की बात सोचकर भनभना उठी कि इतनी रात को खाना-पीना करना पडे़गा। अब दो बजे के पहले सोना मुश्किल है। 

मैंने कपड़े पहने और हाथ में मोबाइल लेकर बाहर निकला। बाहर पुलिस जीप और गेट पर तीन-चार पुलिस वाले देखकर मैं एकदम सकपका गया। अंदर ही अंदर तेज़ी से कैल्लेकुशन चलने लगी। गेट पर पहुँचकर मैं कुछ पूछता कि उसके पहले ही इंस्पेक्टर ने पूछा, “आप ही नीरज हैं?” 

मेरे हाँ कहते ही वह कड़क स्वर में बोला, “आपके ख़िलाफ़ रेप करने की एफ़.आई.आर. है। थाने चलिए।”

मुझे यह सुनते ही ऐसा शॉक लगा कि, पल में पसीने से तरबतर हो गया। गला एकदम सूख गया आवाज़ नहीं निकल रही थी। इस पर इंस्पेक्टर ने गेट का ताला तुरंत खोलने को कहा। मैं घिघियाया हुआ कुछ कहना चाह रहा था। लेकिन वह कड़क कर बोला, “ताला खोलो।”

मुझे अंदर भाग कर नीला को बताने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी, वह पहले ही सब सुनकर भाई को फ़ोन लगा चुकी थी। भाई ने इंस्पेक्टर से बात कराने को कहा तो, उसने बहुत घुड़कियाँ देते हुए मुश्किल से बात की, “थाने तो लेकर जाना ही पड़ेगा। रेप का मामला है, उसे मारने की भी कोशिश की गई है, चोट के निशान हैं उसकी बॉडी पर . . . सॉरी यह नहीं हो सकता मैं इन्हें ले जा रहा हूँ।”

नीला रोने लगी। वह हक्का-बक्का कभी मुझे, तो कभी पुलिस को देखती, शोर सुनकर बच्चे भी जागकर बाहर आए और घबरा गए। साले के फ़ोन का फ़र्क़ यह हुआ कि मुझे कपड़े चेंज करने का वक़्त दे दिया गया। लेकिन जीप में मुझे खींच-तान कर धकेलते हुए ऐसे ठूँसा की मानों मैं कोई हत्यारा हूँ। 

मेरे मन में इस समय साले को भी लेकर उधेड़बुन चल रही थी। जिसे मैं अब-तक टप्पेबाज़, छुट्टाभैया नेता समझता था, उसके प्रति अब नज़रिया बदल गया था। पहले नौकरी को लेकर उसने जो किया, फिर अब उसके फ़ोन से पुलिस टीम जिस तरह से नरम पड़ी, उससे मेरे मन में उसके लिए सम्मान पैदा हो गया। 

उससे भावनात्मक लगाव तब एकदम सातवें आसमान पर पहुँच गया, जब मैंने देखा वह अपने दर्जन-भर साथियों के साथ थाने पर मुझसे पहले ही पहुँच कर बैठा हुआ है। एक तरफ़ कोने में संजना बैठी थी। उसके कपड़े अजीब से मुड़े-तुड़े, खीचें-ताने हुए, अस्त-व्यस्त से लग रहे थे। चेहरे पर एक जगह स्याह धब्बा भी दिख रहा था। साले के कारण मुझे भी कुर्सी पर बैठने दिया गया। 

इंस्पेक्टर के सामने संजना सुबुकते हुए बोली, “सर यही है जिन्होंने मेरे साथ रेप किया।”

उसके इस आरोप को सुनकर मैं अवाक्‌ रह गया। मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। कोई बोल न निकल सके। उसने आरोप लगाया कि, मैं उसे धोखे से ले गया और नशीली कोल्ड-ड्रिंक पिलाकर रेप किया। मैंने हक्का-बक्का उसके आरोप को इंकार करते हुए, सिलसिलेवार उसके साथ सारे सम्बन्धों के बारे में खुलकर बताया और यह भी कहा कि, आज यह मुझे इंकार करने के बाद भी ज़बरदस्ती लेकर वहाँ गई थी। तो इंस्पेक्टर ने कहा, “यह तो इन सब से इंकार कर रही हैं।”

इसी बीच यह देखकर मैं हैरान रह गया कि, लतख़ोरी लाल दो मोटर-साइकिल पर चार लोगों के साथ आ धमका। आँखें मेरी खुली की खुली रह गईं। जब बॉस को कार से उतरते देखा तो, मैंने सोचा शायद यह मामले को रफ़ा-दफ़ा कराने के लिए आए होंगे जिससे ऑफ़िस की बदनामी न हो। लेकिन उन्होंने भी उसकी एकतरफ़ा तारीफ़ करते हुए यहाँ तक कह डाला कि, मैं संजना को महीनों से परेशान कर रहा हूँ, उसके पीछे पड़ा हुआ था और मौक़ा देखते ही मैंने रेप किया। 

उनके इस झूठ पर मैं चीख पड़ा तो इंस्पेक्टर ने मुझे डपट दिया। मैंने साले की तरफ़ देखा तो उसने बातें शुरू कीं, लेकिन तभी इंस्पेक्टर के लिए कोई फ़ोन आ गया। दो मिनट तक उसने बातें कीं, लेकिन इतनी देर में उसने सिर्फ़ चौदह-पंद्रह बार यस सर, यस सर ही कहा। रिसीवर रखते ही मुझे हवालात में डलवा दिया। साले ने विरोध किया तो उसकी भी एक न सुनी। साफ़ कहा, “देखिए मैं मजबूर हूँ। क़ानून जो कहेगा वही होगा। ये अपराधी हैं या नहीं ये अदालत तय करेगी।” साले ने कई फ़ोन लगाए लेकिन बात नहीं बनी। 

बात एकदम साफ़ थी कि लतख़ोरी और बॉस ने ज़बरदस्त साज़िश रची थी। इतना बड़ा जैक लगाया कि, उसके सामने मेरे साले का वह जैक बौना साबित हुआ था जिसके ज़रिए उसने मेरा सस्पेंशन ख़त्म करा दिया था, प्रमोशन तक करा दिया था। बॉस को मेरे क़दमों में खड़़ा कर दिया था। 

मैं हवालात में पड़ा, सोचने लगा कि क्या अब मेरे साले से कंपनी को कोई काम नहीं पड़ेगा। या कंपनी ने उसका कोई विकल्प ढूँढ़ लिया है। 

मेरा ये अनुमान बाद के दिनों में सच निकला था। कंपनी के मालिकान ने साले की सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती जा रही कमीशन-ख़ोरी से आज़िज आकर उससे बड़ा जैक ढूँढ़ लिया था। संयोग से उन्हें यह जैक सस्पेंशन की घटना के बाद जल्दी ही मिल गया था, जिसका उन्होंने तुरंत उपयोग कर डाला। 

एक तीर से दो निशाने साधे, एक तो साले से मुक्ति पाई, दूसरे मुझे ठिकाने लगा दिया। इसमें मशीन बने बॉस, लतख़ोरी लाल एवं उनकी टीम। मालिकान एवं इस टीम, दोनों ने एक दूसरे को यूज़ किया। बल्कि इन सबमें सबसे स्मार्ट निकली संजना। जिसकी नौकरी जा रही थी उसने इन सब को यूज़ किया। न सिर्फ़ नौकरी बचाई, मुझे सदैव के लिए ठिकाने लगा दिया। बॉस और लतख़ोरी जैसे लोगों को भी हमेशा के लिए अपनी मुट्ठी में कर लिया। 

हवालात में मैं बच्चों, नीला के चेहरे, मालिकान और बाक़ियों की गणित, साले के हश्र आदि के बारे में सोच-सोचकर हतप्रभ हो रहा था। दिमाग़ की नसें फटने लगीं थीं। मुझे क़ानून की जितनी जानकारी थी, उससे भी मुझे साफ़ पता था कि, मुझे अब अदालत में सज़ा पाने से कोई ताक़त नहीं बचा सकती। 

क्योंकि एफ़.आई.आर. से पहले मैंने ही उससे सम्बन्ध बनाए थे। साज़िशन यह सब किया गया था। इसलिए ग़लती की कोई गुंजाइश नहीं दिख रही थी। निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। बस एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि, संजना के शरीर पर चोटें कहाँ से आई थीं। 

ख़ैर मुक़दमा चला। दोनों पक्षों के वकीलों की जमकर बहस हुई। मेरे साले ने ऐसे मामलों के नामी-गिरामी वकील को किया था। जिनका इस बात के लिए नाम था कि, वह मुक़दमा हारते नहीं लेकिन मेरे मामले में वह भी असफल हुए। 

उन्होंने कोर्ट में संजना से एक से बढ़ कर एक हिला देने वाले प्रश्न किए, मगर संजना मँझी हुई खिलाड़ी निकली। उसके वकील ने उसे और पॉलिश कर दिया था। वकील ने डिगाने उसे तोड़ने के लिए जितने ही ज़्यादा खुलकर प्रश्न किए, उसने उतने ही ज़्यादा बेख़ौफ़ जवाब दिए। 

उसकी हिम्मत, उसकी बातें सुनकर जज, वकील, कोर्ट में उपस्थित सारे लोग दंग रह जाते थे। केस लोअर कोर्ट में हारने के बाद हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट तक गया लेकिन हर जगह हार मिली। पेपर वालों ने केस को ख़ूब स्पाइसी न्यूज़ की तरह यूज़ किया। 

मेरे वकील की सारी कोशिशों का अंजाम यह हुआ कि, केस कुछ लंबा खिंचा। छह साल में सुप्रीम कोर्ट से भी फ़ैसला आ गया। मैं मुक़दमा हार गया। रेप करने और हत्या के प्रयास में दस साल की सज़ा हुई। मेरा जीवन मेरा घर सब बर्बाद हो गया। आर्थिक, सामाजिक, मानसिक तौर से कहीं का नहीं रहा। बेटी की शादी के लिए जो पैसे जोडे़ थे वह भी ख़त्म हो गए थे। मैं भी पूरी तरह टूट कर बिखर गया था। 

कुछ बचा था तो नीला की दृढ़ता। उससे सम्बन्ध सुधरने के बावजूद फिर सम्बन्ध बनाए संजना से, इतनी बड़ी बदनामी हुई, सब कुछ तहस-नहस हो गया। और नीला ने अपने भाई के सहयोग से यह शहर भी छोड़ दिया। मायके भी नहीं गई। तीर्थ राज प्रयाग चली गई। कई लोगों की सलाह के बावजूद उसने टीचिंग जॉब या अन्य कोई नौकरी नहीं की। 

बल्कि भाई के साथ बिज़नेस किया। सारा पैसा साले ने लगाया था। असल में उसने भी कमाई का अपना एक और केंद्र बनाया था। पूरा डिपार्टमेंटल स्टोर चलाने की ज़िम्मेदारी नीला की थी। क्योंकि पैसा सारा साले का था तो, दुकान से होने वाले प्रॉफ़िट पर पचहत्तर प्रतिशत हिस्सा उसका निश्चित हुआ। 

कोई अपनी मेहनत से सारी दुनिया न सही, अपनी दुनिया कैसे बदल देता है यह नीला ने कर दिखाया था। दो साल बीतते-बीतते उसने लखनऊ का मकान बेच दिया। मेरे लाख मना करने पर भी जेल में उसने मुझ पर ख़ूब दबाव डालकर मुझे राज़ी कर लिया। जितना पैसा मिला उतने ही पैसे में प्रयाग में ही थोड़ा सा छोटा मकान ले लिया। 

किराए का मकान छोड़कर अपने मकान में रहने से पहले उसने सारा सामान काम-भर का नया लिया। किचन, ड्रॉइंगरूम, डाइनिंगरूम आदि के लिए, टीवी, म्यूज़िक सिस्टम आदि सब। पहले वाला उसने सारा सामान लखनऊ में ही बेच डाला। उसमें बहुत सा ऐसा सामान था जो मैंने बड़े प्यार से ख़रीदा था। 

इसे पागलपन या नफ़रत की पराकाष्ठा भी कह सकते हैं कि उसने मेरे, अपने, बच्चों के कपड़े, रुमाल तक या तो किसी को दे दिए या बेच दिए। इसमें हमारी शादी का जोड़ा भी था। उसकी तमाम बेशक़ीमती साड़ियाँ, सब कुछ शामिल था। गहने भी सब बेच दिए थे। 

यह सब करने के बाद जब वह मुझसे मिलने आयी, तब सारा वाक़या बताया तो मैंने अपना माथा पीट लिया। भर्राये गले से उससे पूछा, “ये तुम मुझे सज़ा दे रही हो, या कर क्या रही हो?” उसने बेहद रूखे स्वर में जो जवाब दिया, उसके आगे जो बात जोड़ी उससे मैं दहल गया। उसके अंदर दहकते ज्वालामुखी से मैं भीतर तक झुलस गया। उसने साफ़ कहा, “न्यूटन का थर्ड लॉ तो पढ़ा ही है न, कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। यह सब जो हो रहा है, यह मैं या कोई और नहीं कर रहा है। यह तुमने जो काम किए हैं, वो अच्छे थे या ख़राब वो तुम जानो, ये सब उन्हीं कर्मों के प्रतिक्रिया के परिणाम हैं।”

“मैं कितनी बार कह चुका हूँ कि, मैंने रेप नहीं किया है।”

“रेप नहीं किया लेकिन उससे नाजायज़ सम्बन्ध तो बनाए ना। ग़लत काम का परिणाम, कैसे ग़लत नहीं होगा?” 

नीला के सामने अब मैं पहले की तरह, उससे नज़र मिला कर बात नहीं करता था। चुप हो गया उसके तर्कों के सामने। उसने कहा कि, “तमाम कोशिशों के बावजूद तुमने उस कमीनी औरत से सम्बन्ध बनाए। मुझ से झगड़ा करते हुए मुझे क्या-क्या गालियाँ नहीं देते थे। मोटी, थुल-थुल, बदसूरत, पत्नी कहलाने लायक़ नहीं। 

“कभी तुम्हारे दिमाग़ में ये नहीं आता था कि, यदि पलटकर मैं यही कहती। तुम्हारी तरह मैं भी पराए पुरुषों से सम्बन्ध बनाती। मैं भी कहती कि, यदि मैं दो बच्चों को पैदाकर थुल-थुल हो गई हूँ, मेरे अंग लुज-लुजे हो गए हैं, लटक गए हैं, तो तुम कौन सा पचीस साल के जोशीले जवान हो, तुम भी तो तोंदियल हो गए हो। सिर पर चाँद नज़र आने लगा है, प्रौढ़ता तुम पर भी उतनी ही हावी है, जितनी मुझ पर तो, तुम्हारे पर क्या बीतती?” 

मैं उसकी बातों के सामने सिर्फ़ सिर झुका सका। उसने आगे कहा, “बोलो कोई जवाब है तुम्हारे पास। मैं आज की प्रगतिशील, अपने अधिकारों के लिए लड़ जाने वाली बीवी होती तो अब-तक न जाने कब का तुमसे तलाक़ ले चुकी होती। तब बच्चों का क्या होता?” 

इस पर मैंने कहा कि, “तुम यहाँ मुझे ज़लील करने आती हो या मिलने?” 

“आती तो हूँ मिलने। जहाँ तक ज़लील होने की बात है तो, ज़रा ध्यान से सोचो कौन ज़लील होता है? वो पत्नी जो अपने उस पति से मिलने आती है जो रेप के केस में सज़ा काट रहा है। यहाँ का स्टाफ़ और बाक़ी लोग किस तरह घूर-घूरकर मुझे भेद भरी निगाहों से देखते हैं, कभी इस तरफ़ देखा? मैं अपने पर लगी गिद्ध सी नज़रों से कैसे ख़ुद को बचाती हूँ सोचा है कभी?” 

नीला सही तो कह रही थी कि वास्तव में ज़लील तो वही हो रही थी। मैं इतना आहत हुआ कि, आगे उसकी सारी बातों पर एक चुप हज़ार चुप रहने के सिवा कुछ न कर सका। मैं उस दिन से उसकी उपस्थिति से ख़ुद को कुछ ज़्यादा ही आतंकित महसूस करने लगा था। 

जेल में बंद हुए छह साल भी न हुए थे कि, एक दिन आकर उसने फिर धमाका कर दिया कि, लड़की की शादी तय कर दी है। तारीख़ बताई तो मैंने कहा, “इतनी सर्दी में कैसे सँभालोगी अकेले।”

लड़के के बारे में बताया कि, “वह भी बिज़नेसमैन है। बड़ा परिवार है।”

मैंने कहा कि, “अभी वो मुश्किल से उन्नीस की है, आख़िर इतनी जल्दी क्यों किए हुए हो? 

यह सुनते ही उसने घृणापूर्वक देखते हुए कहा, “जिससे हमारे कामों का असर कहीं बच्चों पर न पड़े, वो भी कहीं हमारी राह न पकड़़ लें।”

मैं निरुत्तर था। तभी वह बेटे के लिए बोली कि, “मैंने उससे भी कह दिया है कि, नौकरी तुझे बिल्कुल नहीं करनी है। काम-भर की पढ़ाई कर ले और बिज़नेस सँभाल। किसी का पिछलग्गू बनने की ज़रूरत नहीं। और शादी के लिए भी बोल दिया कि, कोई पसंद कर रखी हो तो बता दे, वहीं कर दूँगी। मेरी बात मान सकता है तो ठीक है, नहीं तो अपनी दुनिया अपने हिसाब से चला और मेरा पीछा छोड़ दे।”

उसकी इस बात पर भी मन में तमाम प्रश्नों का बवंडर उठा, लेकिन कुछ कहने की मैं हिम्मत न जुटा सका। देखते-देखते उसने दोनों की शादी कर दी। 

मैं बड़ी तैयारी में था वकील से मिलकर कि, वो क़ानूनी रूप कुछ भी करे लेकिन शादी में कुछ घंटे ही शामिल होने के लिए मुझे निकाल ले। 

वकील अपने काम में सफल रहा, लेकिन मैं और वकील दोनों ही नीला के सामने विफल रहे। 

उसने मुझे शादी में शामिल होने से सख़्त मना कर दिया। उसके इस डिसीज़न से मेरा रोयाँ-रोयाँ काँप उठा था। मैं फूट-फूटकर रो पड़ा। मैंने कहा कि, “कोर्ट से ज़्यादा भयानक सज़ा तो तुम दे रही हो।”

तो उसने कुछ क्षण तक मेरी आँखों में ध्यान से ऐसे देखा जैसे कुछ पढ़ रही हो, फिर बोली, “निश्चित ही तुम भी मेरी ही तरह बच्चों की भलाई ही चाहते हो। और यदि तुम शादी में वहाँ आए तो, सब लोग तरह-तरह की पंचायत करेंगे। पूरी शादी ख़राब हो जाएगी। तुम नहीं रहोगे बातें तो तब भी होंगी। लेकिन इतनी नहीं कि पूरा माहौल ही बिगड़ जाए।”

वकील ने कहा कोर्ट से आदेश ले लेते हैं, तब कोई रोक नहीं पाएगा। पत्नी के ही ख़िलाफ़ कोर्ट जाना, वह भी नीला जैसी पत्नी के ख़िलाफ़ मुझे दुनिया के सबसे बड़े अपराधों सा लगा तो, मैंने वकील से ऐसा कुछ नहीं करने को कहा। 

इस दौरान मैं अंदर ही अंदर बेहद टूट गया, पहले कोर्ट की सज़ा फिर नीला द्वारा की जाने वाली बातें, उसके काम, मुझे हर पल एक नई सज़ा देने जैसा काम कर रहे थे। हाँ बीच-बीच में नीला अपनी बातों से मुझे एक तरह से रिचार्ज भी कर देती थी। लेकिन उसके इस रंग-ढंग से मैं अंततः जेल में बुरी तरह बीमार पड़ गया। जेल में जब हालत नहीं सुधरी तो मुझे बलरामपुर हॉस्पिटल में भर्ती कर दिया गया। नीला ने बड़ी देखभाल की। 

कुछ दिन बाद वापस फिर जेल। फिर एक हफ़्ते तक नीला नहीं आई, उसके बाद जब आई तो उसे ग़ौर से देखता रह गया। मुझे इन कुछ वर्षों में ही उसके चेहरे पर उभर आई तमाम झुर्रियाँ उस दिन दिखाई दीं। अधिकांश बाल अचानक ही सफ़ेद हो गए थे। न जाने क्यों हमेशा टिप-टॉप रहने वाली नीला ने डाई नहीं किया था। माँग में सिंदूर भी कई दिन पहले का लग रहा था। बिंदी भी अपनी जगह पर नहीं थी। स्वयं की तरफ़ मुझे विस्मय से देखते पाकर उसने कहा, “बहुत अटपटी सी दिख रही हूँ न। सोच रहे होगे हमेशा सलीक़े से रहने वाली मैं इतनी अस्त-व्यस्त क्यों हूँ? क्यों यही बात है न? 

“हाँ, ऐसा क्यों कर रही हो?” 

“सलीक़े से रहने, शृंगार करने का कोई कारण अब नहीं रह गया। पहले या मुकदमे के समय भी कई कारण से सलीक़े में रहती थी। एक जिससे तुम्हारे मन का भार यह सब देखकर और ज़्यादा न हो। नंबर दो, दुनिया वाले यह न समझें कि, मैं एकदम नि:सहाय हूँ, और उठाइगिरे लार टपकाते मदद को खड़े नज़र आएँ। बच्चे भी और ज़्यादा परेशान न हों। लेकिन अब ऐसा कुछ बचा नहीं। 

“और अब किसी सलीक़े या शृंगार आदि से नफ़रत और बढ़ गई है। आख़िर यह करूँ तो किसके लिए, यह सारी बातें तो परिवार से सीधे जुड़ी होती हैं। और परिवार जैसा तो अब कुछ रहा ही नहीं। लड़की अपने ससुराल में ख़ुश है। और ख़ुशी की बात ये है कि, बेटा अपने कॅरियर को लेकर बहुत सिंसियर है, लेकिन मेरी तरफ़ देखना भी उसे पंसद नहीं। कई बार पूछ चुकी हूँ लेकिन वो हाँ, हूँ में भी बात करना पसंद नहीं करता।”

“क्यों ऐसा क्या हो गया?” 

“पता नहीं, उसका बिहेवियर कुछ इस ढंग का हो गया है कि, तुम्हारा या मेरा नाम आते ही जैसे उसका मुँह कसैला हो जाता है। घर में क़रीब डेढ़ दो सालों से मैंने उसके चेहरे पर हँसी छोड़िए, मुस्कुराहट भी नहीं देखी। उसकी बीवी का भी यही हाल है। बहन से भी कोई ज़्यादा संपर्क नहीं रखता।”

“पहले तो ऐसा नहीं था। इतना ज़्यादा चंचल था। तुम जैसे यहाँ मेरे साथ दुश्मनों-सा ट्रीट करती हो वैसा ही उसके साथ करती होगी। तुम्हीं ज़िम्मेदार हो इसके लिए।”

“आख़िर फिर अपनी खोल में पहुँच ही गए। आज आख़िरी बार एक बात बहुत साफ़ बता दे रही हूँ कि, अब कुछ ही साल रह गए हैं यहाँ से छूटने में। छूटने के बाद यदि दुबारा भूल कर भी किसी औरत की तरफ़ देखा या ऐसी कोई हरकत की तो, मैं जो करूँगी, जो मैंने निश्चित कर लिया है, उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते।”

“जब तय कर लिया है तो बता भी दो कि क्या करोगी?” 

मेरे यह कहने पर वह कुछ क्षण मुझे घूरती रही। फिर बोली, “तुम को और ख़ुद को गोली मार दूँगी। जिससे मेरे बच्चों का जीवन तुम्हारे कुकर्मों के कारण और नर्क न बने। मेरा तो बना ही दिया।”

उसकी यह बात मैं बर्दाश्त नहीं कर सका और क्रोधित होते हुए बोला, “हद से कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई हो।”

मेरे यह कहते ही वह फिर कुछ क्षण मुझे घूरने के बाद बोली, “हद से ज़्यादा नहीं बढ़ गई हूँ। मेरी और तुम्हारी हद क्या है, वो बता रही हूँ। इसलिए बता रही हूँ जिससे तुम दुबारा अपनी हद न पार करो।”

इसके बाद नीला ने कई और कठोर, दिल दहला देने वाली बातें कहीं और चली गई। मैं हक्का-बक्का मुँह बाए पड़ा रहा अपनी कोठरी में। बातों की चाबुक इतनी ज़बरदस्त थी कि, अगले कई दिनों तक मैं सो न सका। रह-रहकर मेरा ग़ुस्सा क़ानून पर टूट पड़ता कि, यह इस तरह अपाहिज है कि, शातिर लोग साज़िश रचकर इसे अपना हथियार बना, अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं। 

यह अंधा ही नहीं साक्ष्यों का मोहताज भी है। इस उधेड़बुन ने मुझे एक काम सौंप दिया। कि अभी जो तीन साल जेल में और रहने हैं। उस समय का उपयोग करूँ। एक ऐसी किताब लिखूँ दुनिया के लिए, जिसमें मेरा और मुझे फँसाने वालों का पूरा कच्चा चिट्ठा हो। क़ानून कैसे साज़िशकर्ताओं के हाथों यूज़ हो जाता है, यह भी तो लोग जानें, और क़ानून में आवश्यक संशोधन हो इसका भी प्रयास हो। 

यह निर्णय करते ही मैंने दो दिन बाद ही पेन और राइटिंगपैड मँगा कर लिखना शुरू कर दिया। इस प्रयास के साथ कि, रिहा होने से पूर्व किताब छपकर आ जाए। एक बार फिर मैंने छपाई के लिए छुटभैय्ये साले की मदद लेने की भी सोच ली। 

मैं एक निवेदन अपने सारे देशवासियों से भी करता हूँ कि, यह किताब आए तो एक बार अवश्य पढ़ें। जिससे मेरी तरह साज़िश का शिकार न बनें। मुझे जीवन-भर इस बात का भी इंतज़ार रहेगा कि, लतख़ोरी, संजना और बॉस की गिरेबान तक क़ानून के लंबे हाथ कब पहुँचेंगे, जिससे क़ानून पर मेरी खंडित आस्था फिर बन सके। 

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टिप्पणियाँ

shaily 2022/04/07 08:59 PM

बहुत सही लिखा है, सभी को उनकी हदें बतानी ही चाहिये.

Sarojini Pandey 2022/04/07 05:49 PM

यह कहानी है या उपन्यास?

कृपया टिप्पणी दें

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